कविता / 08-04-2021
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न वो मंजिलें अब रहीं न रहे वो रास्ते,
न अब वो हमसफ़र रहे, न रहे वो वास्ते,
मिट चले हैं अब निशान तक उन राहों के,
जिन पे चलने का था कभी बहुत ज़ुनून हमें।
और हाँ कोई भरम भी था कोई किसी उम्मीद का,
जिसके साए में चलते रहे हैं हम अब तक,
और वह भरम भी मिट गया है अब जब,
क्या पता है, कि चलते रहेंगे हम कब तक!
क्या पता, कैसा वो सफ़र था, मुसाफिर था कौन,
जिसको हम समझते रहे हमेशा ही अपना वजूद,
क्या पता कैसा था वो वजूद जो अपना था,
जो समझता रहा कि हम हैं उसका सपना।
मिट चुका है अब तो वो भरम, जो हावी था,
टूट चुका है वो अब तो वो सपना भी हमारा,
निगाहें जाती है दूर क्षितिज तक लेकिन,
दूर वहाँ तक जाकर के ठहर जाती हैं वहीं,
और चलता रहता हूँ लगातार, मैं फिर भी।
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