March 08, 2025

कविता / 08032025

एक जिज्ञासा!

--

मेरे व्हॉट्स ऐप से 

--

साँस क्यों चलती है,

ये किसकी गलती है,

कौन लेता है साँस,

उम्र क्यों ढलती है, 

एक अफसोस बना रहता है,

जिन्दगी यूँ ही क्यों चलती है!

***




February 21, 2025

The Nature of Mind.

मानसं तु किम्? 

--

वे लोग अभी तक किसी भाषा का आविष्कार नहीं कर सके थे। न तो सांकेतिक, न शाब्दिक ध्वन्यात्मक वर्णों आदि में बोली जानेवाली या वर्णात्मक लिपि में लिखी जानेवाली। उन्हें इसकी कमी भी महसूस नहीं होती थी क्योंकि वे अपनी भावनाओं को केवल तात्कालिक रूप से ही व्यक्त होने देते थे और उन्हें छिपाने के बारे में उन्हें कोई कल्पना तक नहीं थी।

उसके साथ भी यही था। उसे यह तो पता था कि लाल, नीला और हरा रंग किस प्रकार परस्पर भिन्न हैं किन्तु उसका ध्यान कभी इस पर नहीं जा पाया था कि उनमें विद्यमान 'रंग' नामक समान तत्व क्या है! और वैसे ही उसे विभिन्न ध्वनियों की पहचान भी थी किन्तु ध्वनि और रंगों की कोई पहचान उसके मन में अभी तक परिभाषित और स्थिर नहीं हो सकी थी। 

*** 

Trans and Transcendence.

अतिमानस और अतिचेतन

Transcendental Mind And Transcendental Consciousness.

उसे रंगबिरंगी वस्तुओं में रुचि थी। शुरू में तो उसने कुछ बड़े बड़े पत्थर जमा किए थे और एक कमरा बना लिया था जिस पर उसने पेड़ों के पत्ते, और कुछ सूखी टहनियाँ रखकर अपने रहने के लिए एक सुविधाजनक पर्णकुटी जैसा घर भी बना लिया था। जंगल में अपनी इच्छानुसार वह जहाँ तहाँ घूमते हुए थक चुकी होती तो उस पर्णकुटी में आराम कर सकती थी। पत्थरों की बनी वे चार दीवारें जिनकी ऊँचाई उसके कद से थोड़ी सी अधिक थी। वह लगभग हर रोज ही उस घर में कुछ न कुछ नया बदलाव किया करती थी। जब उसे महसूस हुआ कि उस घर में हाथों को ऊपर की ओर फैलाने में घास फूस और पत्तों से बनी छत रुकावट डालने लगी है तो उसने दीवारों की ऊँचाई और बढ़ा दी। और वैसे भी उसे तब यह भी समझ में आ चुका था कि अब उसकी ऊँचाई भी बढ़ रही है।

उसका अतिथि मित्र जब पुनः अपने समुदाय के लोगों के साथ आया था तो वे लोग यह देखकर बहुत खुश हुए थे कि आसपास बहुत से ऐसे पत्थर थे, जिन्हें आग में तपा कर गलाया जा सकता था। और फिर ठोक पीटकर उन्हें वाञ्छित आकार की वस्तुओं में ढाला जा सकता था। यूँ कह सकते हैं कि यह समय "लौह युग" / "Iron Age" का समय रहा होगा।

उनका यह सारा ज्ञान बिना किसी भाषा के ही आनेवाली नई पीढ़ी को वे संप्रेषित कर देते थे। क्योंकि हर तरह का संपूर्ण तकनीकी ज्ञान ऐसा ही होता है। तकनीक तो यंत्र भी सीख लेते हैं, क्योंकि उन्हें बनाना भी तकनीक ही है।

वे लोग अलग अलग प्रकारों के लोहे से भिन्न भिन्न तरह की वस्तुएँ जैसे कुल्हाड़ी, चाकू, तलवार और धनुष से चलाए जानेवाले बाण भी बनाया करते थे।

उनमें एक व्यक्ति ऐसा भी था जो उस दल का मुखिया था और सभी उसकी आज्ञा के अनुसार अपना अपना कार्य करते थे। इसी तरह और भी दो तीन व्यक्ति थे जो उससे कम आयु के युवा थे, जबकि वह अब काफी बूढ़ा हो चुका था।

उसकी आज्ञा को मानने का एक और कारण था क्योंकि ऐसा समझा जाता था कि उसका संपर्क कुछ ऐसे अदृश्य लोगों से होता है जो उसे मार्गदर्शन देते हैं। यह वैसे कुछ अविश्वसनीय प्रतीत होता है, किन्तु उनमें से लगभग हर कोई अपने अनुभवों से भी जानता था और उसे लगता था कि ये अदृश्य लोग वही हैं, जिनकी कभी मृत्यु हो जाती है और उनके शरीर के नष्ट हो जाने पर, उनके शरीर को पूरी तरह से जलाकर राख कर दिए जाने पर भी वे किसी किसी को दिखाई देते हैं और उनमें से प्रायः हर किसी को यह बिल्कुल स्वाभाविक प्रतीत होता था इसलिए इस पर किसी को संदेह ही नहीं था।

चुम्बकीय लोहा

इसका दूसरा प्रमाण उनके पास यह भी था कि जब ऐसे किसी व्यक्ति की स्वप्न जैसी अवस्था में उन अदृश्य लोगों से भेंट होती तो इसकी सत्यता की परीक्षा वे कर सकते थे। और यह जानकारी भी उन्हें बहुत पहले से थी। न जाने कितनी पीढ़ियों पहले से।

यह प्रमाण बहुत सरल था।

वे रात्रि को सोते समय अपने सिरहाने पर बिस्तर के नीचे लोहे का बना कोई चाकू रखा करते थे और प्रायः जब भी उन्हें लगता कि स्वप्न में उनकी किसी अदृश्य व्यक्ति से मुलाकात हुई थी तो उस चाकू को लोहे की बनी किसी दूसरी वस्तु से स्पर्श कर इसकी पुष्टि भी कर सकते थे कि उस चाकू को उस अदृश्य वस्तु की आत्मा ने स्पर्श किया और इसलिए उसमें चुम्बकीय गुण प्रविष्ट हो गया। उसे यह रोचक प्रतीत हुआ और जब एक दिन स्वयं उसे भी ऐसा महसूस हुआ तो उसे उन अदृश्य लोगों और उनकी इस सत्ता पर विश्वास हो गया।

उस समुदाय का प्रमुख इसलिए भी विशिष्ट था कि उसे यह अच्छी तरह से पता था कि भिन्न भिन्न तरह के ऐसे अदृश्य व्यक्तियों से कैसे मिला जा सकता है और उनसे मिलना कितना उचित या अनुचित हो सकता है, कितना निरापद और भयावह या खतरनाक भी हो सकता है।

फिर उसे एक दिन यह रहस्य भी समझ में आ गया कि क्यों उसका अतिथि मित्र एक दिन अचानक उसे बताए बिना कहीं चला गया था। और जब बहुत दिनों बाद वह  अपने समुदाय के साथ लौटा था तो समुदाय प्रमुख और उसके साथ की उसकी साथी स्त्री ने कुछ वनस्पतियों को जलाकर विशेष सुगंध फैलाकर कुछ अदृश्य लोगों को निमंत्रित किया था और उसके अतिथि मित्र के साथ उन दोनों के वस्त्रों में गाँठ लगाकर उन दोनों को जलती हुई अग्नि की परिक्रमा करने के लिए कहा था। उसे यह सब विस्मयपूर्ण और कौतूहल भरा लगा था किन्तु यह समझ में आ गया कि एक स्त्री और एक पुरुष के बीच संतान की उत्पत्ति करने के लिए तय किए जानेवाले इस विधान का क्या महत्व है और यह एक सर्वाधिक और अत्यन्त पावन संस्कार है। यद्यपि उसके पास ये सारे शब्द नहीं थे किन्तु अग्नि में विद्यमान जिस तेजस्वी पुरुष के दर्शन उसे उस समय हुए वह औरों के लिए शायद अदृश्य ही रहा होगा ऐसा उसे लगा।

वह प्रायः उस समुदाय की स्त्रियों के साथ वन में फल, फूल, वनस्पतियाँ और खनिज द्रव्य लेने जाया करती थी और वही उसे वह गुप्त विद्या प्राप्त हुई कि किस प्रकार लाख, lac. गोंद, glue / gum,  राल, गुग्गलु, चंदन, आदि सुगंधित  incense वनस्पतियों को जलाकर भिन्न भिन्न प्रकार के अदृश्य व्यक्तियों को आकर्षित किया जा सकता है या दूर भी रखा जा सकता है। उस समुदाय का वह विशिष्ट व्यक्ति इन लक्ष्यों को भली भाँति जानता था और कभी कभी इन अच्छे या बुरे लोगों का चित्र बनाकर भी उनसे हुई उसकी मुलाकात का वर्णन किया करता था। विशेष रूप से तब जब वह विधि विधान पूर्वक ऐसा कोई अनुष्ठान करता। और लोगों के लिए यह सब समझ सकना कठिन था किन्तु सभी को यह स्पष्ट हो गया था कि ऐसे अदृश्य व्यक्तियों का अस्तित्व है जिनसे संपर्क भी किया जा सकता है। किन्तु हम लोगों द्वारा बोली और लिखी जानेवाली किसी बौद्धिक भाषा से उनका कोई परिचय तब तक नहीं हुआ था इसलिए वे राक्षस, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर और देवताओं इत्यादि को जानते हुए भी उनके लिए प्रयुक्त किए जानेवाले किसी शब्द से पूरी तरह से अनभिज्ञ थे। वे एकेश्वरवादी या बहुदेवतावादी भी नहीं थे और इन अदृश्य व्यक्तियों को अपनी बुद्धि द्वारा जानी गई विशेष शक्तियों की तरह जानते थे। उन्हें प्रेत-धर्म भी ज्ञात नहीं था क्योंकि उनके समुदाय में किसी की मृत्यु हो जाने पर समुदाय का मुखिया ही तय करता था कि उसके वश की अंत्येष्टि कैसे की जाए। वे यह तो जानते थे कि मृत्यु हो जाने के बाद भी कोई अदृश्य रूप से अस्तित्वमान रहता है, किन्तु उन्हें इस बारे में नहीं पता था कि क्या ऐसे अदृश्य व्यक्ति का जन्म पुनः किसी नए शरीर में उस तरह से होता है जैसे कि उन सब लोगों का जन्म किसी समय हुआ था। किन्तु देवताओं और ऐसे ही अन्य अदृश्य व्यक्तियों अर्थात् ऋषियों से संपर्क होने के बाद पहले मंत्रों से और फिर अनुष्ठानों को पूर्ण करने से उनमें वैदिक ज्ञान के प्रति जागृति हुई और उस चिरंतन,  शाश्वत और अविनश्वर वस्तु से भी उनका परिचय हुआ, जिसे सामान्यतः। सत्य,  ब्रह्म, आत्मा या परमात्मा कहा जाता है।

***




This Moment of NOW

स्मृति कल्पना और संसार

तब समय नहीं था, क्योंकि न तो समय अतीत की स्मृति की तरह और न भविष्य की कल्पना की तरह अनुभव हो सकता था। वहाँ निपट वर्तमान था जो न आया था और न ही कभी आनेवाला था। क्योंकि उनके पास मन में न तो अतीत की कोई स्मृति थी और न ही भविष्य का कोई अनुमान या कल्पना ही थी। हाँ, वह प्रत्यक्ष और आसन्न वर्तमान अवश्य होता था जो भावी की संभावना के रूप में उनके मनःचक्षुओं के सामने उनके समक्ष चित्र के रूप में होता था। किन्तु ऐसा अनायास, बहुत ही कम अवसरों पर होता था जो न तो अतीत में घटित किसी घटना की स्मृति का दोहराव होता था और न ही भविष्य की किसी संभावना पूर्वानुमान या कल्पना हो सकता था। इसलिए वे उस "समय" से अनभिज्ञ थे जो हमें शीघ्रता से या धीरे धीरे बीतता हुआ प्रतीत होता रहता है। किन्तु जब उनमें वस्तुओं और घटनाओं की चित्रात्मक और ध्वन्यात्मक स्मृति बनना शुरू हुआ तो उसके फलस्वरूप वही उस काल्पनिक जगत से उनका प्रथम परिचय था जो क्रमशः दृश्यश्रव्य स्मृति के रूप में उनके मन में बसने लगा। जब वह भाषा नामक उस माध्यम / interface से अनभिज्ञ थी, जिसे कि उसके अतिथि मित्र के आगमन के बाद उन दोनों ने मिलकर बनाया था, और जो कि ऐसी नई खोज / discovery  नहीं, बल्कि बस संयोगवश ही बन गई प्रणाली / system,  स्मृति और कल्पना से उत्पन्न और "जानकारी" के रूप में प्राप्त तथाकथित वह "ज्ञान" था, जिसका वर्गीकरण उन्होंने प्रमादवश, अनवधानता और बस लापरवाही से ही तथाकथित अतीत और भविष्य में कर लिया था। और इस तरह से वे वर्तमान वास्तविकता (This Moment of Now) से पूरी तरह से विच्छिन्न हो चुके थे। उन्हें कभी यह पता तक न चल सका कि इस प्रकार जिस स्वर्ग में वे अब तक आनन्दपूर्वक जी रहे थे, उससे कैसे अचानक बहिष्कृत हो गए थे और फिर ऐसा भी नहीं कि किसी और ईश्वर या परमात्मा या ऐसी किसी शक्ति ने उन्हें उस स्वर्ग से धकेलकर बाहर कर दिया था।

यह ज्ञान का फल था जिसके आस्वाद, स्पर्श, स्वर, रंग-रूप और गंध से वे मोहित और अभिभूत थे।

कल्पना और स्मृति के संयोग से भाषा की निर्मिति कर लेने के बाद इस माध्यम (interface) से वे कल्पनाओं को और अधिक विकसित, परिवर्धित और समृद्ध करने लगे थे और जिस समय की अवधारणा ने उनकी स्मृति में जन्म लिया उसका विस्तार अतीत में और भविष्य में  दूर तक था जिसे कि उन्होंने क्रमशः अनादि और अनन्त का नाम दिया था।

यह ज्ञान, भान या बोध नहीं, उसका विकल्प था जिसे 

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।

से परिभाषित किया जा सकता है और इस तरह एक प्रकार की वृत्ति ही था। 

यह ज्ञान उस सहज भान से अत्यन्त भिन्न था जो इससे पहले उनके पास सहज जीवन की तरह उनका स्वर्ग था।

*** 

February 17, 2025

Paradise Lost.

