C A T C H - 22
P O E T R Y
प्रश्न :
पाप-पंक में धँसे हुए हम,
कैसे हम छोड़ें पाप-कर्म,
कैसे क्यों कब हम पतित हुए,
कोई तो बतलाए मर्म!
कोई तो बतलाए हमको,
कौन हमारा तारणहार,
हो हम पर किसकी दयादृष्टि,
हो जिससे अपना उद्धार?
उत्तर :
तुम ही तो हो प्रथम सत्य,
और कहाँ है कोई अन्य,
जो तुम पर यह कृपा करे,
कृपा स्वयं पर तुम्हीं करो,
और तुम्हीं हो जाओ धन्य!
निजता ही है, नित्य सत्य
निजता से होकर अनन्य!
तुम्हीं स्वयं से हो अनन्य,
स्वयं तुम्हीं हो जाओ धन्य!
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं,
पर उपदेश कुशल बहुतेरे,
कैसे जानोगे कौन भला है,
कौन भ्रमित है तुमसे अन्य!
यह तो तुम्हें पता ही है ना,
तुम ही तो हो जग में सत्य,
जग सारा है कितना अस्थिर,
कितना मिथ्या कितना असत्य!
तुम ही तो हो जग का केन्द्र,
परिक्रमा जिसकी जग करता,
जग तुममें, तुमसे ही तो है,
अन्य कहाँ है कोई कर्ता!!
आत्मयोग के तीन चरण हैं,
धारणा, ध्यान, और, समाधि,
संयम के भी यही तीन हैं,
निरोध एकाग्रता और समाधि,
त्रयमेकत्रं संयमः, परिभाषा,
कहते हैं पतञ्जलि ऋषि,
यही तीन आधारस्तम्भ,
कहते हैं, पतञ्जलि महर्षि।
निज आत्मानुसंधान यही जो है
वैसे तो है यही प्रत्यक्ष उपाय,
विवेक वैराग्य हो जाने पर,
नहीं चाहिए अन्य उपाय!
किन्तु विवेक वैराग्य भी कहाँ,
इतना सरल, इतना सुलभ,
जब तक है, चित्त मलिन अशुद्ध,
तब तक अत्यन्त ही है दुर्लभ।
चित्तस्य शुद्धये कर्म, न तु वस्तूपलब्धये,
कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन।।
तपःस्वाध्यायेश्वर-प्रणिधानानि क्रियायोगः,
पतञ्जलि ऋषि, गीतानिर्दिष्ट कर्म-योग।
निष्काम कर्म ही है पराकाष्ठा,
निजता का है यही अधिष्ठान,
जिसे प्राप्त करने का यह क्रम
कहलाता है आत्म-अनुसंधान।
यही परम ज्ञान-निष्ठा है सांख्य,
यही परम योग है कर्म-योग,
दोनों का फल यद्यपि एक,
जैसी निष्ठा वैसा संयोग।
यह निष्ठा ही है भावना,
जिसकी भी हो जैसी भी,
यादृशी भावना यस्य
सिद्धिर्भवति तादृशी।।
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