December 23, 2018

वहम और यक़ीन

धरती गोल है चपटी ?
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उसे भरोसा नहीं था कि मैं उसे सही साबित कर सकूँगा ।
फिर भी वह अपने इस आग्रह पर डटा था कि विज्ञान या N.A.S.A. भले ही लाख सिद्ध करें, धरती / दुनिया चपटी है न कि गोल (क्योंकि उसका धर्मग्रंथ गलत नहीं हो सकता था)!
पहले तो मैंने उसे भारतीय ज्योतिष-विज्ञानी (Astronomer) भास्कराचार्य का लिखा एक श्लोक प्रमाणस्वरूप दिखलाया जिसका भावार्थ था :
"जैसे किसी बहुत बड़े गोले (वृत्त) की परिधि का सौंवां हिस्सा सीधा जान पड़ता है, उसी तरह धरती भी क्षितिज तक सीधी दिखलाई पड़ती है किंतु दूर क्षितिज पर दिखलाई पड़नेवाला पेड़ पास जाने पर अधिक ऊँचा जान पड़ता है क्योंकि उसके पास जाने पर वहाँ धरती की ऊँचाई कुछ कम हो जाती है, मतलब धरती सीधी न रहकर कुछ झुक जाती है।  इसी तरह समुद्र पर दूर दिखलाई पड़ता जहाज शुरू में काम ऊँचाई का दिखाई देता है लेकिन पास आते-आते अधिक ऊँचा दिखने लगता है क्योंकि समुद्र की सतह भले ही समतल दिखाई देती हो, धरती की सतह के साथ साथ बड़े वृत्त के हिस्से की तरह वक्र होती है।"
"मैं नहीं मान सकता।"
"अच्छा, अगर मैं मेरी किताब से यह साबित करूँ कि धरती चपटी भी है और गोल भी तो?"
वह हैरत से मुझे देखने लगा।
"देखो, वाल्मीकि रामायण में 'विवस्वान्-पथ' का वर्णन है।  जिसके अनुसार ऋषि विश्वामित्र त्रिशंकु को सदेह (बिना मृत्यु हुए) स्वर्ग भेजने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन देवता उसे स्वर्ग में सदेह आने देना नहीं चाहते थे।  तब देवताओं और ऋषि विश्वामित्र के बीच यह समझौता हुआ कि त्रिशंकु को 'विवस्वान्-पथ' से बाहर अंतरिक्ष में स्थायी जगह दिला दी जाए जिससे वह आकाश के किसी तारे की तरह अपने इर्द-गिर्द के बहुत से तारों के बीच तय स्थान पर दिखाई देता रहे, न कि चन्द्रमा, सूर्य या मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि जैसा भिन्न भिन्न राशियों में घूमते रहनेवाला।"
मेरी बात उसे समझ में तो नहीं आई और वह और भी ज़्यादा हैरत से मुझे देखने लगा।
अपने swaadhyaaya blog ... में लिखी पोस्ट्स में मैंने 'विवस्वान्-पथ' नामक पोस्ट में लिखा था कि वाल्मीकि-रामायण में किए गए उल्लेख सत्य के तीन तलों (dimensions) को एक साथ सन्दर्भ देकर लिखे गए हैं।  यदि सत्य का वर्णन केवल आध्यात्मिक या केवल आधिदैविक या केवल आधिभौतिक सन्दर्भ में, या इनमें से किन्हीं दो ही तलों को ध्यान में रखकर किंतु तीसरे की अवहेलना करते हुए किया जाए तो वह भ्रमकारक होता है। इसी ब्लॉग में मैंने यह उल्लेख भी किया है कि सूर्य और सौरमंडल के सभी ग्रह जो सूर्य के इर्द-गिर्द परिभ्रमण करते हैं एक ही तल में भिन्न-भिन्न समानांतर वृत्ताकार / अंडाकार कक्षाओं में निरंतर गतिशील हैं।  यह वैसा ही है जैसे एक ही डोरी में भिन्न-भिन्न दूरियों में कुछ पत्थर बाँध कर डोरी को तेजी से गोल घुमाया जाए।  तब परस्पर बंधे होने से सभी पत्थर एक ही तल (plane) में स्थित होकर भिन्न-भिन्न वृत्तों में घूमेंगे।
ठीक इसी भाँति सौरमंडल के ग्रह भी  गुरुत्वाकर्षण-बल की डोरी में बँधे सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाकर एक ही तल (plane) में स्थित रहते हैं। इसी तल को विवस्वान्-पथ कहा गया है और ऋषि विश्वामित्र ने त्रिशंकु को इसी तल (plane) पर स्थापित करने का प्रयास किया था जो देवताओं (सूर्य आदित्य होने से उस आधिदैविक देवलोक का अधिष्ठाता है जिसमें सभी ग्रह जो सूर्य की परिक्रमा करते हैं, आधिदैविक देवता हैं और यद्यपि पृथ्वी स्वयं भी इसी तल से साढ़े 23 अंश पर झुकी सूर्य की परिक्रमा करती है, अन्य ग्रह इस तल से कितने अंश झुके हैं या नहीं यह हमें नहीं पता)।
त्रिशंकु निश्चित ही कृत्रिम उपग्रह (satellite) रहा होगा जिसके तीन शंकु (cones) रहे होंगे जैसा कि इस युग के बहुत से मनुष्य-निर्मित कृत्रिम उपग्रह (satellite) हुआ करते हैं। किंतु देवताओं और इंद्र तथा विश्वामित्र के मध्य अंततः यह स्वीकार किया गया कि उस त्रिशंकु नामक कृत्रिम उपग्रह (satellite) को इस 'विवस्वान्-पथ'से बाहर अंतरिक्ष में स्थान दिया जाए।  तब से खगोलविदों (astronomers) को वह 'तारा' आकाश में स्थिर तारे की तरह किसी राशि-विशेष के तारे जैसा दिखाई देता है। 
इस  यदि दुनिया / सौरमंडल को इस 'विवस्वान्-पथ' के रूप में देखें तो दुनिया अवश्य ही चपटी है।
इस प्रकार दुनिया एक दृष्टि से यद्यपि समतल अर्थात् चपटी कही जा सकती है, वहीँ जब इसे पृथ्वी तक सीमित समझा जा सकता है तो वह एक गोल पिंड है जो अन्य ग्रहों की तरह ही सूर्य का एक उपग्रह है।
ज्योतिष-शास्त्र (Astrology) की दृष्टि से देखें तो ये सभी ग्रह 'देवता' अर्थात् आधिदैविक / अधिमानसिक (supra-mental) अस्तित्व रखते हैं किंतु खगोल-शास्त्र की दृष्टि से इनका अस्तित्व आधिभौतिक अर्थात स्थूल इन्द्रिय-बुद्धिगम्य तथाकथित 'वैज्ञानिक' आधार पर भी है।
यदि वाल्मीकि-रामायण का अध्ययन इस दृष्टिकोण से करें तो यह समझा जा सकता है कि :
दुनिया 'गोल' है या चपटी !
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December 12, 2018

