कितने प्रश्न, कितने कारण, कितने समाधान?
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कल स्थानीय अखबार पढ़ते हुए यह जानकर स्तब्ध रह गया कि देश में प्रतिदिन औसत 35 (एक पूरे वर्ष में 13000) छात्र आत्महत्या कर लेते हैं। यह सोचकर और अधिक दुःख हुआ कि शायद इससे भी कई गुना अधिक आत्महत्या करने के बारे में अकसर सोचते रहते होंगे, और उनमें से ही कुछ स्थितियों के दबाव में अंततः इतने मायूस हो जाते होंगे, कि समस्याओं का सामना कर पाने में अपने आपको असमर्थ मान बैठते होंगे। यह भी तय है कि समस्याएँ अनेक प्रकार की और अनेक स्तरों पर होती हैं जिनमें से कुछ का सामना तो वे जैसे तैसे कर पाते होंगे लेकिन कुछ उनके लिए इतनी मुश्किल होती होंगी कि वे धीरज खो बैठते होंगे।
अभी कुछ दिनों पहले ही पढ़ा था कि प्राथमिक विद्यालय की एक छात्रा ने 95% अंक प्राप्त करने के बाद निराशा भरे शब्दों में सुसाइड नोट लिखा था :
"मम्मी, मैं थक गई, इससे ज्यादा मैं नहीं कर पा रही हूँ!"
वह तो कक्षा 5 की पब्लिक स्कूल में पढ़नेवाली लड़की थी, उसे शायद ट्यूशन भी उपलब्ध रही होगी, ट्यूशन का दबाव भी रहा ही होगा, इसमें भी संदेह नहीं। इन सभी आत्महत्याओं का क्या कोई एकमात्र कारण हो सकता है? हमें लगता है कि एकमात्र कोई कारण कैसे हो सकता है? आत्महत्या करने के पीछे कई अलग अलग कारण होते हैं!
लेकिन थोड़ा शान्ति से, ध्यान देकर अगर इस प्रश्न को समझने का यत्न करें तो एकमात्र नहीं तो भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण एक कारण अवश्य ही दिखाई देगा। वह कारण "अकेलापन" है। हाँ, घर में, स्कूल में, और आज के युग में लगभग हर छात्र ही नहीं हर किसी के इतने अधिक "फ्रैंड्स" होते हैं कि उन सबसे उसे अकेलेपन का एहसास ही नहीं होना चाहिए, लेकिन फिर उतने ही अधिक दबाव भी उस पर हावी हो जाते हैं, इस पर भी क्या कभी किसी का ध्यान जाता है? हर किसी की शिक्षा, स्वास्थ्य, और दूसरी आवश्यकताएँ कौन पूरी कर सकता है? यदि एक स्तर पर इनमें से कुछ पूरी हो भी जाती हैं तो भी "प्रतियोगिता" में पीछे रह जाने का डर भी तो लगातार बना रहता है! सफल भी हो गए तो भी आगे और भी लगातार श्रम करते रहने का दबाव क्या किसी को चैन से रहने देता है? "मनोरंजन" के नाम पर परोसे जानेवाले खेलों, संगीत, वीडियो, गेम्स आदि से भी व्यस्तता और उत्तेजना के रूप में निरर्थक और अनावश्यक उन्माद ही फैलता है, जिससे कुछ समय के लिए अपनी विभिन्न समस्याओं से ध्यान हटाया भी जा सकता है लेकिन वे ही अंततः बाध्यता ही बन जाती हैं। इस सबके बीच "अकेलापन" भीतर ही भीतर घुन की तरह खोखला करता रहता है और विशाल प्रतीत हो रहे लेकिन भीतर से खोखले हो चुके किसी वृक्ष की तरह कोई भी मनुष्य अचानक ही भरभराकर ढह जाता है।
मैंने बचपन से ही इस "अकेलेपन" को कोई नाम तक नहीं देते हुए, समस्या तक न बनाते हुए, जिया है। मैंने इससे कभी कोई "संघर्ष" तक नहीं किया, न कभी इससे दूर भागने की कोशिश की, क्योंकि अनेक अभावों और, छोटे छोटे सुखों के बीच जीते हुए मैंने कभी भविष्य के सपने देखने और उन्हें पूरा करने की ओर भी ध्यान नहीं दिया। और इसके लिए मैं ईश्वर को धन्यवाद भी दे सकता हूँ। लेकिन यह कैसे होता है या किया जाता है, मैं किसी को सिखा भी नहीं सकता क्योंकि जैसे कि तैरना स्वयं ही सीखा जाता है, और इसके लिए तो पहले पानी में जिस समय उतरना होता है, उस समय आपको अभी तैरना भी नहीं आता! पानी में तैरना सीखने के लिए वैसे शायद दूसरा कोई आपकी मदद भी कर सकता है, लेकिन "अकेलेपन" से जूझना कोई और आपको कभी नहीं सिखा सकता। बच्चे तो बच्चे, किशोर (टीनेजर्स), युवा, प्रौढ़ ही नहीं, वृद्ध भी अकेलेपन से बुरी तरह डरे हुए होते हैं और सुरक्षा, धन-संपत्ति, राष्ट्र, धर्म, तथाकथित अध्यात्म में कोई रास्ता खोजते हैं। लेकिन यह एक अत्यन्त गूढ ऐसी एक इतनी बड़ी वास्तविकता है, कि अकेलेपन को ईश्वरीय वरदान भी कहें तो अनुचित न होगा। "अकेलापन", - जब तक महसूस होता है तब तक आप इससे छुटकारा नहीं पा सकते, क्योंकि आप स्वयं ही यह "अकेलापन" हैं। अकेलापन ही वह एकमेवोऽद्वितीयः ईश्वर, सत्य, आत्मा या परमात्मा है, जिसके अतिरिक्त और कुछ कहीं है ही नहीं। आप ईश्वर की खोज भी इसलिये करते हैं, कि वह आपके "अकेलेपन" को दूर कर देगा, तो यह आत्मप्रवंचना है, अपने-आपको दिया जानेवाला केवल एक धोखा ही है। अकसर हर मनुष्य ही इस धोखे में फँस जाता है। कोई बिरला ही कभी इस धोखे में आने से बच पाता है।
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