July 31, 2025

Crystal-Gazing.

भविष्य दर्शन 

भारतीय सनातन वैदिक और पौराणिक धर्म में निर्दिष्ट सिद्धान्तों के आधार पर भविष्य दर्शन दो तरीकों से किया जा सकता है। अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष - परोक्षतः और अपरोक्षतः। जैसे शास्त्रों का अध्ययन करने से जो सैद्धान्तिक, बौद्धिक ज्ञान प्राप्त किया जाता है वह केवल विषय-परक होता है, विषय-विषयी तथा उनके बीच के संबंध की स्मृति-मात्र होता है और जिसका आदान-प्रदान भी किया जा सकता है, वैसे ही आध्यात्मिक ज्ञान या तो केवल स्मृति-मात्र हो सकता है या फिर सत्य का प्रत्यक्ष  दर्शन जिसमें विषय-विषयी और उनके तत्व के ग्रहण में जाननेवाला उनसे अपृथक् और अभिन्न होता है, अर्थात् जहाँ सारे काल्पनिक विभेद विलीन हो जाते हैं। कल्पना ही वृत्ति है और वृत्तिमात्र कल्पना है जो कि इन्द्रिय ज्ञान का स्मृति या अनुमान भर होती है और जिसकी सत्यता सदैव संदिग्ध ही होती है।

इन्द्रिय ज्ञान मन की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन्हीं तीनों दशाओं में हो सकता है, जबकि सत्य इन तीनों दशाओं में और उनसे परे भी होता है।

भविष्य को जानने के लिए पहले यह समझना आवश्यक है कि जाग्रत दशा में जिस प्रकार विभिन्न वैचारिक और भावनात्मक कल्पनाएँ और स्मृतियाँ मन में आती और जाती रहती हैं उसी तरह स्वप्नावस्था में भी उनका प्रवाह सतत होता रहता है। जाग्रत दशा में अर्थात् उस समय जब मन बुद्धि और इन्द्रियानुभवों से जुड़ा होता है और इस रूप में उनसे मन का तादात्म्य / involvement / identification बना रहता है और इस वास्तविकता के प्रति अनवधानता अर्थात् प्रमाद / In-attention  होता है तो स्मृतियाँ और कल्पनाएँ ही मन पर हावी होती हैं और उसी जानकारी में मन भटकता रहता है। वैसे तो प्रकृति स्वयं ही मन को जाग्रत से स्वप्न, स्वप्न से सुषुप्ति और सुषुप्ति से पुनः स्वप्न से होते हुए जाग्रत दशा में पुनः पुनः ले आती है किन्तु यह पूरी गतिविधि अचेतन रूप से और अनवधानता में ही हुआ करती है। अवधान क्या है और प्रमाद क्या है इसे जानना-समझना भी केवल मन की जाग्रत दशा में ही संभव होता है। क्योंकि यह सारी बातचीत और संवाद केवल वर्तमान में और जाग्रत दशा में "अभी" ही हो पाना संभव है, किसी स्वप्न, सुषुप्ति या किसी मूर्च्छित या समाधि जैसी अन्यमनस्कता की दशा में कदापि नहीं। वर्तमान अर्थात् "अभी" इस समय, यदि मन अतीत अर्थात् स्मृति, और भविष्य अर्थात् कल्पना से अभिभूत न हो तो यह सजग और सावधान / स-अवधान होता है। क्योंकि स्मृति और कल्पना ही मन को वर्तमान की नित्य वास्तविकता से विच्छिन्न कर देते हैं। "अभी" या वर्तमान, जिसे औपचारिक इन्द्रियानुभवों तथा बुद्धि के माध्यम से जाना जाता है केवल स्मृति या भावनात्मक विचार के रूप में ही मन का विषय होता है, और जिसमें अपने अस्तित्व का सहज स्वाभाविक "भान" जुड़ते ही मन में अपने अनुभवकर्ता होने का भ्रम उत्पन्न हो जाया करता है। यह अनुभवकर्ता भी पुनः वैचारिक जानकारी अर्थात् बौद्धिक निष्कर्ष या अनुमान ही होता है और इस दृष्टि से उसे पातञ्जल योगसूत्र में "प्रमाण" की संज्ञा दी जाती है -

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

(समाधिपाद)

प्रमाण भी वृत्ति है।

प्रकृतिप्रदत्त व्यवस्था और क्रम के अनुसार जाग्रत दशा में यद्यपि इस प्रकार से संसार (और अपने आपके) रूप में अनुभव (तथा अनुभवकर्ता भी) "प्रमाण" ही होते हैं, यह समस्त ज्ञान संदिग्ध, भ्रमपूर्ण और वास्तविक अर्थ में मिथ्या ही होता है। 

जैसा पहले कहा गया है, मन के अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना से अभिभूत न होने की दशा में मन अपनी सहज स्वाभाविक और नित्य वर्तमान "अभी" में अवस्थित होता है, जो कि दूसरी दृष्टि से मन की काल और स्थान से भी अस्पर्शित दशा है। प्रश्न केवल यह है कि मन अवधानयुक्त / Aware, प्रमाद से रहित, with Attention है, या प्रमाद / अनवधानता से लिप्त है। अवधानयुक्त Aware होना केवल तभी संभव है जब मन विचार और विचारकर्ता दोनों को एक ही वस्तु के दो प्रकारों की तरह जान लेता है, न कि स्वयं को विचार से भिन्न और पृथक् किसी काल्पनिक विचारकर्ता के रूप में स्थायी और नित्य विद्यमान सत्ता / सत्य की तरह स्मृति में संग्रहित किसी वस्तु की तरह आधारभूत वास्तविकता की तरह ग्रहण करता है।

जब मन इस प्रकार इस तरह इतना सद्योजात, नवजात शिशु की तरह अनुभव और अनुभवकर्ता की कल्पना से रहित हो तब वह अवश्य ही जाग्रत, सहज स्वाभाविक ही अवधानयुक्त भानमात्र होता है - जानकारी और कल्पना से रहित। यदि यह संभव हो तो ऐसे मन में अतीत अर्थात् स्मृतियों, और भविष्य अर्थात् कल्पनाओं का अनावश्यक प्रवाह होना बन्द हो जाता है और जाग्रत दशा में स्मृतियों के आने जाने पर उनकी अवास्तविकता के बारे में कोई संशय नहीं होता, वैसे ही अनागत भविष्य मे घटित होने का रही घटनाओं की प्रतीति होने पर उसकी सत्यता या असत्यता के बारे में लेशमात्र भी संशय नहीं होता। एक अर्थ में मन त्रिकालदर्शी की तरह उसके संवेदन में आने और जाने वाली घटनाओं को जानता तो है किन्तु न तो वह उनसे प्रभावित होता है न उन्हें प्रभावित किए जाने की कोई आवश्यकता या लालसा उसे होती है। तब वह अनायास ही सुदूर भविष्य में घटने जा रही स्थितियों का दर्शन कर लेता है। संभवतः कोई कोई उसे अभिव्यक्ति भी प्रदान कर सकता है, जिसकी सत्यता समय आने पर ही औपचारिक रूप से प्रमाणित भी प्रतीत होती है।

*** 

 




July 30, 2025

THE MESONIC LODGE.

भूतखाना चौक

साल था 1985, माह दिसंबर, तारीख 14.

इसी दिन मेरा स्थानान्तरण उस शहर में हो गया था, जहाँ इस नाम से प्रसिद्ध एक क्षेत्र था / है। 16 दिसंबर के दिन मैं नए कार्यस्थल पर उपस्थित हो गया। बहुत दिनों बाद "श्री रमण महर्षि से बातचीत" पुस्तक में महात्मा गांधी के जीवन का वृत्तान्त पढ़ रहा था जिसे पहले 1983 के बाद भी पढ़ चुका था और भूल भी चुका था। 

इससे पहले के अर्थात् 1981 से तब तक के मेरे पिछले कुछ साल बड़े विचित्र बीते थे। स्वतंत्र ईश्वरीय संकल्प (Automatic Divine Action इस  विचार से मेरा परिचय उन्हीं दिनों हुआ था। इस विचार के जन्म का आधार था :

स्वतंत्र संकल्प  Free Will  की अवधारणा। 

उन दिनों  मैं "ध्यान, भगवान / ईश्वर, जीवन" और यह सब क्या है, इन और इस जैसी आध्यात्मिक धारणाओं के बारे में जानने-समझने का प्रयत्न कर रहा था। और श्री रमण महर्षि तथा मुझे श्री जे कृष्णमूर्ति के साहित्य से बहुत प्रेरणा मिलने लगी थी।

"श्री रमण महर्षि से बातचीत" नामक पुस्तक ही मेरा एकमात्र मार्गदर्शक ग्रन्थ था।

राजकोट में रहने लगा तो वहाँ पर श्री रामकृष्ण परमहंस के मठ में भी प्रायः जाने लगा था। इसी दौरान फिर एक बार उपरोक्त पुस्तक में गांधी जी के जीवन से संबंधित इस विवरण को पढ़ने का अवसर मिला, जिसमें वे कह रहे थे -

"राजकोट मैं क्यों जा रहा हूँ? शायद यह विधाता का ही विधान है।"

राजकोट में किसी समय Mesonic Lodge  नामक एक संस्था Theosophy  की स्थापना के समय से ही कार्य कर रही थी। इसे ही स्थानीय लोग भूतखाना कहा करते थे। उस संस्था से कुछ अंग्रेज और यूरोपय, और अन्य विदेशी लोग जुड़े रहे होंगे ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है।

अंग्रेजी भाषा का 

Meson / Mission शब्द, मिस्र / इजिप्ट के समय के पिरामिड्स के निर्माण के समय से ही प्रचलित है, जब फराओ Pharaoh के समय में मृतकों को "ममीफाय" किया जाने लगा था और मृत्यु हो जाने के बाद आत्मा के अस्तित्व की उस धारणा को सत्य माना जाता था जिसमें मृतक के शव को सुरक्षित रखा जाता था ताकि प्रलय के आने तक मृतक की आत्मा उन सब सुखों का उपभोग करती रह सके जिनका उपभोग उसने जीवित रहते हुए किया था। उन्हें यह आशा थी कि प्रलय के आने पर उन्हें पुनः जीवित किया जा सकेगा। यद्यपि यह विषय गूढ है और शायद अविश्वसनीय तथा विचित्र भी। किन्तु संभव है कि अब्राहमिक परंपराओं में अंतिम न्याय के दिन की परिकल्पना का प्रारंभ यहीं से हुआ है। जो भी हो यह सनातन वैदिक और पौराणिक धर्म की उन मान्यताओं पर ही अवलंबित था जिसमें प्रेतलोक और पितृलोक के अस्तित्व के बारे में कहा जाता है। मिस्र से मिस्री और मेसन तथा अंग्रेजी में इसी अर्थ में :

Meson / Mesonic / Mission / Missionary  

मेसनिक और मेसन शब्दों का प्रचलन प्रारंभ हुआ होगा, ऐसा कह सकते हैं।

तब से आज तक भी बहुत ही कम, इने गिने कुछ लोग पृथ्वी पर हैं जो आज भी उस प्रेत लोक और पितृ लोक के संपर्क में हैं और यद्यपि यह एक ऐसा रहस्यमय क्षेत्र है जहाँ रहनेवाली अशरीरी आत्माएँ सुदूर अतीत से सुदूर भविष्य की घटनाओं को देख सकती हैं, फिर भी औसत मनुष्य के लिए बहुत भयावह भी है। सामान्य मनुष्य इस बारे में शायद ही कभी कुछ जान सकता है। किन्तु आज जब से इंटरनेट टैक्नॉलॉजी का अत्यन्त अधिक विकास हुआ है, उन लोकों में रहनेवाली आत्माओं को सामान्य मनुष्य से जुड़ने का यह एक सुविधाजनक माध्यम प्राप्त हो गया है। आजकल के अधिकांश भविष्यवक्ता जो कि आकाशीय रेकॉर्ड्स तथा ऐन्जलिक कनेक्शन का दावा किया करते हैं इसीलिए मनुष्य और हमारी पूरी दुनिया के ही भविष्य के बारे में विश्वसनीय और प्रामाणिक रूप से बहुत सी बातों को वैसे ही देख सकते हैं जैसे आज हम इंटरनेट के उपयोग से मोबाइल या कंप्यूटर के स्क्रीन पर देखा करते हैं। वे आत्माएँ / Angels  जो ऋषि अङ्गिरा की ही परंपरा की हैं सदैव मनुष्यों से संपर्क करती रही हैं किन्तु आज यह और भी अधिक आसान हो गया है। बाबा वेंगा, नॉस्ट्रेडेमस या जापानी भविष्यदृष्टा इसीलिए वैसे ही सुनिश्चित भविष्यवाणी कर पाते हैं जैसे कि भृगु आदि प्राचीन ऋषि किया करते थे / हैं। 

एक sub-atomic particle   होता है  मॅसॉन /  Meson जो मनुष्यों और उन अशरीरी आत्माओं के बीच इसी संपर्क को संभव बनाता है। वे लोग सब कुछ, अतीत और भविष्य, जानते हैं और उन्हें यह भी पता है कि मनुष्य का अपने आपके स्वतंत्र संकल्प का विचार उसका कोरा अज्ञान और भ्रम ही है। यद्यपि वे समष्टि चेतना / collective consciousness के माध्यम से ही यह सब जानते हैं किन्तु उन्हें यह भी पता है कि वे न तो किसी घटना को और न ही किसी मनुष्य या उसके भाग्य को प्रभावित कर सकते हैं।

विधाता ने जैसा पहले से से सुनिश्चित किया है वैसा होना अवश्यम्भावी, अचल और अटल है।

ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त में इसे ही 

यथा धाता पूर्वमकल्पयत् ...

इन शब्दों से इंगित किया गया है। 

***

 

July 22, 2025

Endeavor and Adventures!

यह दौर!

