October 08, 2025

SAT-ADHARA

Sat-dhARA 

सत्-धारा / सात-धारा

चार सितंबर 2024 की सुबह नर्मदा तट पर स्थित इस स्थान पर आकर वर्ष 2025 में एक वर्ष और एक माह पूरा हो चुका है। पिछले वर्ष के अंतिम चार और इस वर्ष के पहले दो माह बहुत सुख से बीते। आशा है कि इस वर्ष के शेष तीन माह भी शायद यहीं पर सुखपूर्वक बीत सकेंगे। ब्लॉग लिखने, यू-ट्यूब पर छोटे बड़े वीडियो देखने में समय कभी कम पड़ता है, कभी बहुत धीमी गति से चलता हुआ महसूस होता है। अपने हाथ से और  अपनी सुविधानुसार अपने समय पर खाना बनाना और खाना भी अच्छा लगता है। किसी भी समय, कितने भी समय तक सोना भी इसी तरह है। कुछ समय तक बीच में कुछ लोगों से बातचीत हो पाने में कठिनाई हो रही थी। अब वह कठिनाई दूर हो गई है ऐसा लगता है। यह कठिनाई सिर्फ परिचितों से ही नहीं, अपरिचितों को भी मुझसे और शायद मुझे भी उनसे होती रही थी। धीरे धीरे लोग एक दूसरे से अनुकूल हो जाते हैं।

संबंध, संपर्क, संवाद और बातचीत तब सुनियोजित और स्वाभाविक हो जाती है, या बस औपचारिक रह जाती है, तब यह समझ में आ जाता है कि अनावश्यक बातचीत से मनोरंजन तो हो सकता है, बाद में ऊब भी हो सकती है। और हर कोई अकेलेपन से भागने की कोशिश किया करता है और इसलिए यह भी थोड़ा विचित्र है कि इतना परिपक्व होने से पहले, उसे यह नहीं समझ में आता है कि अकेलापन ईश्वर प्रदत्त वरदान ही है न कि एक ऐसी समस्या जिसका हल उसके पास नहीं होता है। यहाँ तक पहुँचने से पहले प्रायः हर किसी को बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है। कुछ लोग तो जल्दी समझ लेते हैं, किन्तु अधिकांश लोग बहुत देर से, या शायद अंत तक भी समझ तक नहीं पाते।

संसार और संसार के समस्त विषयों का संवेदन / perception चेतना / consciousness में ही होता है क्योंकि ज्ञानेन्द्रियाँ स्वभाविक रूप से बहिर्मुख होती हैं। बाह्य विषयों का संवेदन भिन्न भिन्न प्रकार का होते हुए भी चेतनारूपी पर्दे / interface पर उन्हें ही दृश्य, श्रव्य, गंध, स्वाद तथा स्पर्श के रूप में स्मृति में संग्रहित कर उनमें तारतम्य स्थापित करने के लिए अपने आपको ही आधार बना लिया जाता है और इस प्रकार स्वयं को परिभाषित कर लिया जाता है। यद्यपि पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से संसार को जाना जाता है किन्तु जिस बुद्धि नामक यंत्र से यह जाना जाता है वह स्वयं स्मृतिजनित हो सकती है, या बुद्धि नामक यंत्र ही स्मृति के उत्पन्न होने का कारण और आधार भी हो सकता है। यह एक दुष्चक्र है क्योंकि बुद्धि से स्मृति और उसका सातत्य पैदा होता है और स्मृति होने से बुद्धि कार्य करने में समर्थ हो पाती है। इस प्रकार एक विशिष्ट और वैयक्तिक "संसार" का संचार स्मृति / बुद्धि में ऐसे व्यक्ति-सापेक्ष वैचारिक संसार को सत्यता देता है, जो हर किसी के लिए उसका अपना अपना और अलग अलग होता है। व्यक्तियों के समूह या समुदाय के लिए भी ऐसा सामूहिक संसार अस्तित्वमान हो उठता है, और फिर स्मृति / बुद्धि पर आधारित चेतना (perception) में व्यक्ति और उसके संसार की एक कामचलाऊ पहचान और उस पहचान के अपने आपके होने की भावना उत्पन्न होती है। यह सब केवल वैयक्तिक और मानसिक कल्पना होती है।

