The Kerala Story / मेरा भाषाप्रेम
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बचपन से अब तक मैंने जो कुछ भी सीखा वह केवल बाध्यता, आवश्यकता या रुचि के ही कारण सीखा। यद्यपि कुछ चीजों को सीखना तो आसान था तो कुछ बहुत मुश्किल भी था। डर के कारण शायद ही मैंने कभी कुछ सीखा हो। जिससे हमें डर लगता है उससे हम या तो लड़ते हैं और उसे परास्त कर देते हैं, या फिर घृणा करने लगते हैं। फिर भी यदि उससे छुटकारा न मिले तो प्रतिशोध, असंतोष और ईर्ष्या की आग में हमेशा जलते भी रहते हैं किन्तु हमें कभी उससे प्रेम नहीं हो पाता। या शायद हम उससे समझौता भी कर लेते हैं और उस तनाव में जीते रहने के अभ्यस्त हो जाते हैं। इसलिए हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत तो आसानी से सीख लिया पर मराठी से मेरी तीव्र अरुचि घृणा की हद तक पहुँची हुई थी। और वास्तव में इसका कारण यह भी नहीं था कि मराठी भाषा से कोई दुश्मनी थी। इसका एकमात्र कारण, -जो मुझे बाद में समझ में आया, वह यह था कि मराठी भाषा की वर्तनी हिन्दी से भिन्न होने के कारण मेरी बाल-बुद्धि के लिए दोनों भाषाओं के बीच सामंजस्य कर पाना मुश्किल था। जैसे हिन्दी "दीपक" को मराठी भाषा में "दिपक" लिखा जाता है। और एक गलतफ़हमी मुझे यह भी थी कि यदि किसी हिन्दी / मराठी शब्द की वर्तनी उसके संस्कृत रूप से भिन्न हो तो उसे मैं अविकसित, असंस्कृत या अपरिष्कृत मान बैठता था। चूँकि स्कूल में मेरी शिक्षा हिन्दी माध्यम से हुई थी, इसलिए जो शब्द हिन्दी में प्रचलित थे वे संस्कृत से बहुत भिन्न भी हों तो भी मुझे कोई दुविधा नहीं होती थी। सारा झगड़ा मराठी के ही बारे में था। इसी तरह आगे चलकर मुझे अंग्रेजी भाषा से भी अरुचि हो गई। बचपन से हम ऐसी ही कई गलतफहमियाँ पाल लेते हैं और फिर हमें इसकी आदत हो जाती है। मुझे लगता है कि इसीलिए कारण भारत और दुनिया भर में विभिन्न भाषाओं के बीच तमाम झगड़े हैं। बहुत बाद में मराठी साहित्य का अध्ययन करते समय मेरा ध्यान अपनी इस नासमझी और गलतफ़हमी पर गया और इससे मुझे यह लाभ हुआ कि किसी भी भाषा को सीखते समय भाषा की संरचना पर ध्यान देना मुझे अधिक जरूरी प्रतीत होने लगा। आज भी इसलिए मैं मराठी और अंग्रेजी पढ़ तो लेता हूँ, लेकिन उन्हें लिखना मेरे लिए दुविधापूर्ण होता है क्योंकि एक तो वर्तनी की शुद्धता के बारे में संशय होता है तो व्याकरण भी एक ऐसी ही और वजह है। इसलिए बाध्यतावश अंग्रेजी मैंने यद्यपि सीख लिया और अंग्रेजी में बहुत कुछ लिखा भी है लेकिन फिर भी यह नहीं कह सकता कि मेरा अंग्रेजी ज्ञान हिन्दी जैसा है। इसलिए मैंने बहुत सी लिपियों को सीख तो लिया लेकिन किसी भी भाषा का मेरा ज्ञान उसे पढ़ने तक ही सीमित है। मैं तमिऴ, मलयालम और कन्नड लिपि पढ़ तो लेता हूँ लेकिन तमिऴ भाषा के शब्दों का सही उच्चारण करना मेरे लिए आज भी टेढ़ी खीर है। अब मैं समझ सकता हूँ कि तमिऴ भाषा का अन्य और भी भाषाओं से और विशेष रूप से हिन्दी से वैमनस्य क्यों है। और तमिऴ भाषा का अन्य भाषाओं से यही वैमनस्य आगे चलकर संस्कृत से भी घृणा की हद तक बढ़ गया। जबकि सच तो यह है कि सभी भाषाओं का जन्म और प्रारंभ मूलतः दो ही रूपों में होता है। वाच्य-श्रव्य भाषा और लिपिबद्ध भाषा। तमिऴ मूलतः एक वाच्य-श्रव्य भाषा है, जबकि दूसरी अधिकांश भारतीय, एशियाई और यूरोपीय, भाषाएँ लिपिबद्ध भाषाएँ हैं। इसलिए किसी भाषा को सीखने का सही तरीका यही हो सकता है कि इस पर ध्यान दिया जाए कि उसकी संरचना तमिऴ की तरह केवल वाच्य-श्रव्य प्रधान है, जहाँ लिपि का महत्व गौण है, या अन्य भाषाओं की तरह जहाँ लिपिबद्ध रूप प्रधान तो है किन्तु जहाँ वह शब्द-श्रव्य रूप में भी है। इस दृष्टि से संस्कृत का एक अत्यन्त ही अलग और विशिष्ट स्थान है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। शायद इसी आधार पर संस्कृत भाषा को वैज्ञानिक भी कहा जा सकता है, जबकि शेष सभी भाषाओं का आधार रूढ़ि और परंपरा से सुनिश्चित होकर प्रचलित हुआ। मलयालम भाषा सीखते समय मेरा ध्यान इस ओर गया कि किस प्रकार से मलयालम भाषा में अनेक शब्द मानों सीधे संस्कृत भाषा से ही ग्रहण कर लिए गए हैं। और केवल मलयालम में ही नहीं, और भी बहुत सी भारतीय और विदेशी भाषाओं के संबंध में भी यह सत्य है। रूसी, जर्मन, लातवियाई, सभी की संरचना पर ध्यान दें तो यह सिद्धान्त शायद महत्वपूर्ण प्रतीत होगा कि किसी भी भाषा का जन्म, विकास और प्रचलन वाच्य-श्रव्य आधार पर या लिपिबद्धता, या दोनों के ही सम्मिलित आधार पर होता है। यदि परंपरा के पूर्वाग्रह न हों, तो प्रत्येक ही भाषा का अपना स्वतंत्र स्वरूप होता है और अपनी विशेष संरचना होती है यह स्वीकार करना सभी के लिए समान रूप से हितप्रद होगा। और तब यह भी स्वीकार करना आसान होगा कि अनेक भाषाएँ सीखने पर हम उन तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त हो सकते हैं जो विभिन्न मतवादों के बीच वैमनस्य पैदा करते हैं।
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