कविता / 21-02-2022
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तुम कौन!
सोचने दो संसार को,
संसार के बारे में!
सोचने दो मन को,
मन के बारे में!
सोचने दो साँस को,
साँस के बारे में,
बुद्धि को बुद्धि के बारे में,
स्मृति को स्मृति के बारे में!
शरीर को खुद उसके बारे में!
तुम क्या सोच सकते हो!
क्या तुम सोच सकते हो!
क्या तुम सोच भी सकते हो!
फिर सोचता कौन है!
तय है, कोई कहीं नहीं!
तुम्हें डर लगता है!
पर क्या डर तुम्हें लगता है!
तुम्हें भूख लगती है,
पर क्या भूख तुम्हें लगती है!
तुम्हें नींद आती है,
पर क्या नींद तुम्हें आती है!
तुम जाग जाते हो,
पर क्या तुम सोये भी थे!
तुम्हें स्वप्न आते हैं,
पर क्या स्वप्न तुम्हें आते हैं!
भूख और प्यास,
थकान और नींद,
स्वप्न और जागना,
तुम्हें पूछे बिना ही आते हैं,
पता नहीं कौन है वह,
जो करता है इंतजाम सारा,
शायद उसे ही भगवान कहते हैं!
या उसको ही संसार कहते हैं,
भगवान को भगवान के बारे में,
संसार को संसार के बारे में,
भगवान को संसार के बारे में,
संसार को संसार के बारे में,
मन को मन के बारे में,
तन को तन के बारे में,
बुद्धि को सोचने दो,
बुद्धि के बारे में,
और स्मृति को सोचने दो,
स्मृति के बारे में!
तुम्हें पता ही है,
कि तुम बस, हो भर!
पता न भी हो,
तो भी तुम हो ही!
पता होना भी है ही!
बस तुम्हें इतना ही पता है,
इतना होना पता भी काफी है,
तुम्हारा होना भर ही काफी है!
अपना होना पता भी काफी है!
पता होने का होना काफी है!
सोचना निहायत गैर-जरूरी है,
और फिर, यूँ भी नामुमकिन है!
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