चेतना के दो अवयव बुद्धि / स्मृति और पराक्रम हैं। भावना इन दोनों के बीच पुल की तरह है। समस्त संवेदन बुद्धि / स्मृति और भावना के माध्यम से ही संभव होते हैं और किसी भी संवेदन की अनुभूति इन्हीं दो में से किसी एक या एक साथ दोनों के ही मिश्रित रूप में होती है।

बुद्धि से किसी वस्तु के मात्रात्मक गुण को जाना जाता है, जबकि भावना से अनुभूति अर्थात् विषय संवेदन के प्रकार को। जैसे फूल की सुगंध अच्छी लगती है, किसी अस्वच्छ या गंदी वस्तु की गंध बुरी लगती है। अच्छा या बुरा लगना स्थूल भावनात्मक अनुभूति का उदाहरण है। इसकी स्मृति और स्मृति से उत्पन्न प्रतिक्रिया पुनः एक और भावनात्मक अनुभूति होती है, जिसे कोई शब्द देते ही "भाषा" नामक एक कृत्रिम साधन उपलब्ध होता है। इस साधन का और अधिक विस्तार तथा विकास होने पर यही बौद्धिक ज्ञान (intellect) का रूप ले लेता है। बुद्धि के कार्य का प्रकार वैज्ञानिक, गणितीय, या तार्किक हो सकता है या अनुभूति पर आधारित कलात्मक। जैसे फूल की गंध को भिन्न भिन्न फूलों के गंध की भिन्नता के तरह भी जाना जा सकता है, या मधुर, कटु, तीक्ष्ण आदि रूपों में भी उसकी पहचान की जा सकती है। यह सब ज्ञान का सूक्ष्म / आधिदैविक रूप है, जबकि स्थूल ज्ञान आधिभौतिक रूप होता है।

गणना करना स्पष्टतः गुणों को गणों में विश्लेषण करने पर निर्भर है, जबकि भावना किसी भावनात्मक संवेदन के प्रकार विशेष पर निर्भर होती है। भावना को गणित या तर्क की कसौटी पर और बुद्धि को भावना की कसौटी पर नहीं समझा या समझाया जा सकता है।

गणपति, या गणेश इसलिए बुद्धि के अधिष्ठाता देवता हैं, जबकि सरस्वती, विद्या की अधिष्ठात्री देवता हैं। संस्कृत भाषा में 'देवता' शब्द / पद को पुल्लिंग या स्त्रीलिंग दोनों ही तरह से प्रयुक्त किया जाता है। इसी तरह, 'अधिष्ठाता' शब्द को भी। अंग्रेजी भाषा में इस शब्द का अनुवाद   'Presiding'  किया जाता है, और प्रचलित रूप में अधिष्ठाता देवता को त्रुटिवश  Presiding Deities कहा जाता है, जो भ्रामक है। क्योंकि  Deity  शब्द  "दिति" से व्युत्पन्न सज्ञात या सजात  cognate  है। दिति और अदिति दोनों बहनें ऋषि कश्यप की पत्नियाँ हैं। दिति से दैत्यों और अदिति से १२ आदित्य / देवताओं का उद्भव हुआ। यह पौराणिक विवेचना है, जबकि वेद और वैदिक आधार पर दैत्य, देवता, यक्ष, गंधर्व, दानव, मनुष्य, राक्षस, किंनर, विद्याधर, अप्सरा आदि भिन्न भिन्न प्रजातियाँ हैं जो दस प्रजापतियों की संतानें हैं। सुर और असुर गुण-कर्म रूपी संपत्तियाँ हैं जिनका दैवासुर संपत्ति के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता में उल्लेख है।

