September 11, 2021

प्रतिलिपि / प्रतिच्छाया

निर्णय, भान, विषयी और विषय... 

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कोई विषय हमें आकर्षित करता है । कोई विचार हमें आकर्षित करता है। कोई विषय हमें विकर्षित करता है।  कोई विचार हमें विकर्षित करता है। कोई विषय / विचार हममें कोई भावना जाग्रत करता है। कोई विषय / विचार हमें छूता तक नहीं। कोई विषय / विचार स्मृति से एकाएक ऊपर उभर आता है। 

अच्छे और बुरे की भावना, प्रिय और अप्रिय की भावना, लज्जा या शर्म, संशय, चिन्ता, व्यग्रता, व्याकुलता, सुरक्षा, क्रोध, लोभ, असमंजस, आशा और निराशा, ग्लानि और ऐसी दूसरी भी कई भावनाएँ कभी किसी विषय के सामने आते ही प्रायः जाग्रत हो उठती हैं। इनमें से शायद सर्वाधिक विशिष्ट और इनसे कुछ भिन्न और विलक्षण भावना भी होती है जिसे भविष्य अथवा भूतकाल कहा जाता है। इस पूरी वास्तविकता पर शायद ही कभी हमारा ध्यान जाता हो । पर यही तो जीवन की रीत ही है और अगर कहें कि हर किसी के ही साथ ही ऐसा हुआ करता है, तो यह कहना गलत न होगा। हम इस विषय में सचेत रहें या न रहें, जीवन की यह गतिविधि कभी रुकती नहीं। 

या तो हम जीवन की इस गतिविधि के प्रति सजग और सचेत होते हैं, या बाहरी परिस्थितियों के,  या अपने संस्कारों के दबाव में भावनाओं को किसी हद तक वश में कर लेते हैं। फिर भी, जब इस प्रकार से किन्हीं भावनाओं को, या किसी एक को भी वश में कर लिया जाता है, तो वे मन की गहराई में कुंठित और दबी रहकर कुलबुलाती रहती हैं, और अनुकूल परिस्थिति होते ही अचानक फूट पड़ती हैं। इस पूरी प्रक्रिया के होने में वैसे तो समय लगता है, किन्तु क्या 'समय' भी एक विचार या भावना (या एक साथ दोनों ही) नहीं होता? समय, जिसे अभी अभी 'प्रक्रिया ' पर आरोपित किया गया है! इस 'समय' नामक वस्तु की क्या कोई भौतिक सत्ता होती है? क्या दूसरी भौतिक राशियों की तरह से इसकी माप-जोख की जा सकती है? क्या इसे मापने या तौलने का विचार या कल्पना निरर्थक और हास्यास्पद नहीं है? किन्तु हम सभी इस बारे में इतने अभ्यस्त होते हैं, और इतने अधिक इतनी पूरी तरह से आश्वस्त, सुनिश्चित होते हैं कि कभी शायद ही इस पर हमारा ध्यान जाता हो, कि 'समय' नामक किसी वस्तु की क्या कोई वास्तविकता है!

भावना एक जीवंत (alive or live) प्राणवान, जीता-जागता तथ्य होता है, कोई जड, या भौतिक इन्द्रियग्राह्य वस्तु नहीं होता, किन्तु इसे नाम या शब्द दिए जाते ही 'विचार' जन्म लेता है, और तब, भावना ही विचार की सहायता से स्मृति में रूपान्तरित हो जाती है। एक ही समय पर अनेक भावनाओं की स्मृति होने पर उनकी परस्पर तुलना की जाने लगती है, जो कि विचार के ही माध्यम से घटित होता है।

भावना को शब्द या नाम दिए जाते ही, 

"मुझे पता है!" या "पता है!"

इस प्रकार का ज्ञान (या ज्ञान का भ्रम) हममें पैदा हो जाता है। 

फिर ऐसी ही किसी भावना से प्रेरित व्यवहार या आचरण को 'कार्य' / 'कर्म' कहा जाता है और पुनः उस कार्य तथा ऐसे ही असंख्य कार्यों को घटना के रूप में 'अपनी' स्मृति में संजो लिया जाता है।

इसी तरह की एक और सर्वाधिक प्रमुख भावना, जो कि निरंतर ही उत्पन्न होती और पुनः पुनः विलीन भी होती रहती है, वह है - 'अपने' होने, या अस्तित्व में होते हुए भी अस्तित्व से कुछ भिन्न, अलग और पृथक् भी होने की भावना। यही भावना, अपनी इस  आभासी निरंतरता से, बुद्धि में अपने कुछ विशेष, और अस्तित्व / संसार से पृथक् कुछ होने के अनुमान, और फिर स्मृति में ढल जाती है, जो क्रमशः दृढ और स्थायी (जैसी) लगने लगती है। 

