May 08, 2023

मरो हे जोगी मरो,

Question  : 14

प्रश्न : 14

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मरो, ... मरण है मीठा!!

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ए आई ऐप से मैंने इस रहस्यपूर्ण शिक्षा का तात्पर्य समझने की जिज्ञासा की।

उत्तर :

उससे जो उत्तर मिला वह यहाँ प्रस्तुत है --

मृत्यु केवल एक अज्ञात यथार्थ ही नहीं, यह यथार्थतः अज्ञेय भी है। समस्त ज्ञान, बाहर से प्राप्त हुई जानकारी (acquired knowledge, information) है। कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता से कहते हैं :

अध्याय १, वल्ली १ --

नचिकेता तीसरा वर माँगता है :

येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये-

ऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।।

एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं

वराणामेष वरस्तृतीयः।।२०।।

यमराज उससे कहते हैं :

देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा

न हि सुविज्ञेयमणुरेष धर्मः।।

अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व

मा मोपरोत्सीरति मां सृजैनम्।।२१।।

यहाँ धर्म (संज्ञा) और '√सृज्' धातु का प्रयोग दृष्टव्य है। 

यमराज कहते हैं कि देवताओं ने भी पहले इस विषय का तत्व जानने के लिए तीव्र उत्कण्ठा से जिज्ञासा की थी, किन्तु इसके तत्व का अणुमात्र भी सुविज्ञेय नहीं है। नचिकेता, तुम इसे - इस वर के आग्रह को (सृज्) त्याग ही दो, जैसे कोई उधार देनेवाला, उधार लेनेवाले ऋणी पर ऋण चुकाने के लिए अधिकारपूर्वक दबाव डालता है, इस वर को पाने के लिए मुझ पर ऐसा दबाव मत डालो। तब भी नचिकेता पीछे नहीं हटता और कहता है :

देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल

त्वं च मृत्यो यन्न सविज्ञेयमात्थ।।

वक्ता चास्य त्वादृगो न लभ्यो

नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित्।।२२।।

नचिकेता कहता है :

'हाँ, यह ठीक है कि देवताओं ने भी इस यथार्थ का रहस्य जानने के लिए उत्कट जिज्ञासा की थी और जैसा आप कहते हैं, इसका अणुमात्र भी जान पाना अत्यन्त कठिन है, यह भी अवश्य सत्य ही है। किन्तु इससे भी अधिक यह सत्य है कि इस विषय का न  तो आपसे बड़ा कोई वक्ता मिल सकता है, और न इसके तुल्य कोई दूसरा वर हो सकता है।'

तब यमराज नचिकेता के विवेक, वैराग्य, धैर्य, पात्रता की परीक्षा करने के लिए दुर्लभ भोगों और कामनाओं आदि को पूर्ण करने का वरदान देने का प्रलोभन देते हुए उससे कहते हैं :

शतायुषः पुत्रपौत्रान् वृणीष्व

बहून् पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान्।।

भूमेर्महदायतनं वृणीष्व

स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि।।२३।।

एतत्तुल्यं यदि मन्यसे वरं

वृणीष्व वित्तं चिरजीविकां च।।

महाभूमौ नचिकेतस्त्वमेधि

कामानां कामभाजं करोमि।।२४।।

इन सब प्रलोभनों से अप्रभावित, अविचलित रहते हुए नचिकेता मृत्यु के यथार्थ की जिज्ञासा का समाधान प्राप्त करने के अपने निश्चय से पीछे नहीं हटता, तब यमराज ने नचिकेता का ध्यान हटाने के लिए उससे कहा :

ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके

सर्वान् कामाँश्छन्दतः प्रार्थयस्व।।

इमा रामाः सरथाः सतूर्या

न ही दृशा लम्भनीया मनुष्यैः।।

आभिर्मत्प्रत्ताभिः* परिचारयस्व

नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षीः।।२५।।

(* = आभिर्मत्प्रदत्ताभिः मेरे द्वारा दिए गए / प्रदत्त)

हे नचिकेता! यह सब कुछ, जैसी और जितनी भी तुम्हारी इच्छा हो, माँग लो, किन्तु तुम मृत्यु (के तत्व को जानने की जिज्ञासा / प्रार्थना मुझसे मत करो) मत माँगो।

