April 30, 2021

मैं अभी वहीं हूँ!

कविता 30-04-2021

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जहाँ था बचपन में,

अजनबी सा इस दुनिया में, 

जहाँ कोई नहीं जानता किसी को, 

फिर भी जान-पहचान तो बन ही जाती है न! 

और यह वहम भी, 

कि मैं इस इस, को जानता हूँ, 

और वह वह, मुझे जानता है ।

उस उस से मेरी दोस्ती है, 

और उस उस से मेरी दुश्मनी! 

बाक़ी बचे लोग बस अजनबी हैं, 

मेरी ही तरह वे भी, 

किसी को जानते हैं, 

कोई उन्हें जानता है !

मैं अब भी वही हूँ, 

मैं अब भी वहीं हूँ! 

और मुझे यह सब लिखते हुए, 

आता है ख़याल दे'जा वू सा, 

कि मैंने यह कविता,

शायद पहले भी कभी लिखी थी, 

हाँ,  बिल्कुल यही! 

***




April 29, 2021

वर्तमान

कविता
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जब अतीत बीत चुका हो, 
और भविष्य की कहीं कोई,  
सुगबुगाहट तक न हो ।
कहीं न होते हुए,
बस प्रतीक्षा और विचार,
कहीं होने का!
यह वर्तमान ठहरा ठहरा, 
हाँ, लोग परिचित हैं, 
हाँ, स्वयं अपरिचित है, 
हाँ, परिस्थितियाँ सामान्य,
हाँ सब है क्षेम-कुशल,
फिर भी, जैसा कि कहते हैं, :
"सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है!"
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April 28, 2021

क्यों?

दो कविताएँ कोरोना काल में,

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कोई अपना नहीं किसी का यहाँ,

ज़िन्दगी इतनी अकेली क्यों है!

हरेक शख्स बूझना जिसे चाहे,

ज़िन्दगी ऐसी पहेली क्यों है?

खेलते ख़ुशी ग़म, दोनों हैं साथ,

ज़िन्दगी उनकी सहेली क्यों है?

गद्य है, पद्य है, कहानी-कविता,

ज़िन्दगी अनोखी शैली क्यों है?

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जब कोई लौटता है अपनी तरफ़, 

नींद आती है तब उसे बहुत! 

भूलने लगती है तब उसे दुनिया,

याद करती है तब उसे बहुत!

वो खोया खोया हुआ रहता है,

ख्वाब आते हैं तब उसे बहुत,

वो सोया सोया हुआ रहता है,

जागती रहती है दुनिया बहुत!

दर्द के हाशिए पर होती है नींद, 

नींद के हाशिए पर होता है दर्द! 

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April 24, 2021

शायद (कविता)

©Vandana Goel 


© Vandana Goel,
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ज़िन्दगी ख्वाब है क्या? 

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मैं शायद मर जाता कल ही,

लेकिन बाक़ी थे ख्वाब अभी!

इसीलिए पर जिन्दा हूँ मैं, 

बाक़ी हैं कुछ ख्वाब अभी!

कल भी जिन्दा रह सकता हूँ,

शायद बाक़ी हों ख्वाब अगर,

शायद जिन्दा होने से ही,

होते हों दिल में ख्वाब अगर!

नहीं जानता फिर भी लेकिन,

ख्वाबों से कोई होता है,

या उसके जिन्दा होने से ही,

होते हैं उसके ख्वाब मगर!

***

पैन्टिंग्स : सौजन्य ---- वन्दना गोयल

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April 20, 2021

नेट / संजाल

कविता / 20042021

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संजाल का यह जाल,

जैसे सर्प का है व्याल,

घेरता देह को क्रमशः,

पर है तभी मालूम होता,

जब छीन लेता नेह को,

दृष्टि पर चढ़ता हुआ जब, 

दृश्य को करता विलुप्त, 

सर्प तब रहता जागता,

संसार से ओझल, सुषुप्त,

त्याग देता केंचुली को, 

लिपटे हुए उस व्याल को,

भूल जाता जाल को, 

संजाल को, जंजाल को,

एक फिर केंचुल नयी,

हर समय बढ़ती हुई, 

है घेरती रहती उसे,

और फिर वह एक दिन, 

अन्ततः है यह देखता, 

देखना, मुमकिन नहीं अब, 

उस व्याल को वह छोड़ता,

श्लोक याद आता है उसे तब, 

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,

नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि

अन्यानि संयाती नवानि देही।।

नहीं जान पाता पर वह,

यह देह ही तो व्याल है, 

संसार ही तो संजाल है, 

मोह ही तो जंजाल है,

इसका कहाँ कब अन्त है,

यह मोह ही विषदन्त है!

