April 10, 2021

सागर की सतह / SEQUEL

कविता / जलपरियाँ

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(पिछले पोस्ट "पैरोडी" का अगला भाग) 

मन तो सतह है! 

सतह में प्रतिबिम्बित आकाश,

असंख्य तरंगों में तरंगित, 

हर तरंग संपूर्ण सागर है, 

हर तरंग संपूर्ण आकाश, 

और हर तरंग है धरती पूरी,

फिर भी है कितनी अधूरी!

हर तरंग की सागर से, 

धरती और आकाश से,

है कितनी दूरी! 

तरंग तो सतह का, 

एक बहुत छोटा हिस्सा! 

लगातार उठता गिरता, 

बनता, मिटता, सतत नृत्य, 

मन तो सतह है, 

मन तो सागर है, 

मन तो है, धरती-आकाश!

हर तरंग कितनी व्याकुल है,

कितनी आशंकित, आतंकित,

मन तो तरंग है, 

हर क्षण बनता मिटता,

मन तो सतह है, 

और तरंग है,

उस सतह पर खेलती,

जलपरियाँ!

कहाँ से आती हैं, 

कहाँ उड़कर चली जाती हैं, 

हो जाती हैं दृष्टि से ओझल, 

कोई नहीं जानता! 

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