September 30, 2021

कहीं भी नहीं!

कविता : 30-09-2021

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कहीं नहीं जाना है तुमको,

भविष्य, अतीत, नहीं होता,

सब कुछ तो बस, यहीं अभी है, 

दूर या पास नहीं होता!

कैसे जाओगे तुम अतीत में,

जो बीत गया, व्यतीत हुआ, 

केवल स्मृति में ही शेष रहा, 

स्मृति से मिटकर अतीत हुआ!

उस स्मृति की ही छाया है, 

जो होती है भविष्य, मन में,

वैसा समय कहाँ होता है,

सब कुछ है केवल इस पल में! 

यह पल जो कि, नहीं बीतता,

यह पल शाश्वत, निश्चल है,

ऐसा फिर कैसे हो सकता है,

कि निश्चल भी, पर चंचल है!

किन्तु कल्पना, है नित चंचल, 

स्मृति भी तो है ऐसी ही,

बुन लेते हैं ताना-बाना, 

जिसे कहें अतीत-भविष्य!

वह निरपेक्ष चेतना लेकिन,

नित्य अपरिवर्तित है निश्चल,

जिसमें ये दोनों बनते-मिटते,

अविकारी, जो सम-अविकल!

जैसे कल्पित भविष्य-अतीत, 

उस प्रकाश में छाया-धूप,

वैसा है मैं, मेरा जग भी, 

वैसा दोनों का रंग-रूप!

यह तन तो है, बस प्रकृति,

जैसा भी है, बस जग है, 

यह मन तो है केवल कर्म,

उन दोनों का यह रहस्य है।

यह तन जैसी भी प्रकृति है,

केवल वैसा भर होता है,

यह मन सतत कार्य करता है, 

यह निष्क्रिय कब होता है? 

विलक्षण किन्तु चेतना इनसे ,

होकर भी इनसे अभिन्न,

जग, तन, मन परस्पर भिन्न, 

चेतना निरन्तर, है अविच्छिन्न! 

तन, मन बनते-मिटते रहते, 

जग भी, आता जाता है, 

किन्तु चेतना, जिसमें ये हैं, 

उसका इनसे क्या नाता है?

क्या उसको जानेगा कोई,

जो न कभी बनता-मिटता,

लेकिन जिसके होने से ही, 

स्मृति से कल्पित समय उगता!

चिन्तन है, तो चिन्ता है, 

चिन्ता है, तो आशा है,

आशा है तो, निराशा भी, 

चिन्तन का यही तमाशा है!

तन की अपनी प्रकृति है,

मन का है अपना स्वभाव,

दोनों का स्वतंत्र जीवन, 

फिर कैसे हो उनमें निभाव!

यह केवल मुश्किल ही नहीं,

यह तो असंभव है नितान्त,

फिर कैसे मिट पाएगी दुविधा, 

कभी हृदय, क्या होगा शान्त! 

स्मृति, कल्पना, और समय की, 

चेतना ही तो है क्रीडा-स्थान,

जिसमें जग है प्रति-पल कल्पित,

तन-मन का आगमन-प्रस्थान!

पुनः पुनः वे जिसमें उठते, 

पुनः पुनः जिसमें खो जाते,

और जगत की, अपनी भी,

बस कोई भूमिका निभाते!

उसकी ही तो क्रीडा है, 

जिसे समझ ना पाने से ही, 

यह जीवन, जग भी पीड़ा है!

स्मृति, विचार या चिन्तन से,

इस पीड़ा को मत उलझाओ,

इस रहस्य पर ध्यान लगाकर, 

इस सवाल को तुम सुलझाओ! 

***

टिप्पणी :

क्या सबसे पहले किसी बाह्य, दृश्य संसार पर ही तुम्हारा ध्यान नहीं आकर्षित होता!

फिर इसके बाद तुम्हारे संसार में तुम्हारा ध्यान क्या अपने आप पर भी पुनः पुनः नहीं आता रहता?

क्या तुम्हारा शरीर ही तुम्हारा ध्यान इस ओर आकर्षित नहीं करता कि तुम संसार में हो, न कि संसार तुममें!

क्या इस तरह से तुम अपने आपको संसार में, किन्तु फिर भी संसार से अलग एक व्यक्ति-विशेष नहीं मान लेते? 

क्या तुम्हारी इन्द्रियाँ ही तुम्हें तुम्हारे संसार का, और तुम्हारा ज्ञान नहीं देती हैं?

क्या तुम्हारा मन ही तुम्हें तुम्हारी इन्द्रियों के अस्तित्व का ज्ञान  नहीं देता? 

क्या तुम्हारा मन ही तुम्हें क्रम से जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं में बार बार नहीं ले जाता?

क्या तुम्हारी इन्द्रियों और मन से प्राप्त होनेवाले अनुभव ही तुम्हें सुख-दुःख आदि का ज्ञान नहीं कराते?

क्या तुम्हारी स्मृति ही तुम्हें तुम्हारे (!) मन के अस्तित्व का ज्ञान नहीं देती?

क्या तुम्हें तुम्हारी स्मृति के अस्तित्व का ज्ञान भी तुम्हारी बुद्धि से ही नहीं प्राप्त होता?

और क्या तुम्हारी बुद्धि का भान तुम्हें तुम्हारी चेतना से ही नहीं प्राप्त होता?

और पुनः, बुद्धि से चेतना को जाना जाता है या चेतना में ही बुद्धि को?

क्या यह चेतना ही तुम्हारी नित्य सनातन सत्ता और तुम्हारी  परम वास्तविकता ही नहीं है?

क्या यही चेतना, अनायास ही, भान के रूप में सदैव ही अपने आपकी अभिव्यक्ति और उद्घोष भी नहीं करती?

अपने इस अस्तित्व का यह सहज उद्घोष ही क्या तुम्हारा परम आत्यन्तिक, अन्तर्यामी गुरु नहीं है?

क्या उसे खोज लेना ही सर्वाधिक सरल और आवश्यक नहीं है! 

फिर किसी और गुरु को खोजने का प्रश्न ही कहाँ है?

इस प्रकार संसार, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, स्मृति, बुद्धि, और चेतना, क्या तुममें अवस्थित तुम्हारे गुरु नहीं हैं?

क्या वे तुमसे अर्थात् आत्मा से भिन्न और पृथक हैं? 

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णू गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरू साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।। 

***






 







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