--

खूब है वक्त का यह दौर भी, 

चलते रहना है अभी तो और भी!

संघर्ष स्वभाव है, अवसर नहीं,

आ गया है, आज तो यह ठौर भी!

हर रात और रोज ही, दिन में भी,

ताकतवर कभी, तो कमजोर भी,

युद्ध घमासान भी, घनघोर भी,

खूब है वक्त का यह दौर भी,

चलते रहना है अभी तो और भी!

***



 

Walking Into Void!

Hindi Poetry

--

सिर्फ वहीं तक चलना है, 

जहाँ तक राह दिखाई दे!

सिर्फ तभी तक चलना है, 

कदम जहाँ तक चल पाएँ, 

चाह तो गहरी है लेकिन,

उमंग भी उतनी है उत्कट,

न्यौछावर सब कुछ करना है,

जितना, जैसा भी कर पाएँ!

योद्धा होना, योगी होना, 

कर्मठ होना, त्यागी होना, 

संकल्प नहीं, निश्चय होना,

असंभव है, जो डर जाएँ!

***





July 17, 2025

Fifty Years Hence.

50 वर्षों पहले

वर्ष था 1975

तब से भटक रहा हूँ। वैसे तो जन्मों जन्मों से भटक रहा हूँ ऐसा किसी ने बताया था। और मैंने भी उनकी बात को बिना संदेह किए सच मान लिया था। तब मुझे यह सूझा ही नहीं कि पता लगाऊँ कहीं वे मुझे भ्रमित तो नहीं कर रहे थे! मैं तो बस इस चिन्ता में डूब गया कि इस तरह से मुझे कब तक भटकते रहना है! यह तो बहुत बाद में पता चला कि भटकाव तो बुद्धि का स्वभाव ही है। और यह भी पता चला कि बुद्धि की कठिन से कठिन चेष्टा से भी बुद्धि का भटकाव दूर नहीं हो सकता है।

***




  


July 14, 2025

PHASE-RULE

 ब्रह्मा और  विश्वकर्मा

विश्वकर्मा ब्रह्मा के मानस-पुत्र हैं।

और यह कहा जा सकता है कि ब्रह्मा स्वयं भी भगवान् श्रीमहाविष्णु श्रीहरि के मानस-पुत्र हैं।

ब्रह्मा और विश्वकर्मा नित्य, नित्य-अनित्य, और सनातन भी हैं और सतत सृष्टिकर्ता भी हैं। ऐसे ही किसी समय पर ब्रह्मा के मन से कल्पित अतीत में, कल्पना के रूप में विश्वकर्मा का जन्म हुआ और विश्वकर्मा ने उन्हें प्रणाम करने के बाद प्रश्न किया :

पिताजी मेरे लिए क्या आज्ञा है जिसका मैं पालन करूँ!

तब ब्रह्मा ने उनसे कहा :

वत्स! तुम्हें पता ही है कि तुम मेरे ही अंशावतार हो और अब मेरे द्वारा स्थूल महाभूतों की सृष्टि करने के बाद तुम इनके असंख्य रूपाकारों में प्राण प्रतिष्ठपना करो ताकि उनमें से प्रत्येक में व्यष्टि चेतना जागृत हो।

तब विश्वकर्मा ने प्रश्न किया :

किन्तु पिताजी! प्राण भी सर्वत्र व्याप्त हैं और चेतना भी इसी तरह सर्वत्र व्याप्त है। अर्थात् चूँकि सब कुछ चेतना और प्राण में व्याप्त है और चेतना और प्राण सबमें इसी प्रकार से, तो व्यष्टि- प्राण और व्यष्टि-चेतना का संयोजन भिन्न भिन्न रूपाकारों में किन किन  भिन्न भिन्न प्रकारों में करना उचित होगा जिससे कि पूरे संसार का कल्याण हो न कि विनाश?

ब्रह्मा ने कहा :

तुम्हें द्यु-लोक और पितृ-लोक अर्थात् द्यु-पितरौ इन दोनों की सहायता से ऐसा करना होगा। द्यु लोक द्युति अर्थात् वैद्युत् और पितृ प्राण और रयि का अधिष्ठान सूर्यलोक है, जिसका अंश बृहस्पति है। रयि चन्द्र है और पृथ्वी-तत्व भूमि है। इन सब तत्वों का भिन्न भिन्न प्रकार से संयोजन करने पर जीव-सृष्टि प्रकट होगी और प्रत्येक रूपाकार में पृथक् पृथक् व्यष्टि-चेतना व्यक्त होगी। इन असंख्य जीवों का ज्ञान अज्ञान से आवरित हो जाने के कारण उनमें से प्रत्येक में अपने कर्मों के स्वतंत्र और पृथक् कर्ता, और अपने सुख दुःखों के स्वतंत्र भोक्ता होने का, अपने शरीर, मन, बुद्धि, प्राणों तथा अन्य सभी लौकिक वस्तुओं के स्वामी होने का एवं इसी प्रकार इस मिथ्या ज्ञान से उत्पन्न अभिमान के पृथक् और स्वतंत्र ज्ञाता होने की कल्पना का जन्म होगा। यह सब नियति से ही तय है और नियति में ही प्रसुप्त तथा अप्रकट रहता है और काल की गति के साथ व्यक्त और पुनः अव्यक्त होता रहता है। यही शं और प्रशम् है। शं का अर्थ है शमन शान्तभाव और प्रशम् का अर्थ है प्रशान्ति, जो सृष्टिक्रम के साथ साथ चलनेवाला गतिविधि होती है। प्रशस्ति, प्रश्यः, प्रथ्यते, प्रथमः इति प्रशान्तिः।

तब विश्वकर्मा ने उन असंख्य रूपाकारों में वायु के द्वारा प्राणों का संचार किया। प्राणों का वायु के साथ शरीर में संचार होते ही उनमें विद्यमान समष्टि चेतना व्यष्टि चेतना में सीमित और बद्ध हो गई और उस सीमित प्राण-चेतना के सक्रिय होते ही श्वास के आवागमन से प्राण-चेतना को 'अत्ता' या श्वास ग्रहण और विसर्जित करनेवाला अर्थात् "आत्मा" नाम प्राप्त हुआ। श्वास की गति के साथ साथ तंत्रिका तंत्र की तीन प्रमुख नाड़ियों में प्राणों का प्रवाह प्रारंभ हो गया जिन्हें क्रमशः इडा, पिंगला और सुषुम्ना कहा गया। उन समस्त रूपाकारों के लिए व्यष्टि-जीवन जीने हेतु यह पर्याप्त था।

प्रत्येक व्यष्टि-जीवन या व्यक्ति में तब उसके अपने लोक में निरंतर सुख प्राप्त करते रहने की लालसा और दुःखों से भय का जन्म हुआ। क्रमशः बुद्धि परिष्कृत, परिपक्व और स्थिर होने पर नित्य क्या है और अनित्य क्या है इस ओर ध्यान आकर्षित हुआ और दीर्घकाल तक अनुसंधान करते हुए उसने अपने भीतर नित्य विद्यमान अविकारी आत्मा का साक्षात्कार कर लिया।

***

 


July 13, 2025

Vimal Mitra

বিমল মিত্র

जब मैं कॉलेज में पढ़ता था तो विक्रम विश्वविद्यालय के जीवाजीराव पुस्तकालय से पढ़ने के लिए किताबें लाया करता था। यहाँ तक कि मेरे पिताजी भी शौक से उन्हें पढ़ा करते थे। ऐसी ही एक किताब थी विमल मित्र की पुस्तक "मन क्यों उदास है?"

आज अचानक मन व्याकुल हुआ तो मन में प्रश्न उठा :

मन क्यों व्याकुल है?

कुछ देर तक मोबाइल पर यूँ ही समय बिताता रहा। फिर अचानक याद आया कि आज सुबह से कुछ ऐसा होता रहा कि मन व्याकुल हो उठा। मेरे साथ तो नहीं, किन्तु कुछ दूसरों, अपरिचित लोगों के साथ, जिनकी खबरें मोबाइल पर देख और पढ़ रहा था। बाढ़, भूकम्प, हत्या, हिंसा की खबरें। धीरे धीरे मन बोझिल हो उठा। जब मन व्याकुल हो उठता है तो हम शायद ही कभी इस बात पर ध्यान देते हैं कि मन व्याकुल कब और क्यों हुआ! कभी कभी अवश्य ही कुछ कारण होते हैं और मन उदास हो जाता है, कभी तो क्षुब्ध, क्रुद्ध, उद्विग्न और कभी कभी तो बहुत विचलित भी। दफ्तर जाने की हड़बड़ी, समय पर दफ्तर न पहुँच पाने का डर, किसी का जरूरी फोन कॉल आ जाना और ऐसी ही अनेक स्थितियों का सामना करते हुए लगातार तनाव में होने पर क्या मन शान्त रह सकता है! फिर जब थोड़ा सा वक़्त मिलता है तब भी उन सब बातों की चिन्ता तो रह ही जाती है। मेरी स्थिति अवश्य ही बाकी लोगों से बहुत अलग है। जंगल हाउस में रहते हुए न तो किसी काम के जल्दी होने या करने का दबाव, न  प्रतीक्षा,  न दफ्तर जाने की चिंता, न किसी के आने जाने का सवाल। कभी कभी तो महीनों तक किसी के दर्शन नहीं होते। न कोई दोस्त न परिचित, बस अपने स्थान से पाँच मिनट की दूरी पर स्थित नर्मदा के पुराने पुल तक जाना और लौट आना। इस पुल पर ट्रैफिक भी कम रहता है, या कहें कि होता ही नहीं है। कभी कभी पुल पर दर्जन भर गाय बैल जरूर बैठे रहते हैं, जिनके बीच से रास्ता निकालना मुश्किल नहीं होता। 

आज जब उस पुल पर पहुँचा तो देखा कि नर्मदा बाढ़ पर आई हुई है। किनारे पर चार दिन पहले जहाँ शंकरजी पत्थर के जिस चबूतरे पर विराजित थे, वह चबूतरा और शंकर जी भी नर्मदा नदी के जल में डूब चुके थे। पानी उनके सिर से एक फुट ऊपर चला गया था। वहीं दूसरे किनारे पर ऊँचाई पर विराजमान दूसरे शंकर जी आँखें बंद किए ध्यानमग्न थे। दूसरी तरफ नए पुल पर वाहन आ जा रहे थे।

रविवार के दिन यहाँ अकसर कुछ अतिरिक्त दुकानें खुल जाती हैं जो शाम होते होते बंद हो जाया करती हैं। कुछ चाय नाश्ता की दुकानें एक दो सब्जी और फल आदि की और बाकी नारियल, चने चिरौंजी, कुंकुम और नर्मदा जी के फोटो की। फल की दुकान से केले लिए, सब्जी कोई नहीं मिली और वापस आ गया। बाहर निर्माण कार्य चल रहा है। अब जब यह लिख रहा हूँ तो धूप खुलकर चमक रही है।

सुबह चार केले और दो लड्डू खाए थे। घंटे भर बाद चाय पी थी और फिर बाहर घूमता रहा।

लेकिन मन अब भी व्याकुल है।

अब याद आया, एक मित्र से फोन पर बात हो रही थी। दो दिन पहले ही वह मिलने आया था। उससे बातें करते हुए ही मन उचट गया था। फिर भी करीब 40 मिनट तक हम बातें करते रहे। एक बुद्धिजीवी मित्र। कुछ किताबें वे लिख रहे हैं। अध्यात्म में भी दखल है। बातचीत तो होती रही पर बात नहीं हुई।

सब कुछ भूलकर, यू-ट्यूब देखकर मन लगाने का प्रयास किया और उसमें भी कुछ ऐसा नहीं मिला जिसका कोई मतलब रहा है। फिर उसे बंद कर दिया। भोजन बनाना था, नहाना तो बारिश में हो चुका था। बस यूँ ही कट रही है आजकल जिन्दगी।

उदासी और व्याकुलता के बीच कभी कभी नींद तो कभी नर्मदा के दर्शन करते हुए मन एकाएक अत्यन्त शान्त तो कभी बहुत प्रसन्न, स्तब्ध हो जाता है। पल भर में सारी व्याकुलता हवा हो जाती है।

और यह प्रश्न भी!

***

July 12, 2025

Romantic Escapades.

जीवन-साथी

सरसिज, मनसिज और सुख-बुद्धि

अकेलेपन के बारे मे पिछले पोस्ट में कुछ लिखा था, जिसे किसी ने पढ़ा और प्रश्न पूछा कि धर्म, नैतिकता और शील के परिप्रेक्ष्य में एक जीवन साथी की मृत्यु हो जाने पर विकल्प के रूप में किसी दूसरे के साथ विवाह कर या बिना विवाह किए रहना कितना उचित है, इससे समाज में क्या संदेश जाता है? 

धर्म अर्थात् आचरण, नैतिकता अर्थात् अभ्यास और शील अर्थात् अनुशासन। संभवतः इसके लिए उपयुक्त अंग्रेजी शब्द Character, Ethics, Morality  और Discipline हो सकते हैं। धर्म का अर्थ होगा - प्राकृत व्यवहार, - natural predisposition.