वर्तमान : तीन चित्र

वर्तमान : तीन चित्र
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चित्र -1
हिंदुत्व 
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कुछ वर्षों पहले स्वर्गीय बलराज मधोक के बारे में एक पोस्ट लिखा था।
तत्कालीन जनसंघ में वही एक सबसे अधिक प्रबुद्ध बुद्धिजीवी थे जिन्होंने 'हिंदुत्व' के विचार के ख़तरे को समझा था। बाद में जनसंघ ने उन्हें अलग-थलग कर दिया था क्योंकि सत्ता के लोलुप दूसरे बुद्धिजीवियों को इस 'हिंदुत्व' के विचार (या इसके विरोध के विचार) से बहुत उम्मीदें थीं।
सावरकर ने इसे इस्लाम के विचार के खिलाफ अपरिहार्यतः ज़रूरी समझा और यही हिंदूवादी संगठनों की भयंकर भूल थी, यह आज तक किन्हीं हिंदूवादियों को समझ में नहीं आ रहा। जहाँ एक तरफ देश की जनता में 'हिन्दू गौरव' को इस्लाम के सामने उसके मुक़ाबले में खड़ा कर दिया गया, वहीँ हमारे बहुत से संत महात्मा भी इस धोखे से बचे न रह सके। अंग्रेज़ों ने इस्लाम, ईसाइयत, बौद्ध, जैन, सिख, यहूदी, पारसी, आदि परम्पराओं को धर्म (religion) कहकर 'हिंदुत्व' पर भी 'धर्म' की मुहर लगा दी और हमने उसे आँख मूंदकर स्वीकार कर लिया।
फिर 'सर्वधर्म-समत्व' के राजनैतिक विचार का आविष्कार गाँधीजी ने किया।
आचार, विचार, व्यवहार, संस्कार, और इतिहास के आधार पर उपरोक्त सभी परम्पराएँ जिन्हें 'धर्म' कहकर हमें परोसा गया, न सिर्फ परस्पर अत्यंत भिन्न प्रकृति की हैं, बल्कि उनके बीच सामञ्जस्य कर पाना असंभव की हद तक मुश्किल है। इस प्रकार अंग्रेज़ों ने सामान्य जनमानस में न सिर्फ परस्पर विद्वेष और मतभेद पैदा किए, बल्कि उनके बीच घृणा और वैमनस्य को भी पैदा किया और उसे हवा भी दी।  भारत का विभाजन इसी वैमनस्य का परिणाम था, जिसके लिए तत्कालीन नेतागण सत्ता-लोलुपता के कारण ख़ुशी ख़ुशी तैयार हो गए।
इस बीच उपरोक्त तथाकथित 'धर्मों' के मूल सिद्धांतों में से कुछ न्यूनतम 'समान विचार' चुन लिए गए ताकि उनके द्वारा इस झूठ को सत्य की तरह स्थापित किया जाए कि सभी 'धर्म' समान हैं। ज़ाहिर है कि न्यूनतम समानताओं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर अधिकतम विरोधाभासों को आँखों से ओझल कर दिया गया।
इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदूवादी धर्म जहाँ 'हिंदुत्व' के छाते के नीचे संगठित हुए वहीँ दूसरे 'धर्म' वाले भी अपने-अपने संगठन बनाने लगे। जिन 'धर्मों' के सिद्धांत मूलतः अन्य 'धर्मों' से भिन्न हैं उनके संगठनों के बीच परस्पर प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, वैमनस्य, अविश्वास, संदेह और भय उत्पन्न हुआ और इसका लाभ उन राजनीतिक शक्तियों ने लिया जिनका उद्देश्य समाज के किसी वर्ग / समुदाय की धार्मिक स्वतन्त्रता के बहाने सत्ता पर कब्ज़ा करना तथा अपनी राजनैतिक शक्ति बढ़ाना था। यह अविश्वास आज भी विद्यमान है और  इसे दूर नहीं किया जाता, इस समस्या का कोई निदान नहीं हो सकता। 
'हिंदुत्व' का विचार इस दृष्टि से दोनों ही रूपों में समाज और राष्ट्र के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ कि कुछ हिन्दू जहाँ कट्टर 'हिंदुत्ववादी' हो गए वहीँ कुछ 'हिन्दू' 'सेकुलर' / धर्मनिरपेक्ष होने के भ्रम में इन कट्टर 'हिंदुत्ववादियों' के घोर विरोधी हो गए। इस प्रकार अपने आपको 'हिन्दू' कहलानेवाले लोग इन दो धड़ों में बँट गए।
कुल परिणाम यही हुआ कि इससे सर्वाधिक लाभ उन्हीं राजनैतिक शक्तियों को मिला जो गैर-हिंदुत्ववादी थे।
श्री बलराज मधोक ने इस यथार्थ को समझा और जनसंघ से उनकी दूरी इसीलिए हो गयी क्योंकि दूसरे नेता यह सरल सत्य या तो समझ ही नहीं पाए, या उन्होंने जान-बूझकर इस सत्य से आँखें फेर लीं।
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चित्र -2 
राजनीति 
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पिछले चार वर्षों में भाजपा और मोदी जी की सफलता का राज़ यह नहीं था कि उन्होंने 'हिन्दू-समाज' को संगठित किया, बल्कि इसका एकमात्र कारण था कांग्रेस सरकार की सत्ता-लोलुपता, भ्रष्टाचार और देश के हित की उपेक्षा की कीमत पर भी जनता की भयंकर उपेक्षा करना । दूसरे भी दल कमोबेश ऐसे ही थे / हैं और भाजपा या शिवसेना, पीडीपी इत्यादि इसका अपवाद थे ऐसा नहीं कह सकते। राम-मंदिर, समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) आदि ऐसे ही बिंदु थे जिन पर 'वोट-बैंक' का सहारा लेनेवाले कभी किसी दृढ निश्चय पर नहीं पहुँच सके। अब जनता ने कांग्रेस को भाजपा के मुकाबले शक्तिशाली बनाया है तो इसका भी कारण यह नहीं है कि कांग्रेस एकाएक दूध की धुली हो गयी है, बल्कि एकमात्र कारण है भाजपा से जनता की नाराज़ी। इसे कांग्रेस अपनी लोकप्रियता में वृद्धि समझ बैठे तो यह उसका भ्रम होगा।
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चित्र - 3 
ज्योतिष 
पिछले तीन चार माह के दौरान बस मनोरंजन के लिए you tube पर संतबेतरा अशोक के 'अखंड मंथन' को कभी कभी देखता था। उत्सुकता बस यह थी कि क्या सचमुच कोई ज्योतिषी या 'सिद्ध' किसी व्यक्ति, राष्ट्र, पार्टी, संस्था आदि का भविष्य देख / बता सकता है? उपरोक्त चैनल में मेरी उत्सुकता का एक कारण यह भी था कि मुझे हमेशा लगता रहा है कि कोई किसी का भविष्य 'देख' ही नहीं सकता क्योंकि जिसे 'भविष्य' कहा जाता है वह केवल किसी घटना का एक मानसिक चित्र होता है जो स्वयं ही जब निरंतर बदलता रहता है तो उस घटना की सत्यता कितनी सुनिश्चित हो सकती है? फिर भी, यदि मोटे तौर पर मान भी लिया जाए कि सांख्यिकीय परिभाषा के अनुसार कुछ घटनाओं के सत्य सिद्ध होने की संभावना हो सकती है जैसे पानी बरसना या आंधी आना, भूकंप या पुलों भवनों का टूटना-गिरना और कोई सटीकता से उनकी 'भविष्यवाणी' भी कर सकता है, किसी की मृत्यु या शादी कब होगी, तो भी क्या कोई इसे 'बदल' सकने का दावा भी कर सकता है? अर्थात् क्या किसी 'अनुष्ठान' मन्त्र-तंत्र, या दूसरे ज्योतिषीय उपाय से कोई इस 'भविष्य' को बदल सकता है? स्पष्ट है कि यदि कोई ऐसा दावा करता है तो वह झूठ बोल रहा है।  क्योंकि यदि वह भविष्य को 'बदल' सकता है तो इसका मतलब हुआ कि  उसने 'जो' भविष्य 'देखा' था वह 'वैसा' यथावत सत्य नहीं था । इसका मतलब यह हुआ कि न तो वह भविष्य को देख सकता है और न बदल सकता है।
इसी उत्सुकतावश मैं उपरोक्त चैनल देखा करता था।
मैं नहीं कह सकता कि इन तथा इनके जैसे अनेक ज्योतिषियों में इतना अधिक आत्मविश्वास कहाँ से आ जाता है कि वे बेधड़क ताल ठोंक कर भविष्यवाणियाँ करते हैं। और उन्होंने इसकी भी कल्पना तक शायद ही की होगी कि उनकी भविष्यवाणियाँ गलत सिद्ध होने पर कितने लोगों की आस्था को ठेस पहुँचती होगी और उन्हें स्वय कितना शर्मिन्दा होना पड़ सकता है।
बहरहाल मनुष्य मानसिक कल्पना से इतना अभिभूत हो जाता है कि वह असंभव तक को संभव मान बैठता है और ज्योतिष के जानकार तथा उनकी शरण में जानेवाले भी इसका अपवाद नहीं होते। अतिरंजित आत्मविश्वास और आत्म-मुग्धता का मेल होने पर यही होता है।
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December 02, 2018

यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है ...

यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है ...
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25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 के लगभग 21 माह के समय में एक और जहाँ तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने देश पर इमरजेंसी लगा दी थी, वहीँ मेरे अपने जीवन और भाई-बहनों तथा माता-पिता के लिए भी यह ऐसा ही एक दौर था। जैसा कि कहा जाता है :
आदमी तो नहीं पर वक्त बुरा होता है।
(जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा होता है।)
इसलिए न किसी से कोई शिकायत रही और न शायद किसी को किसी से होनी चाहिए।
मेरे अपने लिए जहाँ यह दौर बहुत नाउम्मीदी और संघर्ष का था वहीँ इसी दौर ने उठ खड़े होने का जज़्बा मुझमें पैदा किया। चढ़ाई मुश्किल थी लेकिन मुझे जो मंज़िल चाहिए थी वह देर-अबेर मिल ही गई।  बाकी चीज़ों का  मिलना-बिछुड़ना तो दुनिया का उसूल है।
उन्हीं दिनों स्व. दुष्यंत कुमार जी की शायरी पढ़ने का मौक़ा मिला था।
मेरे अपने जीवन में इमर्जेन्सी वैसे तो 21 मार्च 1977 को ही हट चुकी थी किंतु इसका जो पूरा असर मेरे अपने परिवार पर पड़ा उसने मेरे पारिवारिक संबंधों को लगभग समाप्त कर दिया।  हाँ पहचान बाकी है और जब तक जीवन है स्मृति से भी समय समय पर वह पहचान पुनः सामने आती रहेगी।
बहरहाल, उन्हीं दिनों स्व. दुष्यंत कुमार जी की शायरी 'साये में धूप' की पहली ग़ज़ल का पहला शे'र :
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगाती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।
पढ़ा था : 
तब से बहुत बाद तक जिंदगी बीत जाने के बाद लगा कि शायर का संकेत जो भी रहा हो,  यह आज की राजनीति और तथाकथित 'धर्म' और 'धर्म' के स्वघोषित ठेकेदारों पर पूरी तरह लागू होता है।
यह विडंबना ही तो है कि दरख़्त जिसके नीचे साये की उम्मीद होती है, वहाँ धूप लगने लगे।
किंतु इस विडंबना के मूल राजनीति में हैं और राजनीति ने संस्कृति, साहित्य, कला (संगीत) और अध्यात्म को, विशेष रूप से सनातन धर्म को इस बुरी तरह नष्ट किया कि इसके शिकार वे तमाम लोग रहे जिन्हें बुद्धिजीवी होने का आकर्षण लुभाता रहा।
इमरजेंसी वैसे तो ख़त्म हो गई किंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार और अभिव्यक्ति का दमन राजनीति की सनक से परिभाषित और तय होने लगा।
मेरे अपने लिए तो मार्गदर्शक सिद्धांत यही रहा :
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यं अप्रियं ,
प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्म सनातनः।
इसलिए राजनीति, लोकधर्म और दुनिया की दूसरी बातों पर कुछ कहने-लिखने का मेरा अधिकार, न कर्तव्य और न दायित्व ही मुझ पर शेष रहा।  और हाँ 'अधिकार' का एक अर्थ है योग्यता।  और न तो ज़रुरत या कोई अवसर है इसे भी मैं अपना सौभाग्य ही समझता हूँ।
और वैसे भी कौन मुझे पूछता है?  
और इसलिए भी किसी से कोई शिकायत नहीं । 
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December 01, 2018

कविता / 01-12-2018

कविता
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सुख कहाँ नहीं है?
शीत में धूप का सुख,
ग्रीष्म में छाया का,
माया में ब्रह्म का सुख,
ब्रह्म में माया का,
देह में प्राणों का सुख,
प्राणों में काया का,
काया में जगत का सुख,
सुख में सब समाया सा।
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November 24, 2018

रामलला !

यदा-यदा हि 
20 जनवरी 2009 को गूगल पर प्रयोग के लिए यह ब्लॉग शुरू किया था।
रामलला के जन्म-स्थल को ध्वस्त कर आततायी अधर्म ने कोई भवन वहाँ खड़ा किया था।
बाबर का धर्म आततायी था / है या नहीं, इस बारे में कुछ कहने का अधिकार मुझे नहीं है और न मैं इस बारे में ठीक से जानता हूँ।  न ही किसी की धार्मिक भावनाओं पर आघात करना मैं चाहूँगा।  किन्तु बाबर का कृत्य अवश्य ही अधर्म का ही ज्वलंत उदाहरण है यह कहना अनुचित न होगा।
किसी भी धर्म-स्थल को ध्वस्त करना क्या अधर्म ही नहीं है?
गीता में अध्याय 3 श्लोक 35 तथा अध्याय  18 श्लोक 47 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं :
अध्याय 3, श्लोक 35,
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
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(श्रेयान्-स्वधर्मः विगुणः परधर्मात्-स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मः भयावहः ॥
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से  आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से, अपने अल्प या विपरीत गुणवाले धर्म का आचरण उत्तम है, क्योंकि जहाँ एक ओर अपने धर्म का आचरण करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाना भी कल्याणप्रद होता है, वहीं दूसरे के धर्म का आचरण भय का ही कारण होता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 47,
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति  किल्बिषम् ॥
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(श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् सु-अनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् ॥)
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण किए गए दूसरे के धर्म की तुलना में अपना स्वाभाविक धर्म, अल्पगुणयुक्त हो तो भी श्रेष्ठ है, क्योंकि अपने स्वधर्मरूप कर्म का भली प्रकार से आचरण करते हुए मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता ।
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बाबर के अनुयायी भी इससे इंकार नहीं कर सकते।
बाबर का 'धर्म' जो भी रहा हो, बाबर का यह कृत्य धर्म कैसे कहा जा सकता है ?
इसलिए बाबर का धर्म माननेवाले यह भी मानेंगे कि इस ऐतिहासिक भूल को सुधारने का समय आ गया है।
और इस बात के लिए सभी मिल-बैठकर सौहार्द्र से बातचीत कर परस्पर सहमति और प्रसन्नता से अयोध्या में श्रीराम के मंदिर को बनाने के लिए, रामलला के वचन को पूरा होने देने के लिए अवसर प्रदान करने का श्रेय भी ले सकते हैं।
इसके लिए सरकार के द्वारा कानून बनाए जाने की माँग करने का मतलब है सरकार को इसका श्रेय देना।
लेकिन सरकार किन्हीं भी कारणों से निर्णय लेने में असमर्थ दिखाई देती है।    
उस स्थान की अक्षय स्मृति धर्म के मानस-पटल पर आज भी पत्थर की लकीर से भी अधिक अमिट अक्षरों में अंकित है।
रामलला भला कैसे भूल सकते हैं ?
उन्होंने जो 'वचन' गीता में दिया था, उसे पूरा करना उनका ही दायित्व है किंतु हम भारतवासी अपना कर्तव्य क्यों भूलें?
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श्री पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ  के you-tube पर दिए गए इस उद्बोधन को पढ़कर साहस हुआ कि 'अयोध्या' के बारे में यह पोस्ट प्रस्तुत करूँ।  वैसे मैं भी उन्हीं की तरह, किसी भी राजनीतिक विचारधारा / पार्टी से सर्वथा असम्बद्ध हूँ।
यहाँ यह लिंक इसीलिए दे रहा हूँ कि सभी पढ़नेवाले उनके विचारों से अवगत हो सकें।
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November 15, 2018

