उत्तर :
वैसे तो इस प्रश्न का सटीक उत्तर गीता के अध्याय ३ के निम्न श्लोक :
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।
में मिल जाता है, किन्तु क्या इसे और किसी तरीके से समझना अच्छा न होगा?
वैसे तो जो कुछ भी होता है, उसके न जाने कितने प्रमुख कारण होते हैं, किन्तु उनमें से भी दो चार ही होते हैं जिन्हें इंगित किया जा सकता है। अधिकांश तो अज्ञात ही होते हैं, इसलिए जो भी होता है उसे एक हद तक संयोग, coincidence या इत्तफ़ाक ही कहा जा सकता है। फिर भी मनुष्य जो कुछ करता या करता हुआ प्रतीत होता है उसका कोई स्पष्टीकरण चाहता है, अर्थात् उसने ऐसा क्यों किया! सरल सा स्पष्टीकरण यही हो सकता है कि तमाम परिस्थितियों और संयोगों के प्रभाव से उसके माध्यम से यह घटित हुआ। प्रायः तो यह होता है कि कभी तो महत्वपूर्ण कुछ मन में अनायास ही आता है और उसे कहीं भूल न जाऊँ, इसलिए लिख लेता हूँ, और कभी कभी बस लिखना प्रारंभ कर देता हूँ और फिर लगता है कि हाँ, यह महत्वपूर्ण है। कभी कभी तो संतोषप्रद कुछ नहीं प्रतीत होता, तो उस पोस्ट को छोड़ देता हूँ और कुछ समय बाद फिर मन होता है तो कोशिश करता हूँ। या फिर उसे निरस्त / डिलीट भी कर देता हूँ। पिछले 12 वर्ष से यही चल रहा है। कुछ ब्लॉग्स में पहले से ही कोई क्रम तय होता है और उस फॉर्मैट में कुछ लिखना आसान होता है। जैसे गीता का ब्लॉग, मनोयान, आकाशगंगा, जबकि दूसरे ब्लॉग्स में जैसे हिन्दी-का-ब्लॉग या vinayvaidya में लिखने लायक कुछ प्रतीत होने पर ही लिखता हूँ। ऐसा एक और ब्लॉग पहले कभी
vinayvaidya.wordpress.com
पर लिखना शुरू किया था। तकनीकी बारीकियाँ न समझ पाने से उसमें लिखना छोड़ दिया था किन्तु अब फिर उसमें नियमित रूप से कुछ-कुछ लिख रहा हूँ। "हिन्दी-का-ब्लॉग" से प्रयोग के लिए लिखना शुरू किया था। न तो किसी महापुरुष, धर्म, वाद, मत या सिद्धान्त आदि से प्रभावित होकर उसका प्रचार प्रसार करना और न ही किसी को उपदेश या शिक्षा देना ही मेरा लक्ष्य है। और किसी से वैचारिक विचार विमर्श करने की तो कल्पना तक नहीं कर सकता। मुझे न साहित्यकार, कवि, विद्वान आदि के रूप में अपनी कोई पहचान स्थापित करना है, और न किसी साहित्यकार, कवि लेखक, आदि से मेरा कोई लगाव है। मुझे नहीं लगता कि कोई मनुष्य वस्तुतः महान और दूसरों से श्रेष्ठ होता होगा। गीता का अध्याय ५ का श्लोक याद आता है :
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।
और इसके बाद का यह भी, इतना ही महत्वपूर्ण है :
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।
वैसे इसके बाद का श्लोक और भी विशेष जान पड़ता है :
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।।१६।।
तात्पर्य यह कि इनमें से कोई कोई अपनी आत्मा के अज्ञान का नाश भी कर देते हैं, और वे शायद दूसरों को उपदेश और शिक्षा भी दे सकते हैं किन्तु यह भी लगता है कि उस स्थिति को प्राप्त कर लेने या प्राप्त हो जाने के बाद उनकी दृष्टि में ऐसा "दूसरा" कहीं कोई रह भी जाता है क्या, जिसे कि वे उपदेश या शिक्षा देने के बारे में सोच भी सकें! या फिर वे अनायास ही ऐसा करते होंगे, "स्वभावस्तु प्रवर्तते" से तो यही लगता है - जैसा अध्याय ३ के निम्न श्लोकों से प्रतीत होता है -
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।१७।।
भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं :
नैव तस्यकृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।१८।।
तस्मदसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचार।।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।१९।।
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।।
लोकसङ्गग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।२०।।
क्योंकि --
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।२१।।
इतना कुछ लिखते लिखते याद आया कि मैं क्यों लिखता हूँ!
अपने विवेकचूडामणि ग्रन्थ में भगवान् श्री आचार्य शङ्कर कहते हैं :
चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये।।
वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किञ्चित्कर्मकोटिभिः।।११।।
अब बहुत शान्ति अनुभव हो रही है, हाँ --
"मैं क्यों लिखता हूँ?"
इसका एकमात्र प्रमुख कारण तो मिला!
फिर यदि इस कर्म में कुछ कमी, दोष या त्रुटि भी हो तो इस श्लोक से भी साँत्वना मिल जाती है --
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।४८।।
(अध्याय १८)
***
No comments:
Post a Comment