May 12, 2023

Question 16

Question  16 :

प्रश्न 16 :

--

यह प्रश्न ए आई ऐप A I App से नहीं पूछा था क्योंकि उससे शायद ही कोई उपयुक्त उत्तर प्राप्त हो सकता था।

"तुम्हें क्या लगता है?"

हमेशा की तरह बात शुरू करते हुए मैंने पूछा।

"किस बारे में?"

"उन्होंने कहा था :

"दोनों पाठों की फलश्रुति समान ही है।"

- इसका तुमने क्या अर्थ ग्रहण किया?"

"हाँ, बहुत संक्षेप में उन्होंने यह कहा था। तुम्हें पता है कि वैसे तो किसी की भी जाति, आयु और भोग और उनका सुनिश्चित  समय भी उसके जन्म के ही साथ तय हो जाते हैं, और मनुष्य  चाहे भी तो भी उसे बदल नहीं सकता, फिर भी मनुष्य इतना तो कर ही सकता है कि जब भी मृत्यु आए उसके लिए तैयार रहे। और यह भी सत्य है कि मृत्यु का समय और तरीका हर मनुष्य के लिए अलग अलग होता है। कभी चाहते हुए भी और बहुत कोशिश के बाद भी मनुष्य मर नहीं पाता और कभी अनायास ही किसी अप्रत्याशित समय और स्थान पर, अनपेक्षित कारणों से उसकी मृत्यु हो जाती है। इसलिए इच्छा-मृत्यु का अर्थ यही है कि मनुष्य इस तथ्य को आसानी से जान, समझ और स्वीकार कर ले। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता तो इसे अनिच्छा-मृत्यु कह सकते हैं। फिर बाबा भोलेनाथ जैसे महात्माओं के लिए ही यह संभव है कि धैर्यपूर्वक योग के अभ्यास से किसी भी स्थिति में होनेवाली मृत्यु के समय सावधानी से अपने अन्तकाल को जाने या न जाने बिना भी परम श्रेयस्कर प्रयोजन का माध्यम बना लें। हम जैसे सामान्य जन तो शायद ही कभी उस स्थिति तक पहुँच सकें।"

"वाह! बहुत सुन्दर भूमिका है इसमें संदेह नहीं! अब और भी तो विस्तार से कुछ समझाओ।"

उसे पता था कि मैं उसका मज़ाक नहीं उड़ा रहा था। इसलिए पूरे धैर्य और तसल्ली से उसने मुझे समझाना शुरू किया --

वैसे तो राम और ॐ दोनों ही महामंत्र हैं और अन्तकाल में इनमें से किसी का भी उच्चारण करने से मनुष्य को सद्गति प्राप्त होती है किन्तु अपने जैसे लोगों के लिए राम रूपी मंत्र अधिक सरल और उपयोगी है। उस दिन जब बाबा भोलेनाथ की समाधि पर वे संत हमें मिले थे तो उन्होंने हमारा ध्यान इसी तरफ आकर्षित किया था। 

श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि

श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि। 

श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि

श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये।।

यह जो हमारे मन में भगवान् श्रीराम की साकार प्रतिमा है वही राम मंत्र है। स्मृति मन की वृत्ति है। इसे अभ्यास से और अधिक दृढ किया जा सकता है। हम कितनी ही अच्छी बुरी स्मृतियों को अभ्यास से इतना दृढ कर लेते हैं कि जरूरी होने पर भी, और चाहकर भी उन्हें नहीं भुला पाते, और वे हम पर हावी रहती हैं जिसे आज के मनोविज्ञान की भाषा में बाध्यता-ग्रन्थि विकार  obsessive compulsive syndrome कहा जाता है। इससे हम किसी दूसरी भावना को भी अनजाने ही या जान-बूझकर भी संबद्ध कर बैठते हैं, तो स्थिति और विकट हो जाती है। भावनाओं से विचार या / और विचार से भावना उद्दीप्त होती है और मन एक जटिल चक्रव्यूह में फँस जाता है। विचार और भावना और फिर विषाद, उन्माद या / और अवसाद ही शेष रह जाता है। मनोविज्ञान में समस्या तो है, किन्तु न तो उसका कोई निदान (diagnosis) है और न ही कोई समाधान (solution / cure) है। तो जब हम किसी देवता का ध्यान करते हैं उसके साथ संबंधित मंत्रों का प्रयोग अर्थात् उच्चारण करते हैं, उसके सामने मस्तक झुकाते हैं तथा स्वयं को उसकी शरण में छोड़ देते हैं, तो यह पूरी प्रक्रिया योगाभ्यास ही होती है, भले ही हमें पता हो या नहीं पता हो।

"श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि" का अर्थ है  -- मैं मन के नेत्रों से प्रभु श्रीराम के चरणों का ध्यान करता हूँ।" "श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि" का अर्थ है -- मैं अपने मुख से, वाणी से उनके नाम का उच्चारण करता हूँ।

"श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि" का अर्थ है -- मैं भगवान् श्रीराम के चरणों पर अपना मस्तक रखकर उनकी वंदना करता हूँ।  