स्वर्ग से निष्कासित

वे दोनों जहाँ रह रहे थे वहाँ अभी तक ज्ञान का आगमन नहीं हो सका था। वहाँ पर जन्म, जीवन और मृत्यु भी थे किन्तु दुःख नहीं था।  क्योंकि चेतना अभी स्मृति नामक विकार से दूषित नहीं हुई थी। क्योंकि वे अभी किसी भी शाब्दिक भाषा से नितान्त अनभिज्ञ थे। भाषा के अभाव में जो स्मृति थी वह अत्यन्त क्षीण और क्षणजीवी थी। न तो स्मृतियों की कोई छोटी या लंबी श्रँखलाएँ थी न समय का वह कल्पित आयाम ही वहाँ था, जिसमें तथाकथित अतीत और भविष्य एक ठोस यथार्थ की तरह मन पर हावी होकर उसे उद्वेलित किए रहते हैं। न वहाँ पर मन से अलग मन का कोई स्वामी ही था और न उस स्वामी से शासित कोई मन। बस  वहाँ बस परिपूर्ण "अ-मन" का ही यत्र तत्र और सर्वत्र साम्राज्य था। इसलिए न तो कोई शासक था, और न ही कोई शासित ही था। 

सहज स्वाभाविक सार्वत्रिक धर्म ही अस्तित्व स्वयं की तरह स्वयं अपने आपमें ही व्याप्त था, और यह निरंकुश या अराजक हो ऐसा भी संभव न था।

उस शब्द और बुद्धि से रहित धर्म में 'अर्थ' का आगमन होते ही वस्तुओं को अलग अलग शाब्दिक नाम प्राप्त हो गए और उनकी परस्पर तुलना की जाने लगी। वे छोटी, बड़ी, प्रिय, अप्रिय, आकर्षक और भयावह प्रतीत होने लगी। तब वे शब्दों के सार्थक प्रयोग से वाक्य-रचना भी करने लगे थे। यह एक रोचक अनुभव था जिसके द्वारा वे न केवल निर्जीव वस्तुओं को, बल्कि सजीव पशु पक्षियों, प्राणियों और चेतन, जीवन से परिपूर्ण संवेदनशील पेड़-पौधों पौधों आदि को नाम देने लगे और तब अकस्मात्  ही उनका ऐसे एक सत्य से साक्षात्कार हुआ जिसे कि वे जीवन के उस अद्भुत् तत्व की तरह देख सकते थे जो कि सबमें नित्य व्याप्त होते हुए भी चेतना की तरह से अपने आपमें भी दिखाई देता था और यद्यपि व्यावहारिक रूप से वे जिसे अहं, इदं, त्वम् और तत् इत्यादि सर्वनामों से भी जानते और व्यक्त किया करते थे। उनमें से शायद ही किसी का ध्यान इस रोचक और आश्चर्यजनक सत्य पर जा सका कि एक और एकमेव जीवन से परिपूर्ण सजीव, निर्जीव, जड और चेतन वस्तुओं, मनुष्यों, पेड़-पौधों और विभिन्न पशु पक्षियों आदि अनगिनत प्रकारों में होते हुए भी वह जीवन सबके अस्तित्व का एकमात्र आधार और अधिष्ठान ही था। इस प्रकार उस प्रत्येक प्रकार में व्यक्त हो रहे प्रत्येक आभासी आकृति में अपने आपके स्वयं के अन्य शेष सभी आकृतियों से भिन्न, स्वतंत्र और पृथक् होने की भावना का जन्म हुआ। और यह भावना ही उस प्रत्येक आकृति के व्यक्तित्व में निरूपित और अभिव्यक्त हुई।

यह सब बिलकुल स्वाभाविक था किन्तु जैसा अभी अभी कहा गया, उनमें से शायद ही किसी का ध्यान इस रोचक और आश्चर्यजनक सत्य पर जा सका कि एक और ... ।

तब देवता आकाश / स्वर्ग से भूमि पर उतरे, और ईश्वर भी जो कि समस्त जड चेतन जगत् का स्वामी था, जो देवताओं पर भी शासन करता था, मनुष्यों, वनस्पतियों, जीव-जन्तुओं आदि की तरह धरा पर अवतरित हुआ। यद्यपि वह इस सत्य से अनभिज्ञ भी नहीं था फिर भी उस उस आकृति विशेष की तरह से अवतरित होने पर वह भी अन्य सब की दृष्टि में, उन्हें उनके जैसा ही अल्पज्ञ और सामान्य सा प्रतीत होने लगा। हाँ, जब ईश्वर का उस उस अवतार में उसके द्वारा किया जानेवाला पूर्व निर्धारित कर्तव्य पूर्ण हो चुका तो वह भी अपने उस धाम को लौट गया यद्गत्वा न निवर्तन्ते... 

अर्थात् वह धाम उस स्वर्ग से बिल्कुल और पूरी तरह से अलग कोई स्थान था जहाँ पर ये लोग और उनका संसार हुआ करते थे। 

धर्म के क्षेत्र में अर्थ का आगमन होने तुरन्त ही बाद कर्म का प्रवेश हुआ जो धर्म के अनुकूल, प्रतिकूल या दोनों से मिश्रित था। उस धर्मक्षेत्र और कर्मक्षेत्र को ही बहुत बाद में किसी एक धार्मिक आध्यात्मिक ग्रन्थ में धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र का नाम दे दिया गया।

यह था ज्ञान का फल! 

ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि धर्म में अर्थ का प्रवेश होने के बाद तत्क्षण ही काम का भी उसके पीछे पीछे छाया की तरह धर्म में प्रवेश हो गया। और जैसा कि सभी जानते ही हैं :

  ...And the rest is history.

***

February 16, 2025

The cycle of 144 years.

महाकुंभ 2025

--

चाहे जनसामान्य मनुष्य हो या कोई बहुत विद्वान हो, वह कर्म करने के लिए किसी न किसी रूप में बाध्य होता ही है। केवल कोई असाधारण प्रेरणा ही उसके मन में यह प्रश्न या जिज्ञासा जागृत कर सकती है कि वस्तुतः कर्म करने के लिए वह बाध्य है या स्वतंत्र है? बिरले ही किसी मनुष्य के मन में शायद ही कभी यह असाधारण प्रेरणा  होती होगी। अपने बारे में तो मैं अवश्य ही कह सकता हूँ कि मेरी अपनी स्मृति में, मेरे मन में इस प्रश्न ने प्रथम बार तब सिर उठाया, जब 1982-83 में मैं श्री रमण महर्षि और श्री जे. कृष्णमूर्ति की पुस्तकों का अध्ययन कर रहा था और,

"मुझे क्या करना चाहिए?"

इस प्रश्न से बहुत ही व्याकुल और त्रस्त भी था। 

शायद ही संसार में कोई भी ऐसा होता हो जिसे जीवन में ऐसी ही स्थिति का सामना कभी न कभी न करना पड़ता हो और वह अपनी इच्छा पूर्ण करने के लिए बाध्य न होता हो, हाँ इच्छा के साथ साथ उसकी बुद्धि भी कर्म करने के लिए उसे प्रेरित कर रही होती है, यह भी सत्य ही है। यह तो कर्म के हो जाने के बाद या न हो पाने पर, और कर्म का परिणाम प्राप्त होने पर ही पता चल पाता है कि कर्म के परिणाम से उसने कैसा अनुभव किया। संभवतः वह प्रसन्न या दुःखी, निराश या उत्साहित, क्षुब्ध उद्विग्न या उल्लसित हुआ हो या शायद उसमें पश्चात्ताप की भावना पैदा हुई हो। और यह भी हो सकता है कि उस कर्म के पूर्ण होते होते वह किसी बहुत बड़ी मुश्किल में फँस गया हो। कर्म प्रारंभ करने के समय उस कर्म के संभावित परिणाम को जान पाना भी यद्यपि उसके लिए कठिन ही रहा हो, फिर भी उन परिस्थितियों में उसने जो कुछ भी किया होता है वह अनेक कारणों या कारणों का कुल और समेकित परिणाम ही तो होता है।

गीता अध्याय १८ के श्लोक  के अनुसार :

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।

न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।१५।।

इस प्रकार से, मनुष्य इन पाँच हेतुओं से प्रेरित या बाध्य होकर कर्म में प्रवृत्त और संलग्न होता है और उसके द्वारा घटित होनेवाला कर्म स्वयं के द्वारा किया जा रहा है इस कल्पना से अभिभूत होकर यह भी नहीं देख पाता है कि सभी और प्रत्येक ही कर्म प्रकृति की प्रेरणा के अनुसार अनायास अकल्पित रूप से घटित होते हैं और किसी भी कर्म को करनेवाला कोई "कर्ता" वस्तुतः कहीं नहीं होता। गीता के ही अध्याय ३ के अनुसार :

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।

और अध्याय ४ के अनुसार :

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। 

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।

तात्पर्य यह हुआ कि यद्यपि प्रकृति, ईश्वर या स्वयं अपने आपको ही कर्म का "कर्ता" मान लिया जाता है, इनमें से कोई भी वस्तुतः "कर्ता" है, यह कहना एक भूल है।

प्रकृतेः - प्रकृति - पञ्चमी और षष्ठी विभक्ति, एकवचन,

गुणैः - तृतीया बहुवचन

से स्पष्ट है कि उनमें से किसी को कितना - एकवचन की तरह ग्रहण नहीं किया जा सकता है।

अकर्तारमव्ययम् - द्वितीया एकवचन में भी ईश्वर या अव्यय अविनाशी के अकर्ता होने की ही पुष्टि की गई है  और

अहंकारविमूढात्मा - में जिस आत्मा का निरूपण किया गया है उसे अहंकार बुद्धि से विमूढ / विमोहित / भ्रमित कहा गया है अर्थात् वह भी "कर्ता" नहीं है। वास्तव में "कर्म" अनित्य होने से अवधारणा मात्र हैं न कि सत्य। इसे ही महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र / समाधिपाद में   -

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।

और,

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।

से इंगित किया है।

पुनः "महाकुंभ" पर लौटें।

यदि मनुष्य, ईश्वर या प्रकृति "कर्ता" नहीं हो सकते और "कर्म" स्वयं ही एक अवधारणा भर है तो "महाकुंभ" में जाना, न जाना, जा पाना या न जा पाना इसे कौन तय कर सकता है? फिर यह इच्छा या जिद होना कि "मुझे" महाकुंभ जाना या नहीं जाना है क्या अपने आप में एक कल्पनात्मक भावना,  विचार या संकल्प ही नहीं है?

यह तो इस इच्छा या जिद के पूर्ण होने या न होने पर ही पता चलेगा कि क्या हुआ!

इसलिए, क्या मनुष्य इसका निर्णय करने तक के लिए भी स्वतंत्र हो सकता है?

उपसंहार :

गीता के ही अध्याय ५ के अनुसार :

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। 

न च कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः। 

तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

***









February 15, 2025

God, Guru and self / Self.

एक आध्यात्मिक प्रश्न

--

आध्यात्मिक खोज में

"ईश्वर, गुरु और स्वयं की भूमिका क्या है?"

प्रायः हर मनुष्य ही इस प्रश्न से अनभिज्ञ होता है और इस प्रश्न से अनभिज्ञता के कारण ही इसका उत्तर खोजने की अपरिहार्य आवश्यकता तक के प्रति पूर्णतः उदासीन भी होता है। इनमें से किसी एक से भी अनभिज्ञ होने का कारण और परिणाम होता है कल्पित असुरक्षा का भय, अनिश्चित और अज्ञात भविष्य की चिन्ता और संभव हो तो उसे जान पाने की भी छटपटाहट, जिसमें वह निरन्तर आशाओं और आशंकाओं के बीच डोलता रहता है। यदि अपने अतीत पर कोई दृष्टि डाले तो उसे स्पष्ट हो सकता है कि जिसे वह "अतीत" या "भूतकाल" का रूप देकर मान्य करता है, ऐसा समय समय पर घटित होनेवाली असंख्य घटनाओं के रूप में वर्गीकृत करने और उसके केन्द्र में स्वयं अपने आपको रखकर ही कर सकता है।

ये सभी घटनाएँ कभी संभवतः घटित हुई भी हों तो भी उसकी स्मृति में वे जिस रूप में होती हैं उनका उस रूप में न तो कोई निश्चित आकार प्रकार या अस्तित्व और न ही उस समय विशेष का ही अस्तित्व हो सकता है। वह समय विशेष भी उसकी स्मृति का ही एक अंशमात्र होता है, और वही समय असंख्य लोगों के लिए उनकी अपनी अपनी स्मृति पर आश्रित पूर्णतः काल्पनिक किसी एक स्थिति का चित्र भर होता है। किन्तु स्मृतियों को सातत्य देकर उनमें एक कल्पित क्रम की रचना भी स्मृति की ही सहायता से कर ली जाती है और अनेक बार मनुष्य को यह सन्देह भी हो जाता है कि कौन सी घटना पहले और कौन सी घटना बाद में घटित हुई थी। हाँ, कुछ बड़ी और महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में उसे ऐसा सन्देह कभी नहीं उठता, यह भी सच है। बड़ी हों या छोटी, सभी घटनाएँ उनके घट जाने के बाद तुरन्त नहीं तो कुछ समय के बाद तो अवश्य ही अर्थहीन हो जाती हैं, यहाँ तक कि वे पूरी तरह से विस्मृत भी हो सकती हैं। यह सब समझ सकना उतना कठिन नहीं है, जितना कि कल्पित भविष्य की अनन्त संभावनाओं में से किसी एक या अनेक के घटित होने की कल्पना से मुग्ध हो जाना और उसे पूर्ण करने के लिए यथासंभव प्रयास करते रहने में जुट जाना। अतीत कितना भी सुखद या दुःखद कैसा भी हो, बीत ही चुका होता है, जबकि भविष्य, चाहे वह कितना ही काल्पनिक प्रिय और संभव भी क्यों न हो, अवश्य ही अनिश्चितप्राय होता है, इससे कोई भी इनकार भी नहीं कर सकता।

अतीत में ईश्वर, गुरु और / या स्वयं की ही क्या भूमिका थी, इसे भी न तो तय किया जा सकता है, और न जाना जा सकता है, ठीक इसी प्रकार वर्तमान का भी अपनी ही दृष्टि में कोई तय रंग रूप, नहीं हो सकता है क्योंकि यह इस पर निर्भर होता है कि वर्तमान को कोई किस सन्दर्भ विशेष में देखता है।

