वे इमर्जेंसी वाले या उसके आसपास के दिन थे।
टाइम्स आॅफ इंडिया ग्रुप द्वारा प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक
"धर्मयुग" में शिवप्रसाद सिंह लिखित उपन्यास
"गली आगे मुड़ती है।"
धारावाहिक छप रहा था।
तब मैं कॉलेज में तीसरे-चौथे वर्ष में पढ़ रहा था।
जैसा कि प्रायः सभी साहित्यिक कृतियों या न्यूज़ आइटम्स के साथ होता है, फ़िल्मों या ओटीटी वीडियो के साथ होता है, यह उपन्यास मेरे लिए उतना रोचक नहीं सिद्ध हुआ, जितना कि पहले इसके शीर्षक को पढ़कर लगा था।
(मुझे यह जानकर आश्चर्य न होगा कि बहुत से पाठकों को भी मेरे पोस्ट्स देखकर ऐसा ही कुछ महसूस होता होगा!)
कुछ ऐसा ही अनुभव आज के न्यूज़ चैनल्स आदि को देखकर अकसर होता है।
रोमांच और भय भी एक हद के बाद हमें प्रभावित नहीं कर पाता। नये (अनुभव, उत्तेजनाओं) के लिए सतत उत्सुकता, आशा, निराशा भी अंततः समाप्त हो जाती है और शेष रह जाता है भविष्य, जिसे जीना तो होता है, पर जाना नहीं जा सकता।
ग़म हो कि ख़ुशी दोनों,
कुछ दूर* के साथी हैं,
फिर रस्ता ही रस्ता है,
हँसना है न रोना है!
(दुनिया जिसे कहते हैं... स्व. जगजीत सिंह द्वारा गाई ग़ज़ल)
कोरोना की बिगड़ती स्थितियों में संभवतः सरकार को पुनः इमर्जेंसी लगानी पड़ सकती है, यह सुनकर याद आया!...
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(*देर)
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