February 17, 2022

चारा, मछली, मछुआरा!

कविता / 15-02-2022

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वह चारा, वह मछली, और वह मछुआरा, 

युग-युग से नाटक, चला आ रहा सारा!

हर बार उसे लगता है, वह चारा खाएगी,

हर बार ही होता है, निराश वह बेचारा!

होता है सागर, कितना अति-विस्तीर्ण!

होता है तालाब मगर, अति ही संकीर्ण!

तालाब में हैं कितनी और भी मछलियाँ,

रोज पकड़ता है मछुआरा, उनमें से कुछ, 

लेकिन वह अब तक हाथ नहीं है आई,

जिसके लिए कर रहा कोशिश मछुआरा!

कभी कभी लगता है सचमुच, क्या वह है भी! 

कभी कभी लगता है सचमुच, हाँ वह है ही!

लगता है, क्या यूँ ही, बीतेगा जीवन सारा,

मेहनत करता फिर, बेचारा थका-हारा!

***

कस्तूरी तन में बसे, मृग ढूँढे बन माँहि,

प्रीतम तो हिय में बसे, सब ढूँढें जग माँहि!!

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