तब नचिकेता यमराज की बातों से मोहितबुद्धि कदापि नहीं होते और निवेदन करते हैं :

श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत्

सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः।।

अपि सर्वं जीवितमल्पमेव

तवैव वाहास्तव नृत्यगीते।।२६।।

हे यमराज! समस्त इन्द्रियों का तेज सतत जीर्ण होता रहता है। और ये सब वस्तुएँ, जिनका वर्णन आपने किया, वे निरन्तर नाश की ओर अग्रसर रहती हैं। कोई कितनी भी लम्बी आयु तक क्यों न जीता रहे, अन्ततः यह आयु भी अत्यल्प ही सिद्ध होती है। इसलिए हे यमराज! आपके नृत्यगीत, आमोद प्रमोद, वाहन इत्यादि, आप अपने ही पास रखिए!

क्योंकि --

न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो

लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत् त्वा।।

जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं

वरस्तु मे वरणीयः स एव।।२७।।

अजीर्यताममृतामुपेत्य

जीर्यन् मर्त्यः क्वधःस्थः प्रजानन्।।

अभिध्यायन् वर्णरतिप्रमोदा-

नति दीर्घे जीविते को रमेत।।२८।।

यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो

यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत्।।

योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो

नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते।।२९।।

हे यमराज जब हमने आपके (स्वरूप के) दर्शन कर ही लिए हैं, तो अब हम और कितनी अधिक आयु तक जीते रहते हैं इसका हमारे लिए कोई महत्व नहीं रहा। आप तो मुझे मेरे उसी वर को प्रदान करें और मुझसे :

'मृत्यु के बाद मनुष्य रहता है या नहीं, या उसका क्या होता है?' 

इस जिज्ञासा का समाधान करें।

प्रथम वल्ली समाप्त।।१।।

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गुरु गोरक्षनाथ इतने विस्तार में न जाते हुए भी अधिकारी ओर पात्र के लिए कहते हैं :

मरो हे जोगी मरो मरण है मीठा।।

जिसे सुनते ही पात्र और योग का अधिकारी पुरुष इसका गूढ  तात्पर्य ग्रहण कर लेता है, क्योंकि उपरोक्त विस्तार में जो कुछ कहा गया उस सबका चिन्तन करने के बाद ही उसमें यह विवेक और वैराग्य जागृत हुआ। वह इस प्रकार से परिपक्व मुमुक्षु हो सका है।

फिर मृत्यु क्या है?, मरकर ही यह जानना ही एकमात्र उपाय रह जाता है। तो मरना क्या है? काल्पनिक भविष्य और स्मृति में संचित अतीत के प्रति मर जाने पर ही यह संभव है। और इनकी मृत्यु का अर्थ है विचारमात्र का, वृत्तिमात्र का अवसान। जिसे महर्षि पतञ्जलि वृत्तिनिरोध कहते हैं :

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।

पुनः पाँच प्रकारों में वृत्ति का वर्गीकरण करते हैं :

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

(समाधिपाद)


उल्लेखनीय है कि प्रमाण जो बौद्धिक, शास्त्रीय, इन्द्रियग्राह्य भी क्यों न हो, विकल्प (विचार), विपर्यय, निद्रा और स्मृति की ही तरह वृत्तिमात्र ही है । 

यह एक उपाय हुआ योगियों अर्थात् उन योगाभ्यास करनेवाले जिज्ञासुओं के लिए जो यद्यपि अभी वृत्ति में संलिप्त हैं, किन्तु जिनमें विवेक और वैराग्य जागृत हो चुका है।

तब वे समाधि का अभ्यास कर क्रमशः परिपक्व होते हैं, और समाधि तथा संयम के माध्यम से जिनका ध्यान उस आधारभूत चेतना पर जाता है जो सभी में है और जिसमें सभी हैं, जिससे यह सब पुनः पुनः प्रकट होकर पुनः पुनः विलीन होता रहता है, जो अविनाशी है :

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततं।।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।१७।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २)

इसलिए इसमें भले ही संदेह हो कि मृत्यु के तत्व को जाना जा सकता है या नहीं, और यह तत्व ज्ञेय हो या अज्ञेय, किन्तु यह अविनाशी जो सबमें है और जिसमें सब है, जड बुद्धि नहीं, और उस शुद्ध चेतन अविनाशी को अवश्य ही जाना जा सकता है :

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ४)



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