गणपति और सरस्वती के अतिरिक्त पराक्रम के रूप में जिन देवता का उल्लेख वेदों और पुराणों में पाया जाता है उनका नाम है स्कन्द, कुमार, कार्तिकेय, या षडानन। वैदिक ज्यौतिष् के अनुसार स्कन्द को 'षाण्मातुर' कहा जाता है। जब पृथ्वी तारकासुर नामक असुर से त्रस्त थी तो पृथ्वी के उद्धार के कार्य के लिए भगवान् शिव और माता पार्वती के पुत्र कुमार / स्कन्द का अवतार होने का विधान ब्रह्मा ने सुनिश्चित किया था और तब देवताओं ने भगवान् शिव और माता पार्वती को संतानोत्पत्ति के कार्य में प्रवृत्त करने के लिए कामदेव को नियोजित किया। तब कामदेव को शिव ने तृतीय नेत्र खोलकर जलाकर भस्म कर दिया। और भगवान् शिव और माता पार्वती ब्रह्मा के विधान के अनुसार कितने ही दिव्य वर्षों तक सुरत क्रीडा में संलग्न हो गए। जब अत्यन्त देर तक वे इस क्रीडा में संलग्न रहे तो उनकी क्रीडा को किसी ने बाधित किया और  भगवान् शिव के तेजस् वीर्य के उत्सर्जन होने पर पार्वती ने उसे गंगा में प्रवाहित कर दिया। तब गंगा के जल से कुमार का जन्म हुआ। जन्म लेते ही उछलकर वह खड़ा हो गया। उस दिव्य संतान के छः मुख थे और तब कृत्तिका नक्षत्र की छः तारकाओं / मातृकाओं ने उसे स्तनपान कराया। इसलिए उसका नाम 'कार्तिकेय' हुआ। दिव्य आधिदैविक  घटना का उल्लेख स्कन्द-पुराण और  (संभवतः) श्रीरामचरितमानस में भी है। 

महाकवि कालीदास ने इसी विषय पर "कुमारसंभव" नामक कृति की रचना की जिसमें भगवान् शिव और माता पार्वती के बीच की सुरत क्रीडा का श्रँगारात्मक  वर्णन किया जिससे उन्हें शाप प्राप्त हुआ। 

एक छोटा सा प्रश्न सुबह किसी ने पूछा था :

क्या स्कन्द के षडानन नाम को खड़ानन कहने में कोई दोष है? 

इसका उत्तर यही होगा कि कथा के वाचन में जिस भाषा में कथा है, उस भाषा में प्रयुक्त शब्द को उस तरह कहने में कोई दोष नहीं है, किन्तु वेद में वर्णित भगवान् स्कन्द के मंत्र में इस प्रकार से प्रयुक्त करने में अवश्य दोष है। उदाहरण के लिए -

शिव अथर्वशीर्ष और गणपति अथर्वशीर्ष में स्कन्द को ही गणपति, रुद्र, इन्द्र, वरुण, बृहस्पति, अग्नि, सूर्य, वायु आदि भी कहा गया है। किन्तु षडानन शब्द का अन्यत्र जहाँ प्रयोग किया गया है, वहाँ इस शब्द का उच्चारण इसी प्रकार से किया जाना चाहिए, न कि खड़ानन के रूप में।

Y H V H  य ह्वः

प्रकारान्तर से ऋग्वेद में जहाँ यह्व पद का प्रयोग है और जिसे उसी प्रकार से यहूदी मत में यथावत् स्वीकार कर लिया गया है, षडानन या स्कन्द ही यह्व हैं, इसमें कोई संशय नहीं हो सकता है। यहूदी राष्ट्र इसरायल और उस परंपरा  के उद्भव को इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो इससे भी इसकी पुष्टि हो जाती है। इसरायल के राष्ट्रीय ध्वज पर षट्कोणीय चिह्न भी इसका ही द्योतक है। इस विषय पर पहले भी अनेक पोस्ट्स में विस्तार से लिख चुका हूँ। 

***



October 03, 2025

2 X 3 = 6.

कर्म का उद्भव कहाँ से होता है? / कर्म-मूल क्या है? 

