Question 11 :
What Is A Relation?
परस्पर सम्बन्ध क्या है?
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ए आई ऐप / A I App :
"संबंध" का अर्थ है सह-अस्तित्व। किन्हीं दो वस्तुओं का एक दूसरे से पृथक होना, और उनमें से प्रत्येक की दूसरे के बारे में उत्पन्न हुई भावना। स्पष्ट है कि इस किसी भी भावना के पैदा होने से पहले उन दोनों ही वस्तुओं में अपने होने की भावना तो विद्यमान होती ही है जिसके परिप्रेक्ष्य में किसी दूसरे को अपने से पृथक् और भिन्न मान लिया जाता है। अपने अस्तित्व की यह भावना भी अपने होने का भान होता है जो दूसरे के न होने की स्थिति में अपरिभाषित होता है, क्योंकि उसे परिभाषित करने के लिए भी किसी शब्द का सहारा लेना होता है, जो पुनः अपने अस्तित्व और अपने अस्तित्व से पृथक् और भिन्न कुछ होगा। अपना अस्तित्व और उसके भान (न कि अनुभव या प्रतीति) को परिभाषित किये जाने का अर्थ है : किसी भी दूसरे के अस्तित्व को अपने से भिन्न और पृथक् किसी अन्य की तरह स्वीकार कर लेना। यह 'दूसरा' पुनः कोई स्थूल इन्द्रियग्राह्य वस्तु (विषय) हो सकता है, या अपने ही भीतर चलनेवाला कोई विचार, भावना या स्मृति। यह भीतर और बाहर का विभाजन भी मूलतः एक कल्पना ही है। कल्पना भी इसी प्रकार का कोई विचार, भावना या स्मृति है। इस प्रकार कोई भी विषय और अपने पर पड़ने वाला उसका प्रभाव ही "संबंध" है। अतः संबंध एक प्रभाव है जो निरन्तर परिवर्तित हो रहा होता है। विषय के अभाव में कोई संबंध भी नहीं हो सकता। अपने आप से अपना संबंध ही 'मन' है। यहाँ 'मन' के अस्तित्व का तात्पर्य तो स्पष्ट ही है कि किसी भी प्रकार के विचार, भावना या स्मृति को ही 'मन' कहा जाता है। तात्पर्य यह कि विचार, भावना या स्मृति की अनुपस्थिति में 'मन' को परिभाषित नहीं किया जा सकता। विचार, भावना या स्मृति भी किसी न किसी स्थूल, इन्द्रियग्राह्य विषय या किसी न किसी सूक्ष्म बुद्धिग्राह्य विचार, भावना या स्मृति से जुड़ी होती है, और उस स्थूल या सूक्ष्म विषय के अपने अस्तित्व और इस अस्तित्व के भान से पृथक् होने और भिन्न होने की प्रतीति पर अवलंबित होती है। स्मृति के ही आधार पर अपने आपको उन सभी विषयों और वस्तुओं से अलग मानते ही अपने स्वतंत्र और पृथक्, उन विषयों और वस्तुओं से अलग कुछ होने की भावना जन्म लेती है। स्मृति से निरन्तरता का भ्रम पैदा होता है जो पुनः बुद्धि पर ही आश्रित विचार ही होता है। इस भ्रम या विचार के आधार पर ही 'मन' को 'अपना' कहा जाता है, जबकि वस्तुतः 'मन' का कोई अस्तित्व ही नहीं हो सकता। अपने अस्तित्व और उसके भान को 'मन' की प्रतीति या आभास तक ही सीमित कर देना ही 'संबंध' की काल्पनिकता को सत्यता, निरन्तरता प्रदान करता है और उसे सतत विद्यमान किसी वस्तु की तरह स्वीकार किए जाने का एकमात्र कारण होता है।
Question 12
प्रश्न 12 :
तो अब एक प्रश्न यह भी है कि "असंदिग्धतः और निर्विवादतः "जो है", अकाट्यतः "जो है", क्या उससे भिन्न और कोई, क्या 'दूसरा' भी कोई हो सकता है, जिससे कि उसका कोई संबंध हो सके?"
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