आषाढ़ का एक दिन,
और नावक के तीर,
---------------------------
कभी इन दो पुस्तकों (!) के बारे में पढ़ा-सुना था।
अगर मेरी याददाश्त ठीक है, तो इनमें से प्रथम हिन्दी का नाटक है, जिसकी पृष्ठभूमि में संस्कृत की, संभवतः महाकवि कालिदास की रचना "मेघदूतम्" है।
सोचता हूँ कि एक बार पाठ कर लूँ। संस्कृत की पुस्तकों के बारे में अकसर अनुभव होता है, कि अगर उन्हें किसी आध्यात्मिक या धार्मिक संस्था द्वारा प्रकाशित किया गया हो तो प्रायः उनकी छपाई कलात्मक और सुंदर होती है, किन्तु किसी व्यावसायिक प्रकाशन द्वारा किया गया उनका प्रकाशन वास्तव में पाठक के धैर्य की परीक्षा ही करता है।
"आजकल किताबें कौन पढ़ता है!"
जब मैंने 1990 में नौकरी छोड़ दी थी और अपने आध्यात्मिक मार्गदर्शक की एक अंग्रेजी / मराठी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद करने में उत्साह से संलग्न था तब मेरे एक मित्र और कॉलेज के सहपाठी तथा बैंक के मुझसे जूनियर सहकर्मी ने मेरे इस वक्तव्य पर उपरोक्त टिप्पणी की थी।
यद्यपि मुझे उसकी इस टिप्पणी पर न तो आश्चर्य और न ही दुःख हुआ, क्योंकि उससे मुझे ऐसी कोई आशा थी, कि वह मेरी बात को महत्व देगा।
वह बात वहीं ख़त्म हो गई।
किन्तु जिन पुस्तकों का अनुवाद मैंने किया, उनके प्रकाशकों ने जिस कुशलता और दक्षता से मेरे कार्य का मुद्रण और प्रकाशन किया वह अवश्य ही प्रशंसनीय था।
यद्यपि उस मित्र की यह बात भी अपनी जगह शायद सही ही थी कि आजकल किताबें कौन पढ़ता है।
सचमुच बहुत से प्रकाशक संस्कृत के ग्रन्थों का न तो प्रूफरीडिंग ठीक से करते हैं, न सौ पचास साल पहले मुद्रण करना इतना आसान था, जैसा कि आजकल कंप्यूटर से डेस्कटॉप-एडिटिंग होता है। बीच में कुछ समय इलेक्ट्रॉनिक टाइपराइटरों के आने से यह कार्य अवश्य ही बेहतर ढंग से होने लगा था, किन्तु जैसे मोबाइल के आगमन के बाद पेजर कालातीत (redundant, obsolete, out-dated) हो गए वैसे ही डेस्कटॉप एडिटिंग के आने से पुराने लिथो-प्रिन्टर्स भी कहीं ओझल हो गए।
किन्तु अब बहुत सा साहित्य (विशेषतः संस्कृत भाषा का) on -line भी पाया जा सकता है पर वहाँ इन्हीं प्रोफेशनल्स कारणों से संस्कृत ग्रन्थों की दुर्दशा भी होती है।
'नावक के तीर' का अनुवाद क्या होगा?
मुझे लगता है यह किसी पत्रिका या अन्यत्र लिखा जाने वाला उनका कोई स्तंभ (column) रहा होगा।
निश्चित ही 'नावक' शब्द से श्री शरद जोशी का तात्पर्य 'नाविक' अर्थात् नाव-वाला ही रहा होगा और 'तीर' शब्द से 'बाण' नहीं, -'तट' ही रहा होगा।
नौ, नाव, नावक, नाविक और अंग्रेजी के navigation, naval, navy, एक ही अर्थ को इंगित करते हैं।
गीता का यह श्लोक दृष्टव्य है :
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।।६७।।
(गीता 2/67)
शायद यह समय ही है जो वायु की तरह नेट-सर्फिंग करनेवाले नेवीगेटर को कहीं से कहीं ले जाता है!
***
No comments:
Post a Comment