November 27, 2025

FROM GOD UNTO GOD.

"क्या ईश्वर है?"

से

"ईश्वर क्या है?"

तक।

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प्रयत्न, अभ्यास, संकल्प, निश्चय, प्रारब्ध और समय

चिन्तन का रथ भाषा की भूमि पर, भाषा की सीमा के भीतर ही, विचार के भिन्न भिन्न मार्गों पर विचरण किया करता है। इस रथ को चलानेवाला सारथी विचार ही है, और यही विचारकर्ता भी है। तात्पर्य यह कि इस रथ को चलानेवाला सारथी स्वयं ही रथ के मार्ग का निर्माण भी करता है और अज्ञात से अज्ञात के क्षेत्र में विचरण करता हुआ अनुभव करता है कि वह विचार कर रहा है।

भाषा की भूमि पर हो रही विचार की गतिविधि में अभी हो रहा यह

असाधारण उत्परिवर्तन

 (extra-ordinary mutation)

समय की अवधारणा को जन्म देता है और अतीत तथा भविष्य के अस्तित्व को भी अभी ही सत्यता भी प्रदान कर देता है, जबकि अभी की इस नित्य सनातन शाश्वत और चिरन्तन भूमि पर न तो किसी अतीत का ओर न ही किसी भविष्य का अस्तित्व हो सकता है।

विचार की यह प्रमादयुक्त गतिविधि ही अनुभव नामक  आभास को जन्म देती है। अतीत और भविष्य की ही तरह अनुभव भी केवल चेतना में होनेवाली एक प्रतीति (perception) भर होता है न कि कोई अस्तित्वमान वस्तु। चेतना की पृष्ठभूमि में अनुभव का आभास और इस आभास की परिवर्तनशीलता और इसकी पृष्ठभूमि की नित्य सनातन शाश्वत चिरन्तनता भी स्वयंसिद्ध ही है। यही वह माया है जो कि विचार और उससे पृथक् और भिन्न एक स्वतंत्र विचारकर्ता के होने का भ्रम उत्पन्न कर देता है। यही आभास उस नित्य, सनातन, शाश्वत और चिरन्तन अद्वैत अस्तित्व पर द्वैत की सत्यता आरोपित करता है। विचार और विचारकर्ता के बीच पैदा हुए इस काल्पनिक द्वैत के सन्दर्भ में विचारकर्ता के लिए

प्रयत्न, अभ्यास, संकल्प, निश्चय प्रारब्ध और समय

नामक इन अपेक्षतया नई कल्पनाओं के उत्पन्न होने पर उस माध्यम से उसमें उसके अपने आदिरहित और साथ ही अपना स्वयं के अन्तरहित, अपने-आप से भिन्न और स्वतंत्र एक अस्तित्व होने की मान्यता भी जन्म लेती है,  जिसमें अन्तर्निहित विरोधाभास पर उसका ध्यान नहीं जाता, और इसलिए वह इस संपूर्ण अस्तित्व के किसी ऐसे स्वामी के अस्तित्व की कल्पना कर लेता है जिसे वह ईश्वर कहता है या कोई और नाम देता है।

फिर चूँकि वह ईश्वर उसके लिए सर्वथा एक अनिश्चित और नितान्त ही अज्ञात वस्तु होता है, इसलिए विचार के क्षेत्र में ही

"क्या ईश्वर है? "

यह प्रश्न उत्पन्न होता है और तब विचार के उसी सीमित परिप्रेक्ष्य में उसका ध्यान -

"ईश्वर क्या है?

"वह वस्तु क्या है",

जिसे कि ईश्वर का नाम दिया जा रहा है। 

इस मौलिक प्रश्न पर नहीं जा पाता।

सारा ध्यान और विवाद

"क्या ईश्वर है?

"क्या ईश्वर नामक कोई वस्तु कहीं और कुछ नहीं है?" 

इस प्रश्न पर केन्द्रित हो जाता है।

तब सारी शक्ति और बल और आग्रह इनमें से किसी एक पर स्थिर हो जाता है और ईश्वर का अस्तित्व माननेवाले और न माननेवाले दो विपरीत मतों तक ही सिमटकर रह जाता है।

ईश्वर के अस्तित्व को माननेवाले को आस्तिक तथा न माननेवाले को नास्तिक कहा जाता है। जबकि "ईश्वर है या नहीं, उसे ज्ञात नहीं है", जो ऐसा कहता है कि उसे अज्ञेयवादी कहा जाता है। मजेदार बात यह है कि ये सभी :

" क्या ईश्वर है? क्या ईश्वर नहीं है"

इसी प्रश्न के परिप्रेक्ष्य में वैचारिक ऊहापोह करते हैं और शायद ही कभी इस प्रश्न पर आते हैं कि :

"ईश्वर क्या है?"

***

जब मुझे एक  assignment 

इस बारे में श्री जे कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं के अंतर्गत :

"ईश्वर क्या है?"

शीर्षक से प्रकाशित होनेवाली मूलतः अंग्रजी भाषा में प्रस्तुत सामग्री का हिन्दी अनुवाद करने के कार्य के रूप में दिया गया था।

बाद में यही पुस्तक इसी शीर्षक से राजपाल ऐन्ड सन्स से प्रकाशित हुई।

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November 20, 2025

SIX DIMENSIONS

त्वं स्कन्दः!

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ॐ गं गणपतये नमः।।

एकदा नैमिष्यारण्ये ...

2 x 2 x 2 x 10 x 10 x 10 x 10 = 88000 

ऋषयः ... 

त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वमिन्द्रस्त्वमग्निस्त्वं वायुस्त्वं रुद्रो त्वं स्कन्दस्त्वं यमस्त्वं वरुणः!

सपने, स्मृति, संसार, समय, संबंध और जन्म-मृत्यु 

निमिषमात्र में घटित और अघटित होते हैं।

यही हैं षडानन भगवान् स्कन्द के छः मुख, और

स्कन्दावतार !

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November 18, 2025

Tradition and Religion.

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे

सनातन धर्म के सर्वाधिक सुप्रसिद्ध और प्रचलित ग्रंथ का आरंभ राजा धृतराष्ट्र द्वारा सञ्जय से पूछे गए गीता के प्रथम अध्याय के इस प्रश्न से होता है -

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता ययुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।१।।

धर्म शब्द की उत्पत्ति धार्यते / धारयति  के अर्थ में प्रयुक्त  होनेवाली "धृ" धातु से होती है, जबकि कर्म शब्द की उत्पत्ति करोति / कुरुते के अर्थ में प्रयुक्त होनेवाली "कृ" धातु से होती है। धर्म आत्मा अर्थात् (व्यक्त या अव्यक्त) अस्तित्व का स्वभाव है जबकि कर्म (व्यक्त या अव्यक्त)  प्रकृति का स्वभाव है।

गीता के अध्याय ३ के श्लोक २७ के अनुसार -

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।२७।।

"कृ" और "धृ" दोनों उभयपदी धातुएँ हैं अर्थात् इनका प्रयोग अपने-आप से या अपने लिए होनेवाले स्वाभाविक कार्य को व्यक्त करने के लिए होता है - जिसे 'किया' नहीं जाता! न तो आत्मा और न ही प्रकृति कुछ करती या कर सकती है।

अध्याय ४ के इस श्लोक १३ से, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण के इन शब्दों से यही स्पष्ट होता है -

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

तस्य कर्तारमपि मां विद्धि अकर्तारमव्ययम्।।१३।।

यदि आत्मा को जीवात्मा (मध्यम या अन्य पुरुष) तथा परमात्मा (उत्तम पुरुष) को एक दूसरे से भिन्न इन दो रूपों में स्वीकार किया जाए तो भी दोनों ही अकर्ता हैं अर्थात् कर्म करने में उनकी कोई भूमिका नहीं है। समस्त कर्म प्रकृति के गुणों की ही पारस्परिक क्रिया प्रतिक्रिया का व्यक्त या अव्यक्त प्रकार हैं, जो कि पुनः उनके बारे में सोचने पर ही अस्तित्वमान प्रतीत होते हैं। और इसीलिए अपने आप पर या किसी और पर उनके घटित होने और कर्ता होना आरोपित कर भूल या प्रमाद से इस मान्यता को स्वीकार कर लिया जाता है। 

इसी तरह मनुते / मनोति / मन्यते अर्थात् मानने के अर्थ में 'मन्' धातु को भी 'मन' (संज्ञा) और 'सोचने' दोनों ही अर्थ में प्रयोग किया जाता है,  जबकि 'मन' सोचता नहीं, बल्कि 'सोचना' 'सोचने का कर्म' ही 'मन' है।

अध्याय ३ से उद्धृत उपरोक्त श्लोक २७ में 'मन्यते' पद का अभिप्राय यही है - मानता है / माना जाता है। अर्थात् प्रमादवश, अहंकारविमूढात्मा मानता है / माना जाता है। इसलिए 'सोचना' ऐसा कल्पित कर्म है जो कि प्रकृति के गुणों की पारस्परिक क्रिया प्रतिक्रिया है। यही पातञ्जल योग सूत्र में वर्णित पाँच क्लेश  -

अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः।।३।।

(साधनपाद)

अंतिम अध्याय कैवल्यपाद के अंतिम सूत्र -

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा चितिशक्तेरिति।।३४।।

से स्पष्ट होता है कि प्रकृति के इन गुणों और उनकी एक दूसरे से होनेवाली क्रिया-प्रतिक्रिया का विलय हो जाना ही समस्त क्लेशो का निवारण है और इसे ही

कैवल्यम्

की संज्ञा प्रदान की गई है।

निष्कर्ष यह :

धर्म स्वभाव है,

कर्म, कृति या कृत्य Tradition / Religion है।

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चलते चलते -

"कृ" धातु से ही "कृमि" शब्द की उत्पत्ति हुई है, जिसे कीट के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। अंग्रेजी भाषा का  worm / vermicelli / vermilion / crime इसी कृमि शब्द के सजात, सज्ञात / cognate  हैं।

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November 14, 2025

P A R O D Y .

परो धीः

ध्यान से देखने पर अंग्रेजी के कुछ शब्द जैसे :

parody, prosody, comedy, tragedy, malady,

में वे मूल संस्कृत शब्द प्रतिध्वनित होते हैं जिनका उच्चारण और अर्थ उनकी उससे मिलता जुलता है

परोधी  -Parody - परो धीः (या परा धी)

प्रसादी(य) -Prosody 

कौमुदी -Comedy

त्रासदी -Tragedy

मलादीय -Malady

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November 08, 2025

The Last Barrier.

Three Spiritual Giants.

तीन दिव्य महामानव

श्री रमण महर्षि, श्री रामकृष्ण परमहंस और,

श्री श्री माता आनन्दमयी.

एक जिज्ञासु ने श्री निसर्गदत्त महाराज के इस बारे में प्रश्न किया : साधना-काल में कुछ ऐसी अनुभूतियाँ भी आती हैं जब हमें ईश्वर का दर्शन / साक्षात्कार हो रहा होता है।

श्री निसर्गदत्त महाराज ने उत्तर देते हुए कहा -

In such cases,

It's not that you experience the God, 

It's rather a state when / where -

The God is experiencing you!

