September 06, 2021

उम्मीदें और क़ोशिशें

कविता : 06-09-2021

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मुश्किलें!

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बस कि मुश्किल है हर काम का आसाँ होना,

आदमी का ज़हीन हो पाना, और न नादाँ होना! 

क्या ये अचरज ही नहीं है कि अकसर कोई,

हर आदमी पैदाइशी नादान हुआ करता है,

शोहरत, दौलत, इज्जत, ताकत, क़िस्मत से,

मिल भी जाया करते हैं कभी कभी लेकिन,

फिर भी सच्चाई से, अनजान रहा करता है!

कोई मक़सद, कोई मजहब, या कोई खुदा,

कोई किताब, कोई तहजीब, या कोई उसूल,

कोई निजाम, कोई तसव्वुर या ख़यालो-ख्वाब,

इसी नादानी में गा़फिल, मान लिया करता है!

किताब, मजहब, या तसव्वुर, कोई भी ख़याल,

हुआ करते हैं पैदा और खड़े जिस बुनियाद पर,

उसी बुनियाद को खुद और खुदी में बाँटकर,

मन को वो खुद ही से जुदा, मान लिया करता है!

है ये हैरत कि कहा करता है मन ही खुद को अपना,

और खुद को ही मन का मालिक भी कहा करता है,

इस गलतफहमी में वो कौन है जो कि है गाफ़िल,

इस तरफ उसका कभी भी ख़याल नहीं जाता है!

मन ही मन को हौसला, तसल्ली भी दिया करता है,

मन ही मन को उकसाया, भरमाया भी करता है,

मन ही खुद से डरता, खुद को डराया भी करता है,

खुद को शर्मिन्दा करता है, शरमाया भी करता है! 

मन ही गुजरता है बहुत आसानो-मुश्किल राहों से,

और खुद ही खुद के लिए राह भी हुआ करता है, 

बस चला करता है इस तरह से जिन्दगी का सफर, 

सच, होके नजरों से ओझल, इसी पर्दे में छुपा रहता है।

ढूँढता रहता है मन, अकसर ही इसी सच को मगर,

और खुद ही चोर और कोतवाल हुआ करता है,

चलता ही रहा करता है ये खेल पूरा जिन्दगी भर,

सच कभी भी न उजागर, जाहिर न हुआ करता है!

बस यही तो है बदनसीबी, बस यही तो है अफ़सोस,

बस यही तो है बुनियाद, वहम और यही तो भरम,

इसको क्या कभी कोई किसी को बता भी सकता है, 

है ये मुमकिन ज़रूर हर कोई इस पे सोच सकता है! 

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