अपने ही लिए नहीं,

दूसरों के भी लिए,

त्याग देता है उसे वह,

त्याग देता देह भी, 

और होकर वह अकिंचन,

जान लेता नेह भी! 

***



समय / समर,

कविता / 20/04/2021

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रुका हुआ है समय कहीं,

बह रहा है समय कहीं, 

रुका हुआ है समर कहीं, 

चल रहा है समर कहीं,

इस समय में मैं कभी,

इस पक्ष में उस पक्ष में, 

कभी अपने ही विरुद्ध, 

कभी अपने ही पक्ष में, 

बहता समय के साथ भी,

रुकता समय के साथ भी,

चलता समर के साथ भी, 

रुकता समर के साथ भी,

केन्द्र पर है स्थिर समय, 

केन्द्र पर है स्थिर समर, 

परिधि पर चलता समय, 

परिधि पर चलता समर, 

क्षितिज तक जाते हुए,

अपरिभाषित समय समर...,

समय से यह समय का,

समर से यह समर का,

युद्ध सतत अनवरत,

मैं कहाँ इस युद्ध में,

नहीं हुआ तय अब तक!

***


 

April 19, 2021

गली आगे मुड़ती है।

वे इमर्जेंसी वाले या उसके आसपास के दिन थे। 

टाइम्स आॅफ इंडिया ग्रुप द्वारा प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक

"धर्मयुग" में शिवप्रसाद सिंह लिखित उपन्यास 

"गली आगे मुड़ती है।"

धारावाहिक छप रहा था। 

तब मैं कॉलेज में तीसरे-चौथे वर्ष में पढ़ रहा था। 

जैसा कि प्रायः सभी साहित्यिक कृतियों या न्यूज़ आइटम्स के साथ होता है, फ़िल्मों या ओटीटी वीडियो के साथ होता है, यह उपन्यास मेरे लिए उतना रोचक नहीं सिद्ध हुआ, जितना कि पहले इसके शीर्षक को पढ़कर लगा था। 

(मुझे यह जानकर आश्चर्य न होगा कि बहुत से पाठकों को भी  मेरे पोस्ट्स देखकर ऐसा ही कुछ महसूस होता होगा!) 

कुछ ऐसा ही अनुभव आज के न्यूज़ चैनल्स आदि को देखकर अकसर होता है। 

रोमांच और भय भी एक हद के बाद हमें प्रभावित नहीं कर पाता। नये (अनुभव, उत्तेजनाओं) के लिए सतत उत्सुकता, आशा, निराशा भी अंततः समाप्त हो जाती है और शेष रह जाता है भविष्य, जिसे जीना तो होता है, पर जाना नहीं जा सकता।

ग़म हो कि ख़ुशी दोनों,

कुछ दूर* के साथी हैं,

फिर रस्ता ही रस्ता है,

हँसना है न रोना है!

(दुनिया जिसे कहते हैं... स्व.  जगजीत सिंह द्वारा गाई ग़ज़ल)

कोरोना की बिगड़ती स्थितियों में संभवतः सरकार को पुनः इमर्जेंसी लगानी पड़ सकती है, यह सुनकर याद आया!...

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(*देर)


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दर्द दिल का!

कविता / गीत / 19-04-2021

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जब वक्त मेहरबान,

कुछ कुछ होता है ।

दर्द दिल में तब,

रुक रुक होता है।

प्यार ऐसे ही तो,

छुप छुप होता है।

सजदा ईमान का,

झुक झुक होता है।

***

आस्था और आग्रह

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। 


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आस्था जितनी अधिक दुर्बल होती है,

संशय उतना ही अधिक दृढ़ होता है।

और संशय जितना अधिक दृढ़ होता है,

आग्रह उतना ही अधिक प्रबल हो जाता है।

किन्तु संशय का निवारण होते ही, 

अविचल निष्ठा उत्पन्न होती है। 

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April 18, 2021

सड़क किनारे

उपक्रम / स्टार्ट अप! 

कविता

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1.