मुझे नहीं पता कि अगर मेरा कोई व्यक्तिगत जीवन है तो उसे कौन किस भविष्य की दिशा में ले जा रहा है! शायद ही किसी को पता होता है। मनुष्य अपने भविष्य के बारे में कितनी ही योजनाएँ बना ले, बहुत बाद में अवश्य ही पता चल जाता है कि अगर कोई विधाता कहीं है तो वह कुछ और तय कर रहा होता है। यह सब किसी अदृश्य विधान से, सर्वथा अकल्पित और अत्यन्त अप्रत्याशित ही होता है। शायद यह एक ही नहीं बल्कि अनेक जन्म जन्मान्तरों से सतत और अनायास होता चला जाता है, और हम चाहते या न चाहते हुए भी उस दिशा में आगे बढ़ने लगते हैं। और जब उम्र हो जाती है तब यह देखकर बहुत आश्चर्य होता है कि यह सब कैसे हुआ। हम उस "समय" को भी पल भर में एक दीर्घ अवधि के रूप में कल्पित कर लेते हैं। फिर लगता है -हाँ, इसके साथ कुछ और भी अनेक दुःखद और सुखद बातें हुई। पूरा पैटर्न तो बहुत बाद में डिकोड हो पाता है। वह भी अपनी दृष्टि के अनुसार, न कि औरों की दृष्टि के अनुसार। ठीक ठीक क्या हुआ, जब यह तक कोई भी न तो जान सकता है, न उस सबको किसी क्रम में क्रमबद्ध ही कर सकता है, तो क्यों और कैसे हुआ यह जान पाना असंभव ही है। जिसे हम इतिहास कहते हैं वह ऐसी ही असंख्य स्मृतियों का बस एक आधा-अधूरा लेखा-जोखा ही तो होता है। किन्तु तब इस अद्भुत् क्षण में हम उस तमाम इतिहास में किसी सूत्र की कल्पना कर सब कुछ उस सूत्र में बाँध लेते हैं। इसी सूत्र का वह एक सिरा था जब मैं भगवान की भक्ति करने लगा था। बस जैसे किसी को पतंग उड़ाने का,  शतरंज खेलने का या नदी में तैरने का शौक होता है। बस ऐसा ही कुछ शौक मुझे विज्ञान, गणित, साहित्य और भाषाएँ पढ़ने का भी था। हम किसी भी कार्य को इसलिए नहीं करते कि उसके माध्यम से हमें पैसे मिलें और उससे हम रोजमर्रा की जरूरी चीजें खरीदे, बल्कि इसलिए हम कोई कार्य करते हैं कि उससे हमें तत्काल ही सुख प्राप्त होता  है। यह सुख एक नशे की तरह भी हो सकता है। फिर भूल से हम सोचने लगते हैं कि किस कार्य को करने से मुझे सुख मिलेगा। जब हमें लगता है कि बिना कुछ किए भी हमें कोई सुख मिल सकता है, तो यह नहीं समझ पाते हैं कि वह सुख हमारे लिए अत्यन्त विनाशकारी होगा। इसलिए अल्पबुद्धि मनुष्य किसी भी नशे से, काम-सुख से, या श्रम से प्राप्त होनेवाले किसी आभासी सुख के पीछे भागने लगता है। यहाँ तक कि उसका ध्यान उसके संभावित महाभयंकर विनाशकारी परिणाम की ओर तक नहीं जा पाता। और ऐसा ही तब भी होता है जब कोई भगवान की भक्ति के भावावेश से इतना अभिभूत हो जाता है कि उसे संसार की और स्वयं अपने आपके भी भविष्य की चिन्ता या विचार नहीं रह जाता। यह स्थिति भी अवश्य ही एक प्रकार का उन्माद या पागलपन जैसा कुछ होता है। यह तो नहीं कहा जा सकता है कि इस प्रकार के उन्माद से, मनुष्य के पागल की तरह होने से उसे कुछ अद्भुत् अनुभूतियाँ होने लगती हैं, या फिर ऐसी कुछ अनुभूतियाँ होने के कारण ही वह पागल की तरह व्यवहार करने लगता है। किन्तु अपनी उस ऐसी प्रसुप्त और प्रच्छन्न संभावना का भान होते ही "समय" रूपी कल्पना वैसे ही विलीन हो जाती है जैसे सुबह होते होते अंधेरा दूर हो जाता है, ऐसा हम ही कहते हैं, लेकिन वह न दूर था, न पास न यहाँ से कहीं और दूर कहीं चला जाता है।

"समय" ऐसा ही कल्पित अंधेरा होता है। "समय" गौण है जबकि संवेदन / perception गुण है। संवेदन, मेरा या आपका नहीं, बल्कि अस्तित्व का गुण है, और संवेदन के विषय और विषयी के रूप में विभाजित होते ही "मैं" और "यह" की तरह से प्रतीत होने लगता है। "मैं" को ही "यह" का संवेदन होता है, और, "यह" के रूप में जिसे भी संवेदित किया जाता है, वह आत्यन्तिक रूप से और समग्रतः भी  "मैं" का ही विस्तार होता है जिसमें समस्त ज्ञात, अज्ञात और ज्ञातव्य, श्रोतव्य और श्रुत अन्तर्निहित होता है।

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।५२।।

(गीता अध्याय २)

उस समय, उस क्षण, जब बुद्धि इस मोहकलिल का अतिक्रमण कर जाती है तब यह दशा प्रकट होती है।

इस प्रकार की यह दशा दो स्थितियों में प्रकट हो सकती है। जिनमें एक स्थिति तो ईश्वर-साक्षात्कार और दूसरी स्थिति आत्म-साक्षात्कार की हो सकती है।

"This happens quite imperceptibly with some, They have attained this, though need to be convinced about this... "

(Sri Nisargadatta Maharaj)

वे उस दशा को ईश्वर-साक्षात्कार कह सकते हैं जिसमें उन्हें उस दिव्य ईश्वरीय तत्व का साक्षात्कार हो जाता है जो इन्द्रियों, मन और बुद्धि का विषय नहीं है किन्तु जिसे वे सबमें व्याप्त और जिसमें वे सबकी व्याप्ति पहचान लेते हैं। और शायद वे उसे कोई ऐसा नाम भी दे सकते हैं जिसे उन्होंने कभी अपने आसपास सुना होता है। उस दिव्य-सत्ता से अपने स्वयं की अभिन्नता का भान उनके लिए सहज और स्वाभाविक होता है, न कि अपनी स्मृति की उपज। किन्तु वे औपचारिक रूप से अभी भी उनके उस "मैं" रूपी खोल में बंद होते हैं जिससे वे उस ईश्वर से अटूट बंधन में बंधे होते हैं। और किसी समय इसके बाद यह पृथक् "मैं" नामक प्रतीत हो रही खोल स्वयं ही इस शरीर के साथ या उससे पहले ही टूट और बिखरकर नष्ट या विलीन हो जाना है।

संभवतः इस "मैं" के रहते हुए ही उस ईश्वर-साक्षात्कार से ही कोई कोई परम धन्य और कृतकृत्य हो सकता है, या फिर भी उसमें इस "मैं" की वास्तविकता, और इसके स्वरूप को जानने की रुचि जागृत या शेष रह जाती हो।

एक विशिष्ट उदाहरण भगवान् श्री रामकृष्ण परमहंस का हो सकता है। ईश्वर-साक्षात्कार के रूप में उन्हें पहले ही आत्म-साक्षात्कार हो चुका था किन्तु यह द्वैत के रूप में था जहाँ ईश्वर / माँ काली और उनके अपने बीच में भी द्वैतयुक्त संबंध नामक शीशे की एक दीवार विद्यमान थी। किन्तु गुरु तोतापुरी का आगमन होने के बाद शीशे की यह दीवार भी टूट गई।

ऐसा ही कुछ श्री जे. कृष्णमूर्ति के साथ हुआ था जिनकी स्थिति में उनकी जिज्ञासा अर्थात् आत्मानुसंधान ही उस रूप में उनके समक्ष प्रकट हुआ जिसे उन्होंने -

The Otherness 

का औपचारिक नाम दिया, और जिसका उल्लेख और विवरण उनकी लिखी उनकी आत्मकथा -

JKrishnamurti's Note-book

से प्राप्त होता है।

इस प्रकार से अद्वैत-साक्षात्कार किसे किस तरह, कब, कहाँ और कैसे होता है, कुछ कहना कठिन है। किन्तु यह घटना है चुकी है इस पर संदेह नहीं किया जा सकता है। भगवान् श्री रमण महर्षि की स्थिति में स्पष्ट है कि उन्हें आत्मानुसंधान के माध्यम से अर्थात् "मैं कौन" इस प्रश्न का समाधान खोजने का प्रयास करने पर,

"मृत्यु किसकी होती है?"

इस जिज्ञासा को शांत करने का यत्न करते हुए अनायास और अनपेक्षित रीति से आत्म-साक्षात्कार हुआ, इसके बाद उनके ही शब्दों में -

"मेरी आत्मा किसी आश्रय की खोज में थी!"

भगवान् श्रीरामकृष्ण परमहंस और श्री जे. कृष्णमूर्ति की स्थिति इस दृष्टि से समान थी कि उन्हें -

अद्वैत-साक्षात्कार

होने से पहले तक संभवतः इसकी कल्पना या अनुमान तक नहीं था कि ऐसा भी कुछ हो सकता है।

भगवान् श्री रमण महर्षि और श्रीश्री माता आनन्दमयी की स्थिति में ईश्वर साक्षात्कार और आत्म-साक्षात्कार एक ही अद्वैत वास्तविकता थी, किन्तु व्यावहारिक रूप से वे ईश्वर के अस्तित्व और संसार से उसकी अनन्यता को जानते हुए भी द्वैत के अन्तर्गत उसे संपूर्ण संसार के एकमात्र स्वामी की तरह भी स्वीकार करते थे।

स्पष्ट है कि भगवान् श्री रमण महर्षि, श्री जे. कृष्णमूर्ति, भगवान् श्री रामकृष्ण परमहंस, श्री निसर्गदत्त महाराज की स्थिति में किसी समय उन्हें आत्म-साक्षात्कार हुआ, जिसकी तिथि का उल्लेख भी कहीं न कहीं अवश्य है,  जबकि श्री श्री माता आनन्दमयी के स्थिति में ऐसा कोई उल्लेख या जानकारी शायद ही कहीं प्राप्त है। इसलिए श्री श्री माता आनन्दमयी के अवतार भी माना जाता है, जबकि किसी भी अवतार का आगमन वैदिक, पौराणिक और आध्यात्मिक दृष्टि से किसी प्रयोजन-विशेष को पूर्ण करने के लिए होता है।

ईश्वर-कृपा से या मुझे अज्ञात किन्हीं भी कारणों से मुझे इन्हीं दिव्य विभूतियों की शिक्षाओं के संपर्क में आने का असीम और अप्रतिम सौभाग्य प्राप्त हुआ इसलिए मैं इन सभी के प्रति कृतज्ञ हूँ।

यद्यपि मेरी योग्यता और मेरा अधिकार भी नहीं है, किन्तु यदि किसी प्रकार से इस पोस्ट में मैंने अपनी मर्यादा का उल्लंघन किया हो और अपने अधिकार से बाहर जाकर, इनके बारे में कुछ अनुचित, अवांछित कहा हो तो इनके और परमात्मा के प्रति हृदय से क्षमाप्रार्थी हूँ।

यह पोस्ट केवल व्यक्तिगत स्मृति के उद्देश्य से लिखा है, न कि किसी से इस विषय में चर्चा करने के लिए, इसके पाठक कृपया इस पर ध्यान दें। 

***

 







November 03, 2025

VERY TRUE!

Relationships, Being Related With, Memory and Recognition.

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संबंध, पहचान और स्मृति 

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संसार की किसी भी वस्तु, विचार, घटना, समय, व्यक्ति या विषय से संबंध, उसकी पहचान और स्मृति साथ साथ ही बनते और समाप्त भी हो जाया करते हैं।

यह शरीर भी ऐसी ही एक वस्तु, विचार, घटना, समय,  व्यक्ति या विषय है।

और उनसे प्रभावित होना या न होना, अभिभूत होना या न होना सबकी अपनी अपनी समझ की परिपक्वता पर निर्भर है।

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November 02, 2025

Does God Exist?

कविता

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उम्र तो हो गई है परन्तु चिन्ता नहीं मिटी, 

इस बूढ़े की बुद्धि देखो, आज फिर पिटी!

जो रोग जवानी में थे, वो सब तो मिट गए,

लिप्सा, ईर्ष्या, कामना, आशा नहीं मिटी!

उम्र की लंबी सुदीर्घ अवधि तो कट गई,

मृत्यु के कठोर भय की डोर नहीं कटी!

शास्त्र कठिन सभी तो कण्ठस्थ हो गए।

विवेक वैराग्य नहीं, मोह आसक्ति ना घटी!

भगवान है, कि नहीं, संदेह मिट नहीं सका, 

संसार सत्य है ये बुद्धि, कभी नहीं मिटी!

निर्निमेष शून्य दृष्टि से ताकता है वह, 

अंत अब समीप, शीघ्र आ रही घड़ी!!

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October 31, 2025

The New and The Old.

अनन्तिम प्रश्न  /

The Penultimate Question.

नया और पुराना समय

क्या "समय" नया या पुराना होता है? 

क्या "हम" नये या पुराने होते हैं? 

क्या "समय" के साथ "हम" बदल सकते हैं?

और,

क्या "समय" के न बदलने से "हम" नहीं बदलते?

क्या "समय", "हम" है? 

क्या "हम", "समय" हैं?

फिर "समय" क्या है? 

फिर "हम" क्या हैं?

क्या इस / इन दोनों प्रश्नों  का कोई बौद्धिक उत्तर हो सकता है?

विचार / बुद्धि समय की सीमा में कार्य करता है ।

और समय, विचार / बुद्धि की सीमा में ।

विचार, बुद्धि और समय अन्योन्याश्रित हैं।

इसलिए,

इस / इन दोनों प्रश्नों का,

कोई बौद्धिक उत्तर नहीं हो सकता।

यह / ये दोनों प्रश्न अनन्तिम / penultimate इसीलिए हैं क्योंकि कोई भी प्रश्न अन्त से पहले तक ही हो सकता है।

अन्त के बाद क्या है?

क्या तब कोई प्रश्न है?

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। 

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।१२।।

अध्याय २,

***


October 30, 2025

This Timeless Quest!

Since Time Immemorial!

एक बात तय है! 

