February 19, 2022

निष्ठा और श्रद्धा,

विश्वास और मत

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यद्यपि यह एवं इससे पहले का अंतिम पोस्ट मेरे स्वाध्याय ब्लॉग में लिखा जाना उचित होता किन्तु इसे यहाँ लिखने का प्रयोजन यह है कि पाठक मेरे उस ब्लॉग का भी अवलोकन करें। या उस ब्लॉग के पाठक इस ब्लॉग का भी अवलोकन करें। 

ब्लॉग लिखना मेरे लिए एक स्वाभाविक कार्य है, इसका न तो कोई विशेष उद्देश्य है, न इसके माध्यम से मुझे किसी प्रकार का आर्थिक लाभ लेना होता है। व्यक्तिगत रूप से मुझे न तो किसी धर्म, सिद्धान्त, व्यक्ति, मत आदि का खण्डन-मण्डन करना है, न अपने आपको किसी उपदेशक की तरह स्थापित करना है। न ही मेरा यह दावा है कि मैं किसी का गुरु इत्यादि हूँ। हाँ, यहाँ मैं अपने विचार अवश्य व्यक्त करता हूँ, जिसे पढ़ना चाहे वह पढ़े, इससे पाठक सहमत या असहमत हो तो यह अवश्य ही उसकी अपनी स्वतंत्रता है, जिसका भी मैं पूरा सम्मान करता हूँ।

निष्ठा, श्रद्धा और विश्वास, आस्था और मत आदि यद्यपि एक ही व समान अर्थ के द्योतक प्रतीत होते हैं, किन्तु यह आंशिक सत्य ही है, न कि पूर्ण सत्य । 

निष्ठा वह प्रतीति है, जो हमारे मन से स्वाभाविक रूप से उभर आती है, और जिसकी सत्यता पर प्रश्न या संदेह तक नहीं किया जा सकता । जैसे अपने आपके अस्तित्व का भान हर जीवित प्राणी में अनायास ही होता है। मैं यह शरीर हूँ, ऐसी प्रतीति भी अनायास ही हर किसी को होती है। इसके ही बाद यह शरीर मेरा है, इसकी प्रतीति होती है जो स्वाभाविक और अंतःस्फूर्त निष्ठा ही है। यह निष्ठा अतः अचल-अटल, और अपरिवर्तनशील होती है, जो बाहर से नहीं पाई जाती है। 

इसी प्रकार से यह निष्ठा या ज्ञान, कि मुझसे अर्थात् मेरे शरीर से अलग एक वह संसार भी है जिसे हर कोई यद्यपि जानता तो है, किन्तु कभी उसे अपना, तो कभी अपने से भिन्न भी मानता है।

यह ज्ञान अवश्य ही एक सतत परिवर्तित होते रहनेवाला विचार ही होता है, किन्तु फिर भी इस संसार को भी अपने आपकी ही  तरह हमेशा रहनेवाली एक वस्तु की तरह अनायास स्वीकार कर लिया जाता है। परंतु फिर भी अभी भी यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि मैं और (मेरा) संसार परस्पर भिन्न और स्वतंत्र दो अलग अलग चीजें हैं या कि एक ही वस्तु है।

जैसे संसार के अस्तित्व की प्रतीति और उसके बारे में होनेवाला ज्ञान हमें अपने बाहर से प्राप्त होता है, वैसे ही इस संसार के ही एक अंश की तरह से अपने शरीर का ज्ञान भी हमें बाहर से ही प्राप्त होता है। अपने शरीर का ज्ञान तो बाहर से पाई जानेवाली जानकारी मात्र होता है, जबकि अपने आपका भान ऐसी किसी प्रकार की जानकारी न होकर नित्य विद्यमान अनुभव / प्रतीति होता है। अपने अस्तित्व का भान भी है, और इस भान का भी अस्तित्व तो है ही। अस्तित्व और भान एक दूसरे से अविभाज्य सत्य  हैं। 

किन्तु शरीर के चेतन होने से ही अस्तित्व का भान मैं के रूप में अभिव्यक्त होता है और तत्क्षण ही इस शरीर को ही मैं की तरह सत्य भी मान लिया जाता है। 

शरीर के रूप में अपने आपको स्वीकार कर लेने के बाद भी इस तथ्य पर ध्यान नहीं जा पाता है कि जिन मूल तत्वों से यह शरीर बना है, संसार भी तो उन्हीं मूल तत्वों से बना हुआ है।

इस प्रकार मैं और मेरा संसार एक ही साथ एक दूसरे से भिन्न / अभिन्न भी प्रतीत होने लगते हैं। बाद में यहीं से संशय, दुविधा और तथाकथित अज्ञान प्रारम्भ होता है।

इस अज्ञान से ही फिर विभिन्न विचार, मत, आस्था, विश्वास भी  पैदा होते हैं, जो सामाजिक मान्यताओं का रूप ले लेते हैं, जिसे समाज के प्रभावशाली वर्ग के लोग दूसरों को शिक्षा के माध्यम से प्रदान करते हैं। शिक्षा के अंतर्गत इसलिए निष्ठा के स्वरूप के बारे में नहीं, बल्कि वैचारिक सिद्धान्तों के बारे में अध्ययन किया जाता है । इस प्रकार की शिक्षा पुनः या तो सामाजिक विखंडन का कारण बनती है, या तथाकथित समन्वयात्मक दृष्टिकोण को स्थापित करने का प्रयास करती है और कुछ लोग उसके कायल हो जाते हैं। यह दृष्टिकोण साम्यवाद, समाजवाद, राष्ट्रवाद, भाषा या धर्म (रिलीजन) आदि के रूप में राजनीतिक दर्शन हो जाता है। यह अहिंसावादी हो सकता है या हिंसा को उचित ठहराने पर बल देने के आग्रह के रूप में अतिवाद का रूप भी ले सकता है। यही फिर वर्ग-संघर्ष को अपरिहार्यतः आवश्यक भी घोषित कर, उसका औचित्य भी सिद्ध कर सकता है।

किन्तु यदि मत, विश्वास, विचार आदि के स्थान पर -निष्ठा क्या है, इसे जानने का प्रयास किया जाए तो पता चलता है कि यह हमारे भीतर विद्यमान सत्य का सहज स्वाभाविक साक्षात्कार ही है। और यह सत्य अलग अलग लोगों का अलग अलग अनुभव न होकर सभी की एकमेव वास्तविक अनुभूति ही है।

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