परंपरा और संप्रदाय
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वैसे तो वे किसी विशिष्ट परंपरा के समर्थक, विरोधी या अनुयायी नहीं थे, या नई किसी परंपरा के संस्थापक नहीं थे, किन्तु कभी कभी किसी पात्र को संकेत से कोई शिक्षा दे दिया करते थे ।एक बार उनका एक मित्र उनके साथ चर्चा कर रहा था।
"सभी परंपराओं में सत्य का कोई अंश तो होता ही है।"
उसने कहा।
वे दोनों एक वृक्ष के तले उसकी रक्षा के लिए बनी मोटी दीवार पर बैठे शाम की शीतल हवा में आनन्दपूर्वक बैठे हुए थे। उस वृक्ष का फैलाव आकाश की दिशा में तो बहुत था। लेकिन भूमि पर उसकी जड़ें उस दीवार तक ही सिमटी हुईं थीं।
सामने से बगीचे का तीन फीट चौड़ा रास्ता था जिस पर लाल मिट्टी बिछी हुई थी। उस रास्ते के पार भी एक वृक्ष था, जिसका फैलाव कुछ कम था। उस वृक्ष के चारों ओर उसे पशुओं से बचाने के लिए कँटीले तार की बाड़ से घेर दिया गया था।
अब बहुत वर्षों बाद उस बाड़ का तार अनेक जगहों से टूट चुका था, किन्तु उसके कँटीले हिस्से अब भी वृक्ष के तने में जगह - जगह बिंधे हुए थे ।
"उस वृक्ष को देखते हो?"
उन्होंने मित्र से पूछा।
"हाँ!"
उसने संक्षिप्त उत्तर दिया।
"मैं सोचता हूँ कि जिस समय उसे रोपा गया होगा, तब वह बहुत नाज़ुक, कोमल और छोटा रहा होगा, जिसे पशुओं से बचाने के
लिए कँटीले तार से उसे घेर दिया गया था। तब यह ज़रूरी ही
रहा होगा। लेकिन अब जब वह वृक्ष इतना बड़ा हो चुका है कि पशु उसकी पत्तियों और शाखाओं आदि तक नहीं पहुँच सकते, तो उस बाड़ को हटा दिया जाना चाहिए था। लेकिन अब उस बाड़ के कँटीले हिस्से, वृक्ष में इस तरह धँसे और फँसे हैं, कि वृक्ष
को उससे अलग कर पाना बहुत मुश्किल है। अब जब तक वह वृक्ष जीवित रहेगा, तब तक वे कँटीले हिस्से उसमें हमेशा चुभे ही रहेंगे।"
उनका मित्र संकेत ग्रहण कर चुका था।
उस मित्र के प्रश्न के उत्तर के रूप में उनका इतना ही कहना उसके लिए पर्याप्त था ।
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