February 22, 2022

क्षितिज और परिधि

समय क्या है?

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बया का घोंसला

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महर्षि वेदव्यास सूर्य को अर्घ्य देकर शान्त और प्रसन्न मुद्रा में अपने आश्रम में आसन पर विराजमान थे। उनका पुत्र क्षितिज, और पुत्री परिधि उस कुल्या, कूलिनी के तट के समीप अवस्थित उनकी उस पर्णकुटी के आसपास खेल रहे थे, जहाँ पर उनका आश्रम था।

उस क्षीणधारा पयस्विनी के इस तट पर तथा दूसरे तट पर भी बबूल (acacia) के अनेक वृक्ष थे, जिन पर बया के अनेक नये पुराने घोंसले हवा में झूल रहे थे।

वे पक्षी ऋतु आने पर हर बार उन वृक्षों पर नये घोंसले बनाया करते थे। बबूल के वृक्ष पर काँटे उनकी रक्षा करते थे, तो नीचे नदी के बहते जल के कारण कोई शिकारी पशु भी उन घोंसलों तक पहुँच नहीं पाता था।

एक बया उस समय पास के ही एक वृक्ष पर तिनकों से ऐसा ही एक घोंसला बनाने में संलग्न थी, जिसे देखकर दोनों भाई-बहन को अपने पिता के मुख का आभास होता था। भगवान् वेदव्यास जी की मुखमुद्रा और इस घोंसले की रचना में अवश्य ही, कोई समानता तो थी ही!

भैया! इस चिड़िया को क्या समय का भान ही नहीं होता कि वह धीरे धीरे, तिनकों से बुनकर इतने अधिक श्रम और धैर्य के साथ अपना नीड़ निर्मित करती है?

क्षितिज ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह कौतूहल और विस्मय से उस पक्षी को तिनके लाते हुए और उसके साथ के दूसरे पक्षी को तिनकों को बुनकर घोंसला बनाते हुए देखता रहा। 

तब परिधि दौड़कर पिता के पास पहुँची, और उनके समक्ष पुनः अपनी वही जिज्ञासा रख दी, जिसे उसने क्षितिज से पूछा था।

"तुम्हें क्या लगता है? क्या समय के होने से वह चिड़िया अपना घोंसला बुनती है, या उसके घोंसला बुनने के कारण ही समय का, या समय के अस्तित्व का प्रारम्भ होता है?"

यह उत्तर सुनकर परिधि चकित रह गई। 

"फिर समय क्या है?"

उसने पिता से पूछा। 

"अक्षरात्संजायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते... "

पिता ने पुत्री की जिज्ञासा शान्त करते हुए कहा।

"पिताजी! 'व्यापक' शब्द का क्या तात्पर्य हुआ?"

"परधि! 'व्यापक' शब्द के दो आशय हैं : एक है काल, -जिसके आदि या अन्त को कोई भी नहीं जानता, दूसरा आशय है स्थान या आकाश, जिसका विस्तार कहाँ से कहाँ तक है, इसे भी कोई भी नहीं जानता।"

"किन्तु पिताजी! अभी-अभी तो आपने यह कहा कि काल का उद्भव अक्षर से होता है!"

"हाँ, उस अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड-नायक परमेश्वर, चैतन्यघन अक्षर परमात्मा से ही, जिसमें कि सतत असंख्य काल और आकाश, अनवरत वैसे ही उठते और विलीन होते रहते हैं, जैसे कि समुद्र में सदैव असंख्य बुलबुले उठते ओर विलीन होते रहते हैं।"

(कल्पित)

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