वह यही कि यह कौतूहल, यह जिज्ञासा, यह खोज न तो "समय" में शुरू हुई और न "समय" में पूरी या समाप्त होने जा रही है। "समय" एक तो वह होता है जो हममें चलता है, और एक वह, जिसमें हम चलते हैं। इस सत्य / सच्चाई से अवगत होने पर भी अपनी लापरवाही से और अभ्यस्त हो जाने के कारण हम अपने जीवन को इन दो प्रकारों की तरह प्रतीत होनेवाले "समय" के बीच उसे कभी तो गतिशील और कभी स्थिर मान लेते हैं।

जैसे हम कहते हैं :

"Gone are the days..."

या -

"वे दिन भी आएँगे जब..."

हमारा मतलब सिर्फ इतना होता है कि

"वे दिन जा चुके, वह "समय" जा चुका, जब .."

या -

"वह "समय" भी आएगा, जब ..."

फिर "समय" का एक प्रकार वह भी होता है जिसे हम : "आजकल" या "फिलहाल" कहते हैं, और हमारा ध्यान कभी इस पर नहीं  जाता कि इसके "अन्तराल" या "अवधि" को मापने का पैमाना क्या हो सकता है। 

वेदान्त की शैली में इसे ही लक्ष्यार्थ और वाच्यार्थ के भेद के उदाहरण से समझा जा सकता है। फिर "समय" का एक और अद्भुत् उदाहरण उस प्रकार का "समय" होता है जिसमें हमें लगता है कि "समय" के साथ सब बीत जाता है। यह "समय" के प्रति हमारी संवेदनशीलता के अनुसार तय होता है। हमारी संवेदनशीलता के अनुसार कोई समय अंधकारपूर्ण होता है, जब हमें दिखलाई नहीं देता, और कोई समय ऐसा भी होता है जब हमें सब कुछ साफ साफ दिखलाई देता है। फिर एक समय ऐसा होता है जब हमें सब कुछ अस्पष्ट और धुँधला दिखलाई दिया करता है। जब न तो उजाला होता है, और न ही अंधेरा। उस "समय" हम किसी डर, आशंका, उम्मीद, रोमांच, असमंजस, उलझन, आशा, निराशा, इच्छा या हताशा से ग्रस्त होते हैं। स्तब्ध, जैसे एकाएक अप्रत्याशित रूप से कोई आकस्मिक खतरा हमारे सामने आ खड़ा होने पर। हम यह तक नहीं सोच पाते हैं कि अब क्या करना है, या क्या होने जा रहा है। वह समय  पता नहीं कितना लंबा या छोटा होता है। यह तो निर्विवाद और असंदिग्ध सत्य है कि इन सभी विभिन्न प्रकार से प्रतीत होनेवाले अनेक या एक ही "समय" में हम (जो कुछ भी हम होते हों या हैं) वही अपरिवर्तनशील आधारभूत चेतना होते हैं जिसमें ये सभी विभिन्न प्रकार के अनुभव आते और जाते रहते हैं। इस संवेदनशीलता का, जो कि आधारभूत चेतना का ही दूसरा नाम है, और जिसमें "समय" नामक इस वस्तु (object) के अस्तित्व को अपने से पृथक्, स्वतंत्र और भिन्न की तरह ग्रहण कर लिया जाता है, के अभाव की कल्पना तक नहीं की जा सकती, क्योंकि ऐसा करने का प्रयास तर्क की कसौटी पर भी हास्यास्पद है।

और इसलिए एक ऐसा, वह "समय" भी है जिसे हम काल-निरपेक्ष / (Timeless) की तरह से जानते हैं।

विचार / वृत्ति का प्रारम्भ और अन्त है, जो यद्यपि अभी है किन्तु क्या निर्विचार / वृत्ति-शून्य चेतना का कोई प्रारम्भ या अन्त कभी हो सकता है!

यही है :

The Timeless Quest.

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October 27, 2025

Attachment/Detatchment.

जुड़ना-टूटना

किसी से जुड़ना किसी माध्यम / बहाने से होता है।

और टूटना भी।

कभी किसी एक से जुड़ने के लिए किसी दूसरे से टूटना भी पड़ सकता है।

प्रकृति और पुरुष का संबंध भी ऐसा ही है।

वैसे समष्टि प्रकृति और समष्टि पुरुष का संबंध, जुड़ाव और अलगाव काल्पनिक ही है, और प्रकृति तथा पुरुष दोनों एक ही वास्तविकता के दो पक्ष हैं किन्तु जैसे ही किसी व्यक्तिगत सत्ता का अस्तित्व एक या अनेक व्यक्त रूपों में अभिव्यक्त होता है, यह उस "मैं" की कल्पना में "मैं" और उस "मैं" भिन्न उसके संसार की तरह परस्पर  अविभाज्य होते हुए भी उससे जुड़ा भी होता ही है। उस "मैं" की दृष्टि में उसके उस संसार में उसके जैसे और भी दूसरे असंख्य मानव और मानवेतर व्यक्ति होते हैं, और वह "मैं" उन सब जैसा फिर भी सबसे विलक्षण होता है। संसार और संसार के असंख्य व्यक्ति, वस्तुएँ और उनसे जुड़ी उसकी प्रतिक्रियाएँ "मैं" के भीतर स्मृति के रूप में  एकत्र होकर उन सबकी कोई एक या अनेक प्रतिमाओं का निर्माण करती हैं, जिसका विस्तार और सीमा भी उस "मैं" की कल्पना करने की क्षमता तक ही संभव होता है। इन सभी "मैं" का ऐसा कोई संसार कहीं नहीं होता जो सबके लिए समान हो सकता है। प्रत्येक "मैं" और उस "मैं"-रूपी व्यक्ति का संसार अन्य सभी ऐसे दूसरे सभी "मैं"-रूपी व्यक्तियों से कुछ अंशों में समान या असमान होते हुए भी नितान्त भिन्न होता है और ऐसे किसी संसार का तो अस्तित्व ही नहीं हो सकता जो संपूर्ण रूप से सब के लिए समान और एक हो सकता है। फिर भी बातचीत में हर कोई संसार को सबके लिए समान एक वस्तु मान लेता है और इस पर किसी का ध्यान तक नहीं जाता कि ऐसे किसी सर्वसामान्य संसार का अस्तित्व होना संभव ही नहीं है। इसलिए जिसका अस्तित्व ही संभव नहीं है,  उससे जुड़ने या अलग होने का प्रश्न ही नहीं उठता है।

हर व्यक्ति फिर भी अपने अनुभवों की स्मृतियों से निर्मित अपने संसार की विभिन्न वस्तुओं और व्यक्तियों से अपनी इच्छा या आवश्यकता के अनुसार संबद्ध होता है या फिर उनसे अलगाव होना चाहता है।

इन्हीं अनेक इच्छाओं, आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए वह विभिन्न समूह बनाता है और ऐसे तमाम समूह जो आगे चलकर और भी विशिष्ट स्वरूप ग्रहण करते हैं, परस्पर जुड़ते और टूटते भी रहते हैं। जैसे कि परिवार और विशेष व्यावसायिक या राजनीतिक समूह या वर्ग। जैसे बौद्धिक और श्रमजीवी, कलाकार, साहित्यकारों के समूह। जैसे भाषा, परंपराओं पर आधारित समूह। रोचक तथ्य यह भी है कि इनमें से प्रत्येक समूह का एक अंश किसी रूप में दूसरे किसी समूह के कुछ अंशों से जुड़ा हो सकता है। जैसे कि कृषि कार्यों में संलग्न व्यक्ति भाषा के आधार पर भिन्न भिन्न समूहों से जुड़े हो सकते हैं। पढ़े लिखे लोग भी सामाजिक परंपराओं से जुड़े होने पर भी एक दूसरे से अलग अलग समूहों से संबद्ध हो सकते हैं। उदाहरण के लिए व्यवसाय के क्षेत्र में एक ही व्यवसाय में संलग्न होते हुए भी परस्पर भिन्न भिन्न रुचियों और परंपराओं के अनुयायी। इन सबसे एक सर्वाधिक विशिष्ट प्रकार शारीरिक संरचना के आधार पर पुरुष और स्त्री के बीच होनेवाले जुड़ाव और अलगाव का। यदि समूह का अर्थ ऐसे परिवार के रूप में ग्रहण किया जाए जहाँ पर केवल वंशवृद्धि ही एकमात्र प्रयोजन होता हो, तो ऐसे समूह या परिवार पशु-पक्षियों आदि के भी होते हैं, जो कि ऋतु-काल के अनुसार बनते, बिखरते और टूटते भी रहते हैं। जिसे आजकल "live in relationship" कहा जाता है, वह अवश्य ही इसी प्राकृतिक ऋतु-काल पर निर्भर जुड़ाव और अलगाव का सर्वाधिक विकृत रूप हो सकता है क्योंकि इस व्यवस्था में यौन-सुख को तृप्त करने के व्यक्तिगत 'अधिकार' को वंशवृद्धि के प्राकृतिक उत्तरदायित्व से ऊपर रखा जाता है। क्योंकि जैसे ही इसे स्वीकार कर लिया जाता है, संतानोत्पत्ति और संतान के पावन पोषण और उसकी सुरक्षा के अधिकार की उपेक्षा कर दी जाती है। मनुष्यों के किसी भी समाज में इसीलिए विवाह नामक संस्था की आवश्यकता सर्वत्र ही अनुभव की जाती रही है। आज के तथाकथित प्रगतिशील, उन्नत समाज में आधुनिकता के नाम पर इसीलिए विवाह का औचित्य और प्रासंगिकता संदिग्ध हो गए हैं। मानवीय नैतिकता के आधार पर इसलिए भी, विवाह के औचित्य और अपरिहार्यता की आवश्यकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। संसार के विभिन्न स्थानों पर विवाह की आवश्यकता को अनुभव करने के बाद परंपराओं ने इसे भिन्न भिन्न रूपों में अपनाया। और दुर्भाग्यवश भिन्न भिन्न परंपराओं ने इसे भी भिन्न भिन्न आधार पर तय भी किया। विभिन्न परंपराओं में, जिन्हें religion कहा गया इस प्रकार प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के आधार पर या उसकी अवहेलना करते हुए समाज में शक्तिशाली लोगों के द्वारा तय किए गए नियमों के आधार पर बलपूर्वक उस अपने अपने समाज पर आरोपित कर दिया गया। इस पर किसी का ध्यान ही नहीं गया कि किस और कैसे किसी जाने-अनजाने षडयंत्र या भूल से, परंपराओं को "धर्म" कहकर वास्तविक "धर्म" क्या है, इस पर किसी ने गंभीरता से खोजबीन नहीं की। 

विवाह के संबंध में एक ऐतिहासिक सच्चाई यह है कि "धर्म" की सनातन परंपरा प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त पर आधारित है, न कि मनुष्य के यौन-सुख की कामना और निर्बाध भोग-लिप्सा को तृप्त करते रहने पर। सभी परंपराओं में इस प्रकार विवाह की व्यवस्था जिस आधार पर स्थापित हुई, उनमें प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त को आधारभूत महत्व दिया गया या फिर भूल से, जानबूझ कर या अन्य किन्हीं कारणों से इस सिद्धान्त की न सिर्फ अवहेलना की गई बल्कि इसके संभावित परिणामों तक पर ध्यान नहीं दिया गया। यह भी महत्वपूर्ण और रोचक तथ्य है कि इसलिए सनातन (धर्म) में विवाह-विच्छेद या तलाक की वैधानिता या औचित्य का प्रश्न भी पैदा नहीं हुआ। 

क्या आज की सामाजिक व्यवस्था में इन सारे प्रश्नों का कोई समाधान या उत्तर है? 

***    

October 20, 2025

SABBATH

Just a guess only!! 

Looking forward to go on a month's long Sabbath from the Internet. While thinking so, my attention was drawn to finding out what is the conventional meaning of the word.

I found out :

Google Translate tells that this Word :

Sabbath

is used to denote the traditional 2 days'  observance of religious ritual of fasting and abstaining from the other worldly activities, on Friday onto Saturday (in a certain week in some certain month of the year as per the Jew calender).

The Christian tradition follows a similar practice on Sunday.

While going occasionally through the Indian PanchAngaM पञ्चाङ्गम् I noticed there is a stipulated time-period (maybe in every month) that  is called:

सर्वार्थ सिद्धि योग.

For example on the 3rd of October 2025, this was from the 03:00 a.m. to Sunrise,

On the Sunday 19th October 2025 this was from Sunrise to Sunset, the whole day.

I have been wondering since long when it came to mind that the word "Sabbath" might have roots in the Sanskrit word :

सर्वार्थ!

As both these words so closely resemble with one another in the pronounciation and the meaning also.

