श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४ में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।१।।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।२।।
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।३।।
तब अर्जुन ने शंका व्यक्त करते हुए पूछा :
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ।।४।।
अर्जुन की इस शंका का निवारण करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया :
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।।५।।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।।६।।
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इसी 30/31 अगस्त 2021 के दिन अपने 'प्रसंगवश' ब्लॉग में एक पोस्ट लिखा था :
विषय, विचार, भावना
(संभवतः अभी तक उस पोस्ट पर किसी पाठक की कृपादृष्टि नहीं पड़ी है। किन्तु मुझे वह पोस्ट महत्वपूर्ण प्रतीत हो रहा है, इसलिए उसे थोड़े से संशोधन सहित अगली पोस्ट में यथावत पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ।)
उपरोक्त श्लोकों के सन्दर्भ में जहाँ 'अहं' का अर्थ आत्मा, जीव और परमात्मा तीनों ही दृष्टियों से ग्रहण किया गया है और तीनों ही अर्थ व्याकरण की दृष्टि से भी ग्राह्य हैं, संस्कृत व्याकरण के ज्ञाता इसकी परीक्षा अच्छी तरह कर सकते हैं।
यदि 'अहं' पद को आत्मा (अन्य-पुरुष एक-वचन) या 'मैं' (उत्तम-पुरुष एक-वचन) के अर्थ में ग्रहण किया जाए, तो 'तान्यहं वेद' में प्रयुक्त 'वेद' शब्द को 'विद्' (जानना) धातु के अन्य-पुरुष लट् - लकार, एक वचन, तथा उत्तम-पुरुष एकवचन दोनों ही रूपों में ग्रहण किया जा सकता है ।
बृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार आत्मा / परमात्मा का प्रथम नाम 'अहम्' ही हुआ :
'अहं नामाभवत् ...'
वैसे भी संस्कृत भाषा में उत्तम-पुरुष एकवचन सर्वनाम (मैं) को आत्मा शब्द से ही व्यक्त किया जाता है।
इसी प्रकार, 'बहूनि मे व्यतीतानि' का अर्थ भी आत्मा, परमात्मा या व्यक्ति के रूप में स्वयं के अर्थ का द्योतक हो सकता है।
किन्तु जब भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा इस प्रकार से कहा जाता है, तो स्पष्ट है कि परमात्मा के जन्म का तो प्रश्न ही नहीं उठता, किन्तु किसी विशिष्ट प्रयोजन को पूर्ण करने के लिए परमात्मा मनुष्य देह में अवतरित होता है, तो यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार के अनेक अवतार या जन्म परमात्मा के भी हो सकते हैं । किन्तु मनुष्य के लिए यह जान पाना लगभग असंभव ही है कि इस जन्म से पूर्व क्या मेरे और भी जन्म हुए होंगे!
उपरोक्त सन्दर्भ में उल्लिखित पोस्ट को यहाँ पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है।
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चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ।।१३।।
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बद्ध्यते ।।१४।।
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ।।१५।।
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताःक्ष।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।१६।।
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ।।१७।।
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ।।१८।।
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मनुष्यमात्र में इस 'मैं' सर्वनाम के वास्तविक तात्पर्य के विषय में न केवल अज्ञान और संशय बल्कि अनेक प्रकार की भ्रान्तियाँ भी होती हैं। किन्तु शायद ही कभी किसी का ध्यान इस सच्चाई पर जाता होगा। यहाँ तक कि इस बारे में सोचते ही बुद्धि कुंठित और अवरुद्ध होने लगती है।
यह भी कहा जाता है कि अहंकार नहीं करना चाहिए।
या फिर, 'अहंकार को त्याग दो।'
प्रश्न है कि अहंकार को त्यागने, या न त्यागने का कार्य कौन करेगा?
इसे क्या किसी और तरह से नहीं कहा जा सकता?
अहंकार वैसे तो एक विशिष्ट, दूसरी समस्त भावनाओं से भिन्न एक विलक्षण भावना ही है, किन्तु जैसे अन्य सभी भावनाएँ अपने अपने समय पर व्यक्त और विलुप्त होती रहती हैं, यह भावना उन सभी के साथ यद्यपि सदैव संलग्न होती है, किन्तु इसे उन सारी भावनाओं की तरह स्वतंत्र रूप में कभी नहीं पाया जाता।
अपरोक्षतः इसे कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व इन चार रूपों में अवश्य पहचाना जा सकता है।
कैसे?
ज्ञातृत्व :
कोई विषय हमें आकर्षित करता है । कोई विचार हमें आकर्षित करता है। कोई विषय हमें विकर्षित करता है। कोई विचार हमें विकर्षित करता है। कोई विषय / विचार हममें कोई भावना जाग्रत करता है। कोई विषय / विचार तो हमें छूता तक नहीं।
इस प्रकार हममें अनायास ही ज्ञातृत्व की, अर्थात् जानने की जो स्वाभाविक क्षमता, या भावना होती है । जानकारी के संग्रह के रूप में जिसे 'ज्ञान' (information) कहा जाता है, उससे बहुत अलग और भिन्न होती है। यह 'ज्ञान' (information) सदैव शाब्दिक या स्मृतिरूप में होता है और वेदान्त की भाषा में उसे 'प्रत्यय' कहा जाता है। इसी प्रकार शब्दरहित विषयग्रहण को ज्ञातृत्व कहा जा सकता है।
'प्रत्यय' और 'वृत्ति' के भेद का वर्णन पातञ्जल योग-सूत्र में अच्छी तरह स्पष्ट किया गया है।
भोक्तृत्व :
अर्थात् अनुभव होना, अच्छा लगना, अच्छा न लगना, सुख-दुःख होना ।
कर्तृत्व :
किसी कार्य को करने / न करने का संकल्प होना,
और उस कार्य के अच्छे या बुरे फल का भोग करने या न करने का विचार / भावना।
स्वामित्व :
संपत्ति, संबंधों, वस्तुओं, अपने अधिकार के अन्तर्गत आनेवाले लोगों पर अपना स्वामित्व होने की भावना।
ये ही चार वर्ण 'मन' के होते हैं ।
क्या 'मन' इन चारों वर्णों से रहित हो सकता है?
प्रसंगवश ब्लॉग में 30 / 31 अगस्त 2021 को लिखी पोस्ट :
विषय, विचार, भावना
में इसी बारे में विवेचना की गई है।
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