बैठा वह लेकर एक पिंजरा, 

आगन्तुक पूछता है भाग्य अपना, 

उसने बना रखे हैं,

कुछ हस्तलिखित पत्र, 

मोटे सफेद कागज, 

एक से कटे हुए! 

उसके इशारे पर,

निकलता है बाहर,

एक तोता,

मुंडी हिलाता हुआ,

गिनकर क़दम रखता हुआ,

अपनी चोंच से,

कागजों को पढ़ता(?),

ठकठकाता हुआ, 

फिर किसी एक को खींच

बाहर निकालता हुआ, 

जिस पर न केवल दक्षिणा, 

बल्कि आगन्तुक का प्रश्न, 

और उस प्रश्न का उत्तर भी, 

है लिखा हुआ, 

आगन्तुक चकित सा, 

दक्षिणा देकर जाता हुआ! 

दो चार दूसरे नए,

अपनी बारी का,

इंतजार करते हुए,

लौट जाता है तोता,

पिंजरे में! 

पास के बोर्ड पर लिखा है :

पैरट कार्ड / Tarot card.

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2. 

अब दूसरा आगन्तुक पूछता है :

"मेरा भविष्य क्या है?"

तोता उसी प्रकार से,

पिंजरे से निकलता है, 

मुंडी हिलाता हुआ, 

गिनकर क़दम रखता हुआ,

एक कार्ड खींचता है, 

ज्योतिषी पढ़कर सुनाता है :

"वही जो तुम्हारा वर्तमान है!"

आगन्तुक संतुष्ट नहीं होता, 

पूछता है:

"ऐसा कैसे हो सकता है?"

फिर तोता बाहर निकलता है, 

मुंडी हिलाते हुए,

एक कार्ड खींचता है, 

ज्योतिषी पढ़ता है:

"तुम नित्य, शुद्ध,  बुद्ध, चैतन्य मात्र हो! 

यही तुम्हारा भविष्य है।"

ज्योतिषी आगे पढ़ता है :

"दक्षिणा १०१ रुपये, ज्योतिषी से प्राप्त करो!"

ज्योतिषी आगन्तुक को १०१ रुपये देता है और आगन्तुक ज्योतिषी के चरण स्पर्श कर खुशी खुशी चला जाता है। 

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मेहमान

बस एक ख़याल था वो मेरे मेहमान सा, 

लेकिन बदल गया वो शख्स बेईमान सा!

अंदाज हर किसी का हुआ करता है अलग,

फ़िर ईमान भी होता है, हरेक इंसान का।

दुनिया के रंग-ढंग सब रहते हैं बदलते,

क्या यक़ीन हम करें ऐसे ज़हान का। 

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हसरत / कविता

 कविता / 18-04-2021

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बहुत कुछ लिखने को है, 

बहुत कुछ पढ़ने को है,

बहुत कुछ देखने को है,

पर नहीं है बहुत समय,

पर नहीं है कोई साधन,

पर नहीं है कोई उत्सुक,

पर नहीं है कोई चाहत!

पर नहीं है किसी को ज़रूरत, 

पर नहीं है किसी को फ़ुरसत! 

पर नहीं है किसी को मतलब,

और न है (मेरी भी) कोई हसरत! 

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April 17, 2021

मैं नहीं सोचता कभी!

कविता / 17-04-2021

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मैं नहीं सोचता कभी, 

सोचता है,  -मन!

और उसे ही तो है, 

इस तरह का वहम!

फिर भी मेरे बिना, 

कहाँ होता है, कोई मन!

जो सोचता हो, सोच सके,

या रख सके वहम!

वो जानता नहीं, 

वो सोचता नहीं, 

वो सिर्फ होता है या, 

कभी तो होता भी नहीं!

फिर भी जैसा भी हो, 

बदलता रहता है सतत,

पैदा खुद ही होता है,

खुद ही मिटता सतत! 

और उसके साथ साथ,

कोई दुनिया भी उसकी, 

जो उसकी ही तरह, 

बनती मिटती है सतत!

मैं कोई नहीं,

वो भी कोई नहीं, 

उसकी ही तरह से,

दुनिया कोई नहीं!

ये क्या है चमत्कार,

ये कैसी माया है,

न कभी मैं, न वो ही, 

न कोई भी समझ पाया है!

*** 




April 15, 2021

आग लगने पर,

कविता

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आग लगने पर चले हैं खोदने कुआँ, 

तय नहीं, पानी मिलेगा या नहीं!

