September 27, 2021

वो कौन है?

कविता : 25-09-2021

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न अन्धेरा ही दिखाई देता है, 

न रौशनी ही दिखाई देती है!

जब किसी चीज़ पर पड़ती है,

तो चीज़ों में दिखाई देती है! 

और चीजो़ं पे उसके पड़ते ही,

तमाम चीज़ें दिखाई देती हैं!

फिर भी अन्धेरे में चीज़ों को,

और चीज़ों में अन्धेरे को भी,

नहीं देख सकता है कोई भी,

उनपे रौशनी भी डाले अगर!

रौशनी करती तो है रोशन लेकिन, 

अन्धेरे को नहीं कर सकती कभी, 

हाँ मिटा सकती है, उसको शायद,

पर दिखा तो नहीं, सकती है कभी!

रौशनी में मगर जिसे दिखाई देता है,

अन्धेरे में जिसे दिखाई देता नहीं, 

रौशनी में या अन्धेरे में भी कभी, 

क्या वो खुद को देख सकता नहीं!

या फिर ऐसा है क्या, कि वो खुद को,

देखता है कभी, किसी रौशनी में ही, 

किसी चीज़ की तरह, किसी अन्धेरे में, 

या नहीं देखता है, अन्धेरे की तरह! 

तो सवाल है, वो दिखाई देता है किसे? 

तो सवाल है, कि देखता है कौन उसे?

दिखाई देने या, न दिखाई देने से उसके, 

होने या न-होने का, उठता है सवाल?

और यह भी है, कि देखनेवाला वह,

क्या देख सकता है खुद अपने को,

खुद से जुदा, और चीज़ की तरह!

क्या ये होना, मुमकिन भी है कभी!

तो फिर वो देखता है कैसे खुद को,

मगर क्या वही हर चीज़ में होकर,

इसी तरह से देखा करता है खुद को!

तो सवाल ये भी है कि ये तमाम लोग,

जो समझते हैं सबको अलग अलग, 

तो सवाल ये भी है कि ये तमाम लोग,

जो समझते हैं खुद को दूसरों से अलग,

क्या नहीं हैं शिकार, किसी ग़लतफ़हमी का? 

क्या नहीं हैं शिकार अपनी नासमझी का? 

फिर सवाल ये भी है कि आख़िर वो,

जिसे दिखाई देता है, जो देखा करता है, 

क्या ये दोनों हैं वजूद, अलग, अलहदा?

और हैं, क्या दोनों, एक-दूसरे से जुदा!

क्या उसको, फिर कहें, जो सबमें है,

क्या उसको, कह सकते हैं, हम खुदा! 

तो क्या ये सच नहीं है, कि कोई नहीं,

कोई भी नहीं है कभी भी उससे जुदा,

तो क्या ये सच नहीं है, कि कोई भी नहीं,

उसके सिवा, कोई नहीं और, उससे जुदा! 

***

आवश्यक सूचना :

यह कविता यहीं पूरी हो जाती है, 

इसे किसी मजहबी चश्मे से न देखा जाए!  :

नज्म का निजाम होना चाहिए,

नग़मे का गुमान होना चाहिए,

दोनों महदूद, महफ़ूज़ रहें, वहीं तक,

अदब में ईमान होना चाहिए !

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