और सबसे मजेदार किन्तु उतना ही यह रोचक तथ्य भी अकाट्य सत्य है कि जिसे 'स्वयं' कहा जाता है वह किस चिड़िया का नाम हो सकता है? क्या यह कोई समय या घटना, परिस्थिति या मनुष्य-विशेष होता है? अपने एक व्यक्ति-विशेष होने का विचार मन पर इस बुरी तरह से हावी हो जाता है, मन' को इस बुरी तरह जकड़ लेता है कि उस विचार से निर्दिष्ट वस्तु पर कोई सन्देह तक मन में उठ पाना असंभव सा हो जाता है। किन्तु फिर भी इस बारे में मनुष्य इतना आश्वस्त होता है कि इस प्रकार का प्रश्न उठाना ही उसे नितान्त ही निरर्थक, हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण लग सकता है।

इस प्रकार, ईश्वर, गुरु और एक मनुष्य विशेष के रूप में स्वयं के अस्तित्व को सिद्ध कर पाना शायद अत्यन्त ही दुष्कर एक कार्य है। यद्यपि अपने अस्तित्व की सत्यता पर कोई प्रश्न ही नहीं उठाया जा सकता क्योंकि यह एक स्वतःस्फूर्त और स्वप्रमाणित वास्तविकता है, किन्तु स्वयं के एक मनुष्य-विशेष होने (के निश्चय) की सत्यता पर तो अवश्य ही सन्देह किया ही जा सकता है।

न तो कोई ईश्वर, न कोई तथाकथित या वास्तविक गुरु, न तो कोई सिद्धान्त या तत्वदर्शन आपमें उत्पन्न हुए और आपके द्वारा स्वयं के एक व्यक्ति-विशेष होने की आपमें विद्यमान धारणा को दूर कर सकता है, न इसे दूर करने में आपकी कोई सहायता ही कर सकता है। यह सरल  या कठिन, रोचक या नीरस किन्तु शायद सबसे अधिक आश्चर्यजनक  कार्य अपने लिए आपको स्वयं ही करना होगा क्योंकि यह तो अत्यन्त ही सुनिश्चित और अकाट्य सत्य ही है कि आपको अपने आपसे निःसन्देह सर्वाधिक प्रेम है। शेष सब कुछ सदैव संदिग्ध है।

***

Voice and Sound.

वेद, निर्वेद और निर्वाण

(निब्बाणसुत्त) 

उन्हें एक दूसरे से मिलने के बाद इसका आभास हुआ कि शायद जो भी "है" वह तो यद्यपि अचल अटल और अविकारी है, किन्तु जो "होता हुआ" प्रतीत होता है और जिसे भी यह स्वयं से अन्य की तरह प्रतीत होता है, दोनों ही सतत परिवर्तित होती रहनेवाली प्रतीतियाँ मात्र होती हैं और उस अद्भुत् रूप में अनिर्वचनीय ही होती हैं।

दोनों साथ रहते थे और वह अपने इकतारे को बजाने में मग्न रहता था और वह अपनी अनुकृतियों के चित्रण के कार्य में इसी तरह डूबी रहती।

अभी तक उनके बीच बौद्धिक तो दूर, किसी भी तरह की शाब्दिक बातचीत भी यद्यपि नहीं होती थी, किन्तु वर्णों और स्वरों के आविष्कार और उनके वर्गीकरण कर देने के बाद कुछ सार्थक शब्दों का प्रयोग वे अनायास और सहज रूप से करने लगे थे। उन्हें उस भेद-रेखा का भान था जो इन्द्रियानुभूति पर आधारित ज्ञान को उस भान से पृथक् किसी ज्ञान में रूपांतरित नहीं करती थी। संक्षेप में, अभी उनमें उस तर्कक्षमता का उद्भव नहीं हो पाया था जिससे कि भौतिक वस्तुओं के परोक्ष ज्ञान को वे भावनात्मक वस्तुओं के परोक्ष ज्ञान से पृथक् कर पाते।

और इसकी तो उन्हें कोई कल्पना तक कदापि नहीं थी, कि जो "चेतन" इन्द्रिय-ज्ञान से इन्द्रियगम्य जगत् को अपने आपसे पृथक् और भिन्न अन्य की तरह "जानता" है, वह उन ज्ञेय वस्तुओं से किस प्रकार समान या भिन्न हो सकता है। संक्षेप में, इस भेद-रेखा से भी वे अनभिज्ञ थे। यद्यपि इन्द्रियानुभूति में जानी जानेवाली वस्तुओं को और इसी प्रकार से अपने आप और दूसरों के लिए "मैं", "तुम" और "वह" शब्दों का प्रयोग करना वे सीख चुके थे, किन्तु ज्ञाता और ज्ञेय के स्वरूप के बारे में उनके मन' में अभी तक कोई शंका या जिज्ञासा उत्पन्न नहीं हो पाई थी। ऐसी अद्भुत् मनोदशा उन दोनों की ही थी जिसमें वे दोनों परस्पर प्रेम में निमग्न और प्रसन्न थे। उनके बीच यह प्रेम एक विस्मयकारी, प्रगाढ़, घनिष्ठ और अंतरंग, मौन और मुखर रूप में अभिव्यक्त और अनभिव्यक्त भी होता रहा। अभी न तो उसके चित्रण में और न ही उसके संगीत में भाषा या या अर्थ का प्रवेश हुआ था। उसकी चित्रात्मक स्मृति और उसका रागात्मक संगीत सरिता के प्रवाह की तरह शुद्ध और पावन थे, जिनमें प्रवाह और सौन्दर्य तो थे किन्तु कोई प्रयोजन या भविष्य वहाँ नहीं थे। धर्म से परिचालित उनका जीवन एक स्वर्ग ही था। अर्थ के प्रवेश के साथ काम का आगमन हुआ। काम की पूर्णता हो जाने पर मोक्ष की आकांक्षा उठी और इसके बाद तत्काल ही फिर मोक्ष को आना ही था।  

तब शाब्दिक और बौद्धिक स्मृति ने उस पावन सरिता में प्रवेश किया जिससे उसका वह पावन जल यत्किञ्चित मलिन सा प्रतीत होने लगा।

यह पौराणिक सरस्वती, गंगा और यमुना की त्रिवेणी का  एक प्रकार था जहाँ सरस्वती वेदवाणी और वैदिक ज्ञान की तरह नेपथ्य में अदृश्य थी, यमुना भौतिक जगत् की नियामक होकर समस्त जड-चेतन के सारे घटनाक्रम को नियंत्रित और नियत करती थी जबकि गंगा समस्त पाप और पुण्य को धोकर निर्मल कर देती थी।

और एक और अद्भुत् यह भी था कि दोनों ही फिर भी अपना अपना जीवन व्यक्ति की तरह भी जी रहे थे।

तब किसी अप्रत्याशित क्षण में एक दुर्घटना तब घटित हुई जब कविता का जन्म हुआ। कविता में शब्द थे तो राग भी था, जिससे रस की उत्पत्ति हुई और विराग की भी। यह भाव था जिससे ३३ कोटियों के देवता अव्यक्त से व्यक्त होकर प्रकट हुए। यह वेद था।

वेद की पराकाष्ठा 'निर्वेद' में और 'निर्वेद' की पराकाष्ठा 'निर्वाण' में हुई।

इस नियति नटी के नाटक और नृत्य का न आदि है, और न ही अन्त है।

इस कथा के बहुत से सूत्र अभी खोले जाने हैं, आशा है कि उन्हें आगामी पोस्ट्स में खोल सकूँगा।

यदा ते मोहकलिलं

बुद्धिं व्यतितरिष्यति। 

तदा गन्तासि निर्वेदं

श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।५२।।

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ

नैनां प्राप्य विमुह्यति।।

स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि

ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।७२।।

(गीता, अध्याय २)

***

February 14, 2025

Natural and Artificial

प्रागाकृतिक और प्राकृतिक और कृत्रिम ज्ञान

--

जिस इन्द्रिय ज्ञान को वे जानते थे वहाँ अभी अर्थ नामक 'प्रत्यय' प्रकट नहीं हुआ था। तात्पर्य यह कि उनका यह ज्ञान विशुद्ध प्रागाकृतिक (प्राक् +आकृतिक) बोध का ही संवेदन था और यद्यपि उनके इस ज्ञान और संप्रेषण के इसके तरीके में वस्तु के लिए प्रयुक्त किसी ध्वन्यात्मक बोले जानेवाले शब्द का वस्तु से साहचर्य तो होता था किन्तु स्मृति में उस साहचर्य को चित्र या आकृति से संबद्ध नहीं किया जाता था और इसलिए तब चित्रलिपि का प्रारंभ ही हुआ था। बस वस्तु, जीव, स्थान, घटना का वर्णन इंगितमात्र से ही किया जाता था, न कि भिन्न भिन्न शब्दों के एक साथ प्रयोग में। तब शब्द तो थे किन्तु अभी भी वाक्य का जन्म नहीं हुआ था और न ही इसकी उन्हें कोई जरूरत ही महसूस होती थी। वे अतीत और भविष्य की पकड़ से परे बस वर्तमान को ही सत्य की तरह ग्रहण कर उसके अनुरूप ही कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया किया करते थे।

जब चित्रों के माध्यम से जड और चेतन वस्तुओं, अतीत की घटनाओं का चित्रण करना उसने शुरू किया था, तब स्मृति का न तो कोई प्रयोजन ही था और न ही संभावना थी। वह रेत और चट्टानों के अलावा गुफा की दीवारों पर भी चित्र बनाया करते थी जिन्हें पुरातत्वविद म्यूराल्स या फ्रेस्को या भित्तिचित्र भी कहते हैं। और फिर उसने हर एक वस्तु की आकृति के लिए कोई छोटा सा सांकेतिक चिह्न तय कर लिया।  जैसे चिड़िया के लिए < या > का संकेत जो शायद चिड़िया की चोंच का द्योतक रहा होगा। वह' विभिन्न वनस्पतियों, मिट्टी आदि से रंग बनाया करते थी जो जल्दी ही धुँधले होकर मिट जाया करते थे।

जब उसका मित्र वहाँ आया तो उसे पता चला कि जिन मूल ध्वनियों को वह बोल सकती थी, उनके लिए उसने पहले से ही कुछ संकेत तय कर रखे थे। ये बहुत आसान थे।  जैसे अ संकेत दो होंठों का और उनसे निकलनेवाली ध्वनि का प्रतीक था। आ, इ, उ, ए और ओ इत्यादि का भी संकेत इसी प्रकार उसने तय किया। और बहुत बाद में उसे दीर्घ स्वरों को व्यक्त करने की आवश्यकता हुई तो वे भी इसी प्रकार तय हुए। फिर उसे स्वरों और व्यञ्जनों को व्यक्त करने के लिए संकेत तय करने थे तो पहले तो उसने क ख ग तथा घ के द्योतक के लिए एक ही चिह्न का प्रयोग किया जैसा कि  தமிழ்  भाषा में होता है। इससे यही समझा जा सकता है कि  தமிழ்  भाषा को  क्यों आदिम या प्राचीनतम भी कहा जा सकता है।

बहुत बाद उन संकेतों को अपर्याप्त अनुभव करने पर उसने उनका रूपान्तरण कर विस्तार किया। अब उसके पास एक विकसित आदिम लिपि तो थी और फिर उस पर पुनः पुनः ध्यान देकर उसके द्वारा इंगित ध्वनियों के क्रम को और भी व्यवस्थित करते हुए आद्य संस्कृत मूल वर्णों का स्वरूप तय किया।  தமிழ்  से इस प्रकार से परिष्कृत वर्णों को देवनागरी और संस्कृत कहा गया। 

किन्तु चूँकि संस्कृत भाषा अधिक वैज्ञानिक है इसलिए  தமிழ்  से ही उसकी ग्रन्थलिपि अस्तित्व में आई।  यह भी कह सकते हैं कि चूँकि संस्कृत के मंत्रात्मक होने से ही  తెలుగు,  ಕನ್ನಡ, മലയാളം  और यहाँ तक कि  ඬංභඉ जैसी लिपियाँ भी अस्तित्व में आईं। किन्तु अब यदि इसे पूरे पृथ्वी की सभी भाषाओं के सन्दर्भ में देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि तिब्बती, थाई, बर्मीज़ और लाओ आदि भाषाओं की लिपि का उद्गम जिस लिपि से हुआ वह तो ब्राह्मी, शारदा, श्री / ऋषि ही थी, और इसी श्रीलिपि से ऋषि / Русский  का उद्गम हुआ जिसका सज्ञात / सजात / cognate  है  Cyril. 

प्रत्यक्षं तु किं प्रमाणमितरम्!

और Cyril से ही दूसरी तमाम यूरोपीय लिपियों का उद्गम हुआ। इसे और भी विस्तार दिया जा सकता है, तब यह स्पष्ट हो जाएगा कि संस्कृत भाषा न तो प्राचीनतम है और न ही  தமிழ்  की तुलना में नवीन है। यह प्रश्न ही असंगत है,  क्योंकि संस्कृत सनातन है और इसलिए इसे अमर भी कहा जाता है। यहाँ से हम हिब्रू / अरबी और फारसी आदि भाषाओं की ओर भी जा सकते हैं और केवल उन भाषाओं की संरचना से ही ऐतिहासिक रूप से वे जिन परिवर्तनों से गुजरीं उनका अनुमान लगाकर इसकी पुष्टि भी कर सकते हैं। اردو / उर्दू  भाषा की संरचना पर ध्यान देना इसका सबसे सुन्दर तरीका हो सकता है। 

यहाँ से हम अक्षरसमाम्नाय को समझ सकते हैं कि किस प्रकार अ ई उ ण् ऋ लृ क् इसका प्रथम सूत्र हुआ।  कैसे  ये सभी स्वर परस्पर रूपान्तरित हो जाते हैं।  अरबी या उर्दू का अ कैसे अमर से उमर / उम्र हो जाता है। 

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि पाणिनीकृत अष्टाध्यायी में उणादि प्रत्ययों के लिए भी प्रावधान है

इति अलम्। 

इस अल् प्रत्यय से ही इल्  all, Alles,  el आदि का जन्म हुआ।

रही बात ग्रीक की तो इसे भी संस्कृत भाषा की "ग्रृ" गीर्यते से व्युत्पन्न किया जा सकता है। वैसे ग्रीक को तो बहुत अच्छी तरह से संस्कृत का ही एक प्रकार विशेष कह सकते हैं। 

उन दोनों को तो अभी ध्वनि और अर्थ के साहचर्य का पता तक कहाँ था। वे तो बस प्रकृति से प्राप्त इन्द्रिय ज्ञान में ही तृप्त थे। किन्तु जैसे ही उन्होंने भावनाओं को शब्द प्रदान करना शुरू किया संज्ञा और सर्वनाम, करण और संप्रदान, अपादान और संबंध तथा अधिकरण और संबोधन  (nominative, accusative, instrumental, dative, ablative, conjunctive, locative  और  interjective) स्वयं ही उनके सम्मुख अनायास ही अनावरित हो उठे।

*** 






February 13, 2025

Renunciation.

