इच्छा और संकल्प :
Desire And Will :
प्रश्न : इच्छा, संकल्प और कर्म में क्या संबंध है?
Question : What is the relation between the Desire, the Will, and the Action?
Answer / उत्तर :
संकल्पप्रभवान्कामान्स्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।।
श्रीमद्भगवद्गीता के उपरोक्त श्लोक से ज्ञात होता है कि कामना की उत्पत्ति दो रीतियों से होती है।
सः अकामयत सः अतप्यत।।
उपनिषद् के इस मंत्र से ज्ञात होता है कि उस सृष्टिकर्ता परमात्मा के हृदय में कामना की सृष्टि हुई। उत्पत्ति नहीं, सृष्टि। अर्थात् कामना की अभिव्यक्ति हुई जो परमात्मा के असीम और अनंत सामर्थ्य का एक अत्यन्त सूक्ष्म अंशमात्र है। सृष्टि √सृज् धातु से व्युत्पन्न संज्ञा है ।
किन्तु मनुष्य और इतर सभी प्राणियों में कामना / इच्छा उत्पन्न होती है जो स्मृति का ही परिणाम है। स्मृति, वृत्ति है, जो समय समय पर अव्यक्त और व्यक्त इन दोनों रूपों में पुनः पुनः प्रकट और विलुप्त होती रहती है। स्मृति में असंख्य अनुभव संचित होते हैं और बाह्य परिस्थितियों के प्रत्युत्तर के रूप में इच्छा / कामना जागृत हो जाती है। इच्छा या कामना किसी अपूर्णता की द्योतक है, जो पुनः आवश्यकता या कल्पना की तरह ग्रहण कर लिया जाता है। आवश्यकता के उदाहरण हैं भूख, प्यास, निद्रा और जागृति या स्फूर्ति, जो कि प्रकृति की सहज स्वाभाविक गतिविधि होती है, जबकि इच्छा या कामना किसी सुख और उस सुख के भोग की भावना का ही एक प्रकार है। इस प्रकार इच्छा या कामना यथार्थपरक या पूर्ण रूप से काल्पनिक भी हो सकती है, या केवल किसी वास्तविक या कल्पना दुःख से पलायन का एक प्रकार मात्र भी। इसका उदाहरण है किसी व्यसन से प्राप्त हो रहे सुख की कल्पना या उसके माध्यम से किसी यथार्थ या काल्पनिक दुःख का विस्मरण, जिससे वह दुःख समाप्त तो नहीं हो जाता किन्तु तात्कालिक रूप से उसका दृष्टि से ओझल हो जाता है।
इह प्रकार, उस स्थिति की प्राप्ति के लिए की जानेवाली चेष्टा ही कर्म है।
इसलिए कर्म का प्रारंभ किसी आवश्यकता की अथवा किसी इच्छा या कामना की पूर्ति के लिए की जानेवाली चेष्टा से होता है।
यह गतिविधि जिसे कर्म कहा जाता है वस्तुतः विकल्प का ही एक उदाहरण है जिसका उल्लेख पातञ्जल योग सूत्र समाधिपाद के निम्नलिखित रूप में प्राप्त होता है :
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।
कल्पना एक विधेयात्मक प्रत्यय है, जबकि विकल्पना या विकल्प कल्पना के अभाव का द्योतक होने से किसी वास्तविकता की विद्यमानता को इंगित नहीं करता।
संक्षेप में कर्म शब्द केवल एक वैचारिक और शाब्दिक अवस्थिति है जिसका कोई आधार नहीं होता। प्रकाश और अंधकार के उदाहरण से भी इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है। प्रकाश एक वास्तविक इन्द्रियग्राह्य यथार्थ है, जबकि अंधकार प्रकाश के अभाव की स्थिति का एक नाम है। जैसे अंधकार का अस्तित्व ही संभव नहीं, वैसे ही, जिसे कर्म कहा जाता है, वह केवल एक कल्पना है।
इसी का एक उदाहरण है : "कर्ता" की अवधारणा।
महर्षि पाणिनी के एक सूत्र के अनुसार :
स्वतन्त्रः कर्ता।।
उपरोक्त सूत्र महर्षि को जहाँ से प्राप्त हुआ वह स्वतन्त्र है, क्योंकि वह कर्म से स्वतन्त्र है :
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।।
(श्रीमद्भगवद्गीता)
इस प्रकार अहं / अहम् / 'मैं' को दो अर्थों / रूपों में ग्रहण किया जा सकता है :
एक वह जो कर्ता है और कर्म से स्वतन्त्र है,
दूसरा वह जो स्वयं को स्वतन्त्र कर्ता मानता है।
मन्यते इति मनः।।
मन वृत्ति है और समस्त वृत्तियों की उत्पत्ति का एकमात्र कारण भी। विशिष्ट वृत्ति के रूप में यही "अहं-वृत्ति" है। इसी अहं-वृत्ति में स्वयं के स्वतन्त्र कर्ता होने की कल्पना पुनः पुनः उठती और विलीन होती है। अंधकार की तरह से अभावात्मक होने से यह किन्हीं दो क्रमिक वृत्तियों के क्रम में अपनी आभासी निरन्तरता को ही अपने स्वतन्त्र अस्तित्व की तरह स्वीकार कर लेता है। यही अज्ञान है। इच्छा और संकल्प के रूप में यही अपने आपको बद्ध अनुभव करता है और वृत्ति के रूप में "अनुभवकर्ता"।
संकल्पप्रभवान् कामान्स्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।।
के अनुसार :
संकल्प से उत्पन्न होनेवाली समस्त कामनाओं को पूर्णतः त्याग दिए जाने पर (न कि त्याग कर दिए जाने पर) जिस कर्ता का साक्षात्कार होता है, वह स्वतन्त्र है।
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