वास्तव में, अंग्रेजी भाषा के religion शब्द की उत्पत्ति relegate शब्द से हुई है। religion वह है जो किसी को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से बाहर ले जाता है और किसी भिन्न, सुनिश्चित प्रणाली के अनुसार पूर्वनिर्धारित आचरण या व्यवहार करने के लिए बाध्य कर देता है। और प्रणाली सामाजिक और समुदाय विशेष की रीति रिवाजों से तय होती है। भिन्न भिन्न संप्रदायों, समुदायों,  religions और traditions के अनुयायियों में भी  सभी प्रकार की प्रवृत्तियों वाले अनेक मनुष्य होते हैं और उनमें से कुछ कम तो कुछ अधिक शक्तिशाली होते हैं जो कि कम शक्तिशाली लोगों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं जिसका कारण होता है लोभ, भय,  ईर्ष्या और उससे उत्पन्न प्रतिद्वन्द्विता की भावना।  यह केवल एक संयोग ही नहीं है कि ऐसे सभी संप्रदायों के बीच आपस में और भीतर भी सदैव संघर्ष चलता रहता है। विवाह नामक व्यवस्था की अवधारणा और समाज पर इसे लागू करने का आधार वैसे तो यही होता है, ताकि समाज में परस्पर सामञ्जस्य बना रहे क्योंकि मनुष्यों का समाज परिवार की अवधारणा  पर आधारित होता है और पति पत्नी, माता पिता, भाई बहन, पिता पुत्र, पिता पुत्री, माता और पुत्र तथा माता और पुत्री के बीच स्नेह संबंध स्वाभाविक रूप से सौहार्दपूर्ण होने के लिए आवश्यक है कि उन्हें मर्यादा का पालन करना होगा। मनुष्य, मनुष्यों का परिवार और समाज इस दृष्टि से पशुओं से भिन्न होता है कि वह पशुओं की तरह यौन प्रवृत्तियों का उच्छृंखल और निर्द्वन्द्व, मर्यादारहित उपभोग नहीं कर सकता, और मनुष्य की सभ्यताओं के प्राचीन से प्राचीन रूपों में इसे इसीलिए धर्म के आवश्यक अंग की तरह स्वीकार किया जाता रहा है, जिसका पालन करने की अपेक्षा सभी से की जाती है, और इसका उल्लंघन करने पर अनेक तरह के उपहास, दंड और निंदा का भागी होना पड़ता है। और यह इस तरह हजारों वर्षों से मनुष्य के सामूहिक मन में संस्कार की तरह स्थापित हो चुका है। सनातन वैदिक परंपराओं में इस पर बहुत सूक्ष्मता से अनुसंधान किया गया है और इसलिए विवाह को एक पवित्र संबंध माना गया है। पति और पत्नी के बीच के यौन संबंध को उपभोग की तरह तो महत्वपूर्ण माना ही गया है, किन्तु यह सभी का एक दायित्व भी है कि कोई भी पुरुष हो या स्त्री, विवाहेतर यौन संबंध का उपभोग कदापि न करे। इतना ही नहीं, यहाँ तक कि पर पुरुष या पर नारी से व्यवहार करते समय मनुष्य को इस मर्यादा का स्मरण रखना चाहिए। चूँकि स्त्री पुरुष के बीच का काम व्यवहार न तो निंदा और न ही हँसी मजाक का विषय है, और न तो मानसिक कल्पना का, इसलिए सामान्यतः मनुष्य के लिए यह समझ पाना कठिन हो जाता है कि वह अपनी काम-भावना को किस प्रकार नियंत्रण में रखे जिससे कि समाज में परस्पर कलह उत्पन्न न हो और हर पुरुष तथा स्त्री शान्तिपूर्वक दाम्पत्य जीवन का उपभोग करता रहे, न कि लंपट की तरह पशुवत कामचिंतन करता रहकर कुंठाग्रस्त या वृत्तियों भरा जीवन व्यतीत करता रहे। यदि मनुष्य अपनी काम संवेदनशीलता के प्रति सजग है और इसे कुंठा या अभ्यस्तता नहीं बनने देता है तो लगभग आधा जीवन बीत जाने पर वह आत्मीयतापूर्ण प्रेम तथा वासना के बीच के अन्तर को जान लेता है और जीवन साथी की आकस्मिक मृत्यु हो जाने पर भी काम वासना से पीड़ित या त्रस्त नहीं रहता। तब उस आयु में अपने जीवन साथी को कामोपभोग की दृष्टि से नहीं देखता है और तब काम उसके लिए बाध्यता या समस्या नहीं बन पाता है। स्त्री हो या पुरुष तब अधिक आयु हो जाने और जीवन साथी से बिछुड़ जाने पर किसी और को जीवन साथी बनाकर अच्छे और आत्मीय मित्र की तरह साथ रह सकते हैं और इसमें समाज के किसी और व्यक्ति या लोगों के द्वारा हस्तक्षेप किया जाना धृष्टता ही होगा। आज के समय में समाज में विवाह और स्त्री-पुरुष के विवाह करने या न करने के बावजूद एक साथ रहने के बारे में भिन्न भिन्न दृष्टिकोण और मत हैं तो हमें प्रकृति की व्यवस्था पर ध्यान देना होगा जहाँ पशु पक्षी भी बिना किसी नैतिकता, धर्म, आदि के नियंत्रण में रहते हुए भी केवल उचित समय आने पर ही अपने जीवन साथी का चुनाव करते हैं और संतान को जन्म देकर एक दूसरे से दूर भी हो जाते हैं।

तो विवाहित अथवा अविवाहित रहना और किसी साथी के साथ रहना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि अपनी काम भावना को दमन, कुंठाओं, कुत्साओं और विकृतियों से कैसे मुक्त रखा जा सकता है। वासनाग्रस्त बने रहना न तो स्वस्थता है और न ही यह स्वाभाविक है। स्वस्थ मन ही परिवार और समाज के स्वस्थ बने रहने के लिए आधार और सहायक हो सकता है।

चेतना जल की तरह सर्वत्र व्याप्त जीवन का ही नाम है।जैसे जल में कमलपुष्प खिलते हैं और इसलिए कमल को सरसिज कहा जाता है, वैसे ही चेतना में मन प्रकट और अप्रकट होता है। काम को मनसिज कहा जाता है, जो मन में ही जन्म लेता है और मन में ही विलीन भी हो जाता है। काम कठिन समस्या न बन जाए इसके लिए आवश्यक है कि इसका आत्मीयता में रूपान्तरण कैसे  हो सकता है इस पर ध्यान दिया जाए। इस दृष्टि से पशु भी मनुष्य की तुलना की अपेक्षा कहीं अधिक समझदार होता है। शायद मनुष्य पशुओं से कुछ सीख सकता है। पशु सुखबुद्धि की कल्पनाओं में नहीं जीते। और विचार नामक शाब्दिक बौद्धिकता से तो वे नितान्त ही अनभिज्ञ होते ही हैं।  

***





July 11, 2025

THE BETA VERSION

बेटा! 

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्। 

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।४५।।

(गीता अध्याय १)

"बत" - संस्कृत भाषा के व्याकरण के अनुसार अव्यय पद है, जिसके रूप सदा अविकारी रहते हैं। 

उपरोक्त श्लोक में "बत" पद का प्रयोग खेद प्रकट करने के अर्थ में किया गया है। यह "बत" पुनः "वत्" पद का समानार्थी है। "वत्" शतृ शानच् प्रत्यय है जिसका प्रयोग "वान्" के अर्थ में किया जाता है। इससे व्युत्पन्न "वत् स" / "वत् स" / "वत्स" पद का प्रयोग संतान या पुत्र के अर्थ में किया जाता है। इससे ही "वात्सल्य" शब्द प्राप्त होता है जो संतान के प्रति स्नेह का द्योतक है।

भाव ही भाषा का जनक और भावना ही भाषा की माता है। और इसलिए तमाम भाषाओं में मूलतः समानता पाई जाती है। भाषा के प्रयोजन के अनुसार यह संस्कृत या प्राकृत हो जाती है और भाव तथा भावना ही भाषा के पिता और माता हैं। इसलिए यह धारणा कि किस भाषा की उत्पत्ति किस दूसरी भाषा से हुई है, मूलतः भ्रामक है। अक्षरसमाम्नाय संस्कृत-व्याकरण का आधार है, और पालि तथा प्राकृत व्याकरण अन्य सभी भाषाओं का।

अभी हम "बत" पद पर विचार करें -

यह संयोगमात्र नहीं है कि अंग्रेजी भाषा के But और What शब्द जो क्रमशः समुच्चयबोधक और सर्वनाम पद हैं इसी "बत" के

अपभ्रंश /सजात / सज्ञात /  cognate हैं -

समुच्चयबोधक अर्थात् - conjunction,

सर्वनाम अर्थात्  pronoun.

इसी वत् से व्युत्पन्न वत्स का रूपान्तरण हिन्दी में बच्चा 

तथा वत्स से व्युत्पन्न "वत्सल" का लैटिन भाषा में -

Bachelor  में हुआ।

gradus baccalaurei 

(Bachelor degree) 

तात्पर्य यह नहीं कि सभी भाषाओं का उद्गम संस्कृत से हुआ और संस्कृत ही सब भाषाओं की जननी है। जिन्हें अधिक जिज्ञासा है वे देवी अथर्वशीर्ष का अध्ययन कर सकते हैं।

चूँकि वेद श्रुतिपरक हैं अर्थात् ध्वनि का तत्व ही उनका मर्म और आधार है इसलिए वेदमंत्र विशिष्ट ध्वनियों के विशिष्ट संयोजन हैं जिनके उच्चारण की शुद्धता उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि किसी कंप्यूटर के किसी प्रोग्राम के लिए किसी कंप्यूटर भाषा का कोडिंग और डिकोडिंग होता है। एक भी संकेत / कोड की त्रुटि पूरे प्रोग्राम को नष्ट कर देती है। इसलिए वेदमंत्रों के शुद्ध उच्चारण पर ध्यान देना सर्वाधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण है। 

परंपरा के अनुसार वेदमंत्रों की शिक्षा आचार्य के द्वारा छात्र को वाणी के माध्यम से दी जाती है जिसे अपनी सुविधा के लिए लिपिबद्ध कर सकता है। इस रीति से लिपि का प्रयोग भाषा को स्मृतिबद्ध करने के लिए किया गया। लिपियों का विकास ब्राह्मी, देवनागरी और द्राविड इन तीन प्रकारों में हुआ । ब्राह्मी जो ब्रह्मा और ब्रह्माणी शारदा / सरस्वती है, श्रीलिपि जो लक्ष्मी है और नागरी या देवनागरी जो नागवदन गणपति है। श्रीलिपि से ही ऋषि भाषा का उद्भव हुआ जिसका अपभ्रंश रूसी की सिरिल / Cyril  लिपि में हुआ जिससे पुनः ग्रीक और फिर हिब्रू भाषाएँ क्रमशः अस्तित्व में आईं। अरबी भाषा मूलतः पर्शियन / पहलवी के ही प्रयोग का विस्तार है, जबकि भ्रान्तिवश समझा यह जाता है कि पर्शियन / पहलवी का उद्गम अरबी से हुआ।

जहाँ तक द्राविड भाषा और लिपि का प्रश्न है, उसके भी दो प्रकार हैं जिनमें प्रथम है प्रचलित लोकभाषा के रूप में  தமிழ்,  తెలుగు, ಕನ್ನಡ  और  മലയാളം - अर्थात् तमिष़, तेलुगू, कन्नड और मलयालम, जो सभी द्राविड ही हैं। इसमें एक विशेष और महत्वपूर्ण बात यह है कि यद्यपि वेदमंत्रों को  தமிழ்  के अलावा इन सभी भाषाओं की लिपियों में यथासंभव शुद्धतापूर्वक लिखा जा सकता है और इसलिए द्राविड को  தமிழ்  लिपि में लिखे जाने के लिए ग्रन्थलिपि का अविष्कार ऋषियों ने ही किया। ग्रन्थलिपि में समस्त वेदमंत्रों को वैसा ही पढ़ा जाता है और वैसा ही उच्चारण भी किया जाता है जैसा कि उन्हें लिखा जाता है, जबकि लोकभाषा के रूप में प्रचलित  தமிழ்  द्राविड लिपि के प्रयोग में यह नहीं किया जा सकता है।

अतः निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि हिन्दी में प्रचलित संतान / पुत्र के अर्थ में प्रयुक्त "बेटा" शब्द का उद्भव और लोकभाषा में प्रचलन इसी "बत" / "वत्" से हुआ।

***





Widow and Widower

विधवा और विधुर

--

कोई उम्मीद बर नहीं आती,

कोई सूरत नजर नहीं आती!

इस शे'र में एक शब्द है "बर", जिसे मराठी में "बरऽ" कहा जाता है और गुजराती में  "સારુ"।  यह "बर" शब्द संस्कृत के "वर" का पर्याय है और  "સારુ"  संस्कृत के "चारु" का। वैसे उर्दू भाषा में, जैसा कि उपरोक्त उद्धृत शे'र में है, यह संस्कृत के "वर", "ज्वर" और "ज्वल" का अपभ्रंश है।

एक मराठी भजन याद आया -

"तो हा विट्ठल बरवा, तो हा माधव बरवा .."

तात्पर्य यह कि वह जो विट्ठल के नाम से प्रसिद्ध है, वही यह माधव के नाम से भी प्रसिद्ध है।

माधव शब्द में दो पद हैं - मा और धव। 

मा का अर्थ है जिसे मापा जा सकता है, अंग्रेजी में कहें तो  measurable. यह कहना अनुचित न होगा कि अनुभव की दृष्टि से, -

measurable  और  miserable पर्याय हैं। जो भी measurable है वह miserable होगा ही, और जो भी  miserable  होगा  उसका कष्ट असीमित तो नहीं होगा, फिर वह कितना भी  miser  या miserly हो! 

दूसरा पद है "धव"। धव का अर्थ है - पति या स्वामी। इसलिए माधव का अर्थ हुआ मायापति। माया अर्थात् ऐश्वर्य / लक्ष्मी, और मायापति का अर्थ हुआ ईश्वर।

विधवा का अर्थ हुआ वह स्त्री जिसके पति की मृत्यु हो चुकी है। स्त्री ही गृह और गृहस्थी की धुरी है। इसलिए जिस पुरुष की स्त्री की मृत्यु हो जाती है, उसे विधुर कहा जाता है।

बहुत संभव है कि अंग्रेजी भाषा के शब्द :

widow और widower

इन्हीं दोनों शब्दों के अपभ्रंश हों!