***

   


October 08, 2025

SAT-ADHARA

Sat-dhARA 

सत्-धारा / सात-धारा

चार सितंबर 2024 की सुबह नर्मदा तट पर स्थित इस स्थान पर आकर वर्ष 2025 में एक वर्ष और एक माह पूरा हो चुका है। पिछले वर्ष के अंतिम चार और इस वर्ष के पहले दो माह बहुत सुख से बीते। आशा है कि इस वर्ष के शेष तीन माह भी शायद यहीं पर सुखपूर्वक बीत सकेंगे। ब्लॉग लिखने, यू-ट्यूब पर छोटे बड़े वीडियो देखने में समय कभी कम पड़ता है, कभी बहुत धीमी गति से चलता हुआ महसूस होता है। अपने हाथ से और  अपनी सुविधानुसार अपने समय पर खाना बनाना और खाना भी अच्छा लगता है। किसी भी समय, कितने भी समय तक सोना भी इसी तरह है। कुछ समय तक बीच में कुछ लोगों से बातचीत हो पाने में कठिनाई हो रही थी। अब वह कठिनाई दूर हो गई है ऐसा लगता है। यह कठिनाई सिर्फ परिचितों से ही नहीं, अपरिचितों को भी मुझसे और शायद मुझे भी उनसे होती रही थी। धीरे धीरे लोग एक दूसरे से अनुकूल हो जाते हैं।

संबंध, संपर्क, संवाद और बातचीत तब सुनियोजित और स्वाभाविक हो जाती है, या बस औपचारिक रह जाती है, तब यह समझ में आ जाता है कि अनावश्यक बातचीत से मनोरंजन तो हो सकता है, बाद में ऊब भी हो सकती है। और हर कोई अकेलेपन से भागने की कोशिश किया करता है और इसलिए यह भी थोड़ा विचित्र है कि इतना परिपक्व होने से पहले, उसे यह नहीं समझ में आता है कि अकेलापन ईश्वर प्रदत्त वरदान ही है न कि एक ऐसी समस्या जिसका हल उसके पास नहीं होता है। यहाँ तक पहुँचने से पहले प्रायः हर किसी को बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है। कुछ लोग तो जल्दी समझ लेते हैं, किन्तु अधिकांश लोग बहुत देर से, या शायद अंत तक भी समझ तक नहीं पाते।

संसार और संसार के समस्त विषयों का संवेदन / perception चेतना / consciousness में ही होता है क्योंकि ज्ञानेन्द्रियाँ स्वभाविक रूप से बहिर्मुख होती हैं। बाह्य विषयों का संवेदन भिन्न भिन्न प्रकार का होते हुए भी चेतनारूपी पर्दे / interface पर उन्हें ही दृश्य, श्रव्य, गंध, स्वाद तथा स्पर्श के रूप में स्मृति में संग्रहित कर उनमें तारतम्य स्थापित करने के लिए अपने आपको ही आधार बना लिया जाता है और इस प्रकार स्वयं को परिभाषित कर लिया जाता है। यद्यपि पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से संसार को जाना जाता है किन्तु जिस बुद्धि नामक यंत्र से यह जाना जाता है वह स्वयं स्मृतिजनित हो सकती है, या बुद्धि नामक यंत्र ही स्मृति के उत्पन्न होने का कारण और आधार भी हो सकता है। यह एक दुष्चक्र है क्योंकि बुद्धि से स्मृति और उसका सातत्य पैदा होता है और स्मृति होने से बुद्धि कार्य करने में समर्थ हो पाती है। इस प्रकार एक विशिष्ट और वैयक्तिक "संसार" का संचार स्मृति / बुद्धि में ऐसे व्यक्ति-सापेक्ष वैचारिक संसार को सत्यता देता है, जो हर किसी के लिए उसका अपना अपना और अलग अलग होता है। व्यक्तियों के समूह या समुदाय के लिए भी ऐसा सामूहिक संसार अस्तित्वमान हो उठता है, और फिर स्मृति / बुद्धि पर आधारित चेतना (perception) में व्यक्ति और उसके संसार की एक कामचलाऊ पहचान और उस पहचान के अपने आपके होने की भावना उत्पन्न होती है। यह सब केवल वैयक्तिक और मानसिक कल्पना होती है।

चेतना के दो अवयव बुद्धि / स्मृति और पराक्रम हैं। भावना इन दोनों के बीच पुल की तरह है। समस्त संवेदन बुद्धि / स्मृति और भावना के माध्यम से ही संभव होते हैं और किसी भी संवेदन की अनुभूति इन्हीं दो में से किसी एक या एक साथ दोनों के ही मिश्रित रूप में होती है।

बुद्धि से किसी वस्तु के मात्रात्मक गुण को जाना जाता है, जबकि भावना से अनुभूति अर्थात् विषय संवेदन के प्रकार को। जैसे फूल की सुगंध अच्छी लगती है, किसी अस्वच्छ या गंदी वस्तु की गंध बुरी लगती है। अच्छा या बुरा लगना स्थूल भावनात्मक अनुभूति का उदाहरण है। इसकी स्मृति और स्मृति से उत्पन्न प्रतिक्रिया पुनः एक और भावनात्मक अनुभूति होती है, जिसे कोई शब्द देते ही "भाषा" नामक एक कृत्रिम साधन उपलब्ध होता है। इस साधन का और अधिक विस्तार तथा विकास होने पर यही बौद्धिक ज्ञान (intellect) का रूप ले लेता है। बुद्धि के कार्य का प्रकार वैज्ञानिक, गणितीय, या तार्किक हो सकता है या अनुभूति पर आधारित कलात्मक। जैसे फूल की गंध को भिन्न भिन्न फूलों के गंध की भिन्नता के तरह भी जाना जा सकता है, या मधुर, कटु, तीक्ष्ण आदि रूपों में भी उसकी पहचान की जा सकती है। यह सब ज्ञान का सूक्ष्म / आधिदैविक रूप है, जबकि स्थूल ज्ञान आधिभौतिक रूप होता है।

गणना करना स्पष्टतः गुणों को गणों में विश्लेषण करने पर निर्भर है, जबकि भावना किसी भावनात्मक संवेदन के प्रकार विशेष पर निर्भर होती है। भावना को गणित या तर्क की कसौटी पर और बुद्धि को भावना की कसौटी पर नहीं समझा या समझाया जा सकता है।

गणपति, या गणेश इसलिए बुद्धि के अधिष्ठाता देवता हैं, जबकि सरस्वती, विद्या की अधिष्ठात्री देवता हैं। संस्कृत भाषा में 'देवता' शब्द / पद को पुल्लिंग या स्त्रीलिंग दोनों ही तरह से प्रयुक्त किया जाता है। इसी तरह, 'अधिष्ठाता' शब्द को भी। अंग्रेजी भाषा में इस शब्द का अनुवाद   'Presiding'  किया जाता है, और प्रचलित रूप में अधिष्ठाता देवता को त्रुटिवश  Presiding Deities कहा जाता है, जो भ्रामक है। क्योंकि  Deity  शब्द  "दिति" से व्युत्पन्न सज्ञात या सजात  cognate  है। दिति और अदिति दोनों बहनें ऋषि कश्यप की पत्नियाँ हैं। दिति से दैत्यों और अदिति से १२ आदित्य / देवताओं का उद्भव हुआ। यह पौराणिक विवेचना है, जबकि वेद और वैदिक आधार पर दैत्य, देवता, यक्ष, गंधर्व, दानव, मनुष्य, राक्षस, किंनर, विद्याधर, अप्सरा आदि भिन्न भिन्न प्रजातियाँ हैं जो दस प्रजापतियों की संतानें हैं। सुर और असुर गुण-कर्म रूपी संपत्तियाँ हैं जिनका दैवासुर संपत्ति के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता में उल्लेख है।

गणपति और सरस्वती के अतिरिक्त पराक्रम के रूप में जिन देवता का उल्लेख वेदों और पुराणों में पाया जाता है उनका नाम है स्कन्द, कुमार, कार्तिकेय, या षडानन। वैदिक ज्यौतिष् के अनुसार स्कन्द को 'षाण्मातुर' कहा जाता है। जब पृथ्वी तारकासुर नामक असुर से त्रस्त थी तो पृथ्वी के उद्धार के कार्य के लिए भगवान् शिव और माता पार्वती के पुत्र कुमार / स्कन्द का अवतार होने का विधान ब्रह्मा ने सुनिश्चित किया था और तब देवताओं ने भगवान् शिव और माता पार्वती को संतानोत्पत्ति के कार्य में प्रवृत्त करने के लिए कामदेव को नियोजित किया। तब कामदेव को शिव ने तृतीय नेत्र खोलकर जलाकर भस्म कर दिया। और भगवान् शिव और माता पार्वती ब्रह्मा के विधान के अनुसार कितने ही दिव्य वर्षों तक सुरत क्रीडा में संलग्न हो गए। जब अत्यन्त देर तक वे इस क्रीडा में संलग्न रहे तो उनकी क्रीडा को किसी ने बाधित किया और  भगवान् शिव के तेजस् वीर्य के उत्सर्जन होने पर पार्वती ने उसे गंगा में प्रवाहित कर दिया। तब गंगा के जल से कुमार का जन्म हुआ। जन्म लेते ही उछलकर वह खड़ा हो गया। उस दिव्य संतान के छः मुख थे और तब कृत्तिका नक्षत्र की छः तारकाओं / मातृकाओं ने उसे स्तनपान कराया। इसलिए उसका नाम 'कार्तिकेय' हुआ। दिव्य आधिदैविक  घटना का उल्लेख स्कन्द-पुराण और  (संभवतः) श्रीरामचरितमानस में भी है। 

महाकवि कालीदास ने इसी विषय पर "कुमारसंभव" नामक कृति की रचना की जिसमें भगवान् शिव और माता पार्वती के बीच की सुरत क्रीडा का श्रँगारात्मक  वर्णन किया जिससे उन्हें शाप प्राप्त हुआ। 

एक छोटा सा प्रश्न सुबह किसी ने पूछा था :

क्या स्कन्द के षडानन नाम को खड़ानन कहने में कोई दोष है? 

इसका उत्तर यही होगा कि कथा के वाचन में जिस भाषा में कथा है, उस भाषा में प्रयुक्त शब्द को उस तरह कहने में कोई दोष नहीं है, किन्तु वेद में वर्णित भगवान् स्कन्द के मंत्र में इस प्रकार से प्रयुक्त करने में अवश्य दोष है। उदाहरण के लिए -

शिव अथर्वशीर्ष और गणपति अथर्वशीर्ष में स्कन्द को ही गणपति, रुद्र, इन्द्र, वरुण, बृहस्पति, अग्नि, सूर्य, वायु आदि भी कहा गया है। किन्तु षडानन शब्द का अन्यत्र जहाँ प्रयोग किया गया है, वहाँ इस शब्द का उच्चारण इसी प्रकार से किया जाना चाहिए, न कि खड़ानन के रूप में।

Y H V H  य ह्वः

प्रकारान्तर से ऋग्वेद में जहाँ यह्व पद का प्रयोग है और जिसे उसी प्रकार से यहूदी मत में यथावत् स्वीकार कर लिया गया है, षडानन या स्कन्द ही यह्व हैं, इसमें कोई संशय नहीं हो सकता है। यहूदी राष्ट्र इसरायल और उस परंपरा  के उद्भव को इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो इससे भी इसकी पुष्टि हो जाती है। इसरायल के राष्ट्रीय ध्वज पर षट्कोणीय चिह्न भी इसका ही द्योतक है। इस विषय पर पहले भी अनेक पोस्ट्स में विस्तार से लिख चुका हूँ। 

***



October 03, 2025

2 X 3 = 6.

कर्म का उद्भव कहाँ से होता है? / कर्म-मूल क्या है? 

Where from arises the Action / कर्म?

The Origin and the roots of :

The Action / कर्म

अध्याय १८ के श्लोक १८ के अनुसार 

ज्ञान ही कर्म का मूल है, अर्थात् ज्ञान का उन्मेष होने के अनन्तर ही कर्म घटित होता है। 

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना। 

करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः।।

और ज्ञान के व्यक्त रूप में आने के बाद ही कर्म भी व्यक्त हो उठता है जिसका फल अर्थात् कर्मफल भी कर्म का ही विस्तार है।

कर्तुराज्ञया प्राप्यते फलम्। 

कर्म किं परं कर्म तज्जडम्।।१।।

कृति महोदधौ पतनकारणम्।

फलमशाश्वतम् गतिनिरोधकम्।।२।।

ईश्वरार्पितं नेच्छया कृतम्।

चित्तशोधकं मुक्तिसाधकम्।।३।।

*** 



The Two / Three Kinds

यज्ञ-त्रयी, दान-त्रयी, त्याग-त्रयी, कर्ता-त्रयी,  and तप-त्रयी

In the last post, श्रद्धा-त्रयी and ज्ञान-त्रयी  were explained.

Before the Chapter 17, the emphasis was given upon the  निष्ठा  that is synonymous with  श्रद्धा  as elaborated in the verse 1, 2, 3  of Chapter 17 - viz. :

अर्जुन उवाच 

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।

तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्वमाहो रजस्तमः।।१।।

Shrikrishna answers in the next verse :

श्रीभगवानुवाच :

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। 

सात्विकी राजसी चैव तामसी तां इति शृणु।।२।।

सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। 

श्रद्धामयः अयं पुरुषः यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।३।।

In this way the words  

श्रद्धा  and  निष्ठा 

Convey the same sense, but श्रद्धा  is the foundamental, निष्ठा is of the secondary kind and importance. 

