श्रीमद्भगवद्गीता : अध्याय २
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।।६७।।
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कैलास पर्वत पर अपने धाम में भगवान् त्रिपुरारी जब आत्मस्थ होकर स्वरूप में समाधिस्थ थे तो माता पार्वती जगत् और जीवों के कल्याण की चिन्ता में डूबी हुई थीं ।
इस प्रकार दोनों ही बहुत अधिक आत्मनिमज्जित थे।
जब भगवान् की समाधि भंग हुई तो उनकी दृष्टि माता पार्वती पर पड़ी। उन्हें अपनी समाधि में ही इसका भान हो चुका था कि माता पार्वती किसी प्रकार की चिन्ता से ग्रस्त हैं, और इसीलिए वे समाधि से उठ गए थे।
"देवी! तुम्हें किस विषय में चिन्ता हो रही है, मुझसे कहो!"
उन्होंने माता पार्वती को कटाक्ष से देखते हुए प्रश्न किया।
माता पार्वती ने उनके चरण-युगल को स्पर्श किया और तब बोली :
"हे प्रभो! उस दिन आपने गीता के उक्त श्लोक का उल्लेख करते हुए इसका तात्पर्य मुझे समझाया था, किन्तु अब मुझे विस्मृत हो रहा है, इसलिए मेरा निवेदन है कि कृपया पुनः एक बार इसे मुझसे कहें!"
भगवान् शिव ने यद्यपि जान लिया, कि माता पार्वती ने यह प्रश्न केवल इसलिए किया है ताकि इसके बहाने से एक बार फिर यह उपदेश उन असंख्य जीवों को प्राप्त हो सके, जो भवसागर के क्लेशों में डूबे हुए आतुरता से उद्धार किए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। फिर भी इसे प्रकट न होने देते हुए वे बोले :
"पार्वती! जिस तरह से जल पर स्थित किसी नाव को चंचल वायु बलपूर्वक हर लिया करता है और फिर खींचकर अपनी दिशा में ले जाता है, बिल्कुल उसी तरह से इन्द्रियों के चंचल होने पर मन जब उनके पीछे पीछे भागता है, तो उसकी प्रज्ञा को इन्द्रियाँ भी उसी तरह से हर लिया करती हैं ।"
कुछ क्षणों तक दोनों निःशब्द होकर विस्मयपूर्ण शान्ति में डूबे रहे। फिर पार्वती ने प्रश्न किया :
"प्रभो! किन्तु फिर मन इन्द्रियों के पीछे पीछे न जा सके, इसका क्या उपाय है?"
तब भगवान् शिव ने स्मितपूर्वक कहा :
"तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।६८।।
इसलिए हे महाबाहो! जिसकी इन्द्रियाँ भली प्रकार से निग्रहीत अर्थात् निरुद्ध होती हैं, उसकी प्रज्ञा स्थिर और सुप्रतिष्ठित हो जाती है।"
तब माता पार्वती ने पुनः जिज्ञासा व्यक्त की :
"हाँ, यह तो ठीक है, किन्तु उन्हीं के लिए जिन्होंने अभ्यास द्वारा इन्द्रियों को वश में कर लिया है। परन्तु बहुत से ऐसे भी हैं जो अभ्यास करने में भी समर्थ नहीं हो पाते हैं। उनके लिए कौन सा उपाय है?"
तब भगवान् करुणावतार शिव ने कहा :
"हाँ उपाय है न!
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।।१०।।
(अध्याय १२)
यदि कोई अभ्यास करने में भी असमर्थता अनुभव करता है, किन्तु यदि अपने समस्त कर्म केवल मेरे ही लिए करता है, -इस भावना से युक्त होकर उन कर्मों को मुझे ही अर्पित कर देता है तो भी ऐसा कर्म करते हुए वह मुझसे (अनन्यता-रूपी) सिद्धि को प्राप्त कर लेता है ।"
भगवान् शिव ने अपने नेत्र बन्द कर लिए और वे जब पुनः अपने स्वरूप में समाधिस्थ होने जा ही रहे थे तब उन्हें प्रतीत हुआ कि माता पार्वती की जिज्ञासा अभी भी पूर्णतः शान्त नहीं हो सकी, अतः अपने नेत्र खोलकर माता पार्वती पर दृष्टिपात किया।
फिर स्वयं ही कहने लगे :
हे पार्वति! तुम तो जानती ही हो, समस्त जड-चेतन जगत् और जीव आदि, तुम्हारी ही माया से मोहित होकर अपना सारा कार्य किया करते हैं। इन्द्रियों के विषय इन्द्रियों को अपना आहार बना लेते हैं, इन्द्रियाँ मन को अपना आहार बना लेती हैं, मन भी बुद्धि को, और इतना ही नहीं, बुद्धि भी आत्मा को अपना आहार बना लिया करती है। पुनः विलोम-क्रम में, आत्मा से बुद्धि का उद्भव होता है, बुद्धि से मन का, मन से इन्द्रियों का, और अंततः इन्द्रियों से विषयों का उद्भव होता है।
तो अब यह भी सुनो, जैसा कि अध्याय ९ में वर्णित है :
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।।१०।।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ।।११।।
हे पार्वति!
मेरी ही प्रेरणा से प्रकृति समस्त चर और अचर भूतों को जन्म देती है और इसीलिए जगत् सतत परिवर्तित होता रहता है।
मुझ भूतमहेश्वर के परम भाव से अनभिज्ञ होने के कारण मूढ मनुष्य मुझ परमेश्वर को भी मनुष्यदेह में स्थित मानुषी प्रकृति का व्यक्ति-विशेष मान लेते हैं। किन्तु तुम्हारी अनुग्रह शक्ति की कृपा होते ही उनकी बुद्धि के समस्त दोषों का निवारण भी हो जाता है, और उनका उद्धार हो जाता है। क्या तुम्हारी जिज्ञासा शान्त हुई?
(कल्पित)
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