तुम्हें क्या लगता है?
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उस दिन देर तक हम दोनों चुपचाप चलते रहे। नदी कभी हमसे दूर तो कभी समीप तक दिखाई देती रही। कभी कभी तो आँखों से ओझल भी हो जाती थी। केवल संगम पर ही दोनों एक साथ दिखाई देती थी।
"तुम्हें क्या लगता है? क्या उन्हें इस घटना का पूर्वाभास हो गया था?"
"हो सकता है कि हो गया होगा।"
"और, तो क्या उन्हें यह भी मालूम था कि इस दुर्घटना में उनकी मृत्यु भी हो जानेवाली थी!"
"क्या कह सकते हैं!"
"हाँ, अनुमान ही तो है। अगर उन्हें आभास था या अच्छी तरह से पता था, तो वे बस पर क्यों चढ़े होते!"
"मुझे लगता है कि उन्हें अच्छी तरह से पता था और उन्हें यह भी पता था कि उनके द्वारा मना किए जाने पर भी कुछ लोग ही उनकी चेतावनी पर विश्वास करते, सभी करते यह जरूरी नहीं था। बस के चालक और परिचालक ने भी उनकी चेतावनी सुनी होगी, पर पता नहीं कि उन्होंने इस पर ध्यान भी दिया होगा या नहीं। हालाँकि कुछ लोगों का कहना था कि उन्होंने भी इसका जिक्र बाद में किया था, लेकिन धीरे धीरे लोग इसे भूल गए होंगे और शायद किसी ने इस बारे में खोजबीन भी नहीं की होगी। इसका एक कारण यह भी रहा होगा कि बाबा भोलेनाथ कभी कभी कुछ विचित्र बातें भी कहा करते थे।"
"जैसे?"
"जैसे कि यद्यपि हमारे संसार का कोई एक समय नहीं होता।"
"हाँ, यह तो बड़ा अजीब लग रहा है। क्या उन्होंने और भी ऐसा कुछ कभी कहा था?"
"हाँ, वे कहते थे कि एक पूरा समय तो हमारी धरती आकाश और चाँद तारों की गति की गणना के आधार पर उस अनुमान से निर्धारित किया गया जाता है, जिसमें हमें सुबह, शाम, दिन और रात दिखाई देते हैं, और हम समझते हैं कि यह सभी के लिए एक ही है - जैसा कि कैलेंडर या पंचांग में होता है, और दूसरा भी, एक समय वह भी होता है जो प्रत्येक मनुष्य के लिए अलग अलग हुआ करता है।"
"मतलब?"
"इसका मतलब यह कि प्रत्येक मनुष्य जिस समय और जिस जीवन को जी रहा होता है वह उसका नितान्त निजी समय होता है लेकिन हम उसे पंचांग या कैलेंडर वाले समय के आधार पर, उनमें तालमेल कर सोचा करते हैं कि एक समय किसी के साथ जो घटित हुआ, उसी एक ही समय पर सभी के साथ कुछ और बिलकुल अलग अलग हुआ करता है।"
"थोड़ा समझाओ भी! मेरा दिमाग बिलकुल भी काम नहीं कर रहा है।!"
"मैं भी मुश्किल से बस इतना ही समझ पाया हूँ!"
"हम दोनों हँसने लगे।"
"लेकिन वे यह भी कहते थे कि हर किसी का अपना अपना एक अलग समय भी होता है जिसे कोई दूसरा शायद जान भी ले तो भी बदल तो नहींं सकता।"
बात और भी उलझ गई थी। लेकिन मुझे कुछ कुछ समझ में आ रहा था। यही कि संसार में जिसे समय माना जाता है वह केवल एक सापेक्ष सत्य या आभास भर है, जबकि समय का एक और निरपेक्ष रूप भी होता है जो अचल अटल आधारभूत काल है।
"तो क्या यह सब आश्चर्यजनक नहीं है?" -मैंने पूछा।
"हाँ, मुझे भी यही लगता है।"
उस दिन फिर परिक्रमा पूरी होने तक हम दोनों चुपचाप चलते रहे। लेकिन मैं सोचने लगा कि क्या मुक्ति होने पर यह मेरा और यह किसी दूसरे का, ऐसे इन तमाम समयों का क्या होता होगा।
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