Where from arises the Action / कर्म?

The Origin and the roots of :

The Action / कर्म

अध्याय १८ के श्लोक १८ के अनुसार 

ज्ञान ही कर्म का मूल है, अर्थात् ज्ञान का उन्मेष होने के अनन्तर ही कर्म घटित होता है। 

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना। 

करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः।।

और ज्ञान के व्यक्त रूप में आने के बाद ही कर्म भी व्यक्त हो उठता है जिसका फल अर्थात् कर्मफल भी कर्म का ही विस्तार है।

कर्तुराज्ञया प्राप्यते फलम्। 

कर्म किं परं कर्म तज्जडम्।।१।।

कृति महोदधौ पतनकारणम्।

फलमशाश्वतम् गतिनिरोधकम्।।२।।

ईश्वरार्पितं नेच्छया कृतम्।

चित्तशोधकं मुक्तिसाधकम्।।३।।

*** 



The Two / Three Kinds

यज्ञ-त्रयी, दान-त्रयी, त्याग-त्रयी, कर्ता-त्रयी,  and तप-त्रयी

In the last post, श्रद्धा-त्रयी and ज्ञान-त्रयी  were explained.

Before the Chapter 17, the emphasis was given upon the  निष्ठा  that is synonymous with  श्रद्धा  as elaborated in the verse 1, 2, 3  of Chapter 17 - viz. :

अर्जुन उवाच 

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।

तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्वमाहो रजस्तमः।।१।।

Shrikrishna answers in the next verse :

श्रीभगवानुवाच :

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। 

सात्विकी राजसी चैव तामसी तां इति शृणु।।२।।

सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। 

श्रद्धामयः अयं पुरुषः यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।३।।

In this way the words  

श्रद्धा  and  निष्ठा 

Convey the same sense, but श्रद्धा  is the foundamental, निष्ठा is of the secondary kind and importance. 

It's like say, the three birds for example - sparrow, crow and parrot. All the three are birds but of three different kinds.

In the 18th Chapter of The Gita, in the verse the root cause, the basic and the secondary nature of manifestation of all Action / कर्म has been dealt with.

यज्ञ, दान, तप, त्याग  are different kinds of Action / कर्म and as has been pointed out before, all are performed accompanied with the kind of determination, faith and belief that could be any of the kind of  सात्विक, राजस  or the तामस.

श्रद्धा is the natural, hereditary nature of the mind, स्वाभावजा - one is born with, is either of the सात्विक, राजस  or the तामस kind, while निष्ठा  is the intrinsic nature. The different kinds of Action / कर्म like the  यज्ञ, दान, तप, त्याग  are of the different kinds of activities one performs and is convinced that it will result in achieving the desired / expected goal example like the health, wealth, power, pleasures in this life or the life one believes that one attains after the death.

The same point has been dealt with in much detail in the Chapter 18.

In the next post with this considerations, the way different people exercise Action / कर्म, will be explained, with the focus of attention on the difference between the one who has attained either the

sAmkhya niShThA / सांख्य  / ज्ञान निष्ठा

Or, the karma niShThA  /  कर्म निष्ठा.

लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। 

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

(गीता अध्याय ३, Gita chapter 3)

Summarily; निष्ठा is of two kinds - 

ज्ञान / सांख्य  / Wisdom, 

and, 

कर्म / Action.

While the  श्रद्धा  is of three kinds -

sAtwikI / सात्विकी, rAjasa / राजस, or tAmasa / तामस.

ईशावास्योपनिषद्  deals with the same point of view  -

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। 

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।१।।

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। 

एवं त्वयि नान्यथेतोस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।२।।

Again,  the Chapter 2 of Gita is devoted to sAmkhya / ज्ञानयोग, the Chapter 18 is devoted basically to Action / कर्मयोग, and to the conclusion of the Scripture of the Yoga as the essence and the whole.

(UN-EDITED)

***


October 02, 2025

THE QUEER

What's What,  Who's  Who!

