कविता / 17-04-2021
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मैं नहीं सोचता कभी,
सोचता है, -मन!
और उसे ही तो है,
इस तरह का वहम!
फिर भी मेरे बिना,
कहाँ होता है, कोई मन!
जो सोचता हो, सोच सके,
या रख सके वहम!
वो जानता नहीं,
वो सोचता नहीं,
वो सिर्फ होता है या,
कभी तो होता भी नहीं!
फिर भी जैसा भी हो,
बदलता रहता है सतत,
पैदा खुद ही होता है,
खुद ही मिटता सतत!
और उसके साथ साथ,
कोई दुनिया भी उसकी,
जो उसकी ही तरह,
बनती मिटती है सतत!
मैं कोई नहीं,
वो भी कोई नहीं,
उसकी ही तरह से,
दुनिया कोई नहीं!
ये क्या है चमत्कार,
ये कैसी माया है,
न कभी मैं, न वो ही,
न कोई भी समझ पाया है!
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