एक अधूरी कहानी

अधूरी खबरें 
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खबरों की भीड़ में भी हम शायद ही कभी कोई खबर पूरी तरह पढ़-सुन पाते हैं।  पूरी खबर वह भी नहीं होती जो हमारे अपने बारे में होती है, हालाँकि हम उसे याददाश्त के लिफ़ाफ़े में बंद कर मन की संदूक में रख देते हैं।  कभी-कभी उसे पूरी तरह पढ़े सुने बिना ही पुड़िया बनाकर हवा में उछाल देते हैं और भूल जाते हैं।  कभी-कभी बार-बार चुपके चुपके पढ़ते रहते हैं लेकिन तब भी वह पूरी नहीं हो पाती। बहुत से लिफ़ाफ़े और कभी कभी एक को खोलने की कोशिश में कोई दूसरा ही खुल जाता है।
कुछ खबरें चिट्ठियों की शक्ल में आती हैं तो कुछ कानोंकान सुनी जाती हैं।  दोनों स्थितियों में कुछ अधूरापन फिर भी होता ही है। कुछ खबरें हम किसी से शेयर करना चाहते हैं क्योंकि खुद से शेयर करने में डर लगता है।
वॉट्स-ऐप के समय में आप ऐसी ही कई अवाँछित खबरें रोज ही पढ़ते और डिलीट करते होंगे।
बहरहाल मेरी खुशकिस्मती रही कि मैंने कभी वॉट्स-ऐप जॉइन नहीं किया।
क्या होती है अधूरी खबर ?
कल ही एक ऐसी खबर पढ़ी।
एक बन्दर, एक माँ की गोद से उसके बच्चे को झपटकर ले गया।
विक्षिप्त कर देनेवाली ऐसी कितनी ही खबरें रोज़ घटती हैं, एक से एक हैरत भरी रोंगटे खड़े कर देनेवाली खबरें।  कोई भी, कहीं भी, कभी भी किसी अप्रत्याशित स्थिति का शिकार हो सकता है और कोई भी, कहीं भी, कभी भी किसी को अप्रत्याशित स्थिति में शिकार बना सकता है।
कभी तो ये घटनाएँ प्रत्यक्षतः और कभी अनचाहे ही प्रायोजित हुई होती हैं।
हर मनुष्य डरा हुआ और घबराया हुआ है फिर भी उत्तेजनाग्रस्त और उन्मादग्रस्त भी है।
निरंतर उत्तेजना की तलाश में, किसी सुख की तलाश में, किसी रोमांच की आशा में, जो उसके भविष्य को अधिक चमकदार बना दे, जोश और उमंग से भर दे, या किसी नशे में इस तरह डुबो दे कि कुछ समय तक संसार और समय का विस्मरण हो जाए।  यह नशा, एक किक हो सकता है या एक 'long-affair' भी हो सकता है।
जिसे वह 'प्यार' समझ सकता है। वह खेल, कला, संगीत, राजनीति या धर्म के क्षेत्र से जुड़ी कोई महत्वाकांक्षा भी हो सकता है। सबसे बड़ी बात कि वह निरंतर आगे (कहाँ?) बढ़ते रहने की अदम्य प्रेरणा भी देता है, जिसमें तमाम दुश्मनियाँ, घृणा, स्वार्थ एक मोहक आवरण में छिपे होते हैं।  जो दिखाई देता है वह वह नहीं होता, जो उस आवरण में छिपा हुआ होता है। 'सफलता' हमेशा क्षणिक ख़ुशी तो दे सकती है जो एक तरह का नशा भी हो सकता है। उतर जाने के बाद पुनः उसे पाना होता है।
कोई खबर कभी पूरी कहाँ होती है? किंतु नई खबरों के लिए हमारी उत्सुकता बनी ही रहती है।  इतनी खबरे हमें रोज़ मिलती रही हैं, -क्या उनसे हमारे मन को कभी ऐसी शान्ति मिलती है कि हम आराम से थोड़ी देर सो सकें? होता तो यही है कि बुरी तरह थक जाने पर भी किसी नई खबर की उम्मीद में हम नींद को आने ही नहीं देते।  यह आदत बन जाती है।
यह भी एक अधूरी कहानी है।
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November 12, 2018

आर्यान्

अयोध्या, अमित शाह और ओवैसी
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ओवैसी ने श्री अमित शाह को कहा कि उनका नाम ईरानी है और यदि इलाहाबाद तथा फैज़ाबाद का नाम बदला जाना चाहिए तो उन्हें खुद का नाम भी बदल लेना चाहिए।
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वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड, सर्ग 54 में वर्णन है :
इत्युक्तस्तु तया राम वसिष्ठस्तु महायशाः। 
सृजस्वेति तदोवाच बलं परबलार्दनम्।। 17
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभिः सासृजत् तदा ।
तस्या हुंभारवोत्सृष्टाः  पह्लवाः शतशो नृप ।। 18 
नाशयन्ति बलं सर्वं विश्वामित्रस्य पश्यतः।
स राजा परमक्रुद्धः क्रोधविस्फारितेक्षणः  ।। 19
पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि।
विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पह्लवाञ्शतश स्तदा  ।। 20
भूय एवा सृजद् घोराञ्छकान् यवनमिश्रितान्।
तैरासीत् संवृता भूमिः शकैर्यवन मिश्रितैः ।। 21    
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श्रीराम से यह कथा मुनि शतानन्द ने कही।
स्पष्ट है कि  इसमें पहलवी राजाओं के साथ साथ शक तथा यवन नरेशों की उत्पत्ति कैसे हुई यह बतलाया गया है।  महायशाः / यशाः से शाह का उद्भव दृष्टव्य है।  ईरान शब्द भी आर्यान् का अपभ्रश है। 
इसलिए अमित शाह को अपना नाम बदलने की ज़रूरत कदापि नहीं है। 
और न ही स्मृति ईरानी को।
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परशुराम ने 'परशु' को लेकर गोकर्ण (गोवा) की स्थापना की।  अरब सागर (फ़ारस की खाड़ी) से भूमि निकालकर परशु-देश (फारस) में अपना राज्य स्थापित किया।
इस परशु से अथवा पार्श्व या पार्षद (पारसी में फ़रिश्तः) के सज्ञाति / cognate अंग्रेज़ी / इटैलियन में  'फ़ार्स' / 'Farse' / 'Fascist' हुए।
मुसोलिनी की पार्टी का चिन्ह यही 'परशु' था जो कुल्हाड़ी जैसा लकड़ी या घास काटने का औज़ार था जिसे घास या लकड़ी के गट्ठर पर प्रदर्शित किया गया है।
इसी प्रकार जर्मन नाज़ी की पहचान संस्कृत 'नृ' से कैसे नृप, Natsion (nation)  से लेकर तमिल 'नाडु' (देश) से सम्बद्ध है इस पर विस्तार से अपनी बहुत सी पोस्ट में लिख चुका हूँ।
प्रसंगवश यहाँ लिखना उपयुक्त जान पड़ा।
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November 07, 2018

कविता / इस दीवाली

छोटी कविता / इस दीवाली
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तुम हमें यूँ ही याद करते रहना,
कहीं न भूल न जाएँ हम तुमको !
ग़म हमें यूँ ही याद करता रहे,
कहीं न भूल न जाएँ हम ग़म को !
मुबारकवाद है, रस्मे-दुनिया,
याद करता है कौन, वर्ना हमको,
कहीं हम भूल न जाएँ तुमको,
याद तुम कर लिया करना हमको !
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November 06, 2018

आज की कविता / खुशबू

मैं हवा की तरह आया था,
मैं हवा सा लौट जाऊंगा,
तेरी साँसों से तेरे दिल में,
मैं चुपके से उतर जाऊंगा।
नज़र आऊंगा मैं हर तरफ,
लेकिन न देख पाओगे,
हर तरफ क्योंकि मैं तब,
खुशबू सा बिखर जाऊंगा। 
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November 05, 2018

पूर्वावलोकन / In Retrospect ...

