कविता / 14-02-2022
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विस्मय और रहस्य
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किसी अपरिचित नई जगह पर जाना हो,
जहाँ न कोई अपना जाना पहचाना हो,
लेकिन जो है जानेवाला, उसको खुद को,
कैसे याद रखेंगे उसको, जिसको "मैं" माना हो,
कितना मुश्किल है यह, कितना आसान है यह,
मैं स्वयं अपरिचित "मैं" से, अनजान भी तो है,
क्या यह कभी किसी जगह जा भी सकता है!
कितना व्याकुल, बेचैन और परेशान है यह,
क्या इससे बाहर कोई कभी, जा भी सकता है!
लेकिन यही तो यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ जाता है,
फिर भी सर्वत्र सदा स्वयं को ही पाता है!
जब सबको अपने में, अपने को सबमें पाता है,
तब यह उपरत, शान्त, समाहित हो जाता है!
इस स्थिति तक आने में समय लगा करता है,
किन्तु समय भी यह, विलीन इसमें हो जाता है।
वह सर्वत्र, जहाँ विलीन, समय भी हो जाता है,
यहाँ-वहाँ भी वह जिसमें कि समय नहीं होता,
जहाँ स्थान-समय की सीमा भी मिट जाती है,
अपने स्वरूप पर विस्मय तब, किसे नहीं होता!
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