The Queer and the rest. 

Google Translate told me that there are about 80 words to describe the sense of this word, and there are 9 synonyms too.

This word is far more important to me as it greatly helps me in explaining the greatest (open) secret of all things and everything about Life.

In the broader sense I think I can define all and everything on this earth and in this world through my understanding of so many verses of Gita.

The two most important words I found in English could be :

The Futurist and The Extempore. 

I think this is enough for me. There may be a few other words to explain further what I mean by the word "Extempore".

I could say it means such a someone or something that is spontaneous, now, in this very moment without the hindrance caused by the interference of Thought  which is indicative of some imaginary or hypothetical "Past or Future"  where in an contemplative state of mind, the

In-attention (प्रमाद),

and the  Abstraction (कल्पना), the mind tends to ruminate, begins thinking and there arises subject to the situation,  -a "Thinker",  who assumes an apparent, independent and different existence of oneself, other than the

"Thought and Thinking".

This very "Thinker" though stems from "Thought and Thinking" owns the center stage and declares itself the whole and sole Lord of all and everything, and may be nicknamed "Ego".

This "Ego" or the most Queer  incidence is what is :

What's What and Who's Who

In his own imaginary, hypothetical world centred around "Thought".

It is verily the "Futurist" who is ever so totally and absolutely alienated from the "Now, here and ever,

and everywhere". 

Now the verses referred to the above :

अध्याय ४

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। 

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।

अध्याय १७

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। 

सात्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु।।१।।

सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।

श्रद्धामयो अयं पुरुषः यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।२।।

यजन्ते सात्विका देवान्यक्षरक्षांसि तामसाः।

प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यक्षरक्षांसि राजसाः।।

(इति श्रद्धात्रयी व्याख्याता।)

इदानीं तु ज्ञान-कर्म-कर्त्तात्रयी विवेच्यते -

अध्याय १८

सर्वभूतेषु येनेकं भावमव्ययमीक्षते।

अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम्।।२०।।

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।

वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्।।२१।।

(The above verse significantly pin-points and highlights the so-called Science and Technology of these times.)

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन् कार्ये सक्तमहैतुकम् 

अतत्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्।।२२।।

(इति ज्ञानत्रयी)

In the next post I'm going to explain the three kinds of Action (कर्म) and the one who is said to perform the Action (कर्म).

(UN-EDITED)

