May 28, 2023

प्रवृत्ति और निवृत्ति

प्रश्न 20

सांख्ययोग और कर्मयोग

मुमुक्षुओं में कौन सांख्ययोग / ज्ञानयोग का अधिकारी और कौन कर्मयोग का अधिकारी है?

उत्तर  :

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।

श्रीमद्भगवद्गीता में प्रथम अध्याय का शीर्षक है :

अर्जुनविषादयोगः

इससे यह स्पष्ट है कि जब तक मनुष्य की बुद्धि संसार में आसक्त और लिप्त है, तब तक वह पुनः पुनः विषाद से ग्रस्त होता रहता है, और ऐसा कोई भी मनुष्य अवश्य ही श्रीमद्भगवद्गीता के अध्ययन का पात्र है, ताकि इस प्रकार से गीतामृतरूपी औषधि के पान से वह भवरोग से मुक्त होकर समस्त द्वन्द्वों से रहित नित्य शान्ति में प्रतिष्ठित हो सके।

किन्तु गीता के इस गूढ तत्व को केवल कोई सरल, और निर्मल-हृदय, छल-कपट से रहित बुद्धि से युक्त मनुष्य ही ठीक से ग्रहण कर सकता है। जबकि कोई पण्डित, बहुत विद्वान, शास्त्रों में निष्णात किन्तु इस प्रकार की निष्कपट बुद्धि से रहित भी इस तत्व की प्राप्ति से प्रायः वंचित हो जाया करता है।

इस प्रकार की विषादग्रस्त मनःस्थिति ही वह भूमिका है जो श्रीमद्भगवद्गीता के गूढ तत्व से अवगत होने और उस तत्व को हृदयङ्गम करने के लिए अत्यन्त सहायक होती है। सौभाग्य से यदि कोई अपनी इस मनःस्थिति को पहचान लेता है और शान्ति से, धैर्यपूर्वक उससे मुक्त होने के प्रयोजन की आवश्यकता अनुभव करता है तो उसे अवश्य ही वाँछित फल प्राप्त होता है।

ग्रन्थ में प्रारंभ ही में, अध्याय २ में महर्षि कपिल-प्रणीत सांख्य दर्शन के संदर्भ में गीता के प्रधान विषय और तत्व का वर्णन किया गया है। यह उन अधिकारी मुमुक्षुओं के लिए अधिक महत्वपूर्ण है जिन्हें दुःख से परिपूर्ण संसार की अनित्यता का भान हो चुका है और इसके दुःख तथा विषाद से जिनका हृदय अत्यन्त व्यथित, व्याकुल, त्रस्त  और भयभीत है, और इससे येन केन प्रकारेण छूटने की तीव्र उत्कंठा जिनमें उत्पन्न हो चुकी है। प्रत्येक ही मनुष्य इसीलिए चाहे उसे यह पता हो या न भी हो, परोक्षतः या परोक्षतः इसकी शिक्षा और उपदेश को ग्रहण करने का अधिकारी और पात्र है ही।

किन्तु इसके लिए यह जानना महत्वपूर्ण है कि मनुष्य का स्वभाव प्रवृत्तिप्रधान है या निवृत्ति प्रधान। प्रवृत्ति प्रधान होने पर वह स्वाभाविक रूप से कर्म-योग के साधन का अधिकारी होता है और निवृत्ति प्रधान होने पर सांख्य / ज्ञानयोग के साधन का। यह स्पष्ट हो जाने के बाद मनुष्य यह भी समझ लेता है कि उसकी स्वाभाविक निष्ठा किस प्रकार की है। और तदनुसार सांख्य अर्थात् ज्ञानयोग और कर्मयोग इन दोनों ही निष्ठाओं में से अपने स्वभाव, रुचि और योग्यता को समझकर किसी एक को स्वीकार कर लेता है।

***


No comments:

Post a Comment