इस समय तो व्यस्त हैं फुरसत कहाँ, 

आग बुझ जाए तो यही काफी है!

अंगार थे छिपे हुए राख के नीचे,

और सब थे ध्यानमग्न, ध्यान में डूबे!

आग कैसे लग गई, फ़ुरसत से सोचेंगे,

बच सके कोई अगर तो यत्न करेंगे ।

इस समय यही किया जा सकता है,

अब कहाँ पर दूसरा कुछ रास्ता है! 

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लिखना

मुझे कहाँ कुछ लिखना है, 

मुझे कहाँ कुछ दिखना है! 

लिखना ऐसा कुछ रोचक, 

पाठक रह जाए भौंचक,

स्तब्ध समीक्षक आलोचक, 

मुझे कहाँ कब बिकना है! 

माया तो आनी जानी है, 

स्टेटस, यश भी आना-जाना,

स्थापित या विस्थापित होकर,

मुझे यहाँ कब टिकना है! 

फिर भी लिखता रहता हूँ, 

बना रहे जिससे अभ्यास, 

योग-साधना, बुद्धि-विलास, 

मुझे यही जप जपना है! 

पढ़े ना पढ़े कोई मुझको,

चाहे किया करे उपहास, 

शत्रु-मित्र सब मुझको सम हैं,

यहाँ कौन कब अपना है! 

कट जाए छोटा सा जीवन, 

थोड़ा शान्ति,  सुकून से, 

वैसे भी कहते हैं ज्ञानी, 

यह जग झूठा सपना है!

मुझे कहाँ कब छपना है! 

मुझे कहाँ कुछ लिखना है, 

मुझे कहाँ कुछ दिखना है!

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बात एक राज़ की !

मक़सद (कविता)

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ज़रूरतें जब बहुत ही कम रह जाती हैं, 

तो जिन्दगी भी ज़रूरी नहीं रह जाती,

फिर भी जीते चले जाना तो मजबूरी है, 

जब तक कि खुद मौत नहीं आ जाती। 

फिर भी डरा करता है क्यों हर कोई, 

किसी के, या अपने खुद के मरने से,

क्या मिल जाएगा मौत से सहमकर,

क्या हो जाएगा इस तरह से डरने से! 

ज़िन्दगी हो जाती है जब बेमतलब पूरी तरह,  

मौत का भी मतलब नजर नहीं आता किसी तरह, 

फिर कौन सी ऐसी भी उम्मीद रह जाती है बाक़ी, 

जीते रहने का जो हो मक़सद जो रह जाए बाक़ी! 

फिर भी शायद ही कोई पूछता है खुद से कभी, 

वो कौन था जो जीता रहा है खुद में अभी,

उसकी कभी क्या, कौन सी ऐसी थी पहचान,

हाँ ये पहचान थी ज़रूर, जो थी उसका नाम,

क्या वो नाम था अपना या औरों सा कोई अनाम,

क्या जीने के लिए है, या था, ज़रूरी कोई नाम!

यहाँ आए थे हम लेकर क्या कोई नाम अपना,

न होता नाम, तो क्या न होता कोई वजूद अपना, 

ये जिस्म भी तो हमें, भूल जाता है नींद में अपना, 

फिर कहाँ मिटता है कभी, नींद में वजूद अपना, 

और होता है जो सपने में भी हमेशा मौजूद, 

याद रह जाने, या न रह जाने के भी बावजूद, 

फिर भी उसकी कहाँ बनती है कभी कोई पहचान,

क्या वो जिस्म है, याद है, हम हैं, या है, अपनी जान!

जागते में, सोते में, सपने में भी वही तो रहता है,

फिर भी इंसान क्यों उससे नावाकिफ़ सा रहता है!

डरता रहता है मौत आने से ज़िन्दगी भर क्यूँ,

ये राज़ हमसे हरदम छिपा ही रहता है क्यूँ !

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April 14, 2021

क्या यह हो सकता है?

सुख आते जाते रहते हैं, 

दुःख आते जाते रहते हैं, 

जीवन के सारे अद्भुत पल, 

यूँ आते जाते रहते हैं!

यह जीवन है जिसका, 

वह भी आता जाता है?

या वह अपने जीवन का, 

केवल साक्षी भर होता है?

क्या साक्षी आता जाता है, 

या वह बनता मिटता है? 

क्या उस साक्षी का कोई, 

साक्षी फिर कोई होता है? 

क्या यह भूलभुलैया कोई, 

कभी समझ भी पाता है? 