पारंपरिक संन्यास

--

वर्ष 1991 के फरवरी माह में मैं ओंकारेश्वर में नर्मदा के तट पर एक आश्रम में रहने लगा था। उस आश्रम के स्वामी और संचालक यद्यपि गेरुएवस्त्रधारी महात्मा थे किन्तु उनसे भी अधिक वयोवृद्ध एक अन्य महात्मा भी वहाँ रहते थे जो कि वैसे ही सफेद वस्त्र पहना करते थे,  जैसा कि प्रायः कुछ साधु पहना करते हैं।

जब मैं वहाँ पहुँचा तो देखा कि सफेद वस्त्रधारी महात्मा तो ऊपर ऊँचाई पर स्थित तखत पर और गेरूएवस्त्रधारी उनसे कुछ नीचे फर्श पर दूसरे लोगों के साथ बैठा करते थे। शाम को प्रायः 5 से 6 तक सत्संग हुआ करता था।

हम लोग तो बस सुनते थे और वे दोनों गुरुजन ही प्रायः एक दूसरे से बातें करते थे। 

एक दिन सफेदवस्त्रधारी महात्मा ने मेरी ओर देखते हुए कुछ व्यंग्यात्मक लहजे में बोले -

"विनय सोच रहा है कि किस तरह से उसे भी जल्दी से जल्दी गेरुए वस्त्र पहनने को मिल जाएँ!"

मैंने या उन गेरुएवस्त्रधारी महात्मा ने उनके वक्तव्य पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की। मैं तो सपने में भी गेरुआ वस्त्र धारण करने के पक्ष में नहीं था।

कुछ दिनों बाद वहाँ आए एक और स्वामीजी ने भी इसी विचार को व्यक्त किया -

"तुम संन्यास दीक्षा क्यों नहीं ले लेते?"

उन्होंने मुझसे पूछा। 

"मैं सोचता हूँ कि अभी मुझे इसकी पात्रता प्राप्त नहीं हुई है।"

"क्यों?"

"मुझे लगता है कि अध्यात्म के मार्ग पर चलने से पहले मनुष्य को विवेक, वैराग्य, जिज्ञासा तथा फिर मुमुक्षा की प्राप्ति कर लेना उचित है, और अभी मुझे अपने आपमें इस सबका पर्याप्त विकास हुआ प्रतीत नहीं होता है।"

"अगर तुम किसी महापुरुष से दीक्षा ले लोगे तो यह भी हो जाएगा।"

वे स्वामीजी जिन्होंने स्वयं भी किसी महात्मा से संन्यास दीक्षा ली थी, गेरुए वस्त्र धारण करते थे और दूसरों को  आध्यात्मिक प्रवचन आदि देते थे।

बहुत दिनों बाद पता चला कि उन्होंने गेरुए वस्त्र त्याग दिए हैं और अब वे भी मेरी तरह ही सामान्य सफेद कुर्ता धोती आदि पहनने लगे थे। यहाँ तक कि उन्होंने विवाह भी कर लिया था और इस तरह गृहस्थ आश्रम में लौट आए थे।

यद्यपि उनसे मेरी मुलाकात फिर कभी नहीं हुई किन्तु दूसरों से मुझे यह पता चला कि वे अब तो किसी भी आध्यात्मिक या धार्मिक संस्था से दूर ही रहते हैं। पूरे 34 वर्ष बाद पुनः किसी ने अधिकारपूर्वक मुझसे गेरुए वस्त्र धारण करने का आग्रह किया तो मुझे यह घटना स्मरण हो आई।

अब भी मुझे यही लगता है कि जब तक मनुष्य के मन में विवेक, वैराग्य, जिज्ञासा और मुमुक्षा इत्यादि जागृत नहीं हो जाते तब तक गेरुए वस्त्र धारण करने या न करने का कोई विशेष महत्व नहीं है।

और यदि मनुष्य को यह सब प्राप्त हो जाएँ तो भी उसने कौन से वस्त्र पहने हैं इसका भी कोई विशेष महत्व नहीं है। विडम्बना तो यह है कि प्रायः अपात्र व्यक्ति जब गेरुए वस्त्र पहनने लगता है तो न सिर्फ अपना बल्कि समाज के दूसरे लोगों का भी जाने अनजाने ही अहित ही करने लगता है।

अधिकार प्राप्त न होने पर भी वह दूसरों को उपदेश देने लगता है और सीधे सादे मनुष्य स्वयं भी उससे प्रभावित होकर किन्हीं दबावों के चलते अध्यात्म को तो भूल ही जाते हैं।

***

 







Truth Is Pathless Land.

प्रयागराज 

--

कठिन कुमारग पथ कुरंग को,

संग कुसंग विसंग असंग को, 

नहि पदचिह्न नभ विहंग को,

चिह्नविहीन तरंग उमंग को!

चित्रविचित्र रूपरंग को,

निराकार साकार अनंग को, 

अखंड अनंत कवि अभंग को, 

पावन सरल पवित्र गंग को! 

***





 

February 09, 2025

The Unichord

इकतारा

--

यहाँ आते ही उन्होंने काम शुरू कर दिया था। वे आदिम तो थे लेकिन अंतिम नहीं सनातन थे। जब वह आया था तो उसके हाथों में एक इकतारा था जिसमें बकरी या भेड़ की त्वचा से बने ताँत की एक डोरी थी, जो दो सिरों पर दो खूँटियों पर कुछ कस कर बँधी हुई थी। बस वैसा ही एक वाद्ययंत्र था वह जिसे बहुत बदलने के बाद तानपूरा या सितार के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। सुघड़ लौकी या ऐसे ही दूसरे किसी फल जैसी वनस्पति की बेल पर लगे फल के पककर सूख जाने पर उसे साफकर उस पर यह ताँत की डोर बाँकी जाती थी। इसी फल को दूसरे तरीके से काटकर कमंडल भी बनाया जाता था जिसमें पीने का जल भी संचित कर लिया जाता था।

जब वह यहाँ आया था तो उसके कंधे पर यही वाद्ययंत्र टँगा हुआ था। और भी बहुत सारा सामान बाद में यहाँ वे लोग धीरे धीरे ले आए थे। तब उन दोनों के बीच परिचय और प्रेम हुआ था जो फिर अंतरंग और घनिष्ठ होता चला गया था।

कभी कभी जब वह बहुत प्रसन्न होता तो उस वाद्ययंत्र को हाथों में लेकर ताँत की उस डोरी को उंगली से कंपित कर उससे ध्वनि उत्पन्न करता। धीरे धीरे सतत अभ्यास और अन्वेषण, प्रयोग और अनुसंधान से उसने ध्वनि को इस प्रकार सिद्ध और शुद्ध कर लिया कि उस पर संगीत की कोई धुन अर्थात् सात सुरों के विशेष और व्यवस्थित  क्रम में बजाता रहता था। इस क्रम का आविष्कार उसने ही किया था। वह बस मंत्रमुग्ध होकर उसे सुनी रहती थी और उसे याद आता रहता था कि कैसे यद्यपि वह स्वयं अपने अकेलेपन में उन स्वरों को गुनगुनाती भी रहती थी, किन्तु उनके क्रम से बनी धुन उसे विस्मृत भी हो जाया करती रहती थी। जब वह एक दिन उसे बतलाए बिना ही अचानक ही कहीं चला गया था तो वह उस वाद्ययंत्र को लेकर उसे बजाने का प्रयास करने लगी थी, किन्तु उससे अभी कोई ऐसे सुर नहीं निकाल पाती थी जैसा कि वह निकाला करता था।

यह विशुद्ध स्वर थे। नाद जहाँ केवल प्रयोजन था, कोई  शाब्दिक अर्थ नहीं हुआ करता था। शब्दों का वस्तुओं से साहचर्य होने पर ही अर्थ का अविष्कार हुआ था और वे दोनों ही इस तथ्य के साक्षी थे। जब सर्वप्रथम उसने स्वयं ही 'अहं' पद का प्रयोग करते हुए स्वयं को इंगित कर उसे इस अर्थ से परिचित कराया था। इस प्रकार 'अहं' पद का अर्थ और प्रयोजन मूलतः एक होते हुए भी एक दूसरे से भिन्न और पृथक् हो गए। यह संयोगवश हुई एक दुर्घटना ही थी, क्योंकि जब तक उन्हें इस दुर्घटना का पता चलता तब तक तक बहुत देर हो चुकी थी। और आज भी उनके वंशजों का न केवल इस पर कभी ध्यान जा सका और न वे इसके दुष्परिणामों को जान सके।















इसे पेठा कहते हैं "पेठा" वैसे तो आगरा का प्रसिद्ध है, किन्तु आगरा और पेठा की व्युत्पत्ति कैसे हुई यह जानना रोचक है। आगरा तो संस्कृत भाषा के "अग्र" से व्युत्पन्न हुआ और क्रमशः "अगर" तथा  augur  में परिणत हो गया। उपनिषद् का एक वचन / सूत्र है :

सदेव सोम्येदमग्रमासीत्।।

या, 

सत् एव सोम्य / सौम्य इदं अग्रं आसीत्।।

वही अद्वैत श्रेष्ठ सद्वस्तु जब जगत् के रूप में अभिव्यक्त होती है और अपने आपको पुनः आभासी और दृग्दृश्य के रूप में द्वैत रूप में स्वयं ही जानती है तो जिस प्रकार से यह "जानना" होता और संप्रेषित किया जाता है, उसे ही "प्रेष्ठ" कहा जाता है। और इसी "प्रेष्ठ" का तद्भव रूप है "पेठा"। जिसे पुनः और भी परिष्कृत कर जिस मिठाई का रूप प्रदान किया जाता है उसे भी पर्याय से "पेठा" कहा जाने लगता है।

यह हुआ भाषा का इतिहास और इतिहास की भाषा।

आगे और पढ़ते रहिए!

***



February 02, 2025

AmnAya.

आम्नाय (मार्ग)

उसने प्रायः पशु पक्षियों की ध्वनियों को ध्यान से सुना था और फिर अपने दोनों नेत्रों और दोनों कानों को बन्द कर वह मुख से उनके उच्चारण का प्रयास किया करती थी। फिर उसे यह सूझा कि मुख से उनका उच्चारण करने से कहीं अधिक अच्छा यह होगा कि मुख को बन्द रखकर, उनकी स्मृति से अपने भीतर ही उन ध्वनियों को सुनने का प्रयास किया जाए। तब उनमें एक ऐसे ध्वनि-क्रम का उसे पता चला जिसे आज के पाश्चात्य संगीत शास्त्र में 

c d e f g h a b  से,

तथा वैदिक रीति से क्रमशः

सारंग, ऋषभ, गांधार, मध्यम्, पञ्चम्, धैवत् और निषाद से व्यक्त किया जाता है। 

स्पष्ट है कि उसे यह ज्ञान तब अनायास ही अपने भीतर ही प्राप्त हुआ था और तब वह उसे उन स्वरों को दोहराने का मन होने लगा। और तब उसने उस प्रथम वाद्य यंत्र की रचना की जिसमें बाँस की एक पोली नली पर भिन्न भिन्न दूरियों पर छिद्र किए और एक सिरा पूरी तरह खुला रखते हुए दूसरे पर कोई अवरोध जैसे कोई पत्ता आदि फँसाया। यह कल्पना उसे उन्हीं पशु पक्षियों की ध्वनियों पर ध्यान देने से आई क्योंकि तब उसे लगा कि उनकी कंठनली में भी ऐसा ही कुछ पर्दा (diaphragm) होने के कारण उन ध्वनियों के कम्पन भिन्न भिन्न होते होंगे। हम जैसे तथाकथित रूप से उन्नत मनुष्यों के लिए इसका अनुमान और आकलन कर पाना कठिन ही होगा कि यह सब उसने कैसे किया होगा, और यह समझ पाना भी कि बुद्धि अर्थात् किसी शाब्दिक विचार प्रणाली के द्वारा भी ऐसा कर पाना संभव नहीं है। क्योंकि विचार या 'बुद्धि' मानसिक चित्तवृत्ति का एक रूप अर्थात् 'प्रत्यय' होता है जिसका संवेदन मुख्यतः और केवल प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा तथा स्मृति इन्हीं पाँचों प्रकारों में हुआ करता और जाना जाता है। उसके पास भी यद्यपि अन्य सभी प्राणियों की ही तरह वह आधारभूत चेतना   Interface तो था, जिसे चेतना या भान अथवा बोध शुद्ध संवेदन के रूप में हर कोई जानता ही है किन्तु वस्तुओं (objects) और विषयी (subject)  के लिए प्रयुक्त किए वे ध्वन्यात्मक पद (words) नहीं थे जिनके माध्यम से हम मनुष्यों में 'जानकारी' रूपी कृत्रिम ज्ञान की एक प्रणाली बनती और सक्रिय हो जाया करती है। यह कृत्रिम ज्ञान उस स्वाभाविक 

चेतनाभान, अथवा अथवा बोध 

पर आवरित होकर अपना स्वयं का एक स्वतंत्र अस्तित्व होने का भ्रम Artificial intelligence  निर्मित कर लेता है।

उसमें इस प्रकार के किसी भ्रम ने अभी अपना सिर तक नहीं उठाया था। इसलिए वह ऐसे यांत्रिक और कृत्रिम ज्ञान से नितान्त अनभिज्ञ और अपरिचित थी।

और तब एक दिन वह अचानक एक अद्भुत् प्रतीति पर मुग्ध हो उठी जब उसने दो स्वरों के बीच के उस शून्य को पहचान लिया जो सब स्वरों में उनके आधार की तरह से विद्यमान तो होता है, फिर भी वह कोई ध्वनि-विशेष नहीं होता। उसे जान पड़ा कि वह शून्य जो सबमें अन्तर्निहित और सबसे अप्रभावित रहता है, सबमें ओतप्रोत है, और फिर भी सब से विलक्षण है और उसका उच्चारण करने का प्रश्न ही नहीं उठता।

तब तक वह चित्र-लिपि में उन वस्तुओं और घटनाओं रूपी अपने अतीत को चट्टानों और रेत पर उकेरा करती थी, जो समय के साथ धीरे धीरे धुँधले होकर या वैसे ही विलुप्त हो जाया करते थे और उस पर इन सबका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था।  हर दिन,  हर पल वह वैसी ही तरोताजा और निर्मल, निर्दोष और उत्फुल्ल रहती थी जैसे कोई सद्योजात शिशु हुआ करता है।

यह समाम्नाय था !

