धर्म और सनातन-धर्म
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सन्दर्भ : R.S.N.Singh, (पूर्व रॉ अधिकारी) का वक्तव्य
कल यू-ट्यूब पर 'अखंड हिन्द' के वीडियो में उक्त वक्तव्य सुना। संभवतः दो-तीन वर्ष पहले भी इसे सुना था। वे स्वयं तो अपने इस वक्तव्य को संतोषजनक ढंग से स्पष्ट नहीं कर पाए, किन्तु उनकी इस कठिनाई ने मेरा ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि उन्हें किस बात से कष्ट है।
संक्षेप में कहें तो यह तो स्पष्ट ही है कि संविधान के अंतर्गत भारत को जिस प्रकार से,
संप्रभु धर्म-निरपेक्ष और समाजवादी गणतंत्र
(Sovereign Secular Socialist Republic)
घोषित किया गया है उसके अनुसार संविधान में, 'भगवान' के बारे में कोई विचार / मत प्रस्तुत नहीं किया गया है । अर्थात् भगवान का अस्तित्व होने, या अस्तित्व न होने तक के बारे में संविधान मौन है। यह तो मानना होगा कि भगवान या उसके समानार्थी शब्दों जैसे गॉड, अल्लाह आदि के तात्पर्य के बारे में संविधान से कोई दिशा-निर्देश नहीं प्राप्त होता। इसलिए जब किसी के द्वारा संविधान को 'भगवान' कहा जाता है तो इसका ऐसा कोई स्पष्ट और सुनिश्चित सर्वसम्मत अर्थ नहीं प्राप्त होता जिस पर सब सहमत हो सकें। इसलिए केवल बौद्धिक और तर्कसंगत दृष्टि से भी संविधान को 'भगवान' कहना भावनाओं (sentiments) की अभिव्यक्ति का द्योतक तो हो सकता है, किन्तु भावनाएँ तो ऐसा कोई भौतिक तथ्य (physical and material evidence) तो नहीं हो सकतीं, जिन्हें निर्विवादित रूप से प्रमाणित किया जा सके ।
इसलिए संविधान को 'भगवान' कहे जाते ही इसका अभिप्राय भिन्न भिन्न मनुष्यों की दृष्टि में भिन्न भिन्न होता है। सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि भगवान के अस्तित्व पर प्रश्न उठानेवाले नास्तिकों की दृष्टि में संविधान को 'भगवान' कहे जाने का क्या अभिप्राय हो सकता है? इसी प्रकार अंग्रेजी शब्द 'secular' का शब्दकोष के माध्यम से जो अर्थ प्राप्त होता है वह है :
mundane,
लौकिक, व्यवहार्य, सांसारिक, पारंपरिक, भौतिक ।
इसलिए 'secular' के लिए उचित हिन्दी शब्द 'धर्म-निरपेक्ष' नहीं, बल्कि 'पंथ-निरपेक्ष' या 'सम्प्रदाय-निरपेक्ष' होगा, क्योंकि मनुष्य मात्र का कोई न कोई धर्म होता ही है, जैसे पशु या अन्य सभी जीवधारियों का हुआ करता है । धर्म का व्यापक अर्थ तो स्वभाव या प्रकृति ही है।
संयोगवश, बचपन में हिन्दी माध्यम से शिक्षा प्राप्त करते समय :
"General Properties of Matter"
नामक विषय का अध्ययन :
"पदार्थ के गुणधर्म"
के अन्तर्गत किया था।
सनातन-धर्म इसी तथ्य के आधार पर मनुष्य ही नहीं, प्राणिमात्र के लिए जीवन के जिन चार प्रयोजनों का अस्तित्व मान्य करता है, उनमें से 'धर्म' ही सर्वोपरि और सर्वप्रथम है।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
जीवन अस्तित्व है और अस्तित्व जीवन।
न तो अस्तित्व जीवनरहित हो सकता है, न जीवन अस्तित्वहीन या अस्तित्व-रहित । क्योंकि जिसके द्वारा अस्तित्वरहित जीवन का उल्लेख किया जा सकता है उसका अस्तित्व और जीवन तो स्वप्रमाणित ही है, और इस पर संदेह किया ही नहीं जा सकता।
इसलिए 'धर्म-निरपेक्ष' शब्द अपने आपमें न सिर्फ तर्क और अर्थ की दृष्टि से, बल्कि समझने की दृष्टि से भी विसंगतिपूर्ण और विरोधाभासी है।
किन्तु फिर, स्वतंत्र परिभाषा की दृष्टि से धर्म क्या है, इसे कैसे स्पष्ट किया जाए?
सनातन-धर्म में इसके लिए इसे निर्देश (instruction) के रूप में इस सूत्र में कहा जाता है :
अहिंसा परमो धर्मः।।
फिर प्रश्न उठता है कि अहिंसा का आचरण कैसे किया जाए?