It's like say, the three birds for example - sparrow, crow and parrot. All the three are birds but of three different kinds.

In the 18th Chapter of The Gita, in the verse the root cause, the basic and the secondary nature of manifestation of all Action / कर्म has been dealt with.

यज्ञ, दान, तप, त्याग  are different kinds of Action / कर्म and as has been pointed out before, all are performed accompanied with the kind of determination, faith and belief that could be any of the kind of  सात्विक, राजस  or the तामस.

श्रद्धा is the natural, hereditary nature of the mind, स्वाभावजा - one is born with, is either of the सात्विक, राजस  or the तामस kind, while निष्ठा  is the intrinsic nature. The different kinds of Action / कर्म like the  यज्ञ, दान, तप, त्याग  are of the different kinds of activities one performs and is convinced that it will result in achieving the desired / expected goal example like the health, wealth, power, pleasures in this life or the life one believes that one attains after the death.

The same point has been dealt with in much detail in the Chapter 18.

In the next post with this considerations, the way different people exercise Action / कर्म, will be explained, with the focus of attention on the difference between the one who has attained either the

sAmkhya niShThA / सांख्य  / ज्ञान निष्ठा

Or, the karma niShThA  /  कर्म निष्ठा.

लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। 

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

(गीता अध्याय ३, Gita chapter 3)

Summarily; निष्ठा is of two kinds - 

ज्ञान / सांख्य  / Wisdom, 

and, 

कर्म / Action.

While the  श्रद्धा  is of three kinds -

sAtwikI / सात्विकी, rAjasa / राजस, or tAmasa / तामस.

ईशावास्योपनिषद्  deals with the same point of view  -

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। 

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।१।।

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। 

एवं त्वयि नान्यथेतोस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।२।।

Again,  the Chapter 2 of Gita is devoted to sAmkhya / ज्ञानयोग, the Chapter 18 is devoted basically to Action / कर्मयोग, and to the conclusion of the Scripture of the Yoga as the essence and the whole.

(UN-EDITED)

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October 02, 2025

THE QUEER

What's What,  Who's  Who!

The Queer and the rest. 

Google Translate told me that there are about 80 words to describe the sense of this word, and there are 9 synonyms too.

This word is far more important to me as it greatly helps me in explaining the greatest (open) secret of all things and everything about Life.

In the broader sense I think I can define all and everything on this earth and in this world through my understanding of so many verses of Gita.

The two most important words I found in English could be :

The Futurist and The Extempore. 

I think this is enough for me. There may be a few other words to explain further what I mean by the word "Extempore".

I could say it means such a someone or something that is spontaneous, now, in this very moment without the hindrance caused by the interference of Thought  which is indicative of some imaginary or hypothetical "Past or Future"  where in an contemplative state of mind, the

In-attention (प्रमाद),

and the  Abstraction (कल्पना), the mind tends to ruminate, begins thinking and there arises subject to the situation,  -a "Thinker",  who assumes an apparent, independent and different existence of oneself, other than the

"Thought and Thinking".

This very "Thinker" though stems from "Thought and Thinking" owns the center stage and declares itself the whole and sole Lord of all and everything, and may be nicknamed "Ego".

This "Ego" or the most Queer  incidence is what is :

What's What and Who's Who

In his own imaginary, hypothetical world centred around "Thought".

It is verily the "Futurist" who is ever so totally and absolutely alienated from the "Now, here and ever,

and everywhere". 

Now the verses referred to the above :

अध्याय ४

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। 

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।

अध्याय १७

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। 

सात्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु।।१।।

सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।

श्रद्धामयो अयं पुरुषः यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।२।।

यजन्ते सात्विका देवान्यक्षरक्षांसि तामसाः।

प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यक्षरक्षांसि राजसाः।।

(इति श्रद्धात्रयी व्याख्याता।)

इदानीं तु ज्ञान-कर्म-कर्त्तात्रयी विवेच्यते -

अध्याय १८

सर्वभूतेषु येनेकं भावमव्ययमीक्षते।

अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम्।।२०।।

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।

वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्।।२१।।

(The above verse significantly pin-points and highlights the so-called Science and Technology of these times.)

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन् कार्ये सक्तमहैतुकम् 

अतत्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्।।२२।।

(इति ज्ञानत्रयी)

In the next post I'm going to explain the three kinds of Action (कर्म) and the one who is said to perform the Action (कर्म).

(UN-EDITED)

***













October 01, 2025

The Struggler

स्वतंत्रता, शक्ति और मुक्ति
निष्ठात्रयी 
मनुष्य सहित सभी प्राणी लोक निष्ठा से प्रेरित होते हैं। लोक निष्ठा का तात्पर्य है संसार में स्वयं का एक स्वतंत्र अस्तित्व होते हुए भी संसार पर निर्भर होना। इस प्रकार संसार की एक पहचान और उसमें स्वयं की उससे जुड़ी अपनी एक और भिन्न पहचान। अर्थात् मैं और मेरा संसार। दोनों एक दूसरे से कितने अलग, जुड़े या एक दूसरे पर निर्भर हैं यह प्रश्न उसमें शायद ही कभी उठता है। वह भी तभी जब इस संसार में उसे किसी संकट या असुविधा का सामना करना पड़ता है। तब भी वह संसार की वस्तुओं और लोगों में से ही किसी को अपना, किसी को पराया और शेष सभी को अपरिचित कहकर इस रूप में उनकी एक अलग पहचान स्थापित कर लेता है, जो हमेशा बदलती, बनती और मिटती रहती है।
संसार की इसी तात्कालिक पहचान के आधार पर वह 'अपने आप' को निरंतर सुखी, सुरक्षित और स्वतंत्र बनाए रखने में जुटा रहता है। यद्यपि उसे यह भी लगता है कि एक संभावना के रूप में किसी भी समय उसकी मृत्यु हो सकती है, पर 'अपनी' मृत्यु होने का वास्तविक तात्पर्य क्या हो सकता है, इसे वह न तो अनुभव से जान सकता है और न जानकारी की तरह इसलिए उस बारे में वह अधिक कुछ कर भी नहीं सकता। वह केवल यही जानता है कि उसके इस संसार में उसे स्वयं को और उसके 'अपनों' को यथासंभव अधिक से अधिक सुखी, सुरक्षित और प्रसन्न रखना है,और उसके सारे प्रयास इसी भावना से प्रेरित होते हैं। फिर 'अपने' भी कभी मित्र, कभी शत्रु और कभी अपरिचित भी हो जाया करते हैं। वह अपने ऐसे संसार की परिस्थितियों को अनुसार स्वयं को भी बदलता रहता है या किन्हीं आदर्शों, ध्येयों और सिद्धान्तों के लिए अपने जीवन का बलिदान देने को ही जीवन का एकमात्र आदर्श और ध्येय बना लेता है। वह अपने मत का कट्टर अनुयायी बनने का प्रयास करने लगता है, उस पर दृढ़ विश्वास करने लगता है और जैसे ही उसके विश्वास को तोड़ने की कोई चेष्टा कहीं से या किसी के द्वारा की जा रही है उसे ऐसा लगता है तो वह अपनी पूरी शक्ति से उसका न सिर्फ प्रतिरोध ही करता है बल्कि उसके लिए दूसरों के और अपने स्वयं के भी प्राण ले लेना उसके लिए परम पुण्य और सबसे बड़ा कर्तव्य होता है। यह है लोक निष्ठा से प्रेरित मनुष्य का जीवन। वह अंधे की तरह अपने लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ते रहने के लिए बाध्य होता है, फिर भले ही इस प्रयास में वह स्वयं या पूरी दुनिया ही नष्ट हो जाए, इसकी उसे चिंता ही नहीं होती। इसका सबसे अच्छा उदाहरण यदि कोई हो सकता है तो वह है चींटियों का जीवन जीने का तरीका। प्रयोग से भी जाना जा सकता है कि चींटियां दृष्टिहीन होती हैं और केवल गंध  तथा ध्वनि कंपनों के संकेतों के आधार पर, उसी माध्यम से अपना रास्ता तय करती हैं। वे ऊंट या भेड़ों की तरह अनुकरण के सहारे अपना रास्ता तय करती हैं। उन्हें विचार या तर्क आकर्षित नहीं करता। वे सिर्फ तात्कालिक आवश्यकता, लोभ या डर से बाध्य होकर कार्य करते हैं। उनमें से कुछ इने गिने नेतृत्व की क्षमता से युक्त होते हैं जबकि दूसरे अधिकांश सभी, दासता की जंजीरों में बुरी तरह जकड़े हुए होते हैं। यह दासता राजनैतिक से अधिक मंदबुद्धि से उत्पन्न नासमझी के कारण ही होती है। और इसीलिए ये लोग अत्यन्त मूढ़, दुराग्रही और क्रूर तथा कठोर प्रवृत्ति की मानसिकतावाले होते हैं और अधिकार, अवसर और शक्ति मिलते ही दूसरों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने लगते हैं। इनका समूह कितना भी बड़ा हो, इसीलिए धीरे धीरे विखंडित होता रहता है और लगातार टूटता ही चला जाता है। अंततः पूरी तरह से नष्ट ही हो जाता है। जबकि
दूसरी ओर कुछ ऐसे लोग होते हैं और कुछ सभ्यताएं भी होती हैं जिनकी किसी मूल परंपरा से ही विकसित कोई भाषा, संस्कृति और वैचारिक पृष्ठभूमि होती है जिसमें लोगों के बीच मतभेद हो सकते हैं किन्तु उनमें परस्पर प्रेम, सौहार्द और मानवता के मूल्यों पर आधारित कोई स्वाभाविक विश्वास और आत्मीयता भी होती है, जो न सिर्फ अपने समूह या समुदाय के, बल्कि संसार के सभी प्राणीमात्र के प्रति होती है। और फिर वे भले ही किसी प्रकार के ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करें या न करें, उनके मन और हृदय बहुत विशाल और उदार होते हैं। वे भीरु और शांतिप्रिय, या साहसी और वीर भी हो सकते हैं और समय आने पर उनका यह रूप भी दिखाई देता है। इनकी निष्ठा कर्म और पराक्रम के प्रति होती है। ये समाज और संसार को सतत ऊपर उठाते रहना चाहते हैं। इनमें से कुछ, असफलताओं निराश होकर -
"यह सब क्या है, क्या इस सबका कोई विशिष्ट प्रयोजन है, जैसे प्रश्नों पर सोचने लगते हैं। कभी कभी वे सोचने लगते हैं कि क्या पूरा संसार कभी पूरी तरह सुखी और सुरक्षित हो सकता है?" यद्यपि वे उन अधिकांश लोगों से इस दृष्टि से भिन्न और विशिष्ट भी हो सकते हैं कि उनकी बुद्धि और स्मृति औरों से श्रेष्ठ है, और इसलिए वे अपनी बुद्धि का युक्तिसंगत प्रयोग कर स्थितियों का अनुमान और आकलन अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं, किन्तु उनकी यह बुद्धि और स्मृति भी मूलतः तो प्रकृति के द्वारा संचालित की जाती है और वे बस प्रकृति के एक यंत्र की तरह प्रकृति से निर्दिष्ट कार्य को संपन्न करते हैं। बुद्धि और स्मृति के उसी प्रारूप pattern,  framework, पर कार्य करते हुए यद्यपि उसे ऐसी अनेक चमत्कारपूर्ण और असाधारण उपलब्धियाँ भी मिल जाएँ, जो कि उसे और उसके संसार को विस्मयविमुग्ध कर दें, परंतु इससे क्या उसके और उसके संसार के आभासी, काल्पनिक या वास्तविक उसके समस्त दुःखों का स्थायी अन्त हो सकेगा? इन सभी दुःखों की प्रतीति उसे  केवल उसकी जागृति की दशा में ही नहीं हुआ करती है! और, निद्रा आ जाने पर वे सभी अनायास और अकस्मात् ही विलीन भी नहीं हो जाते हैं?
क्या निद्रा के आते ही तर्क और बुद्धि भी उसी प्रकार तात्कालिक रूप से निष्क्रिय और विलीन नहीं हो जाते हैं? और उसका ध्यान जैसे ही इस तथ्य पर जाता है तब क्या वह इस तथ्य से इनकार कर सकता है कि मनुष्य और दूसरे सभी (चेतन) प्राणी निद्रा में जिस परिपूर्णता, शान्ति और सुख का अनुभव करते हैं, वह अवश्य ही उनके अपने ही भीतर विद्यमान है, न कि संसार और सांसारिक वस्तुओं में!
ध्यान / attention न तो कोई बौद्धिक या वैचारिक प्रक्रिया है, न कोई कौशल या ऐसी चतुराई जिसे कि कोई दूसरों से सीख सकता है। इसे अन्वेषण और अनुसन्धान की तथा उस अभ्यास की सहायता से भी प्राप्त किया जा सकता है जिसे
"नित्य अनित्य विवेक" कहा जाता है और जिसे कोई बच्चा या अल्पबुद्धि मनुष्य भी जानता तो है किन्तु उस पर उसका ध्यान ही नहीं जाता है।
पराञ्चखानि व्यतृणत् स्वयंभू
स्वयं धियोऽन्तः प्रविभाति गुप्तः।
धियं परावर्त्य धियोऽन्तरेऽत्र
संयोजनान्नेश्वरदृष्टिरन्या।।
(संभवतः यहाँ सद्दर्शनम् के एक श्लोक को उद्धृत करने में मुझसे भूल हुई हो, किन्तु उसे सुधार पाना अभी संभव नहीं प्रतीत हो रहा है।) 
स्मृति और बुद्धि दोनों ही मन, चित्त, वृत्ति और अहंकार के ही पर्याय हैं, इसलिए अत्यन्त प्रतिभाशाली भी कभी इस बाधा को पार नहीं कर पाता है।
वे कुछ लोग ही जिनमें विवेक की जागृति के फलस्वरूप संसार के सभी विषयों से मन उचट गया होता है वैराग्य से युक्त होकर 
"यह सब, जीवन, अस्तित्व, संसार आदि क्या है?"
जैसे प्रश्नों का बौद्धिक उत्तर नहीं बल्कि स्थायी समाधान खोजने के लिए उत्सुक हो उठते हैं।
वे जानते हैं कि किसी विशिष्ट या साधारण कर्म के करने से इस प्रकार के समाधान की प्राप्ति होने का कभी कोई संबंध ही नहीं है। 
गीता के अध्याय २ के निम्नलिखित श्लोक ४९ से कर्म की मर्यादा स्पष्ट हो जाती है -
दूरेणह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय। 
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।
भगवान् आदि शङ्कराचार्य भी यही शिक्षा देते हैं -
कुरु ते गंगासागर गमनम् व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीनं सर्वमनेन मुक्तिर्न भवति जन्मशतेन।।
और गीता के एक और सुप्रसिद्ध श्लोक में यह भी है -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। 
मा कर्मफलहेतुर्भू मा ते सङ्गोऽस्त्कर्मणि।।
जिसमें निर्देश दिया गया है कि 
तुम कर्म से पलायन भी नहीं कर सकते।
गीता के अध्याय २ के ९ वें, अध्याय ३ के २७ वें और अध्याय १८ के ५९ वें श्लोकों में पुनः इस पर बल दिया गया है।
यहाँ पर इस पोस्ट को समाप्त कर रहा हूँ। 
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September 27, 2025