अगर समझ भी जाए तो, 

किससे कब कह पाता है?

क्या यह हो सकता है कोई, 

जाने भी, कह पाए भी,

और इसे सुननेवाला भी, 

इसे समझ भी पाए भी!

है रहस्य यह अद्भुत् लेकिन, 

कोई ही इसे समझ पाता, 

जीवन के हर सुख-दुःख से, 

अस्पर्शित वह रह जाता। 

जन्म-मृत्यु का वह साक्षी, 

उसका  क्या आरंभ-अन्त,

आरंभ आदि, काल की क्रीडा़,

काल तो साक्षी की उमंग!

पर वह साक्षी कण कण में,

पल पल स्पन्दित होता है, 

नित्य असंख्य रंग-रूपों में,

जग आनन्दित होता है! 

--





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तुम नहीं जानते...

गीत

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तुम नहीं जानते, 

प्यार क्या है तो, 

कहकर हमें,

बहलाते क्यों हो!

तुम नहीं जानते, 

अदा क्या है तो, 

दिखलाकर हमें,

इठलाते क्यों हो! 

तुम्हें नहीं है पता, 

हमारा दर्द अगर, 

ऐ दोस्त हमदर्द फिर,

कहलाते क्यों हो!

क्यों डालते हो,

हम पे इनायत की नजर,

हमारे घावों को,

सहलाते क्यों हो!

--

 




April 10, 2021

सागर की सतह / SEQUEL

कविता / जलपरियाँ

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(पिछले पोस्ट "पैरोडी" का अगला भाग) 

मन तो सतह है! 

सतह में प्रतिबिम्बित आकाश,

असंख्य तरंगों में तरंगित, 

हर तरंग संपूर्ण सागर है, 

हर तरंग संपूर्ण आकाश, 

और हर तरंग है धरती पूरी,

फिर भी है कितनी अधूरी!

हर तरंग की सागर से, 

धरती और आकाश से,

है कितनी दूरी! 

तरंग तो सतह का, 

एक बहुत छोटा हिस्सा! 

लगातार उठता गिरता, 

बनता, मिटता, सतत नृत्य, 

मन तो सतह है, 

मन तो सागर है, 

मन तो है, धरती-आकाश!

हर तरंग कितनी व्याकुल है,

कितनी आशंकित, आतंकित,

मन तो तरंग है, 

हर क्षण बनता मिटता,

मन तो सतह है, 

और तरंग है,

उस सतह पर खेलती,

जलपरियाँ!

कहाँ से आती हैं, 

कहाँ उड़कर चली जाती हैं, 

हो जाती हैं दृष्टि से ओझल, 

कोई नहीं जानता! 

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Parody / पैरोडी

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अजीब दासताँ है मन, 

कहाँ शुरू कहाँ खतम,

ये मन है चीज क्या, 

समझ सके न तुम न हम! 

ये जानता है खुद को या, 

जानता है कोई इसे,

ये मैं है या कि है मेरा, 

कहाँ पता हुआ किसे?

कभी तो होता है बोझ,

कभी तो होता है रोग, 

कभी तो होता है गम,

कभी तो होता है सोग,

जहाँ को छोड़ भी दे कोई,

इसे कहाँ, मगर कोई,

न ये कभी छोडे़ हमें,

तरीका है, कहाँ कोई! 

क्या मन है आईना ही खुद,

क्या चेहरा वही है खुद, 

क्या खुद को देखता है खुद, 

ये मामला है क्या अजीब!

जरूर गहरा कोई राज है,

जिसे है खोजना जरूर, 

ये खुद से कितने पास है,

या है ये खुद से कितना दूर! 

कभी तो खो भी जाता है,

मगर फिर लौट भी तो आता है, 

लौटने पर ही याद आता है, 

कहीं नहीं गया था ये!

अजीब दासता है ये, 

अजीब वास्ता है ये, 

अजीब रास्ता है ये, 

अजीब दासताँ है ये! 

--

अजीब दासताँ है ये, 


 


 

April 09, 2021

कृत्रिम प्रज्ञा

AI 

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अपने एक अन्य ब्लॉगस्पॉट  vinayvaidya में इस विषय पर आज एक पोस्ट :

Frontiers of Knowledge

लिखा ।

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लोहा

 ... और लहू! 

