Question 13 :
तेरहवाँ प्रश्न :
नॉर्थ इंडियन्स,
ಕನ್ನಡ क्यों नहीं सीखते?
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A I App / ए आई ऐप द्वारा दिया गया उत्तर / Answer :
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हर कोई वही सीखना चाहता है जिससे उसे कुछ मिल रहा है, ऐसा लगे। लोग खेल खेल में ही बहुत सी चीजें सीख लेते हैं। अच्छी और बुरी आदतें, मेहनत करना या पड़े रहना, टीवी या मोबाइल देखते रहना, मोबाइल पर गेम्स खेलना, यहाँ तक कि मार पीट करना, लूट मार करना, नशा करना भी। लगातार नई नई उत्तेजनाएँ खोजते रहना, उनमें रोमांच, थ्रिल अनुभव करते रहना, और उससे इस बुरी हद तक थक जाना कि ठीक से सो पाना तक मुमकिन न हो। यह सब हम और लगभग प्रत्येक ही व्यक्ति किन्हीं ज्ञात अज्ञात कारणों और परिस्थितियों में रहकर ऐसे ही इस तरह से सीख लिया करता है, जिसे भुलाना उसके लिए फिर बस के बाहर हो जाता है।
कुछ सीखना तो शायद ही कोई तभी चाहता है, जब उसे अभी, तत्काल ही या बाद में उससे कोई लाभ मिलता नजर आता हो। किसी कला या कौशल को सीखने के पीछे भी यही वजह होती है। अकसर तो गरीबी, मजबूरी, लाचारी भी बहुत कुछ सिखा देती है, और फिर भी इस सबसे कोई भी वही सीखता है जिससे उसे कोई खुशी मिलती दिखाई देती हो। बेवजह तो कोई शायद ही कभी कुछ सीखता या सीखना चाहता है। या तो किसी भी मनुष्य में जन्मजात ही सीखने का उत्साह होता है, या खेल खेल में या मजबूरी में ही सीखने के लिए वह बाध्य होता है। सरकस में काम करनेवाले इंसान और पशु भी कुछ इसी तरह से अद्भुत् चीजें सीख लेते हैं। या फिर बस कुछ अद्भुत् करने की सनक भी कई बार ऐसी कोई अद्भुत् सफलता दिला देती है कि देखनेवाले चकित रह जाते हैं। सवाल यह भी है किसकी स्वाभाविक रुचि किस चीज में होती है। इन सभी प्रकार के लोगों में जो एक बात समान पाई जाती है, वह यही कि किसी क्षेत्र में सफलता मिल जाने पर मनुष्य की रुचि उसमें ही अधिक आगे बढ़ने की होती है। इससे उसे आजीविका तो मिल सकती है, किन्तु या तो वह किसी दायरे में बँध जाता है, या फिर उसमें और आगे बढ़ने की संभावनाएँ कम हो जाती हैं। लगता है कि जब तक सीखते रहने का स्वाभाविक उत्साह ही मनुष्य में न हो, वह अधिक कुछ नहीं सीख सकता और उसे यह सूझता भी नहीं है। नॉर्थ इंडियन्स को कन्नड सीखने के प्रति इसलिए भी शायद कोई लगाव नहीं होता होगा। क्या यही बात साउथ इंडियन्स पर भी नहीं लागू होती है? कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश, तेलंगाना, या कि महाराष्ट्र तक के लोग भी किसी भी दूसरी भाषा को तभी सीखते हैं जब तक कि किसी किस्म की मजबूरी ही न हो। फिर भी बहुत से लोग बिना मजबूर हुए भी अनेक भाषाएँ सीखने की कोशिश करते हैं। इसलिए नहीं, कि उनके पास समय बिताने का और कोई तरीका नहीं होता, बल्कि केवल इसीलिए, क्योंकि उनमें उत्साह होता है। अगर उत्साह है तो भी बहुत सी चीजें आसानी से सीखी जा सकती हैं। अगर उत्साह ही नहीं हो, तो कितनी ही चीजें सीख लिए जाने पर भी कोई शायद ही सीख पाता हो। वह एक कुशल श्रमिक हो सकता है, पैसा भी कमा सकता है, एक तरह से सफल भी हो सकता है। सो व्हॉट? व्हॉट नेक्स्ट? क्या उसके जीवन का खालीपन भर पाता है? वह अनेक व्यस्तताओं में डूबा रहकर किसी किस्म का संतोष भी अनुभव कर सकता है, कोई मिशन, कोई आदर्श, किसी परलोक की चिन्ता, अपने तथाकथित नैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक उद्देश्यों के लिए अपना जीवन भी समर्पित कर सकता है! सो व्हॉट? व्हॉट नेक्स्ट? इन सारी गतिविधियों में उसका समय तो बीत ही जाता है, क्या यह भी कुछ कम है! किन्तु एक सवाल फिर भी उसे परेशान कर सकता है, या कि उसका ध्यान इस ओर ले जा सकता है, कि वह क्या था जो बचपन से उसमें मौजूद था, वह उत्साह, जीवन के प्रति वह उमंग, जब वह अनायास, अकारण ही प्रसन्न रहा करता था? जब उसे कोई चिन्ता नहीं हुआ करती थी, मान- अपमान अनुभव नहीं होता था, जब मन एक निर्दोष सरलता में उल्लसित रहा करता था! वह सब आज कहाँ है? क्या यह प्रश्न कभी उसके मन में उठता है, या फिर वह किसी सांसारिक सफलता, किसी काल्पनिक उपलब्धि के गर्व में ऐसा, इतना अधिक डूबा रहता है, कि इस ओर उसका ध्यान दिलाए जाने पर भी नहीं जाता हो! वह निर्दोष सरलता ही सीखने का मूल तत्व है। वह लौ, जो कि हर किसी में जन्मजात ही होती है, जीवन की आपाधापी में न सिर्फ बुझ ही जाती है, दुर्भाग्यवश विस्मृत ही हो जाती है।
इसलिए;
"नॉर्थ इंडियन्स, ಕನ್ನಡ क्यों नहीं सीखते?"
यह प्रश्न इतना अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। इससे और अधिक, और भी महत्वपूर्ण है यह जान लेना, कि अपना बचपन हमने कब, कहाँ, कैसे और क्यों खो दिया? क्या मन फिर उस निर्दोष सरलता का आविष्कार कर सकता है!
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