आज की कविता
'प्यास'
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डगर बहुत कठिन पनघट की,
प्यास बड़ी गहरी पर घट की,
एक घड़ा मिट्टी का बना,
मन-प्राणों का दूजा बना,
बाहर की प्यास पानी से बुझे,
भीतर की कौन बुझाए, बूझे?
रह रह उठती-बुझती प्यास,
या पानी की झूठी आस,
पानी धरती पर चारों ओर,
जिसका कहीं ओर ना छोर,
भीतर शुष्क हृदय मन गात,
मृत्यु जीवन को देती मात !
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'प्यास'
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डगर बहुत कठिन पनघट की,
प्यास बड़ी गहरी पर घट की,
एक घड़ा मिट्टी का बना,
मन-प्राणों का दूजा बना,
बाहर की प्यास पानी से बुझे,
भीतर की कौन बुझाए, बूझे?
रह रह उठती-बुझती प्यास,
या पानी की झूठी आस,
पानी धरती पर चारों ओर,
जिसका कहीं ओर ना छोर,
भीतर शुष्क हृदय मन गात,
मृत्यु जीवन को देती मात !
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