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जब लोहा गर्म हो, तभी उस पर चोट की जाना चाहिए। 

और जब लहू गर्म हो, तभी ऐसी चोट की जा सकती है। 

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April 08, 2021

फिर भी,

कविता / 08-04-2021

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न वो मंजिलें अब रहीं न रहे वो रास्ते, 

न अब वो हमसफ़र रहे, न रहे वो वास्ते,

मिट चले हैं अब निशान तक उन राहों के,

जिन पे चलने का था कभी बहुत ज़ुनून हमें।

और हाँ कोई भरम भी था कोई किसी उम्मीद का, 

जिसके साए में चलते रहे हैं हम अब तक, 

और वह भरम भी मिट गया है अब जब, 

क्या पता है, कि चलते रहेंगे हम कब तक!

क्या पता, कैसा वो सफ़र था, मुसाफिर था कौन,

जिसको हम समझते रहे हमेशा ही अपना वजूद,  

क्या पता कैसा था वो वजूद जो अपना था, 

जो समझता रहा कि हम हैं उसका सपना।

मिट चुका है अब तो वो भरम, जो हावी था, 

टूट चुका है वो अब तो वो सपना भी हमारा,

निगाहें जाती है दूर क्षितिज तक लेकिन,

दूर वहाँ तक जाकर के ठहर जाती हैं वहीं, 

और चलता रहता हूँ लगातार, मैं फिर भी।

--





April 07, 2021

बाड़

परंपरा और संप्रदाय 
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वैसे तो वे किसी विशिष्ट परंपरा के समर्थक, विरोधी या अनुयायी नहीं थे, या नई किसी परंपरा के संस्थापक नहीं थे, किन्तु कभी कभी किसी पात्र को संकेत से कोई शिक्षा दे दिया करते थे ।
एक बार उनका एक मित्र उनके साथ चर्चा कर रहा था।
"सभी परंपराओं में सत्य का कोई अंश तो होता ही है।"
उसने कहा।
वे दोनों एक वृक्ष के तले उसकी रक्षा के लिए बनी मोटी दीवार पर बैठे शाम की शीतल हवा में आनन्दपूर्वक बैठे हुए थे। उस वृक्ष का फैलाव आकाश की दिशा में तो बहुत था। लेकिन भूमि पर उसकी जड़ें उस दीवार तक ही सिमटी हुईं थीं।
सामने से बगीचे का तीन फीट चौड़ा रास्ता था जिस पर लाल मिट्टी बिछी हुई थी। उस रास्ते के पार भी एक वृक्ष था, जिसका फैलाव कुछ कम था। उस वृक्ष के चारों ओर उसे पशुओं से बचाने के लिए कँटीले तार की बाड़ से घेर दिया गया था। 
अब बहुत वर्षों बाद उस बाड़ का तार अनेक जगहों से टूट चुका था, किन्तु उसके कँटीले हिस्से अब भी वृक्ष के तने में जगह - जगह बिंधे हुए थे ।
"उस वृक्ष को देखते हो?"
उन्होंने मित्र से पूछा।
"हाँ!"
उसने संक्षिप्त उत्तर दिया।
"मैं सोचता हूँ कि जिस समय उसे रोपा गया होगा, तब वह बहुत  नाज़ुक, कोमल और छोटा रहा होगा, जिसे पशुओं से बचाने के
लिए कँटीले तार से उसे घेर दिया गया था। तब यह ज़रूरी ही
रहा होगा। लेकिन अब जब वह वृक्ष इतना बड़ा हो चुका है कि पशु उसकी पत्तियों और शाखाओं आदि तक नहीं पहुँच सकते, तो उस बाड़ को हटा दिया जाना चाहिए था। लेकिन अब उस बाड़ के कँटीले हिस्से, वृक्ष में इस तरह धँसे और फँसे हैं, कि वृक्ष
को उससे अलग कर पाना बहुत मुश्किल है। अब जब तक वह वृक्ष जीवित रहेगा, तब तक वे कँटीले हिस्से उसमें हमेशा चुभे ही रहेंगे।"
उनका मित्र संकेत ग्रहण कर चुका था।
उस मित्र के प्रश्न के उत्तर के रूप में उनका इतना ही कहना उसके लिए पर्याप्त था ।
--
 

April 04, 2021

एक कविता यह भी!

Dedicated to myself! 

"सेल्फी"

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कितना लिखते हो तुम हर दिन, 

इतना क्यों लिखते हो! 