उस अतिथि मित्र के आगमन के बाद ही उसे यह पता चल कि ध्वनियों को चित्रों के माध्यम से भी व्यक्त किया जा सकता है और वह यह जानकर रोमांचित हो उठी कि

अक्षरसमाम्नाय

भी कुछ होता है! 

***

January 28, 2025

Discoveries

आविष्कार

उसके आगमन से पहले अपने एकाकी जीवन के पन्द्रह वर्षों में उसने बहुत समय प्रकृति के निरीक्षण में बिताया था और इन सबको रेत और पत्थरों पर चित्रों के माध्यम से अंकित भी किया था। कहना न होगा कि उसकी छवि भाषा में सुरक्षित स्मृतियों का अव्यवस्थित क्रम समय का ऐसा सर्वाधिक सदुपयोग सिद्ध हुआ, जिसकी थोड़ा भी कल्पना या अनुमान उस समय उसे कदापि नहीं था। वर्षों तक वह दिन में सुबह सूर्य के उगने से शाम को सूर्य के डूब जाने तक उसके आकाशीय पथ का आकलन करने की चेष्टा करती रहती थी। सुबह सूर्योदय से पहले और शाम को सूर्यास्त के बाद का आकाश तो उसे मुग्ध करता था। और एक दिन अकस्मात् उसे इस तथ्य का आभास हुआ कि वह जिस भूमि पर रहती है वह भूमि या धरती किसी फल की तरह किन्तु एक बहुत ही बड़ी गोलाकार वस्तु है जो कि सूर्य के चारों ओर घूमती है। उसे यह भी समझ में आया कि यह गोलाकार वस्तु जो कि सूर्य के चारों ओर परिभ्रमण करती है, यद्यपि सूर्य से बहुत दूर है और सूर्य से उसकी दूरी भी बहुत अधिक होगी, ग्रीष्म और शीत ऋतु में यह दूरी क्रमशः कुछ कम और कुछ अधिक हो जाया करती होगी। इसे ही उसने रेखांकन (pictorial diagram) से पहाड़ी की खड़ी चट्टानों पर क्रम से अंकित किया था। कभी किसी पत्थर के नुकीले सिरे से और कभी किसी रंग से लकीरें खींच कर। और उसने धीरे धीरे सरल और वक्र, गोलाकार और अंडाकार लकीरें खींचते खींचते, उल्काओं का पथ भी रेखांकित करते हुए उस ऋजु या वक्र पथ के परवलीय (parabolic) अतिपरवलीय (hyperbolic) मार्गों पर गतिशील होने का अनुमान किया। उसने कुछ ऐसे उल्कापिण्ड भी देखे जो हर एक या दो वर्षों के बाद पुनः आकाश में दिखलाई पड़ते थे। कुछ ऐसे चमकदार तारे देखे जो रात्रि में जिस तारामंडल में दिखाई देते थे उसमें ही धीरे धीरे प्रति रात्रि कुछ आगे बढ़ जाते थे। चंद्रमा की गति को उसने पहले समझा और उसे पता चला कि यह कितने समय में एक तारामंडल को पार कर लेता है और फिर दूसरे किसी तारामंडल (राशि) में चला जाता है। उन तारामंडलों पर उसने ध्यान दिया तो पाया कि उनमें कुछ तारे अधिक चमकते हैं तो कुछ दूसरे तारे मंद दिखाई देते हैं। फिर भी वे सब अपने समूह में ऐसे स्थिर होते हैं मानों वहाँ मोतियों जैसे जड़े हुए हों। अपने इन आविष्कारों को अब तक वह स्वयं ही स्मरण रखा करती थी, और कोई था भी कहाँ जिससे वह कहती! और वह भी चित्रस्मृति (photographic memory) में ही। किन्तु उसके उस अतिथि मित्र के आगमन के बाद से उसने कितनी ही रात्रियों में इंगित से उसे दिखाया और उसके द्वारा चट्टानों पर अंकित रेखांकन भी जब उसे दिखाए तो वह चकित रह गया। उनके पास भाषा और शब्द तो नहीं थे, किन्तु भावों और अर्थ की अभिव्यक्ति बहुत सशक्त ढंग से कर सकते थे। अनायास ही वह चित्र पर उंगली रख कर 'इदं' 'इदं' कहने लगती। और अपने लिए 'अहं' का प्रयोग भी इसी तरह करने लगी थी। और उसने भी 'अहं' पद का प्रयोग स्वयं को इंगित करने के लिए करना सीख लिया था। और वैसे ही उन्होंने 'तत्' पद का आविष्कार भी कर लिया था। और फिर 'अहं' तथा 'तत्' को मिला कर 'तुम' जो कि बाद में कब 'त्वम्' बना उन्हें पता ही नहीं चला!

दोनों एक दूसरे से इतने घनिष्ठ और अन्तरंग हो चुके, तो एक दिन उसने उसे वर्णलिपि सिखाना प्रारंभ किया। उसे इसका प्रयोजन तो समझ में नहीं आया किन्तु जब वह प्रत्येक वर्ण को रेत पर अंकित करते हुए उस विशिष्ट वर्ण का उच्चारण भी करता तो उसे समझ में आने लगा कि यह चित्र-संकेत और यह उच्चारित ध्वनि एक दूसरे को व्यक्त करते हैं। इनका कोई अर्थविशेष नहीं है। ये किसी वस्तु का चित्र या नाम भी नहीं हैं। जैसे कि  🌙  चाँद का चित्र है और ☀  सूर्य का, वैसे ही 'अ' की तरह से चित्रित वर्ण, 'अ' ध्वनि का सूचक है। अत्यन्त रोमांचित हो उठी थी वह, यह समझकर कि ध्वनियों को भी चित्र से व्यक्त किया जा सकता है और चित्रित वर्णों को ध्वनि से!

यहाँ से उनका  "वेदाभ्यास" प्रारंभ हुआ था।

***




 


January 27, 2025

The Saga and The Sage.

प्रागृषि

आदि, आदिम और सनातन

उस नितान्त एकाकी जीवन में, जब ये लोग यहाँ नहीं आए थे, वह सुखी या दुखी नहीं थी, वह सुरक्षित और असुरक्षित भी नहीं थी, क्योंकि सब कुछ अनिश्चित और अप्रत्याशित और अज्ञात था।

उसने पत्थर और रेत पर चित्र उकेरे और पक्षियों तथा चिड़ियों की ध्वनियों में स्वर संधान किया। यह सब बाद में उसके आने के बाद एकाएक और भी विकसित और समृद्ध, सार्थक और सुखद हो गया।

उसके एकाकी जीवन में पहले कला का प्रस्फुटन हुआ, और वह बस प्रकृति की ही एक अभिव्यक्ति थी। हाँ, वह मनुष्य की आकृति में एक स्त्री भी अवश्य थी। और जब उसके जीवन में एक पुरुष का आगमन हुआ तो उसे पता चला कि पुरुष के पास जो बुद्धि होती है उसका आयाम, सीमा और प्रकृति उससे बहुत भिन्न है जैसी कि उसकी अपनी प्रकृति थी।

पुरुष की बुद्धि खंडित होती है जबकि स्त्री या नारी की बुद्धि नहीं, प्रकृति / स्वभाव, एक अखंड प्रवाह होता है। क्योंकि स्त्री नित्यतृप्ता होती है, विस्तीर्ण और प्रवाहमय होना ही उसका जीवन होता है जबकि पुरुष की बुद्धि संकुचित और सीमित, क्षण क्षण और इसलिए असंतुष्ट, अतृप्त और अपूर्ण होती है। फिर भी दोनों ही दूसरे के अभाव में अपूर्ण ही होते हैं - स्त्री भी और पुरुष भी। और अन्त तक, जीवन के विलीन हो जाने तक ऐसे ही अपूर्ण रह जाते हैं। जीवन की वह निजता और पूर्णता, जो कि एक पहचान की तरह चेतना में कभी चेतनता की तरह उभरती है उसे जन्म कहा और माना जाता है और वही पहचान एक दिन जब विलीन हो जाती है, उसे मृत्यु कहा और माना जाता है। जन्म सदा अपना और अपनी किसी पहचान का ही होता है जबकि मृत्यु सदैव किसी दूसरे की ही होती है। निजता और जीवन इस तरह और इसीलिए एक दूसरे के पर्याय हैं।

तो उन दोनों के बीच संपर्क ही संवाद था जीवनरूपी एक ही नदी के दो तट थे वे दोनों।

जब उनमें परिचय प्रगाढ हो चुका था तो वे चित्रों और मुखमुद्रा के इंगितों से परस्पर संवाद करते थे। तब समय नहीं होता था। तब समय नहीं था। तब न तो अतीत और न ही भविष्य नामक किसी वस्तु का अस्तित्व था। संभव भी नहीं था, क्योंकि वे निपट, नितान्त वर्तमान में ही जी रहे थे। और तब उसका परिचय भाषा से हुआ। परिचय प्रवाह था, और भाषा बुद्धि थी। और तब इसके बाद ही समय की अवधारणा का जन्म हुआ। कल एकाएक ही असंख्य कल बन गए। अतीत के, और भविष्य के। तब लिपि का उद्भव और उद्गम हुआ। वाणी तो पहले भी थी। वाणी के साहचर्य से ध्वनियाँ सार्थक हुई। और लिपि के साहचर्य से विचार - जो पुरुष था / है, वाणी जो स्त्री थी / है। तब वस्तुओं का नामकरण हुआ। और फिर बाद में ही भावनाओं का भी। वस्तुएँ मूर्त / साकार थीं / हैं / होती हैं,  भावनाएँ जो अमूर्त / निराकार प्रवाह मात्र होती हैं। जैसे ही भावनाओं को वाणी मिली संगीत और संघर्ष का आरंभ हुआ। पता नहीं कि क्या यह मनुष्य का सौभाग्य था, दुर्भाग्य या एक दुर्घटना!

***

As The River Moves On!

यह कुछ ठीक है! 

तो अब उस लड़की की कहानी को आगे बढ़ाया जाए जो कि संयोग से या किन्हीं और अज्ञात कारणों से समाज से बहुत दूर प्रकृति की गोद में प्राकृतिक रीति से पली-बढ़ी, और फिर किसी ने उसे वहाँ पाया, तो उसे अपना लिया और उसका जीवन सिरे से बदल गया।

इस कहानी की प्रेरणा और प्रयोजन भी यह विचार, और यह खोज करना है कि आदिम / आदि मानव की प्रकृति, संस्कृति और धर्म  क्या और कैसा रहा होगा!

और कहानी स्वयं ही अपना रास्ता खोजती हुई आगे बढ़ रही है। किसी नदी की तरह। मैं न तो जानता ही हूँ, और न ही यह चाहता हूँ कि यह किसी विशेष दिशा में अग्रसर हो। मैं बस देख रहा हूँ कि यह कहाँ तक और कैसे, किस प्रकार से वहाँ तक जाती है!

और यह प्रसन्नता भी मेरे लिए पर्याप्त है।

***

One By One.

उसी क्रम में

तो तय हुआ कि कि ब्लॉग लिखने की शैली में बदलाव लाया जाना आवश्यक है। जैसे कि ब्लॉग में लिखे पोस्ट के शीर्षक को अंग्रेजी में ही लिखना है। इसका कारण है कि यदि इसे हिन्दी या किसी दूसरी भाषा में लिखा जाए तो इसे मिलनेवाली लिंक की रचना बहुत लंबी हो जाती है जिसमें % का चिन्ह पुनः पुनः दिखाई देता है। तब इसे 'शेयर' करना भी असुविधाजनक लगता है!

ऐसे ही एक और विचार मन में है। वह यह कि  labels की संख्या कम से कम हो। जिसे रुचि होगी वह स्वयं ही खोज लेगा!

कौन या कोई मेरे ब्लॉग्स देखता है या नहीं देखता, यह मेरी समस्या नहीं है। 

यह पोस्ट इसी बारे में है।

शायद ऐसे ही कुछ बदलाव भविष्य में और भी किए जा सकते हों! 

*** 

Moving Forward Onto!

चरैवेति चरैवेति

विगत पाँच वर्षों से यह अनुभव होता रहा है कि अब मैं थक चुका हूँ।

ब्लॉग लिखने की अपनी मर्यादाएँ हैं यह भी सच है। रोज ही कोई न कोई प्रेरणा जागृत होती रहती है। लगता है कि है कि कुछ और महत्वपूर्ण ऐसा छूट गया है जिसे कि लिखा जाना आवश्यक है। जब से डेस्कटॉप ठप हो गया है तब से मोबाइल पर ही ब्लॉग लिखता रहा हूँ। तो कुछ न कुछ वर्तनी की भूलें अन्त तक रह ही 

जाती हैं। तो अब उन्हें सुधारने का हठ करना छोड़ दिया है। क्योंकि यदि इस पर ध्यान दिया जाए तो वह जो कि मुझे महत्वपूर्ण प्रतीत होता है विस्मृत हो जाता है और फिर हमेशा के लिए खो जाता है।

उदाहरण के लिए पिछला पोस्ट।

जितनी सुविधाएँ हैं उतनी ही कम हैं। जितना लिख पाता हूँ उतना भी बहुत है। और आग्रह भी नहीं है कुछ लिखते रहने का। मुझे लगता है कि यह प्रश्न मेरे जैसे उन सभी ब्लॉग्स को परेशान करता होगा जो केवल लिखते रहने में ही प्रसन्न हैं। किन्तु जब ब्लॉग के पाठकों को परेशानी हो जाती होगी तो यह भी कोई अच्छी बात तो नहीं है!

यह पोस्ट सिर्फ इसी बारे में है।

*** 

January 26, 2025

नया जीवन क्रम!

