कविता : 24-09-2021
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विडम्बना जीवन की!
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तुच्छ लगता है वह हमें, जो कि उपलब्ध है,
आकर्षित करता वह, मन जिस पर मुग्ध है।
परिधि का केन्द्र से संबंध भी अद्भुत् है,
नित्य सतत स्वयं का स्वयं से ही युद्ध है!
केन्द्र से ही तो परिभाषित, यह परिधि है,
परिधि से ही तो परिभाषित यह केन्द्र है।
एक का विस्तार जब, असीम हो जाता है,
दूसरा अस्तित्व तब, जैसे कि खो जाता है।
फिर भी नहीं संतोष, किसी भी परिसीमा में,
असंतुष्ट ही रहते हैं दोनों संकीर्ण सीमा में।
टकराते हैं अहं अपने, पृथक् पृथक् दोनों के,
पर नहीं मिलकर हैं घुलते, स्नेह-प्रतिमा में।
स्नेह जो है संधि, जैसे दिवस रात्रि की,
करती पृथक् है दोनों को, धरती प्रतीति की!
बस यही तो हर मनुज के मन का द्वन्द्व है,
जो मिल गया वह तुच्छ, खो गया वह स्वर्ण है!
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