आरंभ से अब तक / इतिहास
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दिनांक २०/०१/२००९ को प्रथम ब्लॉग में पहला पोस्ट 'आरंभ' लिखा था।
लगभग १० वर्ष पूरे हो रहे हैं।
इस बीच नेट पर ट्विटर और फेसबुक पर भी बहुत सक्रिय रहा।
वह भी कुछ मित्रों / परिचितों के आग्रह पर। 
लेकिन अब कुछ समय पूर्व से इन दोनों से विदा ले चुका हूँ।  
ब्लॉग लिखने का एकमात्र ध्येय यह था कि अपनी खुशी के लिए कुछ लिखूँ।
इसका उद्देश्य किसी से जुड़ना या अपने को किसी प्रकार से स्थापित करना तो कदापि नहीं था। 
और बिज़नेस या पैसा / यश कमाना तो कल्पना तक में नहीं था, -न है। 
सिद्धांततः और दूसरे कारणों से भी न तो मेरी आजीविका का कोई स्थिर और सुनिश्चित साधन है, न मैं इस बारे में कभी सोचता हूँ।  इसलिए भी कभी-कभी यह सोचकर आश्चर्य होता है कि यह ब्लॉग-उपक्रम कैसे अब तक चल सका।
इसके लिए अवश्य ही Google का आभार !
इस बहाने मुझे लिखने, और प्रस्तुत करने के लिए बहुत से विषयों का अध्ययन करने का अवसर मिला।
यहाँ तक तो ठीक है पर इस दौरान लगता रहा यह जो 'है', क्या वस्तुतः है ?
क्या यह हमेशा रहेगा? रह सकता है?
इसलिए यह बोध भी हमेशा बना रहता है कि यह जो 'है' जैसा लगता है, यह वस्तुतः 'है नहीं' , बस लगता भर 'है', कि यह 'है'  .....
इस बीच swaadhyaaya नामक नया ब्लॉग शुरू किया जिसके व्यूअर्स तीन साल में ही इस 'हिंदी-का-ब्लॉग' के ९ वर्षों में कुल हुए व्यूअर्स से दुगुने हो गए !
ख़ास बात यह कि व्यूअर्स कितने हैं इससे मेरा लिखना अप्रभावित रहा।
 रूचि हो तो मेरे अन्य ब्लॉग देखने के लिए मेरी 'प्रोफाइल' देख सकते हैं।  
सादर !
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October 24, 2018

भगवाकरण / Saffronization / काश्मीरीकरण

प्रसंगवश
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"Saffronization / भगवाकरण" इस शब्द का प्रयोग हिन्दूवादी-संगठनों के विरोधी अपने राजनीतिक उद्देश्यों की सिद्धि के लिए इस प्रकार करते हैं जिससे लगता है जैसे कि "Saffronization / भगवाकरण" के पक्षधर हिन्दुत्ववादी दृष्टिकोण देश पर और जनता पर बलपूर्वक लादना चाहते हों।
काश्मीर की वर्त्तमान स्थिति जो नेहरूजी के समय से बिगड़ते-बिगड़ते यहाँ तक आ चुकी है कि अलगाववादी ताकतों ने काश्मीरियत के मुद्दे को भुलाकर भारत को तोड़ने के लक्ष्य को मूल मुद्दा बना दिया है।
किंतु काश्मीर और भारत कैसे एक दूसरे से अभिन्न हैं इसे समझने के लिए यदि हम आदिशंकराचार्य रचित "आनन्दलहरी" के प्रथम तीन श्लोकों को स्मरण करें तो  "Saffronization / भगवाकरण" का वास्तविक अर्थ समझना आसान हो जाता है और तब भारत का "Saffronization / भगवाकरण" किया जाना संभवतः हमारे लिए गर्व का विषय होगा।
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  आनन्दलहरी (श्रीशङ्कराचार्यकृता)
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भवानि स्तोतुं त्वां प्रभवति चतुर्भिर्न वदनैः
प्रजानामीशानस्त्रिपुरमथनः पञ्चभिरपि ।
न षड्भिः सेनानीर्दशशतमुखैरप्यहिपति-
स्तदान्येषां केषां कथय कथमस्मिन्नवसरः ॥१
घृतक्षीरद्राक्षामधुमधुरिमा कैरपिपदै-
विशिष्यानाख्येयो भवति रसनामात्रविषयः ।
तथा ते सौन्दर्यं परमशिवदृङ्मात्रविषयः
कथङ्कारं ब्रूमः सकलनिगमागोचरगुणे ॥२
मुक्घे ते ताम्बूलं नयनयुगले कज्जलकला
ललाटे काश्मीरं विलसति गले मौक्तिकलता ।
स्फुरत्काञ्चीशाटी पृथुकटितटे हाटकमयी
भजामि त्वां गौरीं नगपतिकिशोरीमविरतम् ॥३
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प्रस्तुत स्तवन माता पार्वती की स्तुति में रचा गया है। विचारणीय है कि श्रीशंकराचार्य जिनका जन्म कालडी नामक स्थान पर, दक्षिण भारत के वर्त्तमान केरल राज्य में हुआ था।  तथापि भारत की राष्ट्रीय अस्मिता का ऐतिहासिक प्रमाण इससे बढ़कर क्या हो सकता है कि उन्होंने भारत राष्ट्र को एक सूत्र में  बांधते हुए सनातन धर्म के न सिर्फ चार मठों की स्थापना की, बल्कि अनेक संस्कृत रचनाओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति और दर्शन को पुनरुज्जीवित किया और सशक्त तथा दृढ आधार प्रदान किया।
नगपतिकिशोरी पार्वती का नाम है जो हिमालय की पुत्री हैं।
"ललाटे काश्मीरं" में उन्होंने न केवल माता पार्वती के ललाट पर राजित केसर / केशर को प्रतीकार्थक रूप में भारत माता के मस्तक के रूप में चित्रित किया, बल्कि काश्मीर का भारत के लिए क्या महत्त्व है यह भी दर्शाया।
काश्मीर की संस्कृति और इतिहास को भारत के सन्दर्भ में देखें तो लल्लेश्वरी या लल्ल-दय्द (1320-1392)  को कैसे भुलाया जा सकता है जो ललिता अर्थात् पार्वती के संस्कृत नाम का काश्मीरीकरण / Saffronization है।
इस प्रकार माता पार्वती का ही एक रूप इस भक्त-कवियित्री के रूप में धरा पर अवतरित हुआ ऐसा सोचना अनुचित न होगा।  'दय्द' संस्कृत 'दुहिता' अर्थात् 'पुत्री' का ही पर्याय है और जहाँ पार्वती / ललिता हिमालयपुत्री है, वहीं लल्ला भी हिमालयपुत्री ही है इसमें संदेह नहीं।
क्या तब भारत का "Saffronization / काश्मीरीकरण"  किया जाना प्रशंसनीय नहीं होगा?
लेकिन राजनीतिज्ञ सत्ता के लिए वोट, वोटों के लिए तुष्टिकरण, और तुष्टिकरण के लिए  "Saffronization / काश्मीरीकरण" को "भगवाकरण" कहकर हिंदुत्व का मज़ाक तो उड़ाते ही हैं, भारत और हिंदुत्व के प्रति अपने विद्वेष का प्रदर्शन भी करते हैं।
समय आ गया है कि "Saffronization / काश्मीरीकरण" को एक  तमग़े / ताम्रक की तरह गर्व से अपने सीने पर टांका जाये।  यह स्वाभिमान की बात है न कि उपहास, अपमान या निंदा की। 
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October 23, 2018

आपकी जय हो !!