NON-DUALITY.

द्वैत अद्वैत

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संवाद, स्मृति, पहचान, संबंध, द्वैत में ही संभव होते हैं। भय, लोभ, आशा, आशंका, अपेक्षा, उपेक्षा, अतीत और भविष्य, यहाँ और वहाँ आदि सभी का अस्तित्व भी इसी प्रकार से द्वैत की पृष्ठभूमि में, और द्वैत के संदर्भ से ही सिद्ध होता है। और द्वैत भावना के अस्तित्व में आने के बाद ही द्वैत सत्य प्रतीत होता है। द्वैत-भावना के अभाव में न तो किसी संबंध और न ही किसी प्रकार का संवाद का ही संभव है। द्वैत के ही अन्तर्गत दृष्टा और दृश्य का उद्भव, स्थिति और लय होता है।

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September 21, 2025

A Sea-change.

सर्वपितृ अमावस्या

पितृपक्ष की अंतिम तिथि को महालया भी कहा जाता है। महालया नामक इस तिथि पर पितर जब मृत्यलोक से अपने पितृलोक में लौट जाते हैं। पितृलोक में वे उस समय तक वास करते हैं जब तक उन्हें कोई नया शरीर,  और उस नये शरीर में नया जीवन नहीं प्राप्त हो जाता है। जैसे ही उन्हें एक नये शरीर में नया जीवन प्राप्त हो जाता है, उस जीवन में उनकी नयी जीवन-यात्रा शुरू हो जाती है। और प्रायः हर कोई अपने इसी जीवन को अपने जन्म के रूप में मान लिया करता है। बिरले ही कभी किसी को ऐसा लगता है कि वह इस शरीर में कहीं दूसरे स्थान और उस ऐसे दूसरे शरीर से आया है जहाँ पहले कभी वह था, किन्तु यह उसे स्मृति और स्वप्न जैसा लगता है। जीवन अर्थात् चेतनता / चेतना (Sense, Sensitivity and Sensibility), जिसे एक शब्द में consciousness कह सकते हैं। बहुत बिरले ही कोई ठीक ठीक यह समझ पाता है कि जिसे जीवन, मन और चेतना कहा जाता है, उनमें परस्पर क्या समानताएँ और क्या भिन्नताएँ हैं। एक शब्द के स्थान पर दूसरे शब्द का प्रयोग करने से यह नहीं स्पष्ट होता है कि उससे जिस वस्तु का उल्लेख किया जा रहा है वह क्या है। चेतना का अर्थ है वह क्षमता जिससे कोई वस्तु किसी दूसरी वस्तु को जान और अनुभव कर सकती है। इनमें से दोनों ही वस्तुओं में यह क्षमता हो तो उन दोनों को ही चेतन अर्थात् इस क्षमता से युक्त कहते हैं, जबकि उनमें से जब केवल एक में ही यह क्षमता हो और दूसरी वस्तु में यह क्षमता न हो तो उस दूसरी वस्तु को जड कहते हैं। एक और रोचक तथ्य यह भी है कि किसी के पास इसका भी कोई प्रमाण नहीं हो सकता कि अपनी तुलना में जिस वस्तु को जड कहा जा रहा है वह  ऐसी जानने या अनुभव करने की क्षमता से रहित है ही! किन्तु फिर भी जीवन से युक्त और जीवन से रहित किसी वस्तु की पहचान तो की ही जा सकती है। तात्पर्य यह है  कि किसी वस्तु में उसके अपने आपके अस्तित्व में होने का भान है या शायद न भी हो, किसी और को यह भान अवश्य है। और जिसे अपने आपके अस्तित्व का भान है वह स्वयं को इस वर्तमान में प्राप्त शरीर तक सीमित एक व्यक्ति-विशेष मानता है या उसे लगता है कि इस वर्तमान शरीर में वह कहीं अन्य स्थान से आया है, जहाँ पर वह एक अन्य शरीर के रूप में जी रहा था। और पिछले सौ - पचास या अधिक वर्षों तक से इसका वैज्ञानिक अध्ययन कर इसके अकाट्य प्रमाण भी मिल चुके हैं, इसलिए यह कहा जा सकता है कि ऐसा कोई व्यक्ति अब पितृलोक से निकलकर पुनः जन्म ले चुका है। और यह अनुमान भी किया जा सकता है कि संभवतः बिरले ही कभी कोई मृत्यु के बाद बहुत दीर्घ काल तक पितृलोक में रहता हो, इसलिए भी पितरों के श्राद्ध का महत्व बहुत थोड़े समय तक के लिए हो सकता है।

सर्वपितृ अमावस्या का महत्व क्या है, इसे इस दृष्टि से भी समझा जा सकता है। 

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September 18, 2025

34 Years Ago

कितने जंगल हाउस!?

THE FIRST JUNGLE HOUSE.

12 फरवरी 1991 के दिन या उससे एक दिन पहले, मैं ओंकारेश्वर पहुँचा था। आश्रम की स्थापना और संचालन एक पूज्य स्वामी करते थे। भू-तल पर रहते थे और ऊपर प्रथम तल पर माता आनन्दमयी के मन्दिर का निर्माण हो रहा था। उस मन्दिर तक जाने की सीढ़ियाँ प्रथम तल को दो भागों में विभाजित करती थीं। पहला हिस्सा बाहर की ओर था, बाहर खुली छत और एक कमरा था, जिसमें दो द्वार थे। दोनों से बाहर आया जाया जा सकता था, और बाहर कहीं जाना होता तो यह ध्यान रखना होता था कि दोनों द्वार ठीक से बंद हों। किसी पर भी एक या दोनों द्वारों पर भी एक एक ताला लगाया जा सकता था। दो सीढ़ियाँ भू-तल से आती थीं और कमरे के दोनों तरफ से निकलकर प्रथम तल पर आती थीं। एक सीढ़ी भू-तल पर सामने की दिशा में थी और दूसरी पीछे की दिशा में। सब सीढ़ियाँ, चबूतरा आदि पत्थरों को मिट्टी से जोड़कर और उन पर सीमेंट चढ़ाकर बनाए गए थे। स्वामीजी का कमरा पीछे था और उसके भी दो द्वार थे। एक कमरा स्टोर रूम की तरह था और दूसरा उससे लगा हुआ, जो सामने था। बीच में खुली हुई जगह में मिट्टी का चूल्हा था जहाँ भोजन बनता था। मार्च में स्वामीजी वहाँ से इन्दौर चले गए थे। और मैं अकेला ही वहाँ रहने लगा था। सामने के कमरे के बाहर एक तखत पड़ा था, जिस पर मैं लगभग पूरे दिन बैठा या सोया रहता था। कुछ दूर पर नर्मदा नदी बहती थी, और वहाँ तक जाने के लिए पत्थरों के बीच से जाना पड़ता था। प्रायः ही दो या अधिक बार नदी तक जाया करता था।

वह स्थान जैसा था, वैसा ही कुछ यह स्थान भी है, और यहाँ भी वैसा ही खुला खुला आश्रम परिसर है। इसलिए अचानक उसका स्मरण हुआ। यह स्थान शायद अधिक सुन्दर और सुखद है। बाहर बहुत निर्माण कार्य चल रहा है। मेरे लिए करने के लिए बहुत सा काम हो सकता है। मेरा विचार है कि मैं इस पूरे परिसर को अपनी कल्पना के अनुसार बना सकूँ। साल भर पहले तक यह तक नहीं पता था कि कहाँ और कैसे रहना है, अब अनपेक्षित रूप से एकाएक बात बहुत बदल गई है। सोचा जाए तो बहुत सा काम करना है। अधोसंरचना तैयार है। संभवतः इस दीपावलि तक सब कुछ सुव्यवस्थित हो जाएगा। अभी तो बस प्रतीक्षा करते हुए समय बीत रहा है।

This Too Is Another Jungle House!

बीच में एक वर्ष 2023-24 में एक और जंगल हाउस में बीता था। वह भी बहुत सुन्दर था किन्तु फरवरी 2024 में उसे, स्कूल के उस निर्माणाधीन भवन को ढहा दिया जाना था, इसलिए वह स्थान छोड़ना पड़ा।

ऐसा ही एक जंगल हाउस राजघाट फोर्ट वाराणसी पर भी था जहाँ कृष्णमूर्ति फॉउन्डेशन के स्टडी-सेन्टर और रिट्रीट पर पहले डेढ़ हफ्ता फरवरी 2000 में और फिर एक हफ्ता नवंबर 2002 में बीता था।

यूँ भी होता है, कभी सोचा न था!

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September 17, 2025

Mythology?

वराह-अवतार

पता नहीं यह प्रतीकात्मक है या सांकेतिक,

किन्तु पौराणिक मान्यता के अनुसार, अलग अलग दृष्टि से, यह कहा जाता है कि भगवान् विष्णु के दशावतार (दस), और चतुर्विंशावतार (चौबीस) होते हैं और उन चौबीस अवतारों में से एक वराह भी है।

यह अनुमान हो सकता है कि अंग्रेजी भाषा का

BOAR, 

शब्द संभवतः संस्कृत भाषा के वराह का अपभ्रंश हो।

और यह भी सत्य है कि आजकल यू के (U. K.) में अवैध आव्रजनों (Illegal Migrants) के डर से लोगों ने अपनी रक्षा के लिए डॉग्स पालना छोड़कर सूअर / शूकर पालना शुरू कर दिया है।

मैं नहीं जानता किन्तु जैसा कि पुराण (वराहपुराण) नाम से लगता है, जीव-विज्ञान की दृष्टि से, वराह और शूकर दोनों ही प्रजातियाँ एक ही प्रकार के जीव हैं।

वराहपुराण के अनुसार पृथ्वी महाजलप्रलय के समय  जब पाताल में डूब रही थी तब भगवान महाविष्णु ने वराह रूप में अवतरित होकर पृथ्वी को अपने शृङ्गदन्तों के द्वारा ऊपर उठा लिया था और उसे महाजलप्रलय  /  महाजलप्लावन से बचा लिया था। 

क्या यह केवल संयोग है कि यह पौराणिक मान्यता / (Mythology) एक व्यावहारिक सत्य की तरह आज प्रयुक्त हो रही है?