इसे ही बोलचाल में "मैं" शब्द से व्यक्त किया जाता है, और फिर इस तरह से 'अपने' व्यक्तित्व का जन्म होता है। यद्यपि यह "मैं" सबके लिए (और हरेक के लिए भी) अपने नितान्त निजि प्रयोग की वस्तु होता है, फिर भी बातचीत में सभी इस शब्द का प्रयोग किया करते हैं। किन्तु इस प्रकार से इस शब्द के जिस तात्पर्य का भान और बोध होता है, उससे मनुष्य 'अपने' और अपने संसार के बीच आभासी, कृत्रिम विभाजन की एक काल्पनिक दीवार खड़ी कर लेता है। 

इस प्रकार से असंख्य व्यक्तियों के अपने अपने संसार होते हैं, जो एक दूसरे से यद्यपि अत्यंत भिन्न और पृथक् होते हैं, फिर भी एक सर्वसम्मत भौतिक संसार / विश्व (objective world) सबका भी अवश्य होता ही है, जिसे सभी एक ही मानते हैं और इस बारे में किसी का किसी से कोई मतभेद भी नहीं होता। जिसे हर मनुष्य अपनी जाग्रत अवस्था में अनुभव करता है। मनुष्य-मात्र में अपने स्वयं के, और अपने संसार के बीच का यह कृत्रिम, काल्पनिक, वैचारिक विभाजन "मैं" शब्द के (असावधानी से किए जानेवाले) सतत प्रयोग से निरंतर दृढ होता रहता है। यह भी कहा और पूछा जा सकता है कि (क्या) पशु-पक्षियों आदि तथा अन्य जीवित कहे जानेवाले 'चेतन' / sentient प्राणियों में भी ऐसी भावना, उस भावना की ऐसी निरंतरता, तथा उसकी कोई स्मृति होती होगी, और क्या वह केवल शरीर और शरीर की स्मृति तक ही सीमित होती होगी? उनके पास भी कहने अथवा  सोचने के लिए "मैं" जैसा, या ऐसा कोई और शब्द होता होगा, जिससे वे अपनी स्मृति में स्वयं की एक ऐसी छवि बना सकें, -जैसे कि मनुष्य बना लिया करता है?

इस समूची स्थिति / वास्तविकता का भान / बोध हो जाने पर और इस प्रकार से इसका अवलोकन कर लेने पर, क्या हममें / मन में कोई नई भावना जाग्रत होती है? 

स्पष्ट है कि 'मन' भी ऐसा ही एक शब्द भर है, जो भावना के प्रभाव की तरह, भावना के अर्थ का द्योतक है,  - न कि ऐसी कोई वास्तविकता या सत्य (Reality or truth).

क्या यह मन, मूलतः एक भावना ही नहीं है, जो यद्यपि क्षण-क्षण परिवर्तित हो रहा होता है, किन्तु उसका अस्तित्व नहीं मिटता। इस विवेचना को विचार की सहायता से किसी शास्त्र से संबद्ध (relate) कर, शास्त्ररूपी वैचारिक क्रम या सिद्धान्त का रूप भी शायद दिया जा सकता हो, और भ्रम को और अधिक दृढता प्रदान की जा सकती हो, लेकिन वह सब केवल वैचारिक भूल भुलैया में अंतहीन भटकाव भी हो सकता है। 

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विषय (object) और (subject) के रूप में जागरूक होना,  सचेत होना, भान होना, -क्या पुनः भावना ही नहीं है? 

कभी हम सचेत होते हैं, जो भान होने से ही संभव होता है। कभी हम अचेत होते हैं, तो उस अवस्था में - "भान नहीं था, और हम चेतनारहित थे",  -ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पुनः सचेत होने पर हमें स्पष्टता से तथा निश्चयपूर्वक पता होता है कि तब भी हम थे ही, और हममें अपने होने का भान भी अवश्य ही था! इसकी तुलना हम अपनी निद्रावस्था से कर इसे और भी बेहतर समझ सकते हैं।

कभी हम जानकारी / विचार का सहारा लेकर सचेत होते हैं, जो शायद यांत्रिक, स्मृति से सीमित और अभ्यासजनित होता है। किन्तु अपने होने का स्वाभाविक भान, अस्तित्व के प्रति सचेत होना, यह सजगता, यह जागृति क्या अभ्यासजनित होती है!

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