भाषारहित संवाद

--

उसे यहाँ आए हुए बहुत दिन बीत चुके थे। इस बीच एक दिन उसने अपने पास रखी वृक्षों के छिलकों से बनी हुई थैली को खोला ओर उसमें से वृक्षों के पत्तों से बनी हुई एक और छोटी थैली में से चकमक पत्थर निकाले। उन्हें आपस में रगड़कर आग पैदा की और कुछ सूखे पत्तों, छोटी-बड़ी लकड़ियों की सहायता से उस आग को और भी अधिक प्रज्वलित कर लिया। आश्चर्यचकित होकर देर तक मुग्धभाव से उसे देखता रही फिर दौड़कर पास की उस गुफा में गई जहाँ कुछ कंद रखे हुए थे, जिन्हें कि वह रोज ही आसपास के जंगल से ले आया करती थी। उन्हें आग में भूनकर उनके जले हुए छिलकों को सावधानी से उतारा, एक धारदार पत्थर से उन्हें कुशलतापूर्वक काटा और फिर उसके सामने रख दिया। वैसे तो वह रोज ही इन कंदों को दूसरी पत्तियों आदि के साथ खाती रहती थी, किन्तु आज का आनन्द तो अप्रत्याशित, अकस्मात रूप से मिला था। दोनों जब तृप्त हो गए तो प्रेम के ज्वार का आवेग तीव्र हो उठा ओर दोनों उसमें डूब गए। पता नहीं कब तक वे प्रेम क्रीडा में डूबे रहे, फिर थककर सो गए। अब यह प्रायः प्रतिदिन का खेल था। यहाँ तक कि इसमें दिन और रात्रि की व्यवधान भी नहीं था। जब नींद पूरी हो जाती तो वे उठकर वन में वृक्षों, झरनों और घास तथा वनस्पतियों के बीच घूमते रहते। कभी साथ साथ, कभी अलग अलग भी, किन्तु फिर वहीं लौट आया करते थे। उसके प्रिय एक दो स्थान और भी थे जहाँ पेड़ों पर मधुमक्खियों ने बड़े बड़े छत्ते बना रखे थे, जिनसे शहद टपकता रहता था। वह अपने अतिथि को वहाँ पर भी ले गई। और फिर एक दिन ऐसा भी आया जब वह बहुत देर तक नहीं लौटा था, तो उसे उसकी चिन्ता होने लगी थी। वह फिर थककर सो गई। फिर दिन उगने पर भी वह नहीं आया, दूसरे तीसरे दिन भी नहीं आया तो इन सारे दिनों में वह व्याकुल होकर उसे खोजती यहाँ से वहाँ भटकती रही थी। क्या वह अब कभी नहीं आएगा! इस अज्ञात भय से उसकी व्यथा और व्यग्रता असहनीय हो उठी। बहुत दिनों तक इसी प्रकार जीवन बीतना रहा। कष्टप्रद और पीड़ाप्रद। फिर एक दिन वह अचानक प्रकट हुआ। उसके साथ दो तीन पुरुष, चार पाँच बच्चे और दो तीन स्त्रियाँ भी थीं। कोई युवा तो कोई वृद्ध। उसका सारा विषाद और दुःख पलक झपकते ही विलीन हो गया। सब उसका ही तो समुदाय था। तब भी सबने मुस्कुराकर एक दूसरे का परिचय पाया। हाँ, सभी उससे लिपट गए थे, बच्चे, युवा और वृद्ध भी। सभी पुरुष और सभी स्त्रियाँ। इतना और ऐसा आह्लादपूर्ण अनुभव उसे जीवन में पहली बार प्राप्त हुआ था। यद्यपि वन के बहुत से पशु पक्षी प्रायः उससे लिपटकर अपनी प्रीति की अभिव्यक्ति किया करते थे, और इस नवागंतुक नवयुवक से ऐसा अनुभव पहले ही दिन से उसे मिलता रहा था, किन्तु आज का उल्लास और आनन्द अत्यन्त अद्भुत् था। उसने तो कभी इसकी कल्पना तक नहीं की थी। अपने जन्म से ही और इतने अधिक वर्षों से नितान्त एकाकी, उदास और शून्यप्राय सा जीवन जीते हुए यूँ तो वह उस जीवन से अभ्यस्त हो चुकी थी, किन्तु एक अतिथि ने एक दिन अकस्मात् उसके उस एकान्त के द्वार पर ऐसी दस्तक दी कि वह अचंभित रह गई। और फिर वह एक दिन बिना उससे कहे उससे बहुत समय के लिए बहुत दूर चला गया था और आज अचानक लौट भी आया था। आश्चर्य, सुख और दुःख के अप्रत्याशित धक्कों से उसका मन स्तब्ध, एक दृष्टि से व्याकुल, हर्षित और उद्वेलित भी था। पर अब वह बस भावविभोर थी। उनके पास नया कुछ था तो वह था आग नामक वस्तु, वन्य जीवों के चर्म से बने वस्त्र, पत्थरों और लकड़ियों और हड्डियों से बने कुछ अस्त्र शस्त्र आदि। सबसे मिलकर दो तीन दिनों में जंगल से वृक्षों की लकड़ियाँ लाकर, और लताओं से उन्हें बाँधकर अच्छी सी कुटियाएँ निर्मित कर ली थीं। उनमें ऐसे द्वार भी थे जिन्हें भीतर से बन्द भी किया जा सकता था, यद्यपि वह शुरू में इसका प्रयोजन ठीक से समझ नहीं सकी थी। फिर शीघ्र ही उसे यह समझ में आया कि अधिक शीत, तीखी धूप और भीषण आँधी-बारिश और पानी में यह सब कितना सुरक्षाप्रद और सुखप्रद भी है। अब तक तो उसे अपने निर्वस्त्र होने का कभी न तो भान ही था, न कोई संकोच या भय। किन्तु अब चर्म के वस्त्रों को पहनने-ओढ़ने के इन नये अनुभवों से वह अभिभूत थी।

उन लोगों के साथ कुछ भेड़ें,  बकरियाँ और गायें भी थीं, और वे सब लोग उनके लिए भी गोशाला निर्मित करने में जुट गए थे। बहुत से पेड़ों के नीचे की जमीन साफ सुथरी की गई, उन पर लकड़ी के खूँटी गाड़े गए और उन सब पशुओं को उन खूँटों से बांधकर उनके सामने उनके खाने के लिए घास, चारा, पत्तियाँ रखी गईं।

उसका जीवन और जीवन-चर्या एक ही दिन में सिरे से बदल गई थी। उन भेड़ों, बकरियों, गायों की देखभाल किया करती, उन्हें दुहती और उनके साथ आत्मीयता से निःशब्द संवाद करती। अभी तो गर्मियाँ थी इसलिए उन लोगों ने जो ऊनी वस्त्र उसके और उनके अपने लिए भी लाए थे उनका उपयोग करने का प्रश्न नहीं था। उन भेड़ों की ऊन को तेज धार वाली लोहे की कैंचियों से काट लिया गया जिससे उन्हें भी राहत मिली। तो ये लोग लोहे को खनिज पत्थरों को भट्टी में गलाकर उससे औजार भी बनाने में माहिर थे। किन्तु यह सब उसे उस समय नहीं पता था। धीरे धीरे बहुत समय बाद यह रहस्य उसे पता चला। उन युवतियों और वृद्धाओं ने उसे कड़ी के कंघे को प्रयोग करना सिखाया और उसे पता चला कि मनुष्य का जीवन कितना सुखपूर्ण और समृद्ध हो सकता है। अब उसके दिन रात जिस तरह से गुजर रहे थे उसका इससे पहले उसने कभी स्वप्न तक नहीं देखा था।   

***

On The Other Side Of The Hill.

पर्वत के उस पार

जब वह पहली पर्वत के उस पार से इस पार आया था तो उसने उसे देखा था। दूर पर स्थित वह स्त्री आकृति, जो पहाड़ी पर किसी समतल भूमि पर बैठी हुई थी और जो किसी कार्य में इतनी अधिक निमग्न थी कि उसे उसके आने का आभास तक नहीं हो पाया था,  इसलिए थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद वह वहाँ से लौट पड़ा था। जब वह उससे काफी दूर जा चुका था तब उस स्त्री का ध्यान उस पर गया था और वह कौतूहल, उत्सुकता, भय और रोमांच से व्याकुलतापूर्वक उसकी दिशा में खिंचती चली आ रही थी। शायद उसने उसे पुकारा भी होगा ऐसा उसे प्रतीत हुआ। फिर बहुत दिनों तक उसे पर्वत के इस पार, इतनी दूर तक आने का साहस नहीं हुआ। प्रतिदिन वह इस तरफ आने के बारे में स्मरण तो करता रहता, किन्तु कुछ सोच पाने में अक्षम था। क्योंकि कुछ सोच सकने के लिए कोई भाषा और सार्थक शब्दों का आधार होना आवश्यक होता है। उसके समूह में ऐसे कोई शब्द और कोई भाषा अभी अस्तित्व में आए ही कहाँ थे! वे लोग केवल आँखों और मुखमुद्राओं से अपनी भावनाओं को व्यक्त और ग्रहण करते थे। उन्हें अग्नि का ज्ञान था और धनुष बाण तथा गदा इत्यादि चलाने में भी वे निपुण थे। उनकी संस्कृति में यद्यपि विवाह नामक संस्था की कोई कल्पना या अवधारणा तो नहीं थी, किन्तु पुरुष-स्त्री के परस्पर संबंधों में बारे में वे सभी संकोचशील, लज्जालु, निश्छल और निष्कपट थे। प्रेम की पवित्रता उनकी दृष्टि में सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी और यौन संबंध अपेक्षाकृत गौण वस्तु थी। इसलिए स्त्रियाँ हों या पुरुष सभी प्रायः परस्पर समर्पित भावना से युक्त होते थे। हंस उनके लिए ऐसे आदर्श थे जिन्हें वे आध्यात्मिक समर्पणयुक्त प्रेम का के सर्वोच्च उदाहरण की तरह देखते थे और इस प्रकार का प्रेम उनके स्वभाव में उसी प्रकार अन्तर्निहित ही था जैसा उन्हें हंस-युगलों में भी दिखलाई देता था। इसलिए स्त्री-पुरुष के यौन संबंधों में छल कपट या दुराचार आदि उनमें ग्लानि और क्षोभ उत्पन्न कर देता था, और हंसों की ही तरह वे भी एकनिष्ठा के व्रती थे। यह उनका धर्म ही था, न कि सामाजिक नैतिकता के मूल्यों या बाध्यताओं आदि से परिभाषित भय और लोभ, अधिकार,  प्रतिष्ठा और प्रतिस्पर्धा पर आधारित कृत्रिम चरित्र। संभवतः कुछ लोग, कुछ स्त्रियाँ और कुछ पुरुष भी, अपवाद भी  होते होंगे और ऐसा करने के लिए यद्यपि स्वतंत्र भी, होते होंगे, चूँकि इससे उनके मन में स्वयं के प्रति ग्लानि और क्षोभ भी उत्पन्न होता होगा, न तो कोई किसी की निन्दा करता था, न किसी को हेय दृष्टि से देखता होगा। समय के साथ हर कोई स्वयं ही परिपक्व हो जाता होगा। न तो समाज उसे कोई दंड देता था न उसका उपहास, निन्दा या भर्त्सना करता था। शायद यही कारण रहा होगा कि उस "आदिम" समाज में हर स्त्री को पूर्ण सम्मान और  आदर प्राप्त था, जहाँ हर मनुष्य ही उन सारे मनोरोगों, यौन कुंठाओं तथा ग्रन्थियों से मुक्त रहता होगा जो आज के हमारे तथाकथित सभ्य, उन्नत और प्रगतिशील समाज में सर्वत्र विद्यमान हैं। तब स्त्री पुरुष एक दूसरे के भोग की विषय नहीं प्रेम, स्नेह और मैत्री का आधार थे। और दाम्पत्य इसी प्रेम की नींव पर निर्मित भवन या मन्दिर भी था।

तब उसका समाज गौवंश और कृषि कार्य पर आधारित समाज था जिसमें ज्ञान के सभी क्षेत्रों का समावेश होना अपरिहार्यतः आवश्यक था। ज्ञान ही सदैव उनके इस सतत परिवर्तनशील दृश्य-विश्व का अदृश्य और अमूर्त अधिष्ठान था और कृषि उसका व्यक्त प्रकट रूप। कृषि कर्म था और ज्ञान ही शक्ति था। और कर्म और ज्ञान, उन दोनों की प्रेरणा थी चेतनता अर्थात् जीवन और जीवन का उत्स जो जिसकी पराकाष्ठा था एकमात्र उत्सव। इस उत्सव की अभिव्यक्ति असंख्य रूपों में हुआ करती थी। यह था सनातन उत्सव जो उनका धर्म ही था। यह समाज की परंपरा भी था। धर्म और परंपरा अनन्य और अभिन्न तथा परस्पर आश्रित वास्तविकता और अनन्य निष्ठा थे। वे जीवन में सतत अनुसन्धान करते हुए उसके सौन्दर्य में अनायास ही सदा अभिवृद्धि किया करते थे इसलिए उस समाज में आक्रोश के लिए कहीं स्थान ही न था। न तो असंतोष, न आक्रोश, न कुंठा, न प्रतियोगिता, और न ही प्रतिशोध। इस एकनिष्ठा का दर्शन ही एकमात्र प्रेरणास्रोत था और इसलिए दाम्पत्य भी इतना ही पवित्र और आदर्श धर्म और चरित्र भी था। जो अनायास ही उनके हृदय से उमंग की तरह उमड़ता रहता था। यह द्वैत में अद्वैत तथा अद्वैत में द्वैत का प्रत्यक्ष प्रमाण और उदाहरण भी था। यही उनकी वह' अलिखित जीवन चर्या / unwritten code of conduct  था जिसे वे सहज ही व्यवहार में लाते थे और इसलिए उन्हें आचरण में नैतिकता क्या है और अनैतिकता क्या है, सभ्यता, शिष्टता, आत्मीयता, आदर क्या है यह समझने के लिए बौद्धिकता पर निर्भर होने की आवश्यकता ही नहीं होती थी।   