🐗 

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September 16, 2025

11:00 12:00 01:00

मध्य-रात्रि 01:21

बहुत समय से निद्रा का 'समय' अस्तव्यस्त चल रहा है। इसलिए बस येन-केन-प्रकारेण नींद खुलते ही शरीर को उसकी स्थिति पर छोड़ देता हूँ। कभी कमरे में ही चलता फिरता हूँ या कुर्सी पर बैठकर आँखें बंद कर लेता हूँ। यह स्पष्ट रहता है कि सोना नहीं है और सोचना नहीं है। यह जानना भी रोचक है कि निद्रा उसके और शरीर के अपने नियमों के अनुसार आती और जाती है। इस बारे में मन कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। आवश्यक प्रतीत  होने पर किसी स्थिति में एक सीमा तक जागते रहने का प्रयास किया जा सकता है और सीमा का उल्लंघन करने पर उसका मूल्य भी चुकाना पड़ता है।

रात्रि 02:00 तक का समय यूँ ही कटता है। फिर कोई स्मृति सक्रिय हो उठती है तो उसमें लिप्त होने लगता हूँ। या, बस किसी तरह शांत रहने का प्रयास करता हूँ। पर फिर, प्रयास ही शांति में बाधा है, इस पर ध्यान जाता है। तो अशांत मन से संघर्ष नहीं करता। 02:00 से 03:00 तक का समय यूँ बीतता है।

03:00 बजे के बाद मन सुस्थिर होने लगता है।

कोई विषय, कोई विचार, कोई स्फूर्ति मन में उमंग बन जाती है और 

विषयाननुवर्तन्ते विषयी यत्र

तादात्म्यं तत्र प्रवर्तते।

तादात्म्यमेव वृत्तिः स्यात्

वृत्तिर्हि चित्तमित्यस्मिता।।

इस तरह मन को अवलम्बन प्राप्त होते ही 'समय' से सामञ्जस्य हो जाता है। तब न ऊब होती है, न थकान, न नींद आ रही होती है, न आलस्य। इसे ही सालंब ध्यान कह सकते हैं।

देशबन्धचित्तस्य धारणा।।१।।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।२।।

तदेवार्थमात्रनिर्भासा समाधिः।।३।।

(विभूतिपाद )

स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा।।

अब रात्रि के 01:53 हो रहे हैं।

मन और शरीर अपनी अपनी प्रकृति से गतिशील रहते हैं। और जब उनकी गतियों के बीच असामञ्जस्य होने लगता है तो संघर्ष, असंतोष, व्याकुलता, अवसाद और ग्लानि आदि की स्थिति बनने लगती है। और तब मन उस स्थिति से त्राण पाने के लिए अविवेकपूर्वक किसी भी विषय का आलंबन लेकर उस विषय से संलग्न और  लिप्त हो जाता है। 'समय' यद्यपि बीत जाता है, किन्तु हाथ कुछ लगता है तो वह बस निराशा और व्यर्थता ही होता है। हाँ, फिर 'समय' बीतने पर धीरे धीरे मन स्वस्थ भी हो जाता है। जैसे किसी बर्तन में रखा जल एक बार हिल जाने के बाद स्वयं ही धीरे धीरे शांत और सुस्थिर हो जाता है, और किसी प्रयास से उसे शांत नहीं किया जा सकता। प्रयास से तो वह और भी चंचल और अस्थिर हो जाया करता है।

मध्य-रात्रि 02-19

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September 12, 2025

The River.

नदी की आत्मकथा 

लौटती है नदी, लौटता है प्यार,

चल रही, चल रही, चल रही बयार!

जब चली थी पिघल, हो रही थी विकल,

ना पता थी राह, या कि क्या है मंजिल,

बस था उत्साह एक, एक ही थी उमंग,

पुलकित हृदय था, पुलकित था अंग अंग, 

सूर्य की रश्मि ने जब किया चुम्बन प्रथम, 

प्रेम का आह्लाद की अनुभूति तब हुई प्रथम,

एकला चालो की जब हृदय में स्फूर्ति उठी,

धरती ने बाँह गही, नभ ने दिया आशीष। 

सींचती रही धरा को, प्यास सूखे कंठ की,

तृप्त करती रही आतुर क्षुधा जन जन की, 

छंद बंध तोड़कर बह चली, वह बह चली!

फैल गई सिन्धु सी कभी विस्तार में, 

सुखकर काँटा हुई कभी जैसे थार में,

हार में या जीत में,  जीत में या हार में,

बह चली, बह चली, बह चली वह प्यार में!

घोर वन, दुर्गम अरण्य, भूलकर वह पाप पुण्य,

बँटती चली अथाह प्यार वह संसार को, 

और सागर से मिली, यूँ कि अपने प्यार को।

हो गई लावण्यमयी किन्तु पुनः फिर विकल, 

सूर्य की उत्तप्त राश्मि ने दिया संताप प्रबल,

हो उठी वाष्प तब, और उठी नभ की ओर,

मेघ बनकर फैल गई हर तरफ हर ओर! 

द्वार खड़े खड़े तरस गई आखिर आज बरस गई,

प्यासी बदरी सावन की, ऋतु आई मनभावन सी।

बस यही तो चलता रहा, नदिया यूँ बहती ही रही, 

जीवन के सारे ही सुख दुख तो यूँ सहती ही रही। 

उसकी खुशियाँ, उसके आँसू, उसका प्यार यही, 

उसका दामन, उसका आँचल, उसका संसार यही! 

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September 11, 2025

Wild Nights!

रात के हमसफ़र

वह फरवरी 2023 की शाम रही होगी जब मैं उस जंगल हाउस में प्लास्टिक की डोरी से बनी हुई खाट पर खुले आकाश तले सो रहा था। वहाँ वह रॉक्सी भी थी जिससे अभी मेरी ठीक से पहचान नहीं हुई थी। थोड़ी दूर पर ही एक पलंग-पेटी थी जिस पर वह आदिवासी पति पत्नी युगल सोए होते थे। और अगर रात्रि में मुझे उठना होता था तो उस आदिवासी पुरुष को आवाज देकर जगाना होता था जो वहाँ एक कर्मचारी भी था, क्योंकि रॉक्सी से मुझे खतरा हो सकता था। वैसे रात में उसे खुला छोड़ दिया जाता था और वह उस पूरे क्षेत्र में बेख़ौफ घूमती रहा करती थी। हालाँकि हफ्ते भर में वह मुझे पहचानने लगी थी और कभी कभी तो मुझे सूँघने और चूमने चाटने की कोशिश भी करती थी। बाद में तो पूरे साल भर तक, जब तक मैं उस जंगल हाउस में रहा वह लगभग पूरे दिन भर और रात भर मेरे साथ रहती थी। वह एक बहुत ही खतरनाक नस्ल की कुतिया थी जिसे पालना कुछ देशों में तो प्रतिबंधित भी है। गर्मियाँ खत्म होते ही मैं जंगल हाउस की टीन शेड की छत के नीचे बने अपने कमरे में सोने लगा था और शाम से ही जंगली कीड़ों मकोड़ों का आक्रमण शुरू हो जाता था। बिजली कभी कभी दो दो दिनों तक बंद रहती थी, और मोबाइल की रोशनी से भी कीड़े बुरी तरह आकर्षित होते थे इसलिए शाम से सुबह तक कुछ खाना पीना भी जैसे मेरे लिए हराम होता था। कीड़ों से छुटकारा तो तभी होता था जब सर्दियाँ पड़ने लगती थीं। बस वे दो या तीन महीने ही, जब भीषण ठंड में मैं अपने पूरे कपड़े, ऊनी टोपी भी पहन लेता था और एक कंबल तथा चादर ओढ़कर उस खाट पर कुड़कुड़ाते हुए रात गुजारना होती थी। सुबह से शाम तक खुली धूप में घूमता रहता। अकसर हर दूसरे दिन ही दूध और अन्य जरूरी सामान लेने के लिए पास के गाँव तक जाना होता था। दो किलोमीटर दूर स्थित उस गाँव तक जाने के लिए मुझे तैयार देखते ही रॉक्सी भी मेरे पीछे पीछे आने की कोशिश करने लगती थी, लेकिन एक किलोमीटर चलने पर वह मुझे छोड़कर वापस लौट जाया करती थी। और उसका मालिक जो जंगल हाउस का चौकीदार था, और पास के ही दूसरे गाँव में रहता था, सुबह शाम रॉक्सी को वहाँ दिन भर के लिए बाँध दिया करता था ताकि वहाँ से आने जाने वाले लोगों को उससे खतरा न हो।

पुनः वर्ष 2024 की सर्दियों के प्रारंभ में जब मैं इस नये स्थान पर आया तो जंगल के कीड़ों का वही आतंक फिर यहाँ भी शुरू हो गया। 

ये कीड़े ही यहाँ रात के मेरे हमसफ़र थे। 2025 की इन गर्मियों तक उनसे बुरी तरह त्रस्त रहा। अभी इस समय भी एक दो कीड़े आसपास मंडरा रहे हैं जिन्हें पकड़कर बाहर फेंक देना है। रात होने और शाम ढलने से पहले ही भोजन कर लेता हूँ और कभी या तो छत पर टहलता हूँ या कभी नींद आने पर सो जाता हूँ। दो घंटे सोकर जब उठता हूँ तो भी फिर मोबाइल बंद ही रखता हूँ। कुर्सी पर बैठा रहता हूँ।

"क्या कर रहे हो?"

उस तथाकथित मित्र का फोन आता है तो कहता हूँ :

"खाना खा लिया है, लाइट बंद है इसलिए चुपचाप अंधेरे में कुर्सी पर बैठा हुआ हूँ।"

उसे समझ में नहीं आता। मुझे बरसों से यह आदत है। बिना किसी प्रकार के शारीरिक या मानसिक, बौद्धिक कार्य में संलग्न हुए चुपचाप टहलते रहना या बस सिर्फ बैठे रहना। पढ़ना, लिखना, किसी से बातचीत करना, जप आदि यह सब न करते हुए और कर्तृत्व की भावना तक से भी मुक्त रहते हुए। जैसा कि बचपन में अनायास होता था - सुबह नींद से उठने पर दरवाजे पर जाना, खड़े हो रहना आकाश को और अपने आसपास देखते रहना। तब मन में भाषा का अभाव था। और इसलिए सोच पाने की कोई संभावना भी नहीं थी। फिर धीरे धीरे कैसे भाषा और फिर विचार करने की बाध्यता उस शांत मनःस्थिति पर कब हावी हो गई यह तक पता न चला। सौभाग्य से बचपन से ही किसी से भी अपनापन कभी न बन पाया बल्कि सबसे कुछ दूर ओर अकेले ही रहना मुझे अधिक भाता रहा। जंगल हाउस में रहते हुए फिर वह बचपन लौट आया जब अकेलापन कभी कचोटता नहीं बल्कि सहलाता ही था। वह एकमात्र अनन्य साथी, जिसे अपने से अलग कर पाना वैसे भी संभव नहीं है।

याद अगर वो आए, ऐसे लगे तनहाई,

सूने शहर में जैसे, बजने लगे शहनाई,

आना हो, जाना हो, कैसा भी जमाना हो,

उतरे कभी न जो खुमार वो प्यार है!

वैसे ही यह अकेलापन जो एक ओर एकाकीपन भी है तो दूसरी ओर इसमें किसी प्रकार के अभाव का भी नितान्त अभाव है। सुख दुःख, चिन्ता या डर, आशा या निराशा, लोभ, आकर्षण-विकर्षण, आशंका या विरक्ति, आसक्ति, स्मृति और विस्मृति से भी रहित। शायद यही वह प्रेम है, जिसमें किसी दूसरे का भी अत्यन्त अभाव होता है। यह खुमारी जैसी कोई आने जाने वाली वस्तु नहीं है। न तो इसे पाया जा सकता है न खोया ही जा सकता है। इसका आविष्कार किया जाता है और किया जा सकता है। 

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September 09, 2025

Filial / Affiliate,

संबंध नहीं, परिचय / पहचान

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के सौजन्य से पता चला कि अंग्रेजी शब्द  Fillial  का अर्थ है -पुत्रवत् स्नेह!

उम्र में मुझसे छोटे मेरे ऐसे तीन दिवंगत मित्र थे, जिनसे मैं कुछ इसी तरह की डोर से बँधा था। उनसे मित्रता का कारण अलग अलग था और जो मुझे, और शायद उन्हें भी बहुत स्पष्ट नहीं था।

उनमें से प्रथम थे, जिनका एकमात्र लक्ष्य था समाज में आध्यात्मिक गुरु की तरह से अपनी पहचान स्थापित करना।

दूसरे वे, जिनका एकमात्र तय लक्ष्य संभवतः यह था कि  उन्हें एक सफल, प्रतिष्ठित, जाने-माने और विश्वविख्यात व्यक्ति की तरह जाना जाए।

इन दोनों की अपनी भौतिक और सांसारिक आकांक्षाएँ भी थीं जो संभवतः पूर्ण हुईं होंगी, ऐसा भी लगता है।

पहले मित्र तो आजीवन अविवाहित रहे, दूसरे मित्र का विवाह हुआ किन्तु संतान नहीं थी।

तीसरे मित्र विवाहित थे और उनके दो पुत्र भी हैं। प्रकटतः तो वे अध्यात्म में रुचि होने से मुझसे जुड़े थे। 

तीनों ही किसी समय किसी प्रकार की सार्वजनिक सेवा (service) में थे। पहले मित्र ने अनुकूल अवसर और समय आने पर स्वेच्छा से सेवा से अवकाश ले लिया था और संन्यासी की तरह रहने लगे थे। 65 वर्ष की उम्र के आसपास, स्वास्थ्य ठीक न होने से उनका देहावसान हो गया। 

दूसरे और तीसरे मित्र का सेवा में रहते हुए आकस्मिक देहावसान हो गया।

कभी कभी यह सोचकर आश्चर्य होता है कि हर व्यक्ति के जीवन में कौन किसलिए आता है, कब तक रहता है और फिर कब संसार छोड़कर चला जाता है!

