सुख आते जाते रहते हैं,
दुःख आते जाते रहते हैं,
जीवन के सारे अद्भुत पल,
यूँ आते जाते रहते हैं!
यह जीवन है जिसका,
वह भी आता जाता है?
या वह अपने जीवन का,
केवल साक्षी भर होता है?
क्या साक्षी आता जाता है,
या वह बनता मिटता है?
क्या उस साक्षी का कोई,
साक्षी फिर कोई होता है?
क्या यह भूलभुलैया कोई,
कभी समझ भी पाता है?
अगर समझ भी जाए तो,
किससे कब कह पाता है?
क्या यह हो सकता है कोई,
जाने भी, कह पाए भी,
और इसे सुननेवाला भी,
इसे समझ भी पाए भी!
है रहस्य यह अद्भुत् लेकिन,
कोई ही इसे समझ पाता,
जीवन के हर सुख-दुःख से,
अस्पर्शित वह रह जाता।
जन्म-मृत्यु का वह साक्षी,
उसका क्या आरंभ-अन्त,
आरंभ आदि, काल की क्रीडा़,
काल तो साक्षी की उमंग!
पर वह साक्षी कण कण में,
पल पल स्पन्दित होता है,
नित्य असंख्य रंग-रूपों में,
जग आनन्दित होता है!
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