क्योंकि उस स्थिति में "जीवो जीवस्य जीवनम्" के सिद्धान्त के अनुसार जिन प्राणियों का जीवन अन्य प्राणियों के आहार पर निर्भर है, उन हिंसक प्राणियों का जीना ही संभव न हो पाएगा! अतः हिंसा-धर्म अधर्म नहीं है, किन्तु परिस्थितिवश वह पशु-धर्म हो सकता है। हिंसा भी अपने स्थान, समय और आवश्यकता के अनुसार ही ग्राह्य और स्वीकार्य हो सकती है, किन्तु ऐसा तब होता है जब अपने प्राणों की रक्षा के लिए ऐसा करना आवश्यक हो जाता है। आत्म-रक्षा की प्रवृत्ति तो प्राणिमात्र का धर्म ही है, चाहकर भी जिसका त्याग कोई नहीं कर सकता। भोजन भी प्राणरक्षक का ही साधन है।
इसलिए सनातन-धर्म का सूत्र पुनः कहता है :
मा विद्विषावहै।।
अर्थात् हम किसी से वैर न करें।
अर्थात् वैर की बुद्धि के कारण जो हिंसा की जाती है, उस हिंसा को करने से हम बचें।
इसलिए महर्षि पतंजलि के योगशास्त्र में जिन पाँच सार्वभौम महाव्रतों का निर्देश है, उनमें भी अहिंसा ही सर्वप्रथम है :
अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह ।
ये पाँच सार्वभौम महाव्रत 'यम' हैं जिनका उल्लंघन किसी भी स्थिति में नहीं किया जाना चाहिए।
इसी प्रकार बौद्ध धर्म में 'पञ्चशील' को धर्म का मूल आधार का स्थान दिया जाता है।
अब हमें यहाँ से 'शील' का अर्थ आचरण और व्यवहार के रूप में प्राप्त होता है जो पुनः आर्य और अनार्य होता है।
आर्य कोई जाति (race) नहीं, बल्कि श्रेष्ठ, उत्कृष्ट धर्म / शील का आचरण करनेवाले मनुष्य को कहा जाता है।
दुर्भाग्य से जैसे 'धर्म' शब्द का अनुवाद Religion, कर उसके वास्तविक अर्थ का अनर्थ कर दिया गया है, वैसे ही 'आर्य' शब्द को जाति / वंश के अर्थवाचक 'Race' के रूप में अनुवादित कर दिए जाने से जान-बूझकर या अनजाने में ही, कितने ही भ्रम पैदा हो गए हैं, या कर दिए गए हैं।
गीता अध्याय 2 के श्लोक :
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ।। २ ।।
में 'अनार्य' शब्द कुल, जाति या वंश (Race) के अर्थ में नहीं, बल्कि निकृष्ट चरित्र का आचरण करनेवाले मनुष्य को इंगित करने के लिए प्रयुक्त किया गया है।
इसी प्रकार अन्यत्र भी 'आर्य' शब्द का प्रयोग 'कुल' या वंश के लिए नहीं बल्कि उत्कृष्टता को दर्शाने के लिए किया गया है। इसका एक उदाहरण है ईरान के भूतपूर्व दिवंगत राजा के द्वारा अपने नाम में उपाधि के रूप में इसका प्रयोग :
आर्यमिहिर मोहम्मद रजा शाह पहलवी
'रजा', राजा का अपभ्रंश है, आर्य श्रेष्ठता का द्योतक है, 'पहलवी' (जाति, वंश, कुल, Race) का द्योतक है, जिसकी पुष्टि के लिए वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के सर्ग ५८ में जहाँ विस्तार से इसका वर्णन किया गया है, और 'पह्लव' / पहलवी के साथ-साथ शक, हूण, यवन, म्लेच्छ, काम्बोज, इत्यादि नृवंश का भी वर्णन है, को देखा जा सकता है।
'आर्य' को जाति, कुल, वंश, (Race) कहे / समझ लिए जाने के फलस्वरूप ही जहाँ एक ओर हिटलर के 'नाज़ीवाद' का जन्म हुआ वहीं दूसरी ओर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे एक विद्वान महापुरुष ने यह अनुमान व्यक्त किया कि शायद 'आर्यों' का आगमन उत्तरी ध्रुव से हुआ था!
श्री R.S.N. SINGH की दुविधा को समझा जाना चाहिए।
उन्हें इसलिए संकोच अनुभव होता है, क्योंकि संविधान के प्रति उनके मन में पूर्ण सम्मान की भावना होते हुए भी, संविधान के प्रति अपने विचारों की उनकी अभिव्यक्ति के कारण कहीं उन्हें गलत न समझ लिया जाए। संविधान / संवैधानिक परिवर्तनों से यदि किसी व्यक्ति का किसी प्रकार से कोई भिन्न मत हो, तो इसे संविधान के प्रति असम्मान तो नहीं कहा जा सकता! यदि ऐसा होता तो संविधान में कोई संशोधन किए जाने की संंभावना ही कभी उत्पन्न न होती! इस प्रकार संविधान से सहमत / असहमत होना भी संविधान-प्रदत्त अधिकार ही है। किन्तु साथ ही यह भी उतना ही आवश्यक है कि मतभेद होने पर अपने सभी मतभेदों का पारस्परिक संवाद के माध्यम से निराकरण कर लिया जाए।
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