जीवनी, इतिहास और आत्मकथा
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किसी भी छोटी से छोटी या बड़ी से बड़ी, महत्वपूर्ण या महत्व-हीन घटना का समय तय और सुनिश्चित होता है। न तो घटना को और न ही उस तय समय को कोई बिलकुल भी नहीं बदल सकता। किसी घटना के असंख्य कारण इंगित किए जा सकते हैं और इसलिए समस्त विश्लेषण और अनुमान मूलतः भ्रामक होते हैं। फिर भी कोई अतीत की स्मृति के आधार, भविष्य की कल्पना और वर्तमान को, अनगिनत तरीकों और रूपों में सोच सकता है। इसी आधार पर उनका कोई मानसिक चित्र भी बना लिया करता है जो वैसे तो सतत ही बदलता रहता है किन्तु फिर भी उसे मानों उसकी एक निश्चित आकृति हो, ऐसा स्थिर प्रतीत होत है। भविष्य की आशा, निराशा, चिन्ता, कौतूहल उसे इतने अधिक सत्य जान पड़ते हैं, कि वह छोटी बड़ी अनेक योजनाएँ बना लेता है। उसके सोच के फ्रेमवर्क में उनमें से कुछ मूर्त रूप भी ग्रहण लेती हैं, ऐसा भी उसे महसूस होता है। इसलिए किसी मनुष्य की अनेक जीवनियाँ हो सकती हैं, जिसे उसके अलावा कोई और ही लिखता है। इन विभिन्न जीवनियों में से कौन सी वास्तविकता से कितने निकट है या दूर है, इसे जानने का कोई सर्वमान्य पैमाना / उपाय शायद हो ही नहीं सकता। दूसरी ओर, कुछ लोग अपनी जीवनी लिखने का साहस, दुस्साहस या भूल स्वयं ही कर बैठते हैं। बाद में वे शायद पछताते भी हैं, क्योंकि अनेक बातें जिन्हें वे लिखना चाहते थे, छूट गई होती हैं या जैसा लिखना चाहते थे उससे बहुत हद तक अलग लिख दी गई होती हैं। और बहुत सी जिन्हें न चाहते हुए भी वे भूल से लिख बैठे। क्या ही अच्छा हो अगर किसी की कभी न तो जीवनी लिखी ही न जाए, न इतिहास। सभी मनुष्यों के बारे में यही होना चाहिए। क्योंकि न तो कोई अच्छा या बुरा और न कम या अधिक महान होता या हो सकता है। वो कहते हैं न :
सब क़रिश्माते तसव्वुर है ......,
वर्ना आता है न जाता है कोई!
शायर का नाम ठीक से याद न आने से ......, लिख दिया।
(क़तील या वकील जैसा कुछ होगा।)
इसलिए आत्मकथा के उन दोनों अंशों को लिखने के बाद लगा कि इस सबका क्या मतलब है! इसलिए तुरन्त डिलीट भी कर दिया। आजकल यह सुविधा अच्छी है। कागज पर कुछ लिखो तो उसे नष्ट करना थोड़ा मुश्किल काम हो जाता है। मोबाइल पर या मेल में अगर लिखो तो उसे सेन्ड करने से पहले तक भी ऐसा किया जा सकता है। और अगर सेन्ड कर ही दिया है तो undo करना कभी कभी संभव होता है और कई बार असंभव ही हो जाता है।
क्या सचमुच ही, किसी की कोई जीवनी या आत्मकथा हो भी सकती है?
या, बस दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है!
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