***













October 01, 2025

The Struggler

स्वतंत्रता, शक्ति और मुक्ति
निष्ठात्रयी 
मनुष्य सहित सभी प्राणी लोक निष्ठा से प्रेरित होते हैं। लोक निष्ठा का तात्पर्य है संसार में स्वयं का एक स्वतंत्र अस्तित्व होते हुए भी संसार पर निर्भर होना। इस प्रकार संसार की एक पहचान और उसमें स्वयं की उससे जुड़ी अपनी एक और भिन्न पहचान। अर्थात् मैं और मेरा संसार। दोनों एक दूसरे से कितने अलग, जुड़े या एक दूसरे पर निर्भर हैं यह प्रश्न उसमें शायद ही कभी उठता है। वह भी तभी जब इस संसार में उसे किसी संकट या असुविधा का सामना करना पड़ता है। तब भी वह संसार की वस्तुओं और लोगों में से ही किसी को अपना, किसी को पराया और शेष सभी को अपरिचित कहकर इस रूप में उनकी एक अलग पहचान स्थापित कर लेता है, जो हमेशा बदलती, बनती और मिटती रहती है।
संसार की इसी तात्कालिक पहचान के आधार पर वह 'अपने आप' को निरंतर सुखी, सुरक्षित और स्वतंत्र बनाए रखने में जुटा रहता है। यद्यपि उसे यह भी लगता है कि एक संभावना के रूप में किसी भी समय उसकी मृत्यु हो सकती है, पर 'अपनी' मृत्यु होने का वास्तविक तात्पर्य क्या हो सकता है, इसे वह न तो अनुभव से जान सकता है और न जानकारी की तरह इसलिए उस बारे में वह अधिक कुछ कर भी नहीं सकता। वह केवल यही जानता है कि उसके इस संसार में उसे स्वयं को और उसके 'अपनों' को यथासंभव अधिक से अधिक सुखी, सुरक्षित और प्रसन्न रखना है,और उसके सारे प्रयास इसी भावना से प्रेरित होते हैं। फिर 'अपने' भी कभी मित्र, कभी शत्रु और कभी अपरिचित भी हो जाया करते हैं। वह अपने ऐसे संसार की परिस्थितियों को अनुसार स्वयं को भी बदलता रहता है या किन्हीं आदर्शों, ध्येयों और सिद्धान्तों के लिए अपने जीवन का बलिदान देने को ही जीवन का एकमात्र आदर्श और ध्येय बना लेता है। वह अपने मत का कट्टर अनुयायी बनने का प्रयास करने लगता है, उस पर दृढ़ विश्वास करने लगता है और जैसे ही उसके विश्वास को तोड़ने की कोई चेष्टा कहीं से या किसी के द्वारा की जा रही है उसे ऐसा लगता है तो वह अपनी पूरी शक्ति से उसका न सिर्फ प्रतिरोध ही करता है बल्कि उसके लिए दूसरों के और अपने स्वयं के भी प्राण ले लेना उसके लिए परम पुण्य और सबसे बड़ा कर्तव्य होता है। यह है लोक निष्ठा से प्रेरित मनुष्य का जीवन। वह अंधे की तरह अपने लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ते रहने के लिए बाध्य होता है, फिर भले ही इस प्रयास में वह स्वयं या पूरी दुनिया ही नष्ट हो जाए, इसकी उसे चिंता ही नहीं होती। इसका सबसे अच्छा उदाहरण यदि कोई हो सकता है तो वह है चींटियों का जीवन जीने का तरीका। प्रयोग से भी जाना जा सकता है कि चींटियां दृष्टिहीन होती हैं और केवल गंध  तथा ध्वनि कंपनों के संकेतों के आधार पर, उसी माध्यम से अपना रास्ता तय करती हैं। वे ऊंट या भेड़ों की तरह अनुकरण के सहारे अपना रास्ता तय करती हैं। उन्हें विचार या तर्क आकर्षित नहीं करता। वे सिर्फ तात्कालिक आवश्यकता, लोभ या डर से बाध्य होकर कार्य करते हैं। उनमें से कुछ इने गिने नेतृत्व की क्षमता से युक्त होते हैं जबकि दूसरे अधिकांश सभी, दासता की जंजीरों में बुरी तरह जकड़े हुए होते हैं। यह दासता राजनैतिक से अधिक मंदबुद्धि से उत्पन्न नासमझी के कारण ही होती है। और इसीलिए ये लोग अत्यन्त मूढ़, दुराग्रही और क्रूर तथा कठोर प्रवृत्ति की मानसिकतावाले होते हैं और अधिकार, अवसर और शक्ति मिलते ही दूसरों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने लगते हैं। इनका समूह कितना भी बड़ा हो, इसीलिए धीरे धीरे विखंडित होता रहता है और लगातार टूटता ही चला जाता है। अंततः पूरी तरह से नष्ट ही हो जाता है। जबकि
दूसरी ओर कुछ ऐसे लोग होते हैं और कुछ सभ्यताएं भी होती हैं जिनकी किसी मूल परंपरा से ही विकसित कोई भाषा, संस्कृति और वैचारिक पृष्ठभूमि होती है जिसमें लोगों के बीच मतभेद हो सकते हैं किन्तु उनमें परस्पर प्रेम, सौहार्द और मानवता के मूल्यों पर आधारित कोई स्वाभाविक विश्वास और आत्मीयता भी होती है, जो न सिर्फ अपने समूह या समुदाय के, बल्कि संसार के सभी प्राणीमात्र के प्रति होती है। और फिर वे भले ही किसी प्रकार के ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करें या न करें, उनके मन और हृदय बहुत विशाल और उदार होते हैं। वे भीरु और शांतिप्रिय, या साहसी और वीर भी हो सकते हैं और समय आने पर उनका यह रूप भी दिखाई देता है। इनकी निष्ठा कर्म और पराक्रम के प्रति होती है। ये समाज और संसार को सतत ऊपर उठाते रहना चाहते हैं। इनमें से कुछ, असफलताओं निराश होकर -