वह भी इसी प्रकार की रुचि रखनेवाला एक मनुष्य था, जिसे वे "ब्राह्मण" कहा करते थे। एकनिष्ठता के व्रत पर आधारित वंश-परंपरा की शुद्धता के कारण उस समाज में शेष लोग भी व्यवसाय, आजीविका और उससे जुड़े विभिन्न कार्यों की प्रकृति के अनुसार चार मुख्य वर्णों से अपनी पहचान स्थापित करते थे, और यद्यपि एक ही वंश में उत्पन्न कोई भी मनुष्य किसी दूसरे वर्ण का कार्य अपनी रुचि के अनुसार आजीविका और व्यवसाय के लिए कर सकता था, किन्तु इससे किसी को किसी और से अधिक या कम श्रेष्ठ नहीं समझा जाता था। यह एक अलिखित आचरण-पद्धति (unwritten code of behavior and conduct) था, और प्रत्येक और सभी इसे स्वीकार करते थे।

वह अभी युवा ही था कि संयोगवश पर्वत के उस पार से इस पार चला आया था जहाँ उसने इस युवती को देखा था और दोनों के बीच प्रेम का पदार्पण हुआ।

वह भी उसकी ही तरह रोमांचित और विस्मित था। "ब्राह्मण" होने पर भी उसने इस स्त्री के वंश और माता पिता के बारे में कोई प्रश्न नहीं उठाया और वस्तुतः तो उसे इस सबकी कल्पना तक नहीं थी। क्योंकि तब वहाँ 'विवाह' की कोई औपचारिकता या बाध्यता का भी प्रश्न नहीं था।

जब उससे पहली बार उसकी भेंट हुई थी, तो अवश्य ही अपरिचय के कारण संकोच और भय, विस्मय आदि थे, किन्तु एक बार एक दूसरे से परिचय होने के बाद दोनों ही एक दूसरे के आत्मीय हो गए थे।

तब वे केवल भाव-भंगिमाओं और नेत्रों से ही संवाद करते थे जिसका प्रभाव तुरन्त ही होता था! जैसे वह उसकी अनुगामिनी थी, वह भी वैसे ही उसका अनुगामी था और दोनों ही बिना शाब्दिक संवाद के वैसे ही एक दूसरे के मनोभावों को समझ लेते थे जैसे वह अब तक पशु पक्षियों और यहाँ तक कि वृक्षों तक की भावनाएँ समझती रही थी। बहुत बाद में इसी आधार पर तंत्र विकसित हुआ और फिर यंत्रों तथा मंत्रों से इस विद्या का शास्त्रीय तकनीकी स्वरूप सामने आया। इस बारे हम अगले पोस्ट में विस्तार से विचार करेंगे। 

***

 

January 24, 2025

गिरिकन्या

प्रथम प्रेम

--

उसे नहीं पता था कि उसका जन्म कब हुआ होगा।

जब से उसने आँखें खोली थीं, कुछ समय तक वह एक नवजात शिशु की तरह रोती रही थी। फिर उसने धीरे धीरे साँस लेना शुरू किया था। यह शायद इसलिए संभव हुआ होगा क्योंकि रोने के क्रम में (उसके) प्राणों ने वायु को पीना और शरीर से श्वास के माध्यम से निष्कासित करना भी प्रारंभ कर दिया था। यह बिलकुल और पूरी तरह एक  स्वाभाविक प्रक्रिया थी, जिस पर तब उसका ध्यान ही नहीं था। कुछ समय तक ऐसा होते रहने के बाद उसके प्राणों ने वायु से नमी को पीना शुरू कर दिया और तब उसकी देह में हो रहा प्राणों का संचार और अधिक फैलने लगा। तब अपने प्राणों की हलचल से उसमें संवेदन का एक नया प्रकार प्रकट हुआ। अर्थात् वह अब आँखें खोल सकती थी। उसे रात्रि का आकाश दिखलाई देने लगा था और उसमें उस समय चमचमा रहे अनेक छोटे बड़े तारे भी उसे दिखाई दिए। उन बहुत से तारों के बीच एक बहुत बड़ी गोलाकार चमकदार वस्तु भी थी, जो सबसे अधिक प्रकाशित थी। कहना न होगा कि वह चन्द्र था। 

साँस के माध्यम से वायु का सेवन और निष्कासन एक नैसर्गिक कार्य था। इसी तरह साँस के साथ वायु की नमी भी उसमें प्यास पैदा कर रही थी और वही उसकी प्यास बुझा भी रही थी। तब उसके हाथों ने किसी कोमल वस्तु का स्पर्श पाया और अनायास उसके हाथों ने उस वस्तु को उसके मुख में रख दिया। इस कोमल वस्तु में कोई हलचल नहीं थी क्योंकि वह पका हुआ एक फल था जो कि हवा से वृक्ष से टूटकर नीचे गिर गया था। उस मधुर और मादक सुगंधयुक्त फल को चखते हुए असीम आनंद की अनुभूति उसे हुई और फिर उसकी भूख जागृत हुई। यह सब कुछ समय तक चलता रहा फिर उसे नींद आने लगी थी, और वह कब सो गई उसे याद न रहा। जब कुछ समय बाद नींद खुली तो नींद आने से पहले की इन सभी घटनाओं की स्मृति से वह आश्चर्य-चकित थी। स्मृति के सातत्य से उसकी चेतना में मन नामक एक अन्तर्जगत् प्रकट हुआ जो उसके द्वारा अनुभव किए जा रहे और उसे दिखाई देनेवाले बाह्य जगत् की निरंतर परिवर्तित हो रही स्थितियों की प्रतिछवियों का एक क्रममात्र था, न कि कोई स्वतंत्र वास्तविकता। अन्तर्जगत् और बाह्य जगत् दोनों ही सतत परिवर्तित हो रहे आभास थे जिनके बीच उसे अपने होनेमात्र का निजता का अपरिवर्तनशील और  अविकारी भान ही एक सेतु था जिस पर चलकर मानों वह कभी अपने आपको अपने स्वयं से भिन्न अन्तर्जगत् या बाह्यजगत् नामक इन वस्तुओं के बीच आती जाती रहती थी। और तब उसमें बुद्धि अर्थात् विभिन्न वस्तुओं के बीच तुलना करने की क्षमता का आविर्भाव हुआ। तब उसके अन्तर्जगत् में उसके आधार के रूप में विद्यमान अपनी निजता का भान उसे विस्मृत हो गया और अपनी स्मृतियों की सकलता से उत्पन्न स्वयं के 'कुछ' होने का एक नया प्रत्यय (perception) उसके अन्तर्जगत् में जागृत और सक्रिय हो उठा।

अब प्रतिदिन ही इन अनुभवों और स्थितियों का यह क्रम उसकी जीवनचर्या बन चुका था।

किन्तु उस पर्वत / पहाड़ी पर वह नितान्त अकेली थी। वह इससे भी अनभिज्ञ थी और उससे इसकी कल्पना तक नहीं थी कि क्या उसके जैसे और भी कोई 'मनुष्य' जैसे 'जीव' बाह्य जगत में कहीं हैं भी या नहीं। प्रकृति उस पर दयालु थी और किसी दुर्लभ संयोगवश उस पर्वत / पहाड़ी पर रहनेवाले किसी वन्य हिंसक जन्तु ने कभी उस पर आघात नहीं किया था इसलिए वह अब तक  जीवित और सुरक्षित थी। वह अब उन वनस्पतियों को पहचानने लगी थी जिन्हें खाकर वह उम्र के चार पाँच वर्ष जी चुकी थी।  पर्वत पर वह निश्शंक और निर्भय होकर विचरण करती रहती, पानी के निर्झरों से प्यास बुझाती और फल, पत्ते आदि खाकर प्रसन्न रहती। उसमें अभी यद्यपि सोच विचार तो उत्पन्न नहीं हुआ था किन्तु दिन रात और सुबह शाम के क्रम की तरह उसमें ऋतुओं के क्रम की स्मृति बनने लगी थी। वह आसपास की प्रकृति को अपलक देखता रहती और पत्थरों, फूलों, पत्तियों आदि को किसी क्रम में रखकर अनेक चित्रों की रचना करती रहती। बहुत समय इस प्रकार बीत जाने पर एक दिन वह एक झरने के मुहाने तक पहुँच गई तो उसने वहाँ पर पानी के एक स्वतःस्फूर्त स्तम्भ को धरती से निकल ऊपर की दिशा में कुछ ऊँचाई तक जाते और फिर वहाँ से अनेक धाराओं में चारों ओर बिखरकर पुनः धरती पर गिरते देखा। यद्यपि पानी का वह सोता उससे बहुत दूर था, वह उसके समीप तक पहुँची और उसकी धाराओं में अभिषिक्त होने लगी। अब तो यह नित्य का क्रम हो चला था। फिर वह कभी कभी खेल या कौतुकवश ही उसमें स्नान करती। इस सबके बीच अपनी निजता की नित्यता का उसका सहज भान क्रमशः धुँधला और विस्मृत होता चला गया था और इसका स्थान अपने अन्तर्जगत् और बाह्यजगत् के नित्य होने की एक नई भावना, कल्पना और प्रतीति (perception), प्रत्यय के रूप में प्रकट संवेदन ने ले लिया था। अब उसे भीतर का अन्तर्जगत् और बाहर का बाह्यजगत् नित्य विद्यमान वास्तविकता प्रतीत होने लगे थे अर्थात् उसमें उनकी इस संसार के रूप में प्रतीति ने उनकी नित्य सत्यता की मान्यता और फिर दृढ निष्ठा का रूप ले लिया था। तब उसमें जिज्ञासा जागृत हुई कि क्या 'इस सब' का अधिष्ठाता, इसे बनाने, बनाए रखने और अन्त में (संभवतः) मिटा देनेवाला भी 'कोई' है, जिसमें वह और उसका 'संसार' अस्तित्व ग्रहण करते और बने भी रहते हैं?

अभी तक वह विभिन्न सांसारिक वस्तुओं की आकृतियाँ बनाया करती थी, किन्तु अब उसमें और एक नितान्त नई कल्पना यह उठी कि 'क्या' वह उस 'कोई' की आकृति बना सकती है जो उसे और उसके संसार का रचयिता हो सकता है! पहले तो उसने उसकी आकृति विभिन्न प्रकार के प्राणियों के रूप में बनाने का प्रयास किया किन्तु जब उसे हर उस आकृति या प्रतिमा में कुछ अधूरापन दिखाई देता था तो वह उसे 'मिटा' दिया या उसका परित्याग कर दिया करती थी। किन्तु अन्ततः उसने एक ऐसी आकृति की रचना कर ली जो अपने आपमें सब प्रकार से 'पूर्ण' प्रतीत हो रहा था। वह एक ऐसा पिण्ड था जो कि दीपक की लौ या अग्नि की ज्वाला की आकृति में था। किन्तु उसे पुनः यह भी लगा कि यह भी सीमायुक्त किसी वस्तु की तरह, इस दृष्टि से 'अधूरा' ही तो था। इसे असीम और अखण्ड की आकृति के रूप देने के लिए उसने इसे उगते हुए सूर्य की अर्धाकृति में बनाया और पुनः उसे 'व्यक्ति' का रूप देने के लिए स्थाणु की आकृति प्रदान की। यह था उसका आदर्श 'वह' कोई जो उसके और उसके जगत् का रचयिता और स्वामी हो सकता था। इसे उसने कोई नाम नहीं दिया क्योंकि उसके पास कोई शाब्दिक भाषा नहीं थी जिसमें वह किसी भी वस्तु के लिए कोई नाम या संज्ञा सुनिश्चित कर सके। सच तो यही है कि वह यद्यपि कुछ ध्वनियों का उच्चार करने लगी थी और उन विभिन्न ध्वनियों की तुलना दूसरे जीवों और जड वस्तुओं आदि के द्वारा उत्पन्न की जानेवाली ध्वनियों से करने पर उसने अपनी एक 'ध्वन्यात्मक' भाषा का आविष्कार भी कर लिया था, जिसे केवल वही बोला और समझा करते थी।  किन्तु उसके आसपास के अनेक प्राणियों के द्वारा व्यक्त संकेतों से उनकी भाव भंगिमाओं और ध्वनियों आदि से वह अब कुछ ध्वनियों का आदान प्रदान कर उनसे भी थोड़ा बहुत बातचीत करने लगी थी। विभिन्न अनुभवों और स्मृति में उनके तारतम्य के आधार पर उसने 'समय' का आविष्कार कर लिया और 'समय' के संदर्भ में वह घटनाओं को परिभाषित कर उनके बीच के 'समय' को अतीत, वर्तमान और भविष्य में विभाजित कर सकती थी। 

पत्तियों, पत्थरों और नदी, पर्वत, पहाड़ी, वृक्षों, लताओं और  भिन्न भिन्न पशु पक्षियों की आकृतियों की रचना करते हुए वह दस बारह वर्ष की हो गई तो वह पहली बार रजस्वला हुई। और दो तीन दिनों के बाद रक्तस्राव अपने आप बंद भी हो गया।  ऐसा दो तीन महीनों तक होने पर उसे यह स्पष्ट हो गया कि यह भी ऋतुओं की तरह का एक क्रम है। अब उसमें एक अद्भुत् आवेग जागृत होने लगा था। वह यह नहीं जानती थी उसे क्या हो रहा था, किन्तु पशुओं की काम क्रीडा देखकर उसे आभास हुआ कि अवश्य ही वह पशु स्त्री थी और उसके जैसा किन्तु उससे कुछ भिन्न भी कोई ऐसा हो सकता था जो पशु पुरुष होता। यद्यपि इन शब्दों से वह अनभिज्ञ थी, किन्तु कल्पना में उसे ऐसे किसी व्यक्ति के अस्तित्व की संभावना प्रतीत होने लगी थी। वह मन ही मन उस पर अनुरक्त थी और उसके मन में अपनी इस भावना और आवेग के प्रति बस आश्चर्य भर था। अभी तो वह पाप पुण्य, नैतिकता अनैतिकता, सच झूठ, छल कपट, प्रेम, राग और द्वेष  आदि के बोध से रहित थी। वह उसकी ही तरह अनाम, किन्तु कुछ भिन्न देहयष्टि के उस विशेष पुरुष का दर्शन करने के लिए और उससे मिलने के लिए बहुत उत्सुक और लालायित थी। तब बहुत दिनों बाद एक दिन संध्या समय उसे कुछ दूर ऐसे ही एक मनुष्य की आकृति दिखलाई पड़ी। वह अत्यन्त रोमांचित और स्तब्ध हो उठी। उसे हवा में उसकी गंध का आभास हुआ और उसके प्रति भय के साथ साथ एक प्रबल आकर्षण से मुग्ध होकर वह उसकी दिशा में खिंचती चली गई। जब तक वह उसके समीप पहुँच पाती, वह उसकी दृष्टि से ओझल हो चुका था। उसने उसे ढूँढने का बहुत प्रयास किया किन्तु वह पता नहीं कहाँ चला गया था। उसने उसे आवाज भी दी थी जो एक सुदीर्घ ओऽ ओऽऽ ओऽऽऽ की ध्वनि के रूप में 'प्लुत' थी। विगत कई वर्षों से वह ध्वनियों और स्वरों के आरोह- अवरोह को समझने लगी थी और उनके क्रम को अनेक प्रकारों से संयोजित करने का यत्न करते हुए उसने अनेक सांगीतिक रचनाएँ भी रच ली थीं जिनमें उसका मन रचा बसा करता था और जिन्हें बहुत से पशु पक्षी भी समझते थे और जिस पर वे अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त किया करते थे। दुर्भाग्यवश उसकी ध्वनि उस तक नहीं पहुँच पाई। वह उसकी आकृति को रेत पर या पत्थर पर उकेरा करती और बस एक निश्वास छोड़कर निराशा में डूब जाती। उसे याद आया कि जब पहले कभी उसने अपनी कल्पना में सृष्टि के रचयिता और स्वामी की आकृति की रचना करना चाहा था तो वह इसी से मिलते जुलते रूप का था। स्मरण आते ही वह और अधिक व्याकुल और अशान्त हो उठी थी। 

