कविता / 04-03-2021
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एक सूना आसमान है जो हर तरफ़ फैला हुआ,
एक निर्जन भूमि, जो क्षितिज तक है अन्तहीन,
और मैं चलता रहा बिलकुल अकेला आज तक,
हाँ, अकेला ही तो आया था, यहाँ सब की तरह,
सब की तरह ही अजनबी तो रहा मैं आज तक,
पर हुआ था, मैं भी उसी, गलतफहमी का शिकार,
जिसका होता है यहाँ हर शख्स ही तो बार बार,
और लगता है उसे यह जगह है कितनी गुलजार,
कितने सारे रिश्ते-नाते, कितने सारे इश्क़ प्यार!
एक दिन लेकिन अचानक होता है जाहिर ये राज,
यह जहाँ इक ख्वाब है, परछाइयों का जैसे सैलाब,
जिसको छू दोगे, यहाँ वह, शख्स खो जाता है यूँ,
चाँद तारे हुआ करते हैं सुबह होते ही ज्यूँ,
और फिर होता है अपने पास, सूना आसमान,
और पैरों के तले भूमि निर्जन क्षितिज तक!
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