द्राविडार्पितम् संस्कृतञ्च
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उन लोगों के आगमन के बाद ही उसे यह पता चला कि वाणी का प्रयोग कैसे किया जा सकता है।
वे वाणी को ईश्वरीय उपहार मानते थे और इसका प्रयोग कैसे किया जाए यह जानने का सौभाग्य इने गिने और केवल उन मानवों को ही प्राप्त होता था जो कि श्री गुरु से विधिवत् इसकी शिक्षा लेते थे। फिर भी कुछ शब्दों को उच्चारण में प्रयोग करना सभी के लिए स्वीकार्य था। जैसे कि अम्मा और अप्पा जिनका प्रयोग क्रमशः माता और पिता को संबोधित करने के लिए किया जाता था। इसी प्रकार गुरु शब्द भी पिता के अर्थ में प्रयुक्त किया जा सकता था। श्री शब्द भी सम्मान सूचक होता था। रोचक तथ्य यह भी था कि भाषा केतझ लिखित स्वरूप का आविष्कार उसके वाचिक स्वरूप से बहुत बाद में हुआ।
அப்பா, அம்மா, அன்பு, அம்பு, தண்ணீர, திரு,
जिनके लिए हिन्दी में क्रमशः अप्पा, अम्मा, प्रेम, तीर, जल और श्री / श्रीमान् शब्दों का प्रयोग किया जाता है। इन सभी शब्दों का प्रयोग इसलिए अत्यन्त आदरपूर्वक किया जाता था।
திருக்குறள்
तिरुक्कुऱऴ
ऐसा ही एक शब्द था जो श्री और गुरु के साथ ள் प्रत्यय / suffix को संयुक्त करने से बना था।
केवल कुछ ही मेधावी द्विज वर्ण के बालक गुरुकुल में वाचिक शिक्षा प्राप्त कर सकते थे और वे भी इस शिक्षा को उच्चारण की तकनीक में निष्णात होने पर ही प्राप्त कर सकते थे। वाणी को वैसा ही आदर दिया जाता था जैसा कि माता, पिता और गुरु को, अर्थात् अपने स्वयं से अधिक आयु के किसी व्यक्ति को दिया जाता था।
इन शब्दों को इसलिए भी विशेष आदर दिया जाता था क्योंकि उनका उद्भव ईश्वरीय दिव्य स्रोत से हुआ है ऐसा उन्हें अपरोक्षतः ज्ञात हो जाता था। तात्पर्य यह कि सभी ऐसे शब्द मनुष्य की वाणी से नहीं बल्कि उस अपौरुषेय अविकारी सत्ता से व्यक्त होनेवाले शब्द या नित्य वाणी की प्रकट अभिव्यक्ति थे।
गुरुकुल की शिक्षा वैसे तो सभी विद्यार्थियों और छात्रों को दी जाती थी किन्तु इसमें वाचिक भाषा का प्रयोग न के बराबर होता था। सभी विद्याएँ केवल अनुकरण की कला का अलग अलग प्रकार होती थीं और सभी छात्र इसी उपाय से सभी कलाओं को सीख लेते थे। इसी तरह से विभिन्न वस्तुओं का निर्माण करने की शिक्षा दी और ग्रहण की जाती थी। यहाँ तक कि विशेष प्रकार के छात्रों को भी केवल वेदपाठ को शुद्ध उच्चारण सहित करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। वेदपाठी छात्र उन शब्दों और वर्णों की, उनके क्रम, और उतार-चढ़ाव की उनके शुद्ध रूप में आवृत्ति तो कर सकता था किन्तु वह इसके प्रयोजन से तब तक अनभिज्ञ ही रहता था जब तक कि यज्ञ आदि के अनुष्ठान करते समय इनके माध्यम से जिन देवताओं का आवाहन किया जाता है, उनका आगमन नहीं हो जाता था। तब उसे वाणी और देवता के बीच का संबंध स्पष्ट हो जाता था। इसके पश्चात् उसे यह ज्ञात हो जाता था कि एकमेव परमेश्वर का ही आह्वान भिन्न भिन्न देवताओं के रूप में किया जाता है। इस प्रकार वाणी के स्वरूप को जान लेने पर मनुष्य की वैखरी नामक भाषा से उसका परिचय होता है।
मंत्रों के शुद्ध और स्पष्ट उच्चारण से उसका तंत्रिका तंत्र (neural network) भी सामञ्जस्यपूर्ण हो जाता है।
यह सब कुछ केवल अनुकरण मात्र से सीख लिया जाता है। इसके लिए किसी वाचिक, वैचारिक और लिपिबद्ध भाषा का प्रयोग करना तो दूर, परस्पर व्यवहार करना तक संभव नहीं होता है।
आज के युग में भी शिक्षा का यही सिद्धान्त सर्वत्र काम में आता है किन्तु "भाषा" में किसी सिद्धान्त को व्यक्त करने और उसे किसी सैद्धान्तिक रूप देने के क्रम में वह मूल सिद्धान्त हमें पूरी तरह से विस्मृत हो चुका है।
उसने इसी प्रणाली से बहुत सा ज्ञान प्राप्त किया जिसे वह प्रयोग तो कर सकती थी और आवश्यकता होने पर करती भी थी किन्तु उस ज्ञान को लिपिबद्ध कैसे किया जा सकता है, उसे यह ज्ञात नहीं था।
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