प्रसंगवश,

हालाँकि मैंने कभी विवाह नहीं किया किन्तु जिन्होंने भी किया और एक सुदीर्घ और सुखद वैवाहिक जीवन जिया और दुर्भाग्यवश जिनके जीवन साथी की मृत्यु हो गई, संतानें अपने अपने परिवार बसाकर उनमें रच बस गईं, ऐसे भी मेरे कुछ मित्र और सगे संबंधी हैं, जिनके बारे में लगता है कि वे एक नया जीवन साथी चुन लें तो उनका जीवन सुचारु और सुव्यवस्थित हो सकता है। उनमें से अधिकतर इतने अधिक निराश और दुःखी हो जाते हैं,  depression में चले जाते हैं, कि इस दिशा में न तो सोच पाते हैं, न पारिवारिक और सामाजिक दबावों में संकोचवश आगे बढ़ पाते हैं। यहाँ तक कि इस बारे में बातचीत तक करने में उन्हें हिचकिचाहट होती है। यह तो समझा जा सकता है कि ऐसे जीवन में अकेलापन और भी अधिक बोझिल हो जाता है और तब वे तथाकथित आध्यात्मिक या धार्मिक संस्थाओं या क्रियाकलापों से जुड़कर अपने अकेलेपन और खालीपन को भरने की असफल प्रयत्न करने लगते हैं जबकि उन्हें आवश्यकता होती है सामाजिक और पारिवारिक सहारे की। वृद्धाश्रम में भी 'समय बिताने का प्रश्न' तो होता ही है। अपना कोई जब तक ऐसा न हो जिससे कि आत्मीयता हो, तब तक मनुष्य का अकेलापन और खालीपन दूर नहीं हो सकता। अपने बारे में कहूँ, तो मुझे बचपन से ही एकाकीपन से अत्यन्त लगाव रहा है। अपना अकेलापन और खालीपन हमेशा ही इतना अद्भुत् लगता रहा है कि किसी से मिलने तक की आवश्यकता अनुभव नहीं होती। यहाँ तक कि लोगों से संवाद संभव न हो पाने पर केवल समय बिताने के लिए किसी बातचीत करना भी असुविधाजनक और व्यर्थ का एक अनावश्यक उपद्रव ही लगता है। मनोरंजन के किसी भी साधन और सामग्री को मैं अपनी निजता और एकाकीपन में बाधा ही अनुभव करता हूँ। मैं मानता हूँ कि और लोगों से कुछ भिन्न, कुछ विचित्र, असामान्य भी हूँ मैं, किन्तु किसी के जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता, और न किसी से यह अपेक्षा करता हूँ कि वह मेरे जीवन में हस्तक्षेप करे। जिन किन्हीं भी जड चेतन प्राणियों से मेरा संपर्क होता है उनसे मुझे आत्मीयता तो अनुभव होती है, परिचय और परिचय की स्मृति भी बनती और मिटती रहती है, किन्तु संबंध किसी से हो, यह मेरे लिए  संभव ही नहीं है। मेरी दृष्टि में, समस्त संबंध ही स्मृतिगत संबंध धारणाएँ मात्र होती हैं जिनका व्यावहारिक उपयोग अवश्य हो सकता है किन्तु उन्हें कभी भी छोड़ दिया जा सकता है और हर कोई ही परिस्थितियों के अनुसार या स्वेच्छा से भी ऐसा करता भी है। यह सब स्वाभाविक है। किसी किसी के लिए जीवन साथी से संबंध / आत्मीयता भी ऐसी ही एक तत्कालिक व्यावहारिक आवश्यकता है सकती है।

***

  


June 29, 2025

Dead As Dodo.

लाहौर से कपिलवस्तु 

--

तस्य लोपः

उपदेशे हलि अन्त्यस्य लोपो स्यात्।।

भगवान शिव के ढक्का से उद्भूत अक्षरसमाम्नाय के १४ सूत्रों का श्रवण करने के पश्चात् महर्षि पाणिनी के द्वारा संस्कृत भाषा के व्याकरण की रचना की गई।

"हल्" प्रत्याहार "हयवरट्" उपदेश से "शषसर्" ... "हल्" उपदेश तक प्रयुक्त व्यञ्जनों की समष्टि है।

समझा जाता है कि उनका जन्म अविभाजित भारत के पञ्जाब में "लहातुर" नामक स्थान पर हुआ था, जिसे बाद में "लाहौर" कहा जाने लगा। 

उसी पञ्च-आप अर्थात् पञ्जाब में जहाँ महर्षि अष्टावक्र के पिता ऋषि कहोळ / कहोड का जन्म हुआ था और उसे बाद में कहूटा कहा जाने लगा जो कि भारतवर्ष के विभाजन के बाद वर्तमान समय में पाकिस्तान में है, जहाँ पाकिस्तान का यूरेनियम संवर्धन प्लांट स्थित है।

महर्षि अष्टावक्र की माता का नाम सुजाता था। ऋषि कहोड को राजदरबार में वरुण (देव) के द्वारा नियुक्त किसी विद्वान से हार का सामना करना पड़ा था और इसके फलस्वरूप उन्हें वहाँ से बन्दी बनाकर समुद्र पार वरुण के देश में निर्वासित कर दिया गया था। अष्टावक्र के जन्म के बाद जब वह बारह वर्ष की आयु के थे, उन्हें इसका पता चला तो वे राजा के दरबार जा पहुँचे और राजा वरुण द्वारा नियुक्त उस विद्वान को शास्त्रार्थ में हरा कर पिता को वरुण के बन्दीगृह से मुक्त करवाया। वरुण वैसे भी पश्चिम दिशा के दिक्पाल और वसु हैं और उनके यज्ञ को पूर्ण करने के लिए उन्हें वैदिक कर्मकाण्ड में निष्णात पंडितों की आवश्यकता थी और इसीलिए उन्होंने ऐसे पंडितों को उनके देश में एकत्रित करने के उद्देश्य से यह जाल रचा था। कैसे ऋषि कहोड का जन्म बाद में कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के पुत्र के रूप में हुआ जिसे सिद्धार्थ का नाम प्राप्त हुआ था, और कैसे राजकुमार सिद्धार्थ ने घोर तप के द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया था, कैसे अष्टावक्र की माता जो कि सिद्धार्थ के इस जन्म के समय में वनदेवी के रूप में अवतरित हुई थी और कहोड का अनुसरण करती हुई उनकी सेवा में सतत संलग्न थी, और सिद्धार्थ को उस समय खीर प्रदान की थी जब वे निरञ्जना नदी से स्नान कर बाहर आए थे और अत्यन्त कृश और दुर्बल हो जाने के कारण थककर बोधिवृक्ष तले  बैठ गए थे, इस बारे में विस्तार से मेरे इसी या स्वाध्याय ब्लॉग में मैं लिख चुका हूँ। यहाँ केवल संदर्भ के लिए इसका उल्लेख कर रहा हूँ। यहाँ पर मुख्य ध्येय है - महर्षि पाणिनी के जीवन के एक प्रसंग के बारे में लिखना।

यह तो प्रख्यात है कि पाणिनी की अष्टाध्यायी के सूत्र

डुकृञ्करणे

को आधार बनाकर आदि शंकराचार्य ने द्वादशपञ्जरिका और चर्पटपञ्जरिका आदि सतोत्रों की रचना की, किन्तु यह भी कहा जाता है कि स्वयं महर्षि पाणिनी ने भी इस सूत्र को एक दूसरी कथा में आधार की तरह प्रयुक्त किया था। उसकी कथा यह है -

महर्षि अपने गुरुकुल में छात्रवृन्द के मध्य अपने आसन पर वटवृक्ष के तले विराजमान थे। ज्ञानयज्ञ अर्थात् वहाँ उपस्थित एक वृद्ध ने महर्षि से निवेदन किया -

भगवन्! 

कृपया इस सूत्र पर प्रकाश डालें ताकि हमारे ज्ञानचक्षु खुल सकें। महर्षि ने कुछ दूर पर स्थित एक वृक्ष की ओर संकेत किया और बोले -

उस वृक्ष पर अनेक पक्षी उसके फलों का भक्षण करने के लिए आते हैं उस फल का भक्षण करने पर उसके बीज भी उनके पेट में चले जाते हैं। उस वृक्ष का संस्कृत नाम तो डुडु है, जो उकारान्त पुंल्लिंग पद है और उसके रूप प्रथम विभक्ति में एकवचन, द्विवचन और बहुवचन में -

डुडु डुडू डुडवः

इस प्रकार से होंगे। 

तो जब विभिन्न पक्षी उस वृक्ष के फलों का भक्षण करते हैं और पेट में पच जाने के बाद में बीज जब उन पक्षियों के मल के साथ निकल जाते हैं। लेकिन उनका आवरण कठोर होता है इसलिए वे सड़-गल नष्ट हो जाते हैं और उनका अंकुरण नहीं है पाता। किन्तु उन पक्षियों में केवल एक पक्षी ऐसा भी होता है जिसके पेट में जाने के बाद इन बीजों पर का कठोर आवरण उसके पेट में ही गल जाता है और तब वे बीज उसके मल के साथ जब बाहर निकल जाते हैं तो आसानी से अंकुरित हो जाते हैं। इस प्रकार वह पक्षी और यह वृक्ष दोनों का अस्तित्व सदैव बना रहता है। उस पक्षी का प्रसिद्ध नाम "डुडु" शायद इसीलिए है। वृक्ष और पक्षी दोनों को इसी नाम से जाना जाता है।

जैसा कि स्पष्ट है, "डु" और "कृ" / "कृञ्" क्रियापद हैं जो कृत्य या कर्म की प्रक्रिया के द्योतक हैं।

(यह समझना कठिन नहीं है कि अंग्रेजी भाषा में 

Do और Create

इन्हीं दोनों क्रियापदों  verb-roots के सजात / सज्ञात / cognate  हैं। क्योंकि उनके उच्चारण और अर्थ -

Pronunciation and phonetic sense

से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।)

अब ज्ञान और अज्ञान के बारे में -

धारणा ही अज्ञान है और धारणा रहने तक अज्ञान और अज्ञान रहने तक धारणा व्यक्त से अव्यक्त और अव्यक्त से व्यक्त रूप ग्रहण करते रहते हैं।

अज्ञान और धारणा, ठीक इस "डुडु" वृक्ष और पक्षी की तरह अन्योन्याश्रित हैं। इसलिए इसे ही पतञ्जलि महर्षि ने "वृत्ति" कहा है। वृत्ति का निरोध, एकाग्रता और संयम तो हो सकता है किन्तु मन का अस्तित्व रहने तक किया नहीं जा सकता। क्योंकि मन ही वृत्ति है और वृत्ति ही मन है और अहं-वृत्ति ही समस्त वृत्तियों का मूल है और सभी वृत्तियाँ अहं-वृत्ति का ही प्रकार हैं। 

धारणा के रहने तक अज्ञान का और अज्ञान के रहने तक धारणा का आभासी अस्तित्व बना रहता है। यह दुष्चक्र तभी विलीन होता है जब विचार को विचारकर्ता,और विचारकर्ता को विचार की तरह, एक ही वस्तु की तरह देख लिया जाता है।

"देखना" (Awareness) कर्म नहीं स्वभाव है।

इतना कहकर महर्षि मौन हो गए। 

***

 


 


June 26, 2025

Thursday -26-06-2025

नर्मदा तट, सातधारा

 --

दो तीन दिनों से बारिशें शुरू हो गई हैं।

उम्मीद है हफ्ते भर में मौसम खुशनुमा हो जाएगा।

कभी खुला आकाश, कभी बादलों की घुमक्कड़ी, और कभी हवा का बेतरतीब इधर उधर दौड़ते रहना। सुबह शाम और अब तो दोपहर में भी नदी तट पर घूमते रहना, कहीं भी बैठ जाना, कभी भी उठकर चल देना सब कुछ अपनी मनमर्जी से!

उमस कभी कभी तो होगी ही। तेज धूप भी कभी कभी। संध्या के समय नर्मदा के तट पर घूमते हुए स्व. दुष्यन्त कुमार की पंक्तियाँ याद आईं -

तुमको सुबह से निहारता हूँ ऋतंभरा,

अब शाम हो रही है परन्तु मन नहीं भरा!

और, 

धीरे धीरे पाँव बढ़ाओ, जल सोया है, छेड़ो मत,

हम सब अपने दीप सिराने इन्हीं तटों पर आयेंगे!!

***



June 21, 2025

Thursday 19-06-2025

बारिशें / वारिशः 

--

दो दिन बाद लिख रहा हूँ।  आज 21 जून 2025 है।

अंतरराष्ट्रीय योग-दिवस !

19 की सुबह शायद कोई ब्लॉग लिखा होगा।  07: 00 बजे प्रातःभ्रमण के लिए निकला। पुराने पुल पर दो तीन गायें बैठी थीं। मौसम आरामदेह था। छोटा सा वीडियो  बनाया जिसे बाद में डिलीट भी कर दिया। पुल से पार आसाराम आश्रम है। उससे पहले बाँई तरफ का रास्ता सूरजकुण्ड की ओर जाता है, दाईं ओर का रास्ता नये पुल की ओर। वहीं से लौट गया। पास की एक दुकान से 20-20 (twenty-twenty)  के पाँच रुपए वाले दो पैकेट खरीदे।  मन था कि पुल पर कौओं को खिला दूँ।  दोनों में छः छः बिस्किट थे। थोड़ा आगे चलकर एक पैकेट के, और फिर दस फुट की दूरी पर दूसरे पैकेट के बिस्कुट सड़क के किनारे रख दिए।  फिर वापस आ रहा था।  रास्ते पर तीन चार मिनट चला था कि एक कौआ रेलिंग पर बैठा दिखाई दिया। तभी दूसरी दिशा से उड़ता हुआ एक कौआ आकर मेरे सिर पर पल भर के लिए रुका और जैसे ही मैंने हाथ उठाया वह दूसरे कौए के पास जाकर रेलिंग पर बैठ गया तो मैंने उसे डाँटकर भगा दिया। मुझे उस पर गुस्सा नहीं आया था लेकिन खीझ जरूर हुई थी।

मोबाइल में समय देखा तो 07:31 बज रहे थे। सामने पुल के दूसरी तरफ जहाँ पश्चिम दिशा में शनि महाराज का मन्दिर है, उस तरफ ध्यान गया तक नहीं।

समय देखने का उद्देश्य तब यह था कि प्रश्न-कुण्डली बना कर उस पर सोचता, लेकिन फिर मन बदल गया। 

लौटकर घर आया, वॉश बेसिन में नल के नीचे सिर में साबुन लगा कर खूब अच्छी तरह सिर धोया लेकिन कौए के पंजों के क्षणिक स्पर्श की चुभन तब तक भी दूर न हो सकी।  अभी भी है! 