ऐसे ही एक दिन वह सो रही थी, उसने स्वप्न में उसे देखा। और स्वप्न में अचानक उसे देखकर जब उसकी नींद टूट गई तो उसने सामने उसे ही खड़ा पाया। वे दोनों प्रगाढ़ आलिंगन में बँध गए। बहुत समय तक उसके साथ रहने के बाद उन दोनों ने मिलकर अपनी शाब्दिक भाषा को निर्मित और विकसित किया। संगीत और स्वरों के ज्ञान और प्रभाव से समृद्ध किया और वे एक दूसरे के प्रेम में अत्यन्त ही उल्लसित और आनन्दित थे। समय ऐसा ही बीतता रहा। एक दिन अपने ही भीतर एक और जीवन के होने की आहट उसे सुनाई दी। कुछ समय बाद उसने अपने आकृति जैसी ही एक संतान को जन्म दिया, जो उसकी ही तरह एक 'स्त्री' थी। बाद में कई वर्षों में उसे और अनेक संतानें हुईं जिनमें से कुछ पुरुष और कुछ स्त्रियाँ थीं।

***



January 19, 2025

Mohini.

FICTION

--

नानी का घर

यह कथा कब शुरू हुई और कब समाप्त होगी कुछ नहीं कहा जा सकता है। इस कथा को समझने के लिए एक उदाहरण उपयोग में लाया जा सकता है। जैसे कि कोई वृत्तीय समतल (a flat circular disc) जो अपने केन्द्र पर घूम रहा है। जैसे कि एक स्थान पर स्थित कोई पहिया। जैसे यांत्रिक घड़ी (mechanical clock)  में अनेक छोटे-बड़े दाँतेदार गियरनुमा पहिए हुआ करते हैं, जो कि स्प्रिंग व्हील या बैलेंस व्हील से नियंत्रित होकर घड़ी के 'समय' को निर्धारित और परिभाषित करते हैं।  स्पष्ट है कि 'समय' का आभास भी, स्थान की ही तरह कल्पना पर आधारित एक धारणा / विचारमात्र होता है न कि आदि अन्त से रहित वास्तविकता। 

अपने केन्द्र के चारों ओर घूमते हुए इस वृत्तीय समतल  के अनेक बिन्दुओं में से प्रत्येक की अपनी कोणीय गति और रैखिक गति का अनुपात स्थिरांक (constant) नहीं होता है? केन्द्र से उसकी दूरी के अनुसार चूँकि एक ही समय अन्तराल में वह केन्द्र का एक परिभ्रमण पूर्ण कर लेता है, अतः उसकी रैखिक और कोणीय गति का अनुपात स्थिर होगा जिसे कि अतिपरवलीय समीकरण (hyperbolic equation) :

x.y = c.c

से व्यक्त किया जा सकता है, जहाँ  x और y रैखिक और कोणीय गति तथा c एक नियतांक (constant)  हैं।

यह उदाहरण द्वि आयामी तल पर गणितीय आकलन हुआ।  इसे ही त्रि आयामी तल पर प्रयुक्त करें तो इस आधार पर  ग्रहों और आकाशीय पिण्डों के बारे में भी कोई आकलन किया जा सकता है।

इस प्रकार समस्त स्थान बिन्दु में ही समाहित है और उस का ही विस्तार तथा संकुचन मात्र है।

रेवा तट पर घूमते हुए यही विषय चित्त में चल रहा था। यूँ कहें कि "मैं" ही वह चेतन बिन्दु है जो अत्यन्त सूक्ष्म होकर संकुचित और स्थूल होकर विस्तारित हो जाता है।

अपने इस चित्तरूपी बिन्दु के भीतर ही  काल और स्थान का आभास उत्पन्न होता है और एक संसार स्थूल शरीर के बाहर और एक स्थूल शरीर के भीतर विद्यमान है ऐसा प्रतीत होता है। क्या वस्तुतः ऐसे परस्पर भिन्न चित्त हैं या वे तात्कालिक और आभासी रूप से प्रतीत होते हैं?

कैवल्यपाद का :

निर्माणचित्तान्यस्मितामात्रात्।।४।। 

सूत्र यहाँ प्रासंगिक है।

योगदर्शन के इस पूरे चौथे अध्याय कैवल्यपाद में इसी विषय पर विवेचना की गई है।

अस्मिता क्या है?

साधनपाद में उल्लिखित सूत्र ५ के अनुसार -

अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः।।

।।५।।

अस्मिता क्लेश है।

संक्षेप में, आभासी संसार में अस्मिता की मात्रा के साथ संलग्न चित्त असंख्य हैं।

दो तीन माह से सुविधा उपलब्ध न होने से, आलस्य या अन्य कुछ ज्ञात अज्ञात कारणों से सिर और दाढ़ी मूँछों के बाल अव्यवस्थित ढंग से बढ़ गए हैं।

नर्मदा तट पर मेरे जैसे अनेक ग्रामीण और पर्यटक आते जाते रहते हैं और प्रायः कोई किसी से इस बारे में कोई बातचीत नहीं करता।

दो दिन पहले यहाँ स्थित दुकानों में से एक पर गया तो दुकानदार से एक दो ग्राहक सामान ले रहे थे। ये सभी आसपास ऐसी ही छोटी बड़ी दुकानें चलाते हैं।

वे लोग मेरे बारे में बातें कर रहे थे, हालाँकि उन्हें मैं नहीं पहचाना। मेरा ध्यान सब्जी पर था। तब दुकानदार ने प्रश्न किया :

"कुम्भ स्नान में नहीं जा रहे हैं?"

मैंने कोई जवाब नहीं दिया। 

फिर उसने पूछा :

"जाना नहीं चाहिए?"

मैंने कहा :

"(चाहिए) यह शब्द मेरी किताब में नहीं है। जा सकता हूँ या शायद न भी जा पाऊँ! मैं इस बारे में कुछ नहीं सोच सकता। जो होता है वह होता है, जो नहीं होता वह नहीं होता। और फिर यहाँ माई (नर्मदा) है न! जैसी भी उसकी मरजी!"

सामान लेकर घर / आश्रम लौटा तो ध्यान आया -

कल ही माई से पूछा था तो बोली थी -

"चले जाओ बेटा!  हो आओ नानी के यहाँ कुछ दिन!"

"नानी?"

मैं सोच में पड़ गया। फिर समझ में आया गंगा को वह "नानी" कह रही थी। ठीक ही तो है! वह (नर्मदा माई)  शिवजी की बेटी है और मैं उसका बेटा! तो गंगाजी मेरी "नानी" ही तो हुई!

पर अब संकल्पपूर्वक कुछ कर पाना मेरे लिए असंभव सा हो गया है। एक समय था जब मैं संकल्पों को उठने से रोक नहीं पाता था। फिर लगातार ऐसा होता रहा और अब भी अकसर होता है कि मन में संकल्प आते ही और उसे पूरा करने के बारे में सोचते हुए ही कोई न कोई ऐसा विघ्न आ जाता है कि संकल्प करना तक व्यर्थ अनुभव होने लगता है, उसे पूरा करना तो और भी अधिक। 

फिर भी 'समय' निरन्तर अपनी रैखिक और कोणीय गति के साथ "बीत" रहा है।

घर / आश्रम पर आकर यू-ट्यूब पर कोई न्यूज़ चैनल देख रहा था तो वहाँ रिपोर्टर "हैप्पी हैप्पी" नाम की एक बन्जारन से बातें कर रहा था। उसकी भाभी भी वहाँ आ गई जिसका नाम "रूपरेखा" है। ये लोग महेश्वर नामक स्थान में और उसके आसपास रहते हैं और रुद्राक्ष तथा दूसरे रत्नों आदि की मालाएँ बेचने का व्यवसाय करते हैं। इसलिए कुंभ मेले में उनका जाना स्वाभाविक ही है। और फिर इन बन्जारों और उनके समुदाय के लोगों की बातें होने लगीं। उनके नैन नक्श और सौन्दर्य की भी। पता चला कि बहुत से मनचले और फिल्मी हस्तियाँ भी इन पर मुग्ध हैं। फिर सलमान खान का भी जिक्र हुआ। 

याद आया कि राजस्थान में कहीं कृष्णमृग का शिकार करने का आरोप भी सलमान खान पर लगा और शायद इसलिए भी बिश्नोई समुदाय के कुछ लोग उसके शत्रु हो गए। ये बन्जारिनें भी मृगनयना हैं और विष्णु का मोहिनी रूप भी शायद यही हैं।

एक ओर तो एक वह बन्जारिन थी जो भगवान् राम की प्रतीक्षा में जैसे तैसे जीवन बिता रही थी और फिर उन्हें  जूठे बेर खिलाकर धन्य हो गई, तो दूसरी ओर ये भी हैं - बन्जारिनें, कृष्णमृग और शबरी!

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते!! 

*** 







January 08, 2025

2025

भूतो भविष्यति

08-01-2025

लगता है यह सब स्वप्न है।

हर एक जीवन, हर एक व्यक्ति का जीवन किसी भी और से कितना अलग और स्वतंत्र होता है! फिर भी असंख्य दूसरे व्यक्ति क्षण प्रशिक्षण उसके संपर्क में आते हैं और जाते रहते हैं! स्मृति ही संबंधों का और घटनाओं का भ्रम पैदा करती है, और स्मृतियों की श्रँखलाएँ अलग अलग समय पर अलग अलग रूपों में चेतना में प्रकट-अप्रकट, व्यक्त-अव्यक्त होते रहकर वर्तमान के रूप में दिखलाई देती हैं। जिसकी कभी कल्पना तक नहीं की गई होती है, वही इस क्षण ऐसा सत्य प्रतीत होता है कि आश्चर्य होता है। सब कुछ बीत जाता है और बस कुछ आनी गिनी स्मृतियाँ ही शेष रह जाती हैं। स्वयं के अलावा दूसरा कोई, कौन आपकी स्मृतियों में आपका सहभागी हो सकता है!

पिछले वर्ष 2024 के अंतिम दिन कुछ इस तरह गुजरे कि हर दिन लगता था कि क्या इस वर्ष का अंतिम दिन कभी देख भी पाऊँगा या नहीं।

और पिछले बहुत से वर्षों में ऐसा ही होता रहा। हर बार यही सोचा करता था कि यह आखिरी है।

फिर भी जीवन में निरंतरता बनी हुई है। स्मृतियों की भी और जीवन की भी। जीवन को स्मृतियों के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा सकता है जिसमें समय समय पर भिन्न भिन्न लोगों से संपर्क हुआ और सब स्मृति के अलावा कहीं हैं भी या नहीं, कुछ कहना संभव ही नहीं है। तो भी उनमें से इने गिने ही अभी वर्तमान में स्मृति में हैं, जिनसे पुनः कुछ क्षणों, दिनों में मिलना हो सकता है। रोज ही ऐसे ही कुछ लोगों से मिलना होता रहता है और उनके नाम और परिचय की स्मृति उनके 'हमेशा' होने का आभास पैदा करती है। उनमें से बहुत से लोगों से मिलना और उनकी  स्थिति के बारे में आगे और कुछ जान पाना तक शायद ही कभी संभव हो, लेकिन जब अचानक किसी दिन पता चलता है कि वे अब 'नहीं रहे', तो उनकी स्मृतियाँ अवश्य ही इस प्रकार जाग पड़ती हैं मानों कि वे सचमुच ही कहीं कभी 'रहे' थे।

पिछला वर्ष भी ऐसा ही एक 'व्यक्ति' था। जैसे कोई भी व्यक्ति एक 'जीवन' होता है, वैसे ही हर दिन, हर क्षण,  हर वर्ष और पूरी आयु ही एक 'जीवन' ही होता है,  जो केवल स्मृति में ही अस्तित्वमान होता है, स्मृति के आते ही अस्तित्व ग्रहण कर लेता है और स्मृति के विलीन होते ही अस्तित्वहीन भी हो जाता है।

शरीर और विभिन्न परिस्थितियाँ और जीवन एक साथ कैसे बीतते हैं और पूरी तरह नया रूप ग्रहण कर लेते हैं! अगर स्मृति की निरंतरता न हो तो न तो जीवन की, न ही अपनी या औरों की, न समय, लोगों, और घटनाओं या अतीत की ही कोई सत्यता या निरंतरता संभव है।

और यह न सिर्फ अतीत के बारे में सत्य है, बल्कि जिस भविष्य का विचार और अनुमान  किया जाता है उसका अस्तित्व भी संदिग्ध ही तो है! फिर भी कोई अनुमान या कल्पना, चिन्ता या आशंका, आशा या प्रश्न कितना ठोस सत्य प्रतीत होता है! और जब उस भविष्य, उस कल्पित समय से भी सामना होता है तो वह भी समस्त अनुमानों और कल्पनाओं से कितना अलग होता है! सब कुछ ही अप्रत्याशित। यद्यपि कुछ समानता उनमें अवश्य ही पाई भी जा सकती हैं लेकिन वह भी स्मृति का ही खेल है।

समाज, विश्व, इतिहास सब कुछ ऐसा ही है।

पता नहीं कि जीवन अचल है या कि सतत गतिशील एक निरंतरता या  नित्यता है!

***