कविता / 20042021
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संजाल का यह जाल,
जैसे सर्प का है व्याल,
घेरता देह को क्रमशः,
पर है तभी मालूम होता,
जब छीन लेता नेह को,
दृष्टि पर चढ़ता हुआ जब,
दृश्य को करता विलुप्त,
सर्प तब रहता जागता,
संसार से ओझल, सुषुप्त,
त्याग देता केंचुली को,
लिपटे हुए उस व्याल को,
भूल जाता जाल को,
संजाल को, जंजाल को,
एक फिर केंचुल नयी,
हर समय बढ़ती हुई,
है घेरती रहती उसे,
और फिर वह एक दिन,
अन्ततः है यह देखता,
देखना, मुमकिन नहीं अब,
उस व्याल को वह छोड़ता,
श्लोक याद आता है उसे तब,
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि
अन्यानि संयाती नवानि देही।।
नहीं जान पाता पर वह,
यह देह ही तो व्याल है,
संसार ही तो संजाल है,
मोह ही तो जंजाल है,
इसका कहाँ कब अन्त है,
यह मोह ही विषदन्त है!
अपने ही लिए नहीं,
दूसरों के भी लिए,
त्याग देता है उसे वह,
त्याग देता देह भी,
और होकर वह अकिंचन,
जान लेता नेह भी!
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