पिछले कितने ही वर्षों से मृत्यु के विषय में कुछ न कुछ सोचता रहा हूँ। वर्ष 2024 में चार परिचित और निकट के व्यक्ति दिवंगत हो चुके हैं। वैसे उनमें से किसी से भी संपर्क तक हुए अनेक वर्ष हो चुके हैं, लेकिन स्मृति अभी तक बाकी है।

जाने चले जाते हैं कहाँ! दुनिया से जानेवाले! 

क्या कौए का सिर पर बैठना कोई अपशकुन है? क्या यह मृत्यु के जल्दी आने का संकेत है?

(वैसे तो मैं किसी भी कौए को काक-भुशुंडि के ही रूप में देखता हूँ, इसलिए इस घटना को उनके आशीर्वाद की तरह भी मान सकता हूँ।) 

लेकिन मृत्यु की घटना (होने) का क्या अर्थ है। जिसे हम जीवित की तरह जानते हैं, उसकी मृत्यु हो जाने का पता चलने के पहले हम उसे कैसे जानते हैं? क्या हम उसके बारे में हमें प्राप्त जानकारी के आधार पर ही उसका कोई मानसिक चित्र ही नहीं बना लेते हैं, और यह नहीं सोचने लगते हैं कि वह इस इस प्रकार का है। यहाँ तक कि हम उसे उससे हमारे पारिवारिक संबंध के परिप्रेक्ष्य में भी जानने-पहचानने लगते हैं। हमें लगने लगता है कि हमें उससे बहुत प्रेम है और हम उसके न होने की कल्पना तक नहीं कर सकते। और अगर किसी व्यक्ति से हमारी शत्रुता हो जाती है तो हम न सिर्फ उसकी मृत्यु हो जाने की कल्पना बल्कि कभी कभी तो क्रोधवश ऐसी कामना भी करने लगते हैं। हमें कभी कभी इस पर ग्लानि और अपराध-बोध तक हो जाता है या हमें उससे किसी हद तक घृणा तक होने लगती है। और कभी संयोगवश हमें अगर उसकी मृत्यु होने की सूचना मिलती है, तो गहरा अफसोस और शर्म भी महसूस हो सकती है। कभी कभी तो बरसों तक भी हमारी यह भावना दिल से दूर नहीं हो पाती है। बरसों बाद हम उस व्यक्ति का नाम तक स्मरण नहीं कर पाते। शायद कोई घटना या स्थिति भर याद रह जाती है। तो मृत्यु क्या है। मेरे जितने निकट संबंधी और परिजन अब तक दिवंगत हो चुके हैं उनमें से एक दो को छोड़कर प्रायः सभी से (उनकी मृत्यु हो जाने के बाद) मैं अपने स्वप्न या स्वप्न जैसी किसी अर्धचेतन अवस्था में मिल चुका हूँ, और मुझे लगता है कि उनमें से कौन अब तक भी मृत्यु के बाद के किसी अन्य लोक में रह रहे हैं, और मैं इसे कल्पना या स्वप्न मानकर निरस्त नहीं कर सकता। पर वह कहानी फिर कभी।

शायद 19-06-2025 की ही सुबह मैंने किसी ब्लॉग में इस बारे में एक नई दृष्टि से गीता का यह श्लोक उद्धृत किया था -

अव्यक्तादीनि भूतानि मध्यव्यक्तानि भारत। 

अव्यक्तनिधनानन्येव तत्र का परिदेवना।।२८।।

(अध्याय २)

मुझे इसमें यत्किञ्चित भी संदेह नहीं है और मेरे मत में  यह तो तय और पूर्णतः सत्य ही है कि कोई भी मनुष्य मृत्यु होने पर पुराने शरीर को त्याग देता है, और उसके अनन्तर कुछ समय के लिए ऐसी ही अव्यक्त स्थिति में चला जाता है, और फिर अवश्य ही पुनः एक और नया शरीर धारण कर लेता है। जैसे हमें सुबह नींद से जाने पर नींद में देखे गए स्वप्न कुछ समय तक याद रहते हैं, और फिर हम उन्हें इस तरह भूल भी जाते हैं कि बहुत चेष्टा  करने पर भी हम उन्हें याद नहीं कर पाते, वैसा ही कुछ मृत्यु के बाद होता होगा। अगर हम किसी भी नवजात शिशु से उसके बारे में धीरे धीरे उससे पूछकर पता लगा सकें तो वह अवश्य ही उसके पिछले जन्म का नाम और दूसरी जानकारियाँ दे सकेगा। इसका इतना ही उपयोग है कि तब वैज्ञानिक रीति से हम समझ सकेंगे कि पुनर्जन्म की घटना कितनी सत्य है।

*** 

  





June 11, 2025

James Hadley Chaise.

यूँ ही बस याद आया!

--

जब मैंने पहली बार यह पढ़ा कि श्री जे. कृष्णमूर्ति कभी कभी इस pulp fiction novelist / पीत-पत्रकार लेेखक या उपन्यासकार जेम्स हेडली चेज़ को पढ़ते हैं तो मुझे थोड़ी हैरानी जरूर हुई थी। 

फिर बहुत बाद में उनके ही द्वारा लिखी गई किसी रचना में यह पढ़ा कि कैैसे एक शिकारी पक्षी क्रूरता से उसके शिकार दूूसरे एक छोटे पक्षी के टुकड़े कर रहा था, तो मैं शायद इस रहस्य को समझ सका।

करीब दस वर्षों पहले एक तस्वीर वायरल हुई थी -

दस रुपए के नोट पर किसी ने लिखा था -

"सोनम बेवफ़ा है!"

वास्तव में उस समय यह कौतूहल और मनोरंजन का ही एक विषय था जिसे हल्के फुल्के ढंग से लिया गया था। ऐसी बहुत सी कथा-कहानियों को प्रायः इसी तरह और टाइम पास करने के लिए पढ़ा जाता है और कुछ समय बीतते ही भुला भी दिया जाता है, लेकिन जब ऐसा कुछ अपने स्वयं पर या अपने से जुड़े किसी पर बीतता है, तो वह बस स्तब्ध कर देता है।

वर्ष 2000 तक मैं जिस मकान में रहा करता था, उसके सामनेवाले रोड के उस तरफ का मकान बहुत सुन्दर था। दोपहर के समय वहाँ कोई नहीं होता था और उस समय गेट पर ताला लगा होता था। गर्मियों के मौसम की ऐसी ही एक दोपहर जब मैं बाहर से लौटा तो उस मकान में एक बाज दिखलाई दिया था, जिसने अपने पंजे में एक मासूूम, बेबस गौरैया को जकड़ रखा था। उसे देखते ही मुझे जे. कृष्णमूर्ति की लिखी वह रचना याद आ गई। मुझे देखते ही वह तुुरंंत ही वहाँ से उसे लिए हुए फुर्र हो गया।

बहुत देर तक इस घटना से मेरा मन स्तब्ध रहा।

यह इस पर भी निर्भर करता है कि हम किससे जुुड़े होते हैं, और किससे हमारी कितनी आत्मीयता होती है। हो सकता है हमारी आत्मीयता बाज से हो, या गौरैया से। और तब वह घटना भी हमारे लिए वैसी ही महत्वपूर्ण या महत्वहीन हो सकती है।

तब मुझे लगा कि श्री जे. कृष्णमूर्ति से तो अवश्य ही मेरी कुुछ आत्मीयता है।

***



June 09, 2025

Friends.

P O E T R Y / कविता

--

दोस्त मंजिल नहीं, बस पड़ाव होते हैं,

कभी फिसलन, कभी चढ़ाव होते हैं!

किसी भी मोड़ पर मुड़ जाते हैं,

घड़ी दो घड़ी के, लगाव होते हैं!

कभी सहारा, तो कभी चैन सुकून,

कभी तनाव या मनमुटाव होते हैं!

कभी लगाव और अलगाव कभी,

भरोसा, शक, या खिंचाव होते हैं!

***


June 04, 2025

Extrovert / Introvert

शब्दावलि / Terminology

--

Mind  is Attention  = ध्यान = चित्त

Identification = तादात्म्य  is either

अन्तर्मुुख /  बहिर्मुख / विषयाभिमुख / एकाग्र 

Extrovert  / Introvert / Focused / Distracted / Content, =

अन्तर्लीन / बहिर्लीन / एकाग्र / क्षिप्त / समाहित,

Meditation = Spiritual Practice.  = 

आध्यात्मिक साधना / अभ्यास 

With or Without Effort

अनायास / सायास,

Object / Subject,

विषय / विषयी,

***

May 29, 2025

T. F. O. C. D.

Touch -Feet

Obsessive Compulsive Disorder.

I didn't know that I didn't know!

From the childhood, I was always told to touch the feet of elders like Parents the guests and the Guru who would come to my home. I also had never tried to see its significance any. However, sometimes I would obey this order or the suggestion given to me and sometimes I ignored too though unintentionall. I couldn't see that my such behavior might have annoyed my parents and those elders who felt offended by my this attitude and possibly might have thought about me that I was kind of an arrogant, disobedient and a impolite boy.

Sometimes I would touch their feet but I  never thought if it was just a custom  or there was some deeper significance in doing this. In this way for so many years, even before 2 days ago I never realized - "I didn't know  that  I didn't Know!"

I'm not unnecessarily complicating the matter but would like to explain that a couple of days ago a stranger insisted for touching my feet. I politely told him that I don't like this practice of touching feet of any true or so-called spiritual great or any such saintly, religious person. Still he didn't even budge a bit.

Then I told him -

See, I don't think I am such a respectable, such a great person who deserves to be given this honor.

He didn't care my words, and said -

You can't stop me from letting me touch your feet!

I was quite disgusted.

Aghast and in a quandary.

The next day I told someone who could help me, listen to me and let this matter be solved.

But so far, I have been trying to avoid him all the time.

But really I was terribly frightened.

I was also furiously angered.

I could see, deeply feel, how this practice is being kept, maintained, strengthened and glorified, by the so-called spiritual and / or religious people, and how it has become such a powerful tool in their hands to exploit emotionally the meek and the gullible people in this way and for so long.

But now I have no hesitatation any and I frankly tell to all those who want to keep in touch with me that I'm totally against this practice. If someone wants to see me, to keep in touch with me, he or she  can just say "hello!", maybe with folded hands, and I too will reciprocate in the same manner with saying "Namaste" or "PraNAma".

But so far, I couldn't have been able to reconcile with and understand this idea!

I can happily pay obeisance to an image of some God in a temple and prostrate at His feet too, but not before any human who I'm not sure of if he really deserves this treatment!

(The ignorance of ) - 

Not knowing of 

The Not knowing! 

***





May 26, 2025

26-05-2025 / POETRY

व्यथा-कथा, कथा-व्यथा!

कुछ भी!! 

कथा कह कह कर थका वाचक, 

तथा कह कह कर कथावाचक!

पुनः पुनः मांग कर यथा याचक,

व्यथा सह सह कर तथा याचक!

दौड़ दौड़ कर थका यथा धावक,

हाँफता हुआ रुका यथा धावक! 

कथा कह कह कर यथा श्रावक, 

अग्नि सा जलता रहा यथा पावक!

तान भरता रहा यूँ यथा गायक,

अभिनय करता रहा यथा नायक!

सतत सुख देता रहा सुखदायक,

सतत दुःख देता रहा दुःखदायक!

जिसने जो चाहा, उसे वो मिल गया,

जो कभी भी बन पाया इस लायक! 

