मक़सद (कविता)
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ज़रूरतें जब बहुत ही कम रह जाती हैं,
तो जिन्दगी भी ज़रूरी नहीं रह जाती,
फिर भी जीते चले जाना तो मजबूरी है,
जब तक कि खुद मौत नहीं आ जाती।
फिर भी डरा करता है क्यों हर कोई,
किसी के, या अपने खुद के मरने से,
क्या मिल जाएगा मौत से सहमकर,
क्या हो जाएगा इस तरह से डरने से!
ज़िन्दगी हो जाती है जब बेमतलब पूरी तरह,
मौत का भी मतलब नजर नहीं आता किसी तरह,
फिर कौन सी ऐसी भी उम्मीद रह जाती है बाक़ी,
जीते रहने का जो हो मक़सद जो रह जाए बाक़ी!
फिर भी शायद ही कोई पूछता है खुद से कभी,
वो कौन था जो जीता रहा है खुद में अभी,
उसकी कभी क्या, कौन सी ऐसी थी पहचान,
हाँ ये पहचान थी ज़रूर, जो थी उसका नाम,
क्या वो नाम था अपना या औरों सा कोई अनाम,
क्या जीने के लिए है, या था, ज़रूरी कोई नाम!
यहाँ आए थे हम लेकर क्या कोई नाम अपना,
न होता नाम, तो क्या न होता कोई वजूद अपना,
ये जिस्म भी तो हमें, भूल जाता है नींद में अपना,
फिर कहाँ मिटता है कभी, नींद में वजूद अपना,
और होता है जो सपने में भी हमेशा मौजूद,
याद रह जाने, या न रह जाने के भी बावजूद,
फिर भी उसकी कहाँ बनती है कभी कोई पहचान,
क्या वो जिस्म है, याद है, हम हैं, या है, अपनी जान!
जागते में, सोते में, सपने में भी वही तो रहता है,
फिर भी इंसान क्यों उससे नावाकिफ़ सा रहता है!
डरता रहता है मौत आने से ज़िन्दगी भर क्यूँ,
ये राज़ हमसे हरदम छिपा ही रहता है क्यूँ !
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