होली-उत्सव
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कविता
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धूल-धूसरित चरण तुम्हारे,
मेरे मन को भाते हैं,
चरण-धूलि सिर पर रखकर,
भक्त-हृदय हरषाते हैं
चरण-धूलि का अंगराग,
पृथ्वी भी धारण करती है,
जीवों, वृक्षों का स्नेह-सहित,
पालन-पोषण करती है!
गोधूलि वेला हो संध्या को,
सूर्योदय में भी प्रतिदिन ही,
वायु में बिखरी स्वर्ण-कणों,
रत्नों जैसी जगमगाती है?
मन खोया-खोया रहता है,
हृदय भी पुलकित विस्मित सा,
कण-कण में प्रभु कृपा तेरी,
हर मन को हरषाती है।
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