***

May 22, 2025

THE VISA

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा।

हृदय राखि कोसलपुर राजा।।

प्रश्न उत्तम है। कार्य शुभ है, सफलता प्राप्त होगी। 

यह चौपाई गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस में उनकी एक रचना "रामशलाका प्रश्नावलि" के साथ पाई जाती है। प्रसंग हनुमानजी के द्वारा माता सीता की खोज करने के लिए लंका में प्रवेश करने के संबंध में है।

अंग्रेजी भाषा के ऐसे हजारों शब्द हैं जो मूलतः संस्कृत भाषा के किसी शब्द का अपभ्रंश हैं। हमें यह नहीं सिद्ध करना है कि विभिन्न भाषाएँ संस्कृत से ही निकली हैं या नहीं बल्कि यहाँ पर केवल संस्कृत और अंग्रेजी भाषा के बीच किसी संभावित साम्य के आधार पर कोई निष्कर्ष प्राप्त करना ही हमारा प्रमुख ध्येय है।

ऐसा ही एक शब्द है  VISA

यह शब्द संस्कृत की विश् - विशति धातु से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है प्रवेश करना। एक देश से दूसरे देश में अल्पकाल या कुछ काल के लिए प्रवास करने के लिए प्रायः दो दस्तावेज चाहिए होते हैं - एक होता है - पासपोर्ट -

जिसकी विवेचना और व्युत्पत्ति भी संस्कृत मूल शब्द से की जा सकती है, किन्तु यहाँ अनावश्यक प्रतीत होने से ऐसा नहीं किया जा रहा है, क्योंकि ऐसा करना विषय से भटकना है।

पासपोर्ट जो उस देश की सरकार से प्राप्त दिया जाता है, जहाँ का कोई नागरिक किसी कार्य के लिए विदेश जाना चाहता है। दूसरा उस दूसरे देश से प्राप्त करना होता है, जहाँ यह व्यक्ति किसी कार्य के लिए जाना चाहता है, इसे "वीसा" कहते हैं।

ऐसा ही एक शब्द हैं - funeral, जो अरबी के 'दफ़न' का अपभ्रंश है। "दफ़न" शब्द स्वयं ही संस्कृत भाषा के "दहन" का अपभ्रंश है। सनातन वैदिक ज्ञान की परंपरा के अनुसार जब तक पञ्चतत्वों से बने इस शरीर का विधिपूर्वक दहन नहीं कर दिया जाता है, तब तक इस शरीर को "अपना" समझनेवाले "जीव" की अंतिम और पूर्ण मुक्ति संभव नहीं होती है, क्योंकि पृथ्वी, वायु और जल तो जीव की मृत्यु होते ही अपने अपने महाभूतों में मिल जाते हैं, आकाश कहीं आता जाता नहीं, इसलिए उसकी मुक्ति होने का प्रश्न ही नहीं है, शेष बचा अग्नि, जो पञ्चप्राणों की शक्ति के रूप में जीव-चेतना के साथ बँधा होता है। सनातन धर्म, वैश्विक होने से यह सर्वत्र ही सदा से प्रचलित रहा है। जिन स्थानों पर जल की कमी या अत्यधिक शीत होने के कारण अग्नि प्रज्वलित करना कठिन होता है, जहाँ पर शव का दहन परिस्थितियों के कारण संभव नहीं हो पाता है, वहाँ दाह-संस्कार न कर उसे भूमि में समाधि (bury)  दे दी जाती है, और तब प्रकृति की अपनी प्रक्रिया के अनुसार समय के साथ अग्नि भी धीरे धीरे अग्नि महाभूत में मिल जाता है और जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। अंग्रेजी भाषा का शब्द bury भी मूलतः संस्कृत भाषा के पृ - पूर्ति / पूरयति का अपभ्रंश है। तात्पर्य यह है कि "funeral",  जो  "दफ़न" का, और "दफ़न", जो कि "दहन" का पर्याय है, तात्कालिक रूप से अंत्येष्टि का औपचारिक विधान है, ताकि प्राकृतिक प्रक्रिया के माध्यम से, या विधि-विधान से बाद में "अस्थियों" को किसी नदी या जल के किसी अन्य प्राकृतिक स्रोत में प्रवाहित कर दिया जा सके। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि तथाकथित "महाप्रलय" के समय महा-जलप्लावन के समय सभी कुछ स्वयं ही जल में विलीन हो जाता है।

मृत्यु, काम और मुमुक्षा

जिन दिनों भारत में सरकार द्वारा "आपात्काल" लगाया गया था, तत्कालीन साप्ताहिक पत्रिका "दिनमान" या "रविवार" में एक लेख प्रकाशित हुआ था जो उस समय के आनन्द-मार्ग नामक संगठन के संबंध में था। उस लेख को लिखने और प्रकाशित करने के पीछे किसके या कौन से प्रयोजन थे इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है, किन्तु उसमें जिस प्रकार से मनुष्य और प्राणिमात्र में भी विद्यमान "मृत्यु-कामना" / Death-wish  को आधार बनाया गया यह जानना रोचक है।

उपरोक्त रेखांकित तीन शब्द ईश्वरीय संकल्पना के प्रकृति में अभिव्यक्त प्रकार मात्र हैं। 

स अकामयत

ईश्वर के रूप में जो स्रष्टा है उसमें ही कामना उत्पन्न हुई - सृजै  कि (मैं) सृष्टि करूँ।

ऐतरेय उपनिषद् में इसका अद्भुत् विवरण है।

यह कामना ही "जीव" के रूप में अभिव्यक्त हुई और जब तक यह अपूर्ण रहती है, "जीव" उस कामना को पूर्ण करने का प्रयास करता ही रहता है। इसी कामना से बाध्य या प्रेरित होकर वह प्राकृतिक रीति से प्रजनन के लिए प्रवृत्त होता है और इसीलिए इस कार्य में संलग्न होने पर उसे क्षण भर के लिए मुक्ति की प्रतीति होती है। स्खलन (Sexual Discharge) के समय यही तो होता है। इसलिए प्रजनन की क्रिया में भी क्षणिक मुक्ति तो (प्रतीत) होती ही है और यही कुंठित और विकृत हो जाने पर समलैंगिकता का रूप भी ले सकती है। और यही विकृत, वीभत्स और कुत्सित होकर एक दुष्चक्र का रूप भी ले लेती है, किन्तु वह अवश्य ही अंतहीन दुर्भाग्य और चरम विनाश का ही रास्ता होता है। क्योंकि फिर यह आगे चलकर संतति में भी गुणसूत्रीय उत्परिवर्तन / (Genetic Mutation)  का कारण बन जाता है। अभी शायद इसे "अनुमान" कहा जा सकता है, किन्तु आज के समय के वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक शोधों की मर्यादा यहीं तक है। मनुष्य में यही मुक्ति-कामना, जो कि मृत्यु-भय और मृत्यु के आकर्षण की रोमांचकता के चरम तक पहुँच जाती है वस्तुतः तो मुमुक्षा के ही भिन्न भिन्न प्रकार मात्र होते हैं, यह सोचना गलत नहीं हो सकता।

***




May 19, 2025

Transit of Planets.

पृथ्वीधराचार्य

वर्ष 1970 में मैंने देवास के के पी कॉलेज में बी.एस-सी. प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया। बाद में मुझे यह पता चला कि यह वही "पृथ्वीधराचार्य" हैं जो कि इन्दौर से प्रकाशित होनेवाले "नई दुनिया" नामक अखबार में दैनिक भविष्य का कॉलम लिखते हैं। मुझे नहीं लगता था कि क्या एक ही साथ बारह राशियों के लोगों के भविष्य के बारे में जो कुछ लिखा जाता है, उसे कितना सच माना जाए। बस कौतूहलवश कभी कभी देख लेता था। 1973 तक वहाँ रहने के बाद मैं उज्जैन आ गया जहाँ बी एस-सी अंतिम वर्ष की परीक्षा दी। उसके बाद नौकरी की तलाश करने लगा जिसका कोई मतलब नहीं था। फिर भी ज्योतिष शास्त्र के बारे में मेरा कौतूहल बना रहा। बी एस-सी के अंतिम वर्ष में मुझे विक्रम विश्वविद्यालय के माधव विज्ञान महाविद्यालय पढ़ते हुए विश्वविद्यालय के जीवाजीराव पुस्तकालय से जुड़ने का सौभाग्य मिला जहाँ से मुझे दो पुस्तकें मिल सकती थीं। उन दिनों कोई विशेष रोक टोक नहीं थी, और मैं वहाँ से बहुत सी वे मनचाही पुस्तकें भी ले लिया करता था जिनका मेरे कॉलेज के मेरे पाठ्यक्रम से कोई संबंध नहीं होता था। पुस्तकालय में वाचनालय भी था जहाँ कुछ पत्र पत्रिकाएँ भी पढ़ी जा सकती थीं। ऐसी ही एक पत्रिका थी -

Astrological Magazine  या  A. M.,

जो बैंगलोर से प्रकाशित होती थी और जिसके संपादक और प्रकाशक थे -

Bangalore Venkata Ramana -

(B V Ramana) नामक व्यक्ति।

देवास जैसी छोटी जगह की तुलना में उज्जैन एक काफी बड़ा शहर है। एक सिरे पर मैं वहाँ इंजीनियरिंग कॉलेज के परिसर में रहता था, तो दूसरे सिरे पर है छत्री चौक या गोपाल मन्दिर। गोपाल मन्दिर के एक ओर पटनी बाजार से होकर महाकालेश्वर मन्दिर जाने का मार्ग है, तो दूसरी तरफ ढाबा रोड, कालिदास मॉन्टेसरी, कैलाश टाकीज़ आदि। उस रोड पर एक दुकान धार्मिक किताबों की भी थी जहाँ से मैंने स्वामी विवेकानन्द के पुस्तक "राजयोग" खरीदी थी। तब शायद उसका मूल्य ₹2/- था।

बाद में देवास गेट की दुकान से नारायणदत्त श्रीमाली की कुछ पुस्तकें "दशफल दर्पण", "भारतीय अंक शास्त्र" और "ज्योतिष योग" आदि खरीदी थीं।

इस सब अध्ययन के बाद यह प्रश्न मेरे मन में आया कि इ सबका सार क्या है, उसे कैसे सीखा और प्रयोग में लाया जाए?

A. M. से मुझे बहुत सहायता मिली और यह समझ में आया कि पहले तो विंशोत्तरी, अष्टोत्तरी और योगिनी इन तीन मुख्य दशाओं का निर्धारण करना चाहिए, बाद में जातक की जन्म पत्रिका में दिखलाई देनेवाले विभिन्न महत्वपूर्ण ज्योतिषीय योगों को देखना होगा और इसके बाद उन योगों के फलित होने के समय का निर्धारण, उन सभी ग्रहों की महादशा, अन्तर्दशा और प्रत्यन्तरदशा के अनुसार तय करना होगा। इसके अतिरिक्त प्रश्न कुंडली का अध्ययन भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। प्रश्न कुंडली के अध्ययन से भी बहुत कुछ सीखा और जाना जा सकता है। उन्हीं दिनों मालीपुरा स्थित पुस्तकों की एक दुकान से मैंने "वर्षफल दर्पण" नामक बहुत अच्छी किताब खरीदी थी, जिसमें "मुन्था" की अवधारणा का उल्लेख पहली बार मुझे दिखलाई पड़ा। बहुत बाद में मुझे पता चला कि यह अवधारणा अरबी / फारसी ज्योतिष-शास्त्र की देन है, क्योंकि चन्द्र के 12 महीनों के 12 राशियों के भ्रमण पर आधारित अरबी / फारसी कैलेन्डर में उस "अधिक मास" की गणना उस तरह से नहीं की जाती, जैसी कि वैदिक भारतीय पञ्चाङ्ग में की जाती है। और इसलिए "माह" संस्कृत "मास" का अपभ्रंश है, जो चन्द्रमा का ही द्योतक है। शायद इसी आधार पर "मुन्था" (अंग्रेजी - month) की परिकल्पना या अवधारणा प्रस्तुत की गई, और तदनुसार इस आधार पर "वर्षफल" को समायोजित किया गया। यह सब मेरा व्यक्तिगत विचार है, हो सकता है कि यह सही हो या न भी हो। यह सही है भी या नहीं, इस बारे में मेरा कोई दावा नहीं है।

व्यक्ति के जीवन के बारे में इन दो या तीन बिन्दुओं के आधार पर कोई अनुमान किया जा सकता है, विभिन्न घटनाओं के समय का भी, वहीं इससे पहले की पोस्ट में जैसा मैंने इंगित किया, विभिन्न ग्रहों के राशिचक्र में होने वाले भ्रमण के समय-अन्तराल के आधार पर, और उनके राशि परिवर्तन के आधार पर भी इन घटनाओं का महत्व तय किया जा सकता है। सूर्य, बुध और शुक्र तीव्रगामी ग्रह हैं जो कि पृथ्वी की कक्षा के भीतर रहते हुए लगभग एक माह के समय में एक से दूसरी राशि में चले जाते हैं, चन्द्रमा लगभग 27 दिनों में पूरे राशिचक्र का परिभ्रमण कर लेता है और नक्षत्रों में उसके अपने चलने में व्यतीत किए गए समय के अनुसार चान्द्र मास की तीस तिथियाँ, सौर मास की तुलना में वृद्धि या ह्रास को प्राप्त होती हैं। दूसरी ओर, पृथ्वी की कक्षा से बाहर के ग्रह जैसे मंगल, बृहस्पति और शनि जो पृथ्वी की कक्षा से बाहर रहकर राशिचक्र में भ्रमण करते हैं। स्पष्ट है कि जो ग्रह सूर्य से जितना कम या अधिक दूर होगा उसके द्वारा राशिचक्र में परिभ्रमण करने के लिए लगनेवाला समय उसी अनुपात में कम या अधिक होगा। बृहस्पति लगभग बारह वर्षों में और शनि तीस वर्षों में राशिचक्र का एक पूरा परिभ्रमण करते हैं। और हमारे सौर मण्डल से सर्वाधिक दूर के दो छायाग्रह राहु (तथा केतु) 18 वर्ष के समय में यह पूरा परिभ्रमण करते हैं। और इतना ही नहीं वे सदैव वक्री रहते हैं अर्थात् विलोम गति से चलते हैं जिसे अंग्रेजी में Retrograde  कहते हैं। और इसीलिए इन सभी ग्रहों के प्रभाव भी भिन्न भिन्न और विलक्षण तथा विचित्र होते हैं। वैश्विक प्रभाव एक अलग तरह के, स्थानों की और समुदायों तथा मनुष्य विशेष के अनुसार भी भिन्न भिन्न होते हैं। यहाँ तक कि किसी स्थान विशेष के मौसम के बारे में भी इस अध्ययन का उपयोग हो सकता है।

(Meteorite / Astrological Meteorology)

इसी आधार पर मैंने अपना अध्ययन किया और अनुभव किया कि ज्योतिष शास्त्र घटनाओं का पूर्वानुमान करने और भविष्य का आकलन करने के लिए एक अच्छा और उपयोगी साधन (instrument) अवश्य हो सकता है, किन्तु इसके लिए लगन से उचित और पर्याप्त श्रम किया जाना भी अपेक्षित है। धैर्यपूर्वक श्रम करने पर भविष्य के बारे में अवश्य बहुत कुछ सुनिश्चित कहा और जाना जा सकता है।

***



Someone There!

कोई कोई!

कविता / Poetry 

نظم

--

कोई तिनका, कोई चारा,

कोई मछली, मछुआरा कोई,

कोई नदिया, कोई तट पर,

बैठा हुआ, देखे धारा!