कितना पढ़ते हो तुम हर दिन, 

इतना क्यों पढ़ते हो! 

देखो दुनिया है कितनी सुन्दर, 

कितनी अद्भुत् है दुनिया!

अपनी आँखें कर लो ताजा,

एक नजर तो देखो दुनिया! 

पढ़ना-लिखना छोड़ो भी तुम, 

इतना क्यों पढ़ते-लिखते हो! 

क्या तुमको आराम नहीं है, 

या फिर कोई काम नहीं है, 

लिखने पढ़ने से क्या होगा, 

क्यों फुरसत का नाम नहीं है? 

यह दुनिया है रंगबिरंगी इतनी, 

थोड़ा तो आँख उठाकर देखो, 

या लिखते-पढ़ते, मर-खप कर, 

दुनिया से रुख़सत हो जाओ!

अपना आज भी खुद ही लिख लो,

अपना कल भी खुद ही पढ़ लो,

तो लिखना पढ़ना काम आ जाए! 

कितना लिखते हो तुम हर दिन, 

कितना पढ़ते हो तुम हर दिन! 

क्या उम्मीद है पुरस्कार की, 

या उम्मीद है नोबेल की,

दुनिया के तौर तरीके देखो,

क्यों है उम्मीद तुम्हें कल की! 

क्यों तुम इतनी मेहनत करते हो,

फिर भी क्यों गफ़लत करते हो, 

कितना लिखते हो तुम हर दिन, 

इतना क्यों लिखते हो, 

कितना पढ़ते हो तुम हर दिन, 

इतना क्यों पढ़ते हो!! 

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एक अहसास अजीब सा!

एक कविता छोटी सी...

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कुछ नहीं, बस यूँ अकेले, सोचता था मैं बैठकर,

पुकारेगा, बुलायेगा मुझे,  कोई तो आवाज देकर,

पर बहुत हुआ हैरान, जब राज मुझ पर यह खुला,

हरेक शख्स है इंतजार में, मेरी तरह बैठा हुआ!

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एक दिन वीरान

कविता / 04-03-2021

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एक सूना आसमान है जो हर तरफ़ फैला हुआ, 

एक निर्जन भूमि, जो क्षितिज तक है अन्तहीन,

और मैं चलता रहा बिलकुल अकेला आज तक,

हाँ, अकेला ही तो आया था, यहाँ सब की तरह,

सब की तरह ही अजनबी तो रहा मैं आज तक, 

पर हुआ था, मैं भी उसी, गलतफहमी का शिकार,

जिसका होता है यहाँ हर शख्स ही तो बार बार, 

और लगता है उसे यह जगह है कितनी गुलजार,

कितने सारे रिश्ते-नाते, कितने सारे इश्क़ प्यार!

एक दिन लेकिन अचानक होता है जाहिर ये राज,

यह जहाँ इक ख्वाब है, परछाइयों का जैसे सैलाब, 

जिसको छू दोगे, यहाँ वह, शख्स खो जाता है यूँ,

चाँद तारे हुआ करते हैं सुबह होते ही ज्यूँ,

और फिर होता है अपने पास, सूना आसमान,

और पैरों के तले भूमि निर्जन क्षितिज तक! 

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April 03, 2021

जीवन को जानो!

कौतूहल क्यों उत्सुकता क्यों, 

क्या मिल जाएगा तुमको? 

जिसकी इच्छा मन में है, 

तुम उस पर ध्यान लगाओ, 

जो ध्यान तुम्हारा खींचे,

उससे ना तुम भरमाओ ।

फिर यह भी तुम जानो, 

यह इच्छा किसे हुई है,

क्या इच्छा भी मोह नहीं है? 

पहले यह पता लगाओ!

इच्छाएँ मन में उठती रहती, 

क्षण क्षण विपरीत अनेक, 

जिसमें उठतीं क्या मन हो?

फिर मन क्या है, यह जानो। 

यदि तुम मन हो, तो यह जानो,

क्या यह मन है नित्य?

या जिसमें यह उठता-खोता,

क्या हो तुम वह नित्य? 

हाँ मुश्किल है, इसे समझना, 

लेकिन राह यही है,  

पा ही लोगे उसको आख़िर,

जिसकी चाह रही है! 

वह उठती-गिरती वस्तु नहीं,

वह तो है नित्य विवेक,

जिससे भ्रम सब मिट जाएँगे,

जो आत्मा,  ईश्वर एक। 

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