"यह सब क्या है, क्या इस सबका कोई विशिष्ट प्रयोजन है, जैसे प्रश्नों पर सोचने लगते हैं। कभी कभी वे सोचने लगते हैं कि क्या पूरा संसार कभी पूरी तरह सुखी और सुरक्षित हो सकता है?" यद्यपि वे उन अधिकांश लोगों से इस दृष्टि से भिन्न और विशिष्ट भी हो सकते हैं कि उनकी बुद्धि और स्मृति औरों से श्रेष्ठ है, और इसलिए वे अपनी बुद्धि का युक्तिसंगत प्रयोग कर स्थितियों का अनुमान और आकलन अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं, किन्तु उनकी यह बुद्धि और स्मृति भी मूलतः तो प्रकृति के द्वारा संचालित की जाती है और वे बस प्रकृति के एक यंत्र की तरह प्रकृति से निर्दिष्ट कार्य को संपन्न करते हैं। बुद्धि और स्मृति के उसी प्रारूप pattern,  framework, पर कार्य करते हुए यद्यपि उसे ऐसी अनेक चमत्कारपूर्ण और असाधारण उपलब्धियाँ भी मिल जाएँ, जो कि उसे और उसके संसार को विस्मयविमुग्ध कर दें, परंतु इससे क्या उसके और उसके संसार के आभासी, काल्पनिक या वास्तविक उसके समस्त दुःखों का स्थायी अन्त हो सकेगा? इन सभी दुःखों की प्रतीति उसे  केवल उसकी जागृति की दशा में ही नहीं हुआ करती है! और, निद्रा आ जाने पर वे सभी अनायास और अकस्मात् ही विलीन भी नहीं हो जाते हैं?
क्या निद्रा के आते ही तर्क और बुद्धि भी उसी प्रकार तात्कालिक रूप से निष्क्रिय और विलीन नहीं हो जाते हैं? और उसका ध्यान जैसे ही इस तथ्य पर जाता है तब क्या वह इस तथ्य से इनकार कर सकता है कि मनुष्य और दूसरे सभी (चेतन) प्राणी निद्रा में जिस परिपूर्णता, शान्ति और सुख का अनुभव करते हैं, वह अवश्य ही उनके अपने ही भीतर विद्यमान है, न कि संसार और सांसारिक वस्तुओं में!
ध्यान / attention न तो कोई बौद्धिक या वैचारिक प्रक्रिया है, न कोई कौशल या ऐसी चतुराई जिसे कि कोई दूसरों से सीख सकता है। इसे अन्वेषण और अनुसन्धान की तथा उस अभ्यास की सहायता से भी प्राप्त किया जा सकता है जिसे
"नित्य अनित्य विवेक" कहा जाता है और जिसे कोई बच्चा या अल्पबुद्धि मनुष्य भी जानता तो है किन्तु उस पर उसका ध्यान ही नहीं जाता है।
पराञ्चखानि व्यतृणत् स्वयंभू
स्वयं धियोऽन्तः प्रविभाति गुप्तः।
धियं परावर्त्य धियोऽन्तरेऽत्र
संयोजनान्नेश्वरदृष्टिरन्या।।
(संभवतः यहाँ सद्दर्शनम् के एक श्लोक को उद्धृत करने में मुझसे भूल हुई हो, किन्तु उसे सुधार पाना अभी संभव नहीं प्रतीत हो रहा है।) 
स्मृति और बुद्धि दोनों ही मन, चित्त, वृत्ति और अहंकार के ही पर्याय हैं, इसलिए अत्यन्त प्रतिभाशाली भी कभी इस बाधा को पार नहीं कर पाता है।
वे कुछ लोग ही जिनमें विवेक की जागृति के फलस्वरूप संसार के सभी विषयों से मन उचट गया होता है वैराग्य से युक्त होकर 
"यह सब, जीवन, अस्तित्व, संसार आदि क्या है?"
जैसे प्रश्नों का बौद्धिक उत्तर नहीं बल्कि स्थायी समाधान खोजने के लिए उत्सुक हो उठते हैं।
वे जानते हैं कि किसी विशिष्ट या साधारण कर्म के करने से इस प्रकार के समाधान की प्राप्ति होने का कभी कोई संबंध ही नहीं है। 
गीता के अध्याय २ के निम्नलिखित श्लोक ४९ से कर्म की मर्यादा स्पष्ट हो जाती है -
दूरेणह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय। 
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।
भगवान् आदि शङ्कराचार्य भी यही शिक्षा देते हैं -
कुरु ते गंगासागर गमनम् व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीनं सर्वमनेन मुक्तिर्न भवति जन्मशतेन।।
और गीता के एक और सुप्रसिद्ध श्लोक में यह भी है -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। 
मा कर्मफलहेतुर्भू मा ते सङ्गोऽस्त्कर्मणि।।
जिसमें निर्देश दिया गया है कि 
तुम कर्म से पलायन भी नहीं कर सकते।
गीता के अध्याय २ के ९ वें, अध्याय ३ के २७ वें और अध्याय १८ के ५९ वें श्लोकों में पुनः इस पर बल दिया गया है।
यहाँ पर इस पोस्ट को समाप्त कर रहा हूँ। 
***



