October 23, 2018

आपकी जय हो !!

आशीर्वाद !
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करीब चार महीने पहले संस्कृत वाल्मीकि-रामायण को  पूरा पढ़ा।
इससे पहले स्वामी विद्यारण्य रचित पञ्चदशी को हाथ से लिखा (कॉपी किया)
मूल संस्कृत ग्रंथों के साथ दिक्कत यह है कि पढ़ते समय यह समझना कठिन होता है कि वास्तव में जो असमंजस है, वह प्रिंटिंग-इरर है, या मूलतः इरर है ही नहीं और मेरे संस्कृत के ज्ञान की खामी से मुझे इरर लग रही है।
मैं जब किसी संस्कृत (या मराठी / अंग्रेज़ी ) ग्रन्थ को पढ़ता हूँ तो मेरे पास उपलब्ध सारे शब्द-कोष, व्याकरण आदि को सामने रखता हूँ। संस्कृत / मराठी / अंग्रेज़ी व्याकरण का कामचलाऊ ज्ञान तो मेरे पास है किंतु अपने उस ज्ञान के प्रामाणिक होने का मुझे भरोसा नहीं।
कंप्यूटर पर सीधे लिखने / typeset करने में और अधिक भूल होने की संभावना होने से 'लिखना' ही सर्वाधिक सही लगता है।
ऐसे ही उपरोक्त दो ग्रंथों के अनुशीलन के समय 'आशी' शब्द को समझने का मौक़ा मिला।
संस्कृत में यह शब्द 'आ' उपसर्ग के साथ  'शी' -- 'शेते' अर्थात् 'सोता है' के अर्थ से युक्त होने पर आशय अर्थात् भाव / भावना का पर्याय होता है। इस प्रकार 'आशी' का तात्पर्य 'स्वस्ति' / मंगल / कल्याणप्रद होता है।
यह देखना रोचक है कि संस्कृत व्याकरण में आशीर्लिङ् दस लकारों में से एक 'लकार' / tense है।  इसी से मिलता जुलता है 'विधिलिङ्' जो विधि / सही तरीके या रीति के संकेत के लिए प्रयुक्त होता है।
व्याकरण के अपने अध्ययन में मैंने अनुभव किया कि जहाँ प्रायः किसी भाषा का व्याकरण उसके प्रचलित रूप के अनुसार विविध नियमों को संकलित कर निर्मित किया जाता है, संस्कृत में इससे बहुत भिन्न रीति से शब्द अर्थात् ध्वनिशास्त्र (Phonetics) के आधार पर ध्वनि-संकेतों के वर्ण-समुच्चय से एक या एक से अधिक ध्वनियों के संयोग से बने शब्द (word) से कोई 'अर्थ' ज्ञात / सिद्ध किया जाता है, जो भिन्न-भिन्न सन्दर्भों और प्रसंगों के साथ भिन्न-भिन्न तात्पर्य देता है।
इस प्रकार संस्कृत भाषा को शुद्ध कर बनाई गयी भाषा है यह सोचना पूरी तरह सही नहीं है।
इसलिए यह प्रश्न ही व्यर्थ हो जाता है कि कोई भाषा संस्कृत से व्युत्पन्न (derived) है या संस्कृत किसी अन्य भाषा से व्युत्पन्न (derived) है।
'आशी' का एक अन्य अर्थ, 'अश्' धातु से बननेवाले शब्द आशी के रूप में सर्पदन्त के लिए प्रयोग होता है:
आशी  -- आश्यां  विषं यस्य; सर्प का दाँत।
आशी तालुगता दंष्टा तथा विद्धो न जीवति :
साँप के दाँत से जिसे डसा गया हो, वह जीवित नहीं रहता। 
'आशीर्वाद' के बारे में सबसे महत्वपूर्ण यह है कि आशीर्वाद देने / लेने का अधिकार तथा पात्रता होने पर ही उसका कोई मतलब होता है, वरना वह सिर्फ औपचारिकता होता है। 
इसलिए आशीर्वाद कभी-कभी 'शाप' भी हो जाता है।
शाप शब्द भी उसी 'शप्' धातु से बना है जिसमें 'प्' प्रत्यय 'श' के बाद लगने पर तिरोधान-सूचक 'इत्'-संज्ञक है :
तस्येतो लोपसंज्ञकः (हलन्त्यम् -- अष्टाध्यायी --१ / ३ / ३,
उपरोक्त उदाहरण यह समझने के लिए भी सहायक है कि क्यों संस्कृत का व्याकरण, अन्य भाषाओं की तरह  प्रचलित नियमों (conventions) के संकलन के आधार से नहीं, बल्कि मूलतः किसी अन्य रीति से 'उद्घाटित' / सिद्ध किया गया है।
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और यह भी मज़ेदार बात है कि हम प्रायः भगवान से आशीर्वाद माँगते तो हैं उन्हें आशीर्वाद देते भी रहते हैं !
आपकी जय हो !
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