आशीर्वाद !
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करीब चार महीने पहले संस्कृत वाल्मीकि-रामायण को  पूरा पढ़ा।
इससे पहले स्वामी विद्यारण्य रचित पञ्चदशी को हाथ से लिखा (कॉपी किया)
मूल संस्कृत ग्रंथों के साथ दिक्कत यह है कि पढ़ते समय यह समझना कठिन होता है कि वास्तव में जो असमंजस है, वह प्रिंटिंग-इरर है, या मूलतः इरर है ही नहीं और मेरे संस्कृत के ज्ञान की खामी से मुझे इरर लग रही है।
मैं जब किसी संस्कृत (या मराठी / अंग्रेज़ी ) ग्रन्थ को पढ़ता हूँ तो मेरे पास उपलब्ध सारे शब्द-कोष, व्याकरण आदि को सामने रखता हूँ। संस्कृत / मराठी / अंग्रेज़ी व्याकरण का कामचलाऊ ज्ञान तो मेरे पास है किंतु अपने उस ज्ञान के प्रामाणिक होने का मुझे भरोसा नहीं।
कंप्यूटर पर सीधे लिखने / typeset करने में और अधिक भूल होने की संभावना होने से 'लिखना' ही सर्वाधिक सही लगता है।
ऐसे ही उपरोक्त दो ग्रंथों के अनुशीलन के समय 'आशी' शब्द को समझने का मौक़ा मिला।
संस्कृत में यह शब्द 'आ' उपसर्ग के साथ  'शी' -- 'शेते' अर्थात् 'सोता है' के अर्थ से युक्त होने पर आशय अर्थात् भाव / भावना का पर्याय होता है। इस प्रकार 'आशी' का तात्पर्य 'स्वस्ति' / मंगल / कल्याणप्रद होता है।
यह देखना रोचक है कि संस्कृत व्याकरण में आशीर्लिङ् दस लकारों में से एक 'लकार' / tense है।  इसी से मिलता जुलता है 'विधिलिङ्' जो विधि / सही तरीके या रीति के संकेत के लिए प्रयुक्त होता है।
व्याकरण के अपने अध्ययन में मैंने अनुभव किया कि जहाँ प्रायः किसी भाषा का व्याकरण उसके प्रचलित रूप के अनुसार विविध नियमों को संकलित कर निर्मित किया जाता है, संस्कृत में इससे बहुत भिन्न रीति से शब्द अर्थात् ध्वनिशास्त्र (Phonetics) के आधार पर ध्वनि-संकेतों के वर्ण-समुच्चय से एक या एक से अधिक ध्वनियों के संयोग से बने शब्द (word) से कोई 'अर्थ' ज्ञात / सिद्ध किया जाता है, जो भिन्न-भिन्न सन्दर्भों और प्रसंगों के साथ भिन्न-भिन्न तात्पर्य देता है।
इस प्रकार संस्कृत भाषा को शुद्ध कर बनाई गयी भाषा है यह सोचना पूरी तरह सही नहीं है।
इसलिए यह प्रश्न ही व्यर्थ हो जाता है कि कोई भाषा संस्कृत से व्युत्पन्न (derived) है या संस्कृत किसी अन्य भाषा से व्युत्पन्न (derived) है।
'आशी' का एक अन्य अर्थ, 'अश्' धातु से बननेवाले शब्द आशी के रूप में सर्पदन्त के लिए प्रयोग होता है:
आशी  -- आश्यां  विषं यस्य; सर्प का दाँत।
आशी तालुगता दंष्टा तथा विद्धो न जीवति :
साँप के दाँत से जिसे डसा गया हो, वह जीवित नहीं रहता। 
'आशीर्वाद' के बारे में सबसे महत्वपूर्ण यह है कि आशीर्वाद देने / लेने का अधिकार तथा पात्रता होने पर ही उसका कोई मतलब होता है, वरना वह सिर्फ औपचारिकता होता है। 
इसलिए आशीर्वाद कभी-कभी 'शाप' भी हो जाता है।
शाप शब्द भी उसी 'शप्' धातु से बना है जिसमें 'प्' प्रत्यय 'श' के बाद लगने पर तिरोधान-सूचक 'इत्'-संज्ञक है :
तस्येतो लोपसंज्ञकः (हलन्त्यम् -- अष्टाध्यायी --१ / ३ / ३,
उपरोक्त उदाहरण यह समझने के लिए भी सहायक है कि क्यों संस्कृत का व्याकरण, अन्य भाषाओं की तरह  प्रचलित नियमों (conventions) के संकलन के आधार से नहीं, बल्कि मूलतः किसी अन्य रीति से 'उद्घाटित' / सिद्ध किया गया है।
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और यह भी मज़ेदार बात है कि हम प्रायः भगवान से आशीर्वाद माँगते तो हैं उन्हें आशीर्वाद देते भी रहते हैं !
आपकी जय हो !
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October 13, 2018

कब होगी?

इस रात की सुबह ....
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पूरब में 'तितली' पंख फड़फड़ाती है,
सागर से बीस-बीस फुट ऊँची लहरें,
कर देती हैं, 'नई' सभ्यता को तबाह,
ध्वंस का उल्लास नहीं बख्शता है,
किसी ऊँची इमारत को, टॉवर को,
'तितली' जानती है, कब बदला लेना,
बड़े-बड़े होर्डिंग्स, झूलते गिरते हैं,
और हवा का ताण्डव, उलट देता है,
सजावटी चेहरों पर चढ़ी नक़ाब ,
मी टू, यू टू, दे टू, ही टू, वी ऑल,
दौड़ते हैं ढूँढते हैं, छिपने की जगह,
तितली नहीं पता कितनी नाज़ुक है,
उसके पंखों के वार कितने कातिल हैं,
उड़ते उड़ते ही बिखेर देगी टुकड़े टुकड़े,
उड़ा देगी धज्जियाँ, लिपे पुते चेहरों की,
कुछ इस तरह कि न पहचान सकेंगे,
और न दिखा सकेंगे, किसी को भी,   
मी टू, यू टू, दे टू, ही टू, वी ऑल,
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'ध्वंस का उल्लास' 

October 08, 2018

शुक्रिया सभी का !

किसी समय मई 2016 में, एक ही दिन करीब 576 पाठकों ने मेरा यह ब्लॉग देखा था।
दो दिन पहले दिनांक 06-10-2018  को करीब 300 पाठकों ने मेरा यह ब्लॉग देखा था।
यह मेरा एक दिन का अधिकतम 'व्यूकाउन्ट' है।
प्रायः तो यह आँकड़ा दहाई की हद में होता है।
वैसे मैं अपनी पोस्ट्स बहुत कम 'शेयर' करता हूँ और वह भी केवल G + पर ही और इसलिए आश्चर्य होता है कि कौन अचानक कभी-कभी मेरे ब्लॉग पर नज़रें इनायत करते हैं।
बहरहाल शुक्रिया सभी का !
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October 06, 2018

ज़िन्दगी मर्ज़ है इक लाइलाज,

निजात / कविता 
ज़िन्दगी मर्ज़ है इक लाइलाज,
नहीं है मौत भी दवा / निजात,
अगर यक़ीं है मज़हब-किताब पर,
हुआ फ़ज़ल तो नसीब होगी क़ब्र,
और फिर बस इंतज़ार करते रहना
ताक़यामत करवटें बदलते हुए,
फिर भी अंदेशा तो ये रहेगा ही,
फ़ैसला क्या होगा आख़री रोज़,
कैसा मुश्क़िल है सफ़र ज़िन्दगी,
मौत के बाद भी निजात नहीं,
इससे बेहतर तो शायद यह होगा,
जैसे हो इस दश्त से निकल आओ,
पता लगा लो कि कौन जीता है,
पता लगा लो कि मरता है कौन,
जब तलक वहम है अपने होने का,
तब तलक ज़िन्दगी रहेगी मर्ज़,
ये वहम भी टूट जाएगा जिस दिन,
मौत से पहले ही होगी निजात ।
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October 03, 2018

किसी राह में,

कविता / 03 -10 -2018
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किसी राह में,
राहत तो हो,
किसी चाह में,
चाहत तो हो,
किसी आह में,
आहट तो हो,
राहत न हो,
तो वो राह क्या,
चाहत न हो,
तो वो चाह क्या,
आहट न हो,
तो वो आह क्या,
किसी दर्द की कराह क्या,
सुनता हो कोई अगर,
देखती हो कोई नज़र,
मुमकिन है कि कराह का,
दिखाई दे कोई असर,
देखकर भी जो देखे न,
कैसा है वो हमसफ़र,
इस सफर में अगर,
ऐसा कोई साथ हो ....
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August 22, 2018

मीडिया-मसाला

आज की कविता :
मीडिया-मसाला
’कुछ भी’
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हर दर्शक जहाँ ’पात्र’,
हर पात्र जहाँ ’चरित्र’,
’चरित्र’ जहाँ अभिनेता,
अभिनेता, -शत्रु या मित्र,
राजनीति, खेल या चैनल,
महक़ते हैं जैसे इत्र,
निर्देशक, कहानी, कथाकार,
ख़रीदे हुए हों या उधार,
टीवी या मोबाइल पर,
जीवंत रोज़ चलचित्र !
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हरिप्रिया वृन्दा तुलसी...