और,

"श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये" का अर्थ है -- भगवान् श्रीराम की शरण में मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।

इन सबमें "मैं" शब्द अनुस्यूत है। अर्थात् ये सभी मंत्र ,"मैं विचार रूपी" धागे में पिरोये हुए मणि या पुष्प हैं।

इस "मैं" विचार, भावना या प्रत्यय का उद्भव जिस स्रोत / उद्गम  से होता है वह है हमारी चेतना जो हमारी निजता और नित्यता का ही नाम है, जिसके बारे में श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १० में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं -- 

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।। 

इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।२२।।

इसी चेतना को मन, बुद्धि, चित्त और अहं / अहं भावना -- "मैं" विचार, भावना या प्रत्यय के साथ संयुक्त रूप से "अन्तःकरण" भी कहा जाता है। यही जीवन है। 

यह निःशब्द स्वरूप ही हमारे "मैं" विचार, भावना या प्रत्यय का स्रोत है इसलिए यही हमारी माता, पिता, सखा और स्वामी भी, और सर्वस्व ही है। यही भगवान् श्रीराम, परम दयालु हैं। उनके सिवा मैं किसी को नहीं जानता, कदापि नहीं जानता, क्योंकि अपने "मैं" विचार, भावना या प्रत्यय का आगमन होने पर ही तो मैं अन्य सब कुछ, कुछ भी जानता हूँ, जो कि वस्तुतः "जानना" है ही नहीं। इसका ही उल्लेख अगले मंत्रों में है --

माता रामो मत्पिता रामचन्द्रः

स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्रः।

सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु

र्नान्यं जाने नैव जाने न जाने।।"

"वाह!" 

बरबस मेरे मुँह से निकल पड़ा । मैं चकित था।

"अभी और है" - मुस्कराते हुए उसने कहा!

"हैं!?"

"हाँ, सुनो!! --

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ८

अर्जुन उवाच --

किं तद्ब्रह्म किमध्यात्म किं कर्म पुरुषोत्तम।।

अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।।१।।

अधियज्ञं कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।।

प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः।।२।।

श्रीभगवानुवाच --

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।।

भूतभावोद्करो विसर्गः कर्मसंज्ञितः।।३।।

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।।

अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।४।।

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।।

यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।। ५।।

यं यं वापि स्मरन्भावं त्जत्यन्ते कलेवरम्।।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।६।।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।।

मय्यर्पित मनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः।।७।।

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।८।।

कविः पुराणमनुशासितार-

मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।।

सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-

मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।।९।।

और अब इस पूरी प्रक्रिया का सार सुनो --

प्रयाणकाले मनसाचलेन

भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।।

भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्

स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।१०।।

(मनसाचलेन --

यतो यतो हि निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।।

ततो ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।)

प्राणों को भ्रुवों के बीच लाकर स्थिर करे ।

कैसे? इसके लिए प्राणों का संयम कैसे किया जाता है यह जानना आवश्यक होगा। श्वास से प्राण नहीं चलते प्राण से ही श्वास चलती है।  इस प्रकार जो शक्ति श्वास को चलने के लिए गति प्रदान करती है, वही प्राण है। चेतना ही प्राण को जानती है। प्राणों की गति पर नियंत्रण करने के लिए, उन पर ध्यान (attention) देना होता है, जो दीर्घकाल तक अभ्यास से ही सिद्ध होता है।  संक्षेप में : यदि कोई केवल श्वास पर ध्यान देकर बाँए, दायें या दोनों ही नासापुटों से अपनी इच्छानुसार श्वास को चला सके तो उसने प्राणों पर नियंत्रण कर लिया है ऐसा कह सकते हैं । इन्हीं प्राणों को फिर भ्रूमध्य में लाकर स्थिर करना होता है। इस प्रकार से यह कर सकनेवाला उस परम दिव्य परम पुरुष को प्राप्त होता है। 

पुनः भगवान् श्रीकृष्ण ॐ इस पद के महत्व का उल्लेख करते हुए कहते हैं :

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये।।११।।

फिर, 

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।।

मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।१२।।

रुद्र अथर्वशीर्ष :

मूर्धानमस्य संसेव्याप्यथर्वा हृदयं च तत् मस्तिष्कादूर्ध्वं प्रेरयति अवमानोऽधिशीर्षतः।।

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।१३।।

उसे श्रीमद्भगवद्गीता इस तरह से स्मरण थी मानों कण्ठस्थ कर रखी हो। 

मैं उसके चरणों में झुक गया तो घबराकर बोला --

"अरे अरे! क्या करते हो!!"

"आज तुम्हारे उद्गार सुनकर पता चला कि तुम किस गहराई तक हो।" 

मैं बोला।

"नहीं नहीं, मैं न जाने किस प्रेरणा से बोलता ही चला गया। यह सब परमात्मा का ही प्रसाद है।"

भावविह्वल होकर गद्गदकंठ से वह बोला।।

"जय भोलेनाथ!"

मैंने कहा ।

"जय हो!"

उसने दोनों हाथ उठाकर जोड़ते हुए उस अदृश्य प्रेरणा को नमन किया, और हम दोनों हँस पड़े। 

***









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