किन्तु अपने आपके जीवित रहने तक अपनी स्मृतियों में तो वह अवश्य ही रह जाता है! 

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At N H 44,

रेवा तीरे!! 

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जैसे कुछ पता ही नहीं चलता है,

कब उगता है दिन, कब ढलता है! 

सुबह से रात, रात से सुबह तक,

बादलों का समंदर बरसता है!

हवाएँ बहती, रुकती चलती हैं,

उम्मीद हृदय में मचलती है,

कभी तो बदलेगा ये मौसम भी,

जैसे हर चीज ही बदलती है!

दूर से आती है, दूर जाती है,

शोर करती है, गुनगुनाती है,

शिव की लाड़ली चंचल बेटी,

सबसे निर्लिप्त बहती जाती है!

यहाँ आया था उससे मिलने ही, 

उसका आशीष मुझपे रहता है,

हर घड़ी उसके स्वर, उसका रव,

मेरे कानों में पड़ता रहता है।

डूब जाता हूँ स्वरलहरियों में, 

और मैं भी लहर हो जाता हूँ,

अपना परिचय कि कौन हूँ मैं,

अनायास भूल जाता हूँ मैं,

और संसार भी खो जाता है,

उसकी पहचान भी खो जाती है,

फिर भी चलता है सुसंगत जीवन, 

न जाने कौन चलाता है इसे!

बस ये आदत ही हो गई है अब,

कोई अतीत या भविष्य नहीं,

बस ये वर्तमान रहा करता है, 

और जीवन इन्हीं तरंगों में, 

हर घड़ी मुग्ध बहा करता है!

(सत्-धारा सत्-चित्) 

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September 07, 2025

Algorithm, Gestalt,

Conflict and The Idiosyncracy

दुःख अनंत और असीम है। कभी उसका अन्त नहीं होता। बस सतत और अनवरत रूपान्तरित होता रहता है। वही, जो अभी सुख प्रतीत हो रहा होता है, पलक झपकते दुःख प्रतीत होने लगता है, और दुःख दूर हो गया, ऐसा क्षणिक आभास और सुख के मिलने की आशा का नया, क्षणिक आभास उसका स्थान ले लेता है।

यह सब एक दुष्चक्र होता है, जो शायद अनंत और असीम है। यह सब मन की गतिविधि और मन में होता है जो स्वयं यह दुष्चक्र और अपने आपको इसमें फंसा हुआ अनुभव करता है। मन स्वयं ही 'अनुभव' होता है और मन ही 'अनुभव' को परिभाषित भी करने लग जाता है। मन स्वयं अपने आपको और वर्तमान के इस क्षण को इस प्रकार अतीत और भविष्य की कल्पना करते हुए समय की अवधारणा में विभाजित हो जाने के आभास से ग्रस्त हो जाता है।

यही मन है। यही 'मैं' है, जिससे पृथक्, स्वतंत्र दूसरा कोई या कुछ कहीं होता ही नहीं।

यह अवधारणा ही ग्रन्थि / Gestalt है, जो कि वैचारिक आग्रह के रूप में सूत्र / Algorythm में बदल जाती है।

विभाजित मन split mind ही व्यक्ति के रूप में क्षणिक अस्तित्व का आभास उत्पन्न करता है और अगले ही क्षण पुराना व्यक्ति विलीन होकर नये व्यक्ति को अस्तित्व प्रदान करता है। यह नया व्यक्ति उसके अपने क्षण में पुराने का एक और  संस्करण होता है जो सतत रूपांतरित होता हुआ मन के एक व्यक्ति विशेष होने का भ्रम होता है।

यह व्यक्ति अर्थात् यह भ्रम ही मन का जीवन है, जो सतत स्वयं को काल्पनिक निरंतरता प्रदान करता रहता है creating one's own an apparently continuous existence.

यह मन ही पुनः किसी इंद्रियगोचर बाह्य जगत की प्रतीति से मोहित हुआ उसमें अपने आपको 'मैं' की तरह उससे संबद्ध किन्तु उससे स्वतंत्र भी मान बैठता है।

यह सब आकस्मिक और अप्रत्याशित रूप से घटित होता है और तब मन-रूपी यह विखंडित व्यक्ति fragmented person की तरह से केवल द्विध्रुवीय असामञ्जस्य - bipolar personality disorder से ही नहीं, बल्कि बहु-व्यक्तित्व असामञ्जस्य - multiple personality disorder (mpd) से भी ग्रस्त हो जाता है।

इस सबका पूर्वाग्रह-रहित अवलोकन अर्थात् careful awareness अवश्य ही इस दुष्चक्र को विलीन कर सकता है।

इस पूर्वाग्रह-रहित अवलोकन का अभ्यास नहीं किया जा सकता। जीवन What Is के प्रति उत्कट प्रेम और पूर्वाग्रह-रहित अवलोकन होने पर यह अनायास ही फलित होता है और इस तरह से फलित होने पर यह अज्ञात से अज्ञात के आयाम में इस तरह से विकसित, पल्लवित और पुष्पित होता रहता है, जिसके बारे में न तो कोई अवधारणा, न सिद्धांत और न ही कोई निष्कर्ष प्राप्त हो सकता है।

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September 01, 2025

THE SHADOW-LIFE.

छाया-पुरुष की अभिलाषा

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इतना तो करना स्वामी,

जब प्राण तन से निकलें!

देह-मिट्टी मिट्टी से मिले, नीर से नीर मिले,

अगन से अगन मिले, पवन से समीर मिले,

महाप्राण में प्राण मिलें, चित्त चेतना से मिले,

जीव मिले शिव से, शक्ति, शिवा से मिले,

माया मायापति से, पुरुषोत्तम से पुरुष मिले,

मृत्यु मिले अमृत में, आत्मा, परमात्मा से मिले!

इतना तो करना स्वामी, जब प्राण तन से निकलें!!

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August 28, 2025

JEAN DUNN

पुनरावलोकित / re-view. 

चेतना और परब्रह्म 

Consciousness and The Absolute.

And

चेतना से पूर्व

Prior To Consciousness.

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ॐ-कारेश्वर में 11 फरवरी 1991 के दिन संध्या-समय माता आनन्दमयी तपोभूमि पहुँचा। इस स्थान पर पहले भी वर्ष 1984 में एक दिन के लिए आया था और उसी दिन शाम को यहाँ से लौट भी गया था। उस समय यह स्थान बस विकसित हो ही रहा था। उस समय माता आनन्दमयी के एक शिष्य और भक्त यहाँ नर्मदा के तट पर घोर वन में अकेले रहते थे और यहाँ इस आश्रम के निर्माण-कार्य में संलग्न थे। ॐ-कारेश्वर पर्वत के चारों ओर पर्वत की परिक्रमा करने का यह एकमात्र मार्ग है,  जिसमें नर्मदा नदी के मध्य में यह पर्वत जिसका एक नाम मान्धाता भी है, एक द्वीप की तरह दिखाई देता है। इसका विस्तृत विवरण शिव-पुराण, स्कन्द-पुराण और  दूसरे भी अनेक ग्रन्थों में प्राप्त होता है। फरवरी 1991 की 11 तारीख के दिन इस स्थान पर जब एक बार पुनः आया तो यहाँ एक बड़ा आश्रम बन चुका था। दूसरे दिन 12 फरवरी की सुबह परिक्रमा के लिए चला और कुल तीन चार घंटे में परिक्रमा पूरी कर लौट भी आया, जहाँ मुझे रहने के लिए आश्रम के भू-तल से ऊपर बना एक सुन्दर कमरा दिया गया। मार्च 1991 में उस आश्रम का निर्माण कार्य करनेवाले माता आनन्दमयी के भक्त और शिष्य वहाँ से इन्दौर चले गए और अब उस पूरे आश्रम में अकेला मैं ही रह गया था। मार्च माह से जुलाई माह तक वहाँ भीषण गर्मी पड़ती है। तब निचले तल पर मैं भोजन बनाता था, दोपहर भर वहीं रहता था और शाम होते ही नर्मदा में स्नान कर ऊपर छत पर बने उस कमरे में चला जाता था जहाँ पूरी रात बिताता था। कमरे के बाहर एक रास्ता परिक्रमा मार्ग पर और दूसरा नीचे के दूसरे तल से होता हुआ भू-तल पर जाता था। परिक्रमा मार्ग पर पास ही सफेद कुटी नामक एक और आश्रम भी था, जिसे कि इंदौर स्थित श्रीरामकृष्ण मठ के द्वारा स्थापित किया गया था, और वे ही उसका प्रबंधन और उसका संचालन भी किया करते थे।  

वहाँ मेरे पास एकमात्र पुस्तक थी मॉरिस फ्रीडमन द्वारा अंग्रेजी में प्रकाशित श्री निसर्गदत्त महाराज के बातचीत का अनुवादित ग्रन्थ :

 I AM THAT

मैं यदा कदा इसी ग्रन्थ का अवलोकन किया करता था। तब एक दिन प्रेरणा हुई कि यदि इसका हिन्दी भाषा में अनुवाद हो जाए तो शायद उस पुस्तक की शिक्षा को मैं अधिक अच्छी तरह समझ और ग्रहण कर सकूँगा। शाम को ॐकारेश्वर मंदिर तक गया, जहाँ छोटा मोटा बाजार है, तो राशन से मिलने वाली ₹४/- मूल्य की एक कॉपी पेंसिल और रबर खरीद लाया। फिर उस पुस्तक के कुछ प्रारंभिक अध्यायों का हिन्दी में अनुवाद करने का प्रयास किया। कुल 12 अध्याय तक कर पाया था कि सितंबर में मलेरिया की गिरफ्त में आ गया। फिर अगले कुछ वर्षों में यह कार्य वर्ष 1995 तक पूरा हुआ। इसे पुनः संशोधित कर इंक में लिखा और वर्ष 2000 में यह अहं ब्रह्मास्मि शीर्षक से प्रकाशित हुआ। 

कुछ मित्रों के अनुरोध पर बाद में श्री निसर्गदत्त महाराज के कुछ दूसरे मराठी ध्वनिमुद्रित (tape-recorded)   निरूपणों के  Jean Dunn  द्वारा किए गए अंग्रेजी अनुवाद की तरह प्रकाशित ग्रन्थ -

Seeds of Consciousness

को हिन्दी में अनुवादित किया। किन्तु उस समय रहने के लिए कोई ऐसा स्थान मेरे पास नहीं था जहाँ निश्चिन्त रह कर इसे पूरा कर पाता। ऐसा ही कुछ दो और पुस्तकों - 

Prior To Consciousness

और

Consciousness and Absolute 

नामक दो और पुस्तकों के बारे में भी था।

इन दोनों ग्रन्थों का अनुवाद करने के प्रयास के समय भी हुआ इसलिए उस कार्य को करने का विचार त्याग दिया। दूसरा एक कारण उस समय उज्जैन में 2002 में होने जा रहा सिंहस्थ पर्व भी था जिसके लिए :

भगवान् श्री रमण महर्षि 

के हिन्दी साहित्य को पुनः कुछ संशोधित और समुचित स्वरूप में प्रकाशित करना भी था। कुछ अनुवाद कार्य श्री जे. कृष्णमूर्ति के साहित्य का भी करना था। इन्हीं सारी व्यस्तताओं में समय व्यतीत होता रहा। बस यह सोचकर थोड़ा आश्चर्य अवश्य होता है कि यह सब कैसे हो रहा है।

यहाँ ब्लॉग्स लिखना प्रारम्भ होने पर यह सब और भी अधिक अकल्पनीय और आश्चर्यप्रद प्रतीत होता है।

इस स्थान पर नर्मदा नदी के तट पर नित्यप्रति नर्मदा के अनायास दर्शन होते हैं। सब कुछ सुखद और शांतिपूर्ण है, बस यही कह सकता हूँ।

उपरोक्त पोस्ट लिखे संभवतः अनेक वर्ष बीत चुके हैं,  "ड्राफ्ट" पड़ा था, जिसे अपनी स्मृति के लिए यहाँ पुनः प्रकाशित कर रहा हूँ। शायद इसी ब्लॉग में कहीं और भी यह पूर्वप्रकाशित हुआ होगा। किसी पाठक का ध्यान इस पर गया हो! 

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