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वंदे मातरम् !
सुप्रभात!
वैसे तो राक्षस कुल की,
कहते हैं है यह तुलसी,
तप से किसी वरदान से,
पर हरिचरणों में हुलसी,
तन-मन को करती पावन,
धरती को गंगा-जल सी,
साँसों से दिल में घर करती,
हरिप्रिया वृन्दा तुलसी...
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August 20, 2018

आज की कविता : ख़बरनवीस!

आज की कविता : ख़बरनवीस!
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ख़बरनवीस!
ख़बर नफ़ीस दो!
पढ़ते ही दौड़ने लगे,
लहू नसों में तेज़,
चलने लगें साँसे तेज़,
तड़प उठे दिल दर्द से,
किसी की ख़ातिर!
ख़बरनवीस!
ख़बर दो ऐसी,
कि ख़बर लो उन सबकी,
जो ढूँढते हैं,
ख़बरों में शिकारगाह,
जिनकी निगाहों में हैं,
हरे-भरे चरागाह,
जो ढूँढते हैं,
नसों में खुद के लिए,
ख़बरों में वहशी उन्माद,
उन सबकी ख़बर लो!
ख़बरनवीस!
ख़बर नफ़ीस दो!
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(शायद इसे एडिटिंग की ज़रूरत है, 
लेकिन ऐसी ज़ुर्रत करने का इरादा अभी नहीं है। ) 

August 18, 2018

आज की कविता / सहारे

आज की कविता / सहारे
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’कुछ भी ...’
सन्दर्भ बदलते ही ’तथ्य’ बदल जाते हैं,
और सब के अपने ’सत्य’ बदल जाते हैं,
कौन सा तथ्य होगा, कौन सा सत्य होगा,
इसे तय करने के पैमाने भी बदल जाते हैं ...
बदलती दुनिया में सब कुछ बदल जाता है,
संबंध बदल जाते हैं, उसूल बदल जाते हैं,
कौन सा सहारा मिले, किसे ढूँढते हैं हम,
जो सहारे होते हैं, वो सहारे बदल जाते हैं ...
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August 07, 2018

जिसे चाहो उससे ...

गीत
'इबादत' 
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जिसे चाहो उससे कभी कुछ मत चाहो,
उसके अवगुण कभी न देखो, गुण सराहो,
तुमसे भले ही उतर आए दुश्मनी पर,
तुम उससे मुहब्बत का ही रिश्ता निबाहो,
हाँ ये मुश्किल है, बहुत ही है मुश्किल,
न आजमाओ उसे, खुद को आजमाओ !
बना लो अपने को तुम उसका बन्दा,
और उसे तुम खुदा अपना बना लो!
इक यही है सच्ची इबादत का तरीका,
अपनी रूह को तुम उसका मंदिर बना लो !
फिर हो वो बुत या चाहे हो बुतपरस्त,
या भले ही हो, काफ़िर या बुतशिकन,
बा-उसूल, बे-उसूल, या पाबंद मज़हब का,
खुद के मिटने का कोई तरीका निकालो !
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August 03, 2018

आज की कविता 'प्यास'

आज की कविता
 'प्यास'
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डगर बहुत कठिन पनघट की,
प्यास बड़ी गहरी पर घट की,
एक घड़ा मिट्टी का बना,
मन-प्राणों का दूजा बना,
बाहर की प्यास पानी से बुझे,
भीतर की कौन बुझाए, बूझे?
रह रह उठती-बुझती प्यास,
या पानी की झूठी आस,
पानी धरती पर चारों ओर,
जिसका कहीं ओर ना छोर,
भीतर शुष्क हृदय मन गात,
मृत्यु जीवन को देती मात !
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July 30, 2018

फ़ुरसत-नामा .....


फ़ुरसत-नामा .....
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क्या लगता है आपको?
क्या फ़ेसबुक हमारे कलेक्टिव (collective) कॉन्शसनेस (consciousness) को बदल रहा है?
धीरे-धीरे हमारी सेन्सिबिलिटीज़ इरोड (erode) और कोरोड (corrode) हो रही हैं?
क्या हमारी इन्डिविजुअल कॉन्शसनेस (individual consciousness) इससे अप्रभावित रह सकती है?
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और अनायास जब मेरा ध्यान  इरोड / erode और कोरोड / corrode की तरफ़ गया तो यह समझ में आया कि ये दोनों संस्कृत अवरोध और संरोध / स-रोध, तथा सहरोध से व्युत्पन्न हैं ...
जैसे सु-प्र-सं-शस-निष् सु-प्र-शंस-निष् (super-consciousness)
स-उप- संश-निष् ; स -उप-शंस-निष् (sub-consciousness)
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कुछ भी ?
गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता ....
गुल्ममिदं कंचन गुल-आपः पिंगलो वा,
गुल्मो-हर तथैव चापि वदति लोक एनं ॥
यह जो गुल्म है जिसमें पिंगल पुष्प खिलते हैं, लोक में गुलाब के नाम से जाना जाता है ।
पिंगल से पिंक हो जाना स्वाभाविक है, पिंगलेश / पिंकेश भी इसे प्रसन्नता से स्वीकार करते हैं ।
इसी प्रकार गुल्म से विकसित हुआ गुल्मो-हर जो गुल्म को वृक्ष बना देता है, गुलमोहर नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
गुल्म (झाड़ी, क्षुप से कुछ बड़ी) ; गुल
सिगरेट का गुल, कोई घटना (गुल खिलना), बात ; पंजाबी में ’गल’....
"की गल है ? "
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संस्कृत  - लप् (बोलना ); -लापयति, आलाप, लप्जः ; लफ़्ज़ ; अल्फ़ाज़ ...
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अल्फा (a ) अंग्रेज़ी का पहला वर्ण है, Z अंतिम ....
ZZZZZZZZZ...ZZZZZZZZ...ZZZZZZZZZZZZZZZZ.

July 28, 2018

चार कविताएँ, फ़ुरसत में ...

चार कविताएँ, फ़ुरसत में ...
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कुछ गरज़ते हैं, पर बरसते नहीं,
कुछ बरसते हैं, पर गरज़ते नहीं,
कुछ गरज़ते हैं, बरस भी पड़ते हैं,
बारिशें झेलती रहती हैं सब-कुछ !
बारिशों से बादलों का साथ,
जैसे थामे हों हाथ में हाथ,
कभी तो छूट जाता है,
कभी छोड़ भी जाता है ।
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कुछ भी ...
जब हम बिज़ी होंगे,
कैसे इज़ी होंगे?
अच्छा है लेज़ी होना,
अच्छा है क्रेज़ी होना !
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सवाल !?
दुआएँ किसको दूँ मैं,
दुआएँ किससे लूँ मैं,
दुआएँ किससे माँगूँ,
किसके लिए मैं ?
जो माँगने पर भी न दे उससे?
जो बिन माँगे देता रहा है, उससे?
उसे मालूम है किसे क्या चाहिए,
क्यों परेशां करूँ खामखाँ उसको?
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 कुप्पा ...
अपनी तारीफ़ सुन मैं हुआ फूलकर कुप्पा,
डर है फूलकर फूट ही न जाऊँ कभी,
हे प्रभो अगले जनम न बनाना इन्सां,
इन्सां के बदले बना देना भले ही कपि...
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January 06, 2018