कोई खेता नाव, कोई,

उस पार उतरनेवाला,

कोई अनाड़ी डूब जाता,

मझधार में बहनेवाला!

कोई भँवर, कोई लहर, 

कोई पानी, कोई नहर,

कोई नदिया, कोई तट पर,

बैठा हुआ देखे धारा!

शाम कोई, सुबह कोई, 

धूप कोई,  छाँव कोई, 

खेत या खलिहान कोई, 

बंजर कोई, मैदान कोई, 

कोई बेईमान, ईमान कोई, 

कोई दानिश, नादान कोई! 

कोई सुखी, आराम कोई, 

बेचैन कोई, चैन कोई!

रंग कोई, रिवाज कोई, 

कोई मौन आवाज कोई!

साज कोई अंदाज कोई,

कोई अंधेरा, रौशनी कोई!

इंतिहा कोई, आगाज कोई!

***

آغاز

انتہا,

دانش

نظم

--


May 18, 2025

I just don't know!

कितना सत्य है ज्योतिषीय आकलन!

केवल उत्सुकतावश ज्योतिष-शास्त्र का अध्ययन करने के प्रति कभी मेरी रुचि जागृत हुई थी। यह वह समय था जब मैंने म. प्र. बोर्ड की ग्यारहवीं की परीक्षा दी थी और देवसर से भागकर देवास आ गया था। 1970 के अप्रैल माह का कोई दिन था वह।

नानाजी छोटी पाती के आनंदपुरा मोहल्ले में एक मन्दिर में रहते और वहीं पूजा पाठ और पुरोहिती से आजीविका चलाते थे। नानीजी बहुत पहले, शायद मेरे जन्म से भी पहले गुजर चुकी थीं। नानाजी के छोटे भाई और उनका परिवार भी वहीं रहता था। मंदिर तल-मंजिल पर स्थित था और सामने के बड़े फाटकनुमा द्वार से दाएँ बाएँ एक एक सीढ़ी ऊपरी मंजिल पर जाती थी। उन्हीं गर्मियों में वहाँ दोपहर भर "पृथ्वीधराचार्य" की ज्योतिष पर लिखी एक किताब पढ़ता रहता था। और तब से ही सैद्धान्तिक ज्योतिष के बारे में कुछ जानकारी मिली। वहीं हस्तरेखा पर लिखी एक किताब भी मिली और उसके भी पन्ने यूँ ही पलटता रहता था। कुछ बुनियादी सिद्धान्तों का पता वहीं से चलने लगा। उदाहरण के लिए, हमारी पृथ्वी भी वैसा ही एक ग्रह / आकाशीय पिण्ड है जैसे कि ज्योतिष शास्त्र में सूर्य, चन्द्र, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु (या बृहस्पति), और शनि हैं।

केवल दृश्य ज्योतिष में सापेक्ष दृष्टि से, दृष्टा नित्य चेतन और सभी दृश्य पदार्थ या पिण्ड जड कहे जाते हैं। जिस चेतना में चेतन और जड साथ-साथ व्यक्त और अव्यक्त होते हैं वह आधारभूत चेतना उन दोनों से विलक्षण है,  जिसे उसके अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं जान सकता है। क्योंकि वही एकमेव अद्वितीय सत्य है।

दृश्य ज्योतिष में यही सूर्य है और सभी अन्य छोटे-बड़े पिण्ड इसके ही अंश हैं।

वाल्मीकि रामायण में रघुकल में उत्पन्न हुए राजा त्रिशंकु की कथा है जो सशरीर स्वर्ग अर्थात् देवताओं के लोक में जाना चाहते थे। उनके गुरु और पुरोहित ऋषि विश्वामित्र ने उनकी इस इच्छा को वैदिक ज्ञान और यज्ञ के माध्यम से पूर्ण करने की चेष्टा की। इस प्रकार जब वे सशरीर ही स्वर्गारोहण कर रहे थे तो इन्द्र कुपित हो उठे क्योंकि यह विधि के विधान का उल्लंघन था। किन्तु उन देवताओं का यह सामर्थ्य नहीं था कि ऋषि विश्वामित्र के तपोबल और ज्ञान का सामना कर सकें और राजा त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग में प्रवेश करने से रोक सकें। तब वे ऋषि नारद के पास इस समस्या के समाधान के लिए पहुँचे। नारद ऋषि ने उन्हें इसका एक उपाय बतलाते हुए कहा कि देवलोक जिस तल पर स्थित है उससे तिर्यक् और कोणीय अन्तर पर राजा त्रिशंकु को अन्तरिक्ष में अधर में स्थान प्रदान किया जा सकता है। और तब से राजा त्रिशंकु अन्तरिक्ष में उस स्थिति में दिखाई देते हैं।

ध्रुव और सप्तर्षि की कथा भी हम जानते ही है। हमारे सामूहिक पापों के फलस्वरूप इस नाम का एक और भी ध्रुव (राठी) आजकल वायरल है यह भी हमें अच्छी तरह से पता है। यहाँ उसकी चर्चा करना समय का अव्यय ही होगा इसलिए वह फिर कभी। 

वाल्मीकि रामायण की इस कथा में यह तो स्पष्ट ही है कि पृथ्वी सहित सभी ग्रह एक ही तल (plane) में स्थित हैं - दूसरे शब्दों में -

पृथ्वी और पृथ्वी लोक एक समतल है। और यह भी,  कि अन्तरिक्ष की बड़ी बड़ी दूरियों की तुलना में इस समतल की मोटाई नगण्यप्राय है। और दुनिया गोल नहीं बल्कि चपटी है।

यहाँ इस विवाद के बारे में कुछ नहीं कहा जा रहा, यह बस याद आ गया।

इन ग्रहों का अन्तरिक्ष में विचरण जैसा पृथ्वी पर स्थित किसी दर्शक को दिखाई देता है उसमें उसे यही लगता है कि सूर्य प्रतिदिन सुबह उदित होता है और रात्रि होते ही अस्त हो जाता है। इसे दूसरे ढंग से यूँ भी कह सकते हैं कि जिस समय सूर्य उदित होता है उसे सुबह कहते हैं ओर जिस समय सूर्य अस्त होता है, उसे संध्या या शाम कहा जाता है -

यस्मिन् शम्यते / शाम्यते सूर्यो स शामः इत्यभिधीयते।।

इस प्रकार "काल" या समय की उत्पत्ति या उत्पत्ति होने की प्रतीति कल्पना है न कि कोई वास्तविकता है।

यस्मात् भूयते कालो न कस्मात् अकस्मात् वा।

स अक्षरो अव्ययोऽपि नित्यो यत्र चानुभूयते।।

शिव अथर्वशीर्ष में इसे इन शब्दों में कहा जाता है -

अक्षरात्सञ्जायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते।

इसलिए आभासी रूप से काल और स्थान दोनों ही सूर्य पर आश्रित जगत् है।

एक ही समतल में स्थित जो सात ग्रह सूर्य के चतुर्दिक् उसकी परिक्रमा करते दिखाई देते हैं, उनमें चन्द्र भी एक है जो राशिचक्र (Zodiac) में एक से दूसरी अगली राशि में प्रविष्ट होकर पूरे राशिचक्र में एक वृत्त में भ्रमण करता है। इन राशियों को बारह रूपों में चित्रित किया जाता है,  जिन्हें मेष, वृषभ आदि नाम दिए गए हैं। प्रत्येक राशि में सवा-दो नक्षत्र (constellations) होते हैं और प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं। इस प्रकार से कुल सत्ताईस नक्षत्रों के बारह राशियों में एक सौ आठ बिन्दु होते हैं। और सभी नौ ग्रह मूलतः तो इस प्रकार पूरे राशिचक्र में भ्रमण करते हुए एक सौ आठ पड़ावों पर अनवरत चलते रहते हैं। अब आप इस रहस्य से अवगत हो गए होंगे कि  जप-माला में एक सौ आठ मनके क्यों होते हैं।

अब सवाल यह रह जाता है कि यदि सूर्य और चन्द्र को भी ग्रह मान लिया जाए तो ऐसे दृश्य ग्रह तो सात ही हैं। संपूर्ण राशिचक्र जिस गोलाकार (sphere) पर चित्रित है, आभासी पृष्ठभूमि के रूप में चित्रित उस गोलाकार (sphere) पर ही स्वयं पूरा देवलोक या नक्षत्रलोक ही किसी अक्ष पर घूम रहा है। यह भौतिक अक्ष है। इसकी तुलना में दो आकाशीय बिन्दु ऐसे भी हैं जो एक अक्ष पर अनंत दूरी पर स्थित हैं। ओर इन्हें क्रमशः राहु और केतु की नाम दिया गया है। एक सूर्य तो प्रकाशमंडित हमारा सूर्य या भानु है जबकि दूसरा एक और सूर्य है जिसे स्वरों से मंडित स्वरभानु कहा जाता है। स्वरभानु ही वह असुर है जो समुद्र मंथन के समय छिपकर देवताओं की पंक्ति में बैठ गया था और सूर्य और चन्द्र ने मोहिनी का ध्यान जिसकी ओर आकर्षित किया था।

इसलिए यद्यपि मोहिनीरूप में विद्यमान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया था, किन्तु इससे पहले ही वह अमृत चख कर अमर हो चुका था। और अब भी वह ज्योतिषीय गणना के अनुसार सुनिश्चित समय पर सूर्य और चन्द्र को अपना ग्रास बनाने की असफल चेष्टा किया करता है। यह सब वैज्ञानिक तथ्य हैं।

1970 से मेरे ज्योतिष-शास्त्र के अपने अध्ययन में इसी निष्कर्ष पर मैं पहुँचा कि यह सब पूर्णतः विश्वसनीय और व्यावहारिक, वैज्ञानिक सत्य भी है।

इसे ही मैंने इस रूप में पुनः संसार की विविध घटनाओं से समायोजित (relate) करने पर पाया कि इस ज्ञान के आधार पर पूरे संसार के भावी का आकलन भी किया जा सकता है। इसे मेदिनी ज्योतिष भी कहते हैं जिसके आधार पर आजकल तमाम विद्वान संभावित भविष्य का पूर्वानुमान लगाते हैं।

उदाहरण के लिए राहु लगभग अठारह सौर वर्षों में सूर्य (या राशिचक्र) की एक परिक्रमा करता है। राहु की ऐसी तीन परिक्रमाओं में चौवन वर्ष व्यतीत होते हैं।

वर्ष 1971 के  चौवन वर्षों के बाद पुनः भारत पाक युद्ध हुआ और वही परिणाम होता हुआ दिखलाई दे रहा है जो कि उस समय हुआ था। अर्थात् पाकिस्तान के टुकड़े होना। इसी प्रकार शनि तथा गुरु के राशिचक्र में भ्रमण का समय क्रमशः तीस और बारह सौर वर्ष का होता है। ये सभी ग्रह पृथ्वी की कक्षा से बाहर भ्रमण करते हैं और इसी प्रकार मंगल भी है,  जबकि बुध और शुक्र पृथ्वी की कक्षा से भीतर भ्रमण करते हैं। और इनके साथ चन्द्र को भी रखा जा सकता है। इस पूरे घटनाक्रम की इस आधार पर कोई सुनिश्चित विवेचना की जा सकती है और भारत के इतिहास नामक रामायण और महाभारत जैसे प्रमुख ग्रन्थों में वर्णित उल्लेखों के परिप्रेक्ष्य में हमारे व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन का, राष्ट्रों और मानव सभ्यता के भविष्य का भी पूर्वानुमान किया जा सकता है।

***




 




May 15, 2025

Though and However!

Forever! 

हर वक़्त की जरूरत!

--

आजकल मौसम है बहुत खुशनुमा,

हालातो-मजहब नहीं, यूँ खूबसूरत!

हो सके अगर तो कोशिश कर देखिए!

सिर्फ बस खुद तक ही रहें महदूद, 

हाँ बहुत बड़ा देश है और दुनिया भी, 

जितना भी सोचो, उतना ही कम है, 

हर घड़ी बहुत सी नई नई फिक्रें हैं,

हर घड़ी नए रंजो-ग़मो-मातम हैं,

फिर भी कुदरत के नायाब तोहफ़े भी हैं,

क्या वो दिल के सुकूँ के लिए कम हैं!

आजकल मौसम है खुशनुमा लेकिन,

हालातो मंजर नहीं हैं यूँ खूबसूरत!

मजहबे हिज्ब है वह मजहबे मंजर 

कि जैसे कलेजे में घुसा हुआ खंजर,

हो सके अगर तो कोशिश कर देखिए 

कलेजे से ये खंजर निकाल फेंकिए!

आजकल मौसम है बदनुमा लेकिन,

हालातो-मंजर हैं बहुत बदसूरत!

हो सके तो खुद को बदल कर देखिए! 

***





May 10, 2025

बस दो पंक्तियाँ

कौन किसके हाथों में खेल रहा है, और कौन इसके नतीजे झेल रहा है, वे अलग अलग हैं भी या नहीं! 

***

 

Where-from Comes The Thought?

"विचार" कहाँ से आता है?

