Q U E S T I O N : 9
"कहाँ से शुरू करें?"
"कहीं से भी!"
ठीक है, तो सुनो :
कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय : प्रथम वल्ली
पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभू-
स्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन्।।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्ष-
दावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्।।१।।
पराचः कामाननुयन्ति बाला-
स्ते मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम्।।
अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा
ध्रुवमध्रुवेषु न प्रार्थयन्ते।।२।।
--
महर्षि श्री रमण रचित - सद्दर्शनम् :
धिये प्रकाशं परमो वितीर्य
स्वयं धियोऽन्तः प्रविभाति गुप्तः।।
धियं परावर्त्य धियोऽअन्तरेऽत्र
संयोजनान्नेश्वरदृष्टिरन्या।।२४।।
--
"हाँ, अब आगे क्या?"
"दोनों उद्धरणों में एक ही बात कही गई है, वह यह कि इन्द्रियाँ बहिर्मुखी होती हैं और विषयों को ग्रहण करना ही उनका कार्य है। और प्रत्येक मनुष्य अस्तित्व को इसीलिए अपने आप से भिन्न और बाहर देखता है, जिसे वह 'संसार' कहता है, जिसमें उसका एक अतीत था, एक वर्तमान है और कोई भविष्य होगा। सभी मृत्यु के पाश में बन्धे होते हैं। कोई बिरला धैर्यशील मनुष्य ऐसा भी होता है जो अपने ही भीतर अपने स्वयं की अन्तरात्मा को देखता है और अमृतत्व की इच्छा से प्रेरित होता है, और उस तत्त्व को जानने की जिज्ञासा करता है। गीता के अध्याय ७ के अनुसार :
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।। ।।२७।।
उक्त उद्धरण भी इसी अर्थ का द्योतक है। अतः प्रत्येक मनुष्य जन्म से ही इच्छाओं और द्वेष के द्वन्द्व से ग्रस्त होकर कर्म करने के लिए बाध्य होता है। बुद्धि के विकसित होने पर वह कार्य और कारण तथा उनके बीच के किसी क्रम की कल्पना करता है, और जब वह ऐसा अनुमान करता है, तब उसे यह प्रतीत होता है कि कारण को जान लिए जाने पर उसे वश में कर इच्छित फल प्राप्त कर लेगा। बुद्धि के अपरिपक्व होने के कारण उसे यह कल्पना तक नहीं होती, यह भी नहीं सूझता, कि इच्छा के फलित होने पर क्या उसे सुख मिलेगा या नहीं! अनेक इच्छाओं के बीच वह और अधिक भ्रमित हो जाता है और यह भी नहीं समझ पाता कि उनमें से अनेक परस्पर विसंगत और विरोधाभासी भी होती हैं। इच्छा के पूर्ण न हो पाने की और अनपेक्षित अनिष्ट के होने की संभावना से वह और अधिक व्याकुल हो जाता है और इस सबके फल-स्वरूप वह इस सम्मोह से उत्पन्न अज्ञान और संशय से ग्रस्त होता है। अपनी कुछ इच्छाओं के पूर्ण हो जाने से उसमें कर्तृत्व की भावना उत्पन्न होती है। अपने अस्तित्व पर तो सन्देह उठने का तो किसी को कभी प्रश्न ही नहीं उठ सकता है, क्योंकि यह तो एक स्वभाविक, स्वतःस्फूर्त, स्वप्रमाणित सत्य ही है। और इसका भान / बोध भी वैसा ही एक सत्य है। और दोनों दो नहीं, एकमेव सत्य के प्रतीत हो रहे दो पक्ष हैं। होना और जानना - अस्ति और भाति ही जीवन और चेतना है। और यह अनायास ही है। किन्तु स्मृति से अतीत का, और कल्पना से भविष्य का आभास उत्पन्न होता है, जिसके बीच अपने स्वतन्त्र कर्ता होने का भ्रम भी पैदा हो जाता है। भ्रम भी मति ही है जो बुद्धि का ही पर्याय है। इसी बुद्धि के उदय के बाद स्मृति और कल्पना के सहारे स्वयं के एक स्वतन्त्र कर्ता होने की एक और कल्पना उपजती है। इच्छा के पूर्ण होने से प्रतीत होनेवाले सुख से, या अपूर्ण रह जाने से प्रतीत होनेवाले दुःख से अपने भोक्ता होने, या भोक्तृत्व की प्रतीति भी ऐसी ही एक कल्पना है। प्रत्येक मनुष्य इसीलिए इच्छा और द्वेष से उत्पन्न सम्मोह से ग्रस्त बुद्धि के आवरण में अपने आपको संसार में, किन्तु उससे पृथक् और भिन्न भी एक व्यक्ति विशेष मान लेता है, या इस मान्यता को अनजाने ही स्वीकार कर लेता है। इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य और प्राणी ही, कर्मवाद और भोगवाद को स्वीकार कर लेता है। किन्तु किसी का भी ध्यान अपनी बुद्धि से उत्पन्न इस त्रुटिपूर्ण भ्रम पर नहीं जाता। बुद्धि के ही परिपक्व, और शुद्ध होने पर ही उसकी बुद्धि में यह प्रश्न उठता है : "इस सब अनित्यता के बीच क्या कुछ ऐसा भी है जो कि नित्य है?"
तत्काल ही या कुछ समय बीतने के बाद उसका ध्यान इस सरल स्वाभाविक और अन्तःस्फूर्त सत्य की ओर आकर्षित होता है का क्या वह स्वयं, उसका अस्तित्व और अपने इस अस्तित्व का भान ही क्या वह वस्तु नहीं है जो नित्य ही आधारभूत सत्य है! यही ईश्वरदृष्टि है! जब तक दृष्टि / बुद्धि अनित्य इन्द्रिय विषयों में भ्रमित रहती है, उनमें प्रतीत होनेवाले सुख और दुःख उसे विषयासक्त बनाए रखते हैं। किन्तु नित्य और अनित्य पर ध्यान जाने पर बुद्धि शुद्ध और स्थिर हो जाती है। धैर्यपूर्वक जानने पर इसी बुद्धि में उस तत्व का प्रकाश होता है जिसका बुद्धि में प्रतिबिम्बित होनेवाला प्रकाश ही बुद्धि में व्यक्त होनेवाला आत्मा / ईश्वर का प्रतिबिम्ब है!
दूसरी ओर ऐसा ही कोई धीरपुरुष संसार के और शरीर के घटनाक्रम को प्रारब्ध का नाम देकर उससे अप्रभावित रहता हुआ उसके प्रति नितान्त उदासीन हो जाता है!
***
No comments:
Post a Comment