ईश्वर की आत्म-कथा / कविता

ईश्वर की आत्म-कथा
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थका-थका सा उनींदा सा ये आदमी,
उचटी नींद से अभी ही जागा हो जैसे,
ये बोझिल-बोझिल सी आँखें उसकी,
स्वप्न तो नहीं, नींद का ख़ुमार है बाक़ी,
देखकर पल भर को आसपास अपने,
फिर से सो जाएगा, लौट जाएगा वहीं,
जहाँ से कोई ख़बर या चिट्ठी नहीं आती,   
थका-थका सा उनींदा सा ये आदमी,
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आहटें चैन से उसे सोने क्यों नहीं देती,
उसे क्या मिलना है यहाँ क्या खोना है,
क्या उसे चाहिए, क्यों उसे जगाते हो,
उसे जागना भी नहीं और ना जगाना है,
फ़लसफ़ा उसका है चैन से सोए हर कोई,
थका-थका सा उनींदा सा ये आदमी,
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तुम्हें जागने की हसरत या ज़रूरत हो,
जागना तुम्हारा फ़र्ज़ हो या मज़बूरी हो,
तो कहाँ रोकता टोकता है वह तुम्हें,
मत उसे छेड़ो नाहक चैन से सोने दो,     
थका-थका सा उनींदा सा ये आदमी,
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January 05, 2018

ग्रंथियाँ ! / कविता


ग्रंथियाँ ! / कविता
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ग्रंथियाँ गाँठ बन जाती हैं,
दिल में, ज़िस्म में रूह में भी,
दिल से ज़िस्म तक कभी,
दिल से रूह तक भी कभी,
वो जो बहा करता है दिल में,
खून सा, तो प्यार सा कभी,
एक अहसास सा ज़िस्मानी,
एक अहसास सा जो रूमानी,
एक अहसास सा जो रूहानी,
उसे बहने दो, रोको न उसे,
वर्ना बन जाया करती हैं गाँठें,
ज़िस्म में, रूह या अहसास में,
खून में, दिल में, जज़्बात में भी,
खून जम न जाए, पिघल जाए,
दिल न पत्थर हो, पिघल जाए,
गाँठ न बने उसको यूँ बहने दो,
आँसू, हँसी या कविता बनकर,
ग्रंथियाँ गाँठ, नासूर बनती हैं,
काव्य के ग्रंथ भी बनती हैं !
रस से बनने दो रसायन कोई,
रस को रसौली नहीं बनने दो,
खोल दो गाँठें सारी दिल की,
रस को स्वच्छन्द-छन्द बहने दो ।
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January 04, 2018

समय के कॆनवस पर बने चित्र

समय के कॆनवस पर बने चित्र
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जो तुम गढ़ रहे हो वो गढ़ा जा चुका है
जो मैं लिख रहा हूँ पढ़ा जा चुका है ।
बाद का समय, जिसे भविष्य कहा जाता है
अतीत का प्रतिबिंब है, काल्पनिक समय में !
जिसमें तुमने एक यंत्र की तरह गढ़ा था कभी,
जिसमें मैंने एक यंत्र की तरह लिखा था कभी,
जिसमें घटना का बना करता है पुनः प्रतिबिंब,
टूट जाते हैं बस वो तार जो थे कभी संपर्क-सूत्र,
बीच के समय में, इस वर्तमान के दर्पण में,
वही लगता है हुआ, होता, या कभी होएगा,
जो बस कल्पना है जिसमें युगों या कल्पों तक,
जो तुम गढ़ते रहे हो जो कि मैं लिखता रहा हूँ ।
जो तुम गढ़ रहे हो वो गढ़ा जा चुका है
जो मैं लिख रहा हूँ पढ़ा जा चुका है ।
हरेक चित्र जिसे चित्रकार बना ही चुका है,
जिसे समय की फ़्रेम में मढ़ा जा चुका है ।
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सेटिंग्स : कविता

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कुछ भी !
सेटिंग्स-1,
कैमरे का सेटिंग बदल देते ही,
दृश्य भी कुछ यूँ बदल जाता है
जो भी होता है उसके फ़ोकस में,
बस वही ख़ास नज़र आता है,
और वह सब जो नहीं है ख़ास,
नज़र से ओझल ही हो जाता है,
यही तो मंत्र भी है मीडिया का,
जिसे बदलाव की ज़रूरत है,
उसे ऑउट ऑफ़ फ़ोकस कर दो,
उस पे फ़ोकस करो कैमरे को,   
जो बदल दे दृश्य का मतलब,
बदलाव बस वही असली है,
और बस वही ज़रूरी भी है,
जो बदल दे देखने की नज़र,
बाकी बिल्कुल ग़ैर-ज़रूरी है !
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कुछ भी !
सेटिंग्स -2.
सबकी साक़ी पे नज़र हो ये तो ज़रूरी है मगर,
सब पे साक़ी की नज़र हो ये ज़रूरी तो नहीं,
रहो कैमरे की नज़र में ये तो ज़रूरी है मगर,
नज़र के फ़ोकस में भी रहो ये ज़रूरी तो नहीं,
इसलिए क़ोशिश ये करो जैसा तुम चाहो,
ख़ास बनना है तो बने रहो फ़ोकस में !
ख़ास तो बस हुआ करता है साक़ी,
पीनेवाला हर कोई हुआ करता है !
पीनेवाला ही जाम पिया करता है,
और वही यूँ आम हुआ करता है !
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January 03, 2018

रेल वाली लड़की

कविता
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शायद यह रोमांटिक है,
शायद नहीं,
क्योंकि ’रोमांटिक’ शब्द के अपने-अपने अलग-अलग शब्दार्थ होते हैं,
और ’रोमांटिक’ शब्द के अपने-अपने अलग-अलग भावार्थ भी ।
’रोमांस करने’ के,
और ’रोमांटिक’ होने के भी ।
यह इस पर भी निर्भर होता है जिससे आप ’रोमांस’ कर रहे हैं,
या, जिसके लिए आप ’रोमांटिक’ हो रहे हैं,
उसकी और आपकी उम्र के बीच कितना फ़ासला है,
और इस पर भी,
कि ’वह’ व्यक्ति है, कोई प्राणी, कोई घटना, स्मृति या ठोस वस्तु,
जैसे किसी को ’पुरातत्व’ से भी रोमांस हो सकता है ।
अजीब लगता है न ।
फिर यह इस पर भी निर्भर करता है,
कि क्या आपका उस ’व्यक्ति’ से कोई नाता-रिश्ता भी है क्या ।
और अंत में एक हद तक इस पर भी,
कि आप पुरुष हैं, स्त्री हैं, या बस एक निपट मनुष्य,
जहाँ पुरुष या स्त्री होना प्रासंगिक और गौण है ।
उस स्टेशन पर ट्रेन से मेरे पहले वह उतरी थी ।
उसके बालों से वह गुलाब खुलकर नीचे गिर गया था,
जिस पर मेरी निग़ाह बस अभी-अभी ही पड़ी थी ।
पता नहीं वह क्या था,
कि मैं उसे कुचले जाते हुए नहीं देखना चाहता था ।
झुककर उठा लिया,
तब तक उसकी निग़ाह मुझ पर पड़ गई ।
’एक्सक्यूज़ मी!’
उससे नज़र मिलते ही मेरे मुँह से निकला ।
’जी, थैंक्स’
’अगर आप बुरा न मानें तो इसे लगा देंगें?’
उसने सहजता से कहा ।
और मैं रोमांटिक हो गया,
मेरे अर्थ में ।
उसके बालों में सावधानी से उस गुलाब को लगा दिया,
और वह फ़ुर्ती से पुनः ’थैंक्स’ कहकर,
फूट-ब्रिज की ओर बढ़ गई ।
उसके बारे में और कुछ याद नहीं रहा,
बस वह गुलाब अब भी कभी-कभी,
शिद्दत से याद आता रहता है,
और हाँ,
अब यह न पूछें कि उसकी उम्र क्या थी!
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