सूर सूर तुलसी ससी उडुगन केसवदास।

अब के कवि खद्योत सम जहँ तहँ करैं प्रकास।।

हिन्दी कविता की परम्परा में यह उक्ति प्रसिद्ध है। सरल सा अर्थ यह कि सूरदास जी हिन्दी कविता के आकाश में सूर्य की तरह हैं, गोस्वामी तुलसीदास चन्द्रमा की तरह हैं, और शेष दूसरे सभी अब तक के कवि मानों आकाश में चमकते नक्षत्र और तारे आदि हैं, जबकि आज के समय के कवि जुगनुओं की तरह कविता की ज्योति यहाँ वहाँ फैलाते रहते हैं।

अध्यात्म के क्षेत्र में भी शायद यही कहा जा सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता मानों सूर्य है, रामायण, श्रीमद्भभागवत्  मानों चन्द्रमा हैं और दूसरे ग्रन्थ मानों विविध नक्षत्र और तारे हैं, जबकि आज के समय के आध्यात्मिक विद्वान मानों जुगनूओं की तरह यहाँ वहाँ, सर्वत्र आध्यात्मिक प्रकाश फैलाते हैं।

ऐसे ही एक आधुनिक आध्यात्मिक मार्गदर्शक विचारक का उल्लेख करते हुए उस व्यक्ति ने यह जिज्ञासा मुझसे की और यह भी कहा कि उस आधुनिक आध्यात्मिक मार्गदर्शक विचारक ने इस बारे में क्या कहा।

समस्त आध्यात्मिक ज्ञान मूलतः इन रूपों में हो सकता है -

1 परंपरा से प्राप्त किया गया मान्यता रूपी कामचलाऊ ज्ञान जो सामाजिक आचरण और व्यवहार की मर्यादा के रूप में होता है और अलग अलग स्थानों, रीति रिवाजों, संस्कृतियों के अनुसार तय किया जाता है। 

2 बौद्धिक और वैचारिक ज्ञान जो किसी न किसी प्रकार का कोई दार्शनिक सिद्धांत होता है और ऊहापोहपरक होता है, जिसमें एक विचार को छोड़कर दूसरे विचार को महत्व दिया जाता है। इस ऊहापोहपरक और अंतहीन क्रम को "चिन्तन-मनन" कहा जाता है। किन्तु फिर भी कभी कभी किसी अज्ञात कारण से जब यह "चिन्तन-मनन" सही दिशा में प्रवृत्त हो जाता है तो ध्यान इस प्रश्न और जिज्ञासा पर आ सकता है कि "नित्य" क्या है, और "अनित्य" क्या है? दूसरे शब्दों में तब जो अन्वेषण किया जाता है वह अस्तित्व के आभासी / परिवर्तनशील और उसके अपरिवर्तनशील आधारभूत स्वरूप के संबंध में होने लगता है। 

चित्त, मन, संसार, और चेतना

Intellect, Mind, World and

The Consciousness

चित्त विचार है, विचार की बुद्धि से प्रेरित गतिविधि मन है और संसार, इस गतिविधि में अनुभव होनेवाली वस्तु है।

इस पूरे घटनाक्रम की आधारभूत अचल अपरिवर्तनशील पृष्ठभूमि है चेतना।

(यहाँ पर -चित्त, मन, संसार और चेतना इन चारों शब्दों का तात्पर्य उनके लिए प्रयुक्त और ऊपर दिए गए अंग्रेजी शब्दों के पर्याय की तरह है।)

3 जिस आध्यात्मिक ज्ञान में "नित्य" और "अनित्य" के स्वरूप के बारे में अन्वेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि चेतना सबमें विद्यमान और उन सबसे विलक्षण, अछूती, और सबसे अप्रभावित रहनेवाली वास्तविकता है, और चित्त, मन और संसार आभास की तरह प्रतीत भर होते हैं और इसलिए समस्त आभासी अस्तित्व का निरसन कर दिया जाता है तो यह वृत्तिमात्र के "निरोध" की दशा होती है, जिसका उल्लेख पातञ्जल योगसूत्र के समाधिपाद में दूसरे सूत्र 

"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।"

में पाया जाता है।

जब यह अन्वेषण एकाग्रतापूर्वक किया जाता है तो इसे ही "निदिध्यासन" कहा जाता है।

यदि "नित्य" क्या है और "अनित्य" क्या है इस बारे में पर्याप्त अन्वेषण किया जाता है तो स्पष्ट हो जाता है कि समस्त आभासी / परिवर्तनशील और आधारभूत तथा अपरिवर्तनशील वास्तविकता का बोध "जिसे" होता है, वही सत्ता शुद्ध चिन्मात्र चेतना है जिसमें विषयमात्र का निरसन हो जाता है और इसलिए विषयमात्र के ही साथ उसके पूरक विषयी का भी विलय हो जाता है।

अनुभव और अनुभवकर्ता युगपत्, साथ साथ ही प्रकट और विलीन होते हैं। किन्तु स्मृति के द्वारा आरोपित किए जानेवाले सातत्य के फलस्वरूप ही, और उसी एकमात्र कारण से "अनुभव" के "अनित्य" किन्तु "अनुभवकर्ता" के "नित्य" होने का भ्रम पैदा होता है।

और इसीलिए समस्त अनुभवपरक ज्ञान भी एक तरह का "आध्यात्मिक" ज्ञान हो सकता है, जिसमें "अनुभव" के क्रम पर आधारित "अनुभवकर्ता" के रूप में भूल से, अपने आपको "नित्य" मान लिया जाता है।

इसी पृष्ठभूमि में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ४ के प्रथम कुछ श्लोक उल्लेखनीय हैं

श्रीभगवानुवाच 

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। 

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एव अयं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। 

भक्तोऽसि सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।३।।

अर्जुन उवाच -

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।

श्रीभगवानुवाच -

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। 

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।६।।

4 आधारभूत अधिष्ठान के रूप में यह अपरिवर्तनशील आत्मा ही यह शुद्ध चेतना है। और यद्यपि "व्यक्ति" के अनेक जन्म होते हैं और साक्षीमात्र की तरह से आत्मा के भी ऐसे ही असंख्य जन्म होते हैं ऐसा कह सकते हैं, किन्तु इन सभी जन्मों को साक्षी ही जानता है न कि "व्यक्ति"।

इस प्रकार का ज्ञान भी आध्यात्मिक ज्ञान ही है और सर्वाधिक प्रामाणिक और विश्वसनीय भी है।

किन्तु अब हम अपने उस प्रारंभिक प्रश्न पर लौटें -

"विचार कहाँ से आता है?"

श्रीमद्भगवद्गीता में इस जिज्ञासा का समाधान निम्न रूप में प्राप्त होता है -

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। 

सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोपजायते।। 

क्रोधात्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

पुरुष ही "व्यक्ति" है जिसके अनेक जन्म होते हैं जिनमें व्यतीत समय में वह असंख्य अनुभवों का भोग करता है। इस प्रकार से एक काल्पनिक "अनुभवकर्ता" क्षण क्षण ही अस्तित्व में आता और विलीन होता रहता है और उसे ही चित्त में अपनी आत्मा की पहचान की तरह सत्य मान लिया जाता है।  

उस पुरुष में विद्यमान चेतना / प्रकृति ही वह मूल प्रकृति / स्वभाव है, जिसमें पुरुष का ध्यान किसी विषय की ओर आकर्षित होता है और वह उस विषय से लिप्त हो जाता है। इसे ही पुरुष और प्रकृति का संयोग कहते हैं। किन्तु उत्तम पुरुष कभी इस प्रकार से किसी विषय से संलिप्त नहीं होता और प्रकृति ही उसके सान्निध्य से गुणों और कर्मों से सब प्रकार से कार्यरत प्रतीत होती है।

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। 

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।

इस प्रकार

"विचार कहीं से न तो आता है और न ही कहीं जाता है, किसी भी विषय से चित्त (पुरुष) का संसर्ग होते ही और पुरुष के द्वारा उस पर ध्यान दिए जाने पर ही वह व्यक्त रूप में अनुभव होता है।"

अपेक्षा है कि कुछ श्लोकों के अध्याय और स्थान पाठक स्वयं ही खोज लेंगे। 

 ***

 


May 09, 2025

Jungle-house Scrolls.

অরণ্যের দিবস রাত্রি 

इससे पहले इस ब्लॉग में मैंने सिर्फ एक ही  বাংলা  पोस्ट लिखा था।

यह हिन्दी पोस्ट भी केवल इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि "जंगल-हाउस" से मुझे  বাংলা के विश्व-प्रसिद्ध लेखक, फिल्म निर्माता, निर्देशक सत्यजित रे की फिल्म :

 অরণ্যের দিবস রাত্রি

की याद आई।

सत्यजित रे

की इस नाम की फिल्म देखने का सौभाग्य तो मुझे नहीं मिला किन्तु ऊपर दी गई लिंक पर मुझे इस बारे में

विख्यात अभिनेत्री सिमि ग्रेवाल

और सत्यजित रे की इस फिल्म के निर्माण के समय के बारे में रोचक जानकारी मिली।

मैं दोनों का ही प्रशंसक हूँ। 

बहुत पहले मैंने उनकी एक पुस्तक :

"फेलू दा और अन्य कहानियाँ"

भी पढ़ी थी।

इसी तरह  বাংলা  भाषा के अनेक लेखक जैसे कि :

बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, शरत्-चन्द्र चट्टोपाध्याय, विमल मित्र, समरेश बसु, सुनील गंगोपाध्याय (प्रेम नहीं स्नेह) आदि भी मेरे प्रिय लेखक रहे हैं।

निश्चित ही   বাংলা  भाषा, संगीत और फिल्मों में भी कला, साहित्य, गल्प और नाटक के अनेक तत्व हैं जो जीवन और विशेष रूप से सामाजिक जीवन के अनेक रंगों को कुशलता से चित्रित करते हैं। और भावनाओं की जो गहराई उनमें है वह भी उतनी ही आवेगपूर्ण है, किन्तु यह सब किसी मर्यादा में बद्ध होता है।

इस पोस्ट को लिखने से जरा पहले तक भी मुझे खयाल नहीं था कि एक बार फिर मेरा ध्यान বাংলা संस्कृति की ओर आकर्षित होगा।

भद्रलोक से पुनः जुड़ना चाहूँगा!

*** 


May 08, 2025

Death and Dare!

मृत्यु-बोध और मृत्यु-भय

--

क वि ता 

कुछ लोग डर रहे हैं, 

कुछ लोग मर रहें हैं।

जो मरने से डर रहे हैं, 

वो डरने से मर रहे हैं!

जिन्हें मृत्यु-बोध नहीं, 

उन्हें मृत्यु-भय है, 

जिन्हें डर लगता है,

उन्हें मृत्यु-बोध नही!

और यह भी हैरत,

हर कोई नादान है, 

कोई भी अबोध नहीं! 

***

May 06, 2025

History Repeated?!

केवटग्राम : 2016

--

क्या जीवन की घटनाएँ किसी तय चक्र में अपने आपको पुनः पुनः दुहराती हैं! शायद किसी हद तक व्यक्ति विशेष के संदर्भ में ऐसा होता होगा!

17 मार्च 2016 जब मैं  L/161, महाशक्तिनगर में रहा करता था। आज भी मेरे पुराने पोस्ट्स में वह पता देखा जा सकता है। वहीं 2009 में इस ब्लॉग से ब्लॉग लिखना शुरू किया था।

तय हुआ कि अब यह स्थान छोड़ना है। अपने एक मित्र से निवेदन किया कि मैं नर्मदा तट पर जाकर कहीं रहने का इच्छुक हूँ। और 19 मार्च 2016 के दिन उपरोक्त पते पर उन्होंने एक 407 वाहन भेज दिया। जगह थी उसमें कि मेरा लगभग पूरा सामान उस पर चढ़ा दिया गया। और उसी रात्रि लगभग साढे़ नौ बजे मैं केवटग्राम स्थित अपने नए आवास पर पहुँचा। इन्दौर से खंडवा मार्ग पर स्थित उस स्थान पर, जहाँ मैं 5 अगस्त 2016 तक रहा। 5 अगस्त 2016 की शाम मैं देवास पहुँचा। पूरे तीन वर्ष और 3 माह तक मैं वहीं रहा।

2019 के अंत से 2023 के आरंभ तक कहीं और! 

फिर कुछ समय बाद नर्मदा तट पर रहने की तीव्र इच्छा हुई तो यहाँ 5 अगस्त 2024 की सुबह पहुँचा। और याद आया यहाँ सब वैसा ही है जैसा केवटग्राम में था!

क्या यह संयोग है या जीवन स्वयं ही अपने आपको इस तरह समय समय पर दुहराता है और हमारा ध्यान शायद ही कभी इस सच्चाई पर जाता है! 

विशेष यह कि जैसी स्थितियाँ और वातावरण केवटग्राम में और आसपास था, बिल्कुल वैसी ही स्थितियाँ और वातावरण आजकल यहाँ इस जंगल हाउस में अनुभव हो रहा है। नर्मदा नदी के तट से एक दो मिनट की दूरी पर स्थित यह आवास, आसपास की शान्ति, निःस्तब्धता। सब कुछ वैसा ही। कोई सुनिश्चित दिनचर्या नहीं। जब जो मन हो कर सकते हैं। जब चाहो आराम करो, जब चाहे उठो या सो जाओ, नहाओ या मत नहाओ। किसी से शायद ही कभी मिलना होता है। नदी की ओर जानेवाले मार्ग पर स्थित दुकानों से सभी आवश्यक वस्तुएँ मिल जाती हैं। सुबह चार बजे नींद खुल जाती है। आज भी रोज की तरह जल्दी उठ गया।

मोबाइल पर यू-ट्यूब पर भारत और पाकिस्तान के बीच होनेवाले संभावित युद्ध के बारे में लोगों के अनुमान और भयों के बारे में सुनता रहा। 

***



May 04, 2025

Jay Jagannatha!

ममता बनर्जी

--

प्रथमदृष्ट्या मन में यही विचार आया कि -

भगवान् श्री हरि की असीम और अहैतुकी कृपा सुश्री ममता बनर्जी पर हुई है इसलिए उनके मन में जीवन के इस विकट समय में यह शुभ संकल्प जागृत हुआ। 

यह वीडियो देखते हुए -


श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक याद आया -

अपि चेत् सुदुराचारो भजतो मामनन्यभाक्।

साधुरेव स मन्तव्यो सम्यग्व्यवसितो हि सः।।

बस यही प्रार्थना है कि -

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। 

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्।।

जय जगन्नाथ!! 

।। ॐ हरि ॐ तत् सत्।। 

***