    




September 27, 2025

NON-DUALITY.

द्वैत अद्वैत

--

संवाद, स्मृति, पहचान, संबंध, द्वैत में ही संभव होते हैं। भय, लोभ, आशा, आशंका, अपेक्षा, उपेक्षा, अतीत और भविष्य, यहाँ और वहाँ आदि सभी का अस्तित्व भी इसी प्रकार से द्वैत की पृष्ठभूमि में, और द्वैत के संदर्भ से ही सिद्ध होता है। और द्वैत भावना के अस्तित्व में आने के बाद ही द्वैत सत्य प्रतीत होता है। द्वैत-भावना के अभाव में न तो किसी संबंध और न ही किसी प्रकार का संवाद का ही संभव है। द्वैत के ही अन्तर्गत दृष्टा और दृश्य का उद्भव, स्थिति और लय होता है।

***


September 21, 2025

A Sea-change.

सर्वपितृ अमावस्या

पितृपक्ष की अंतिम तिथि को महालया भी कहा जाता है। महालया नामक इस तिथि पर पितर जब मृत्यलोक से अपने पितृलोक में लौट जाते हैं। पितृलोक में वे उस समय तक वास करते हैं जब तक उन्हें कोई नया शरीर,  और उस नये शरीर में नया जीवन नहीं प्राप्त हो जाता है। जैसे ही उन्हें एक नये शरीर में नया जीवन प्राप्त हो जाता है, उस जीवन में उनकी नयी जीवन-यात्रा शुरू हो जाती है। और प्रायः हर कोई अपने इसी जीवन को अपने जन्म के रूप में मान लिया करता है। बिरले ही कभी किसी को ऐसा लगता है कि वह इस शरीर में कहीं दूसरे स्थान और उस ऐसे दूसरे शरीर से आया है जहाँ पहले कभी वह था, किन्तु यह उसे स्मृति और स्वप्न जैसा लगता है। जीवन अर्थात् चेतनता / चेतना (Sense, Sensitivity and Sensibility), जिसे एक शब्द में consciousness कह सकते हैं। बहुत बिरले ही कोई ठीक ठीक यह समझ पाता है कि जिसे जीवन, मन और चेतना कहा जाता है, उनमें परस्पर क्या समानताएँ और क्या भिन्नताएँ हैं। एक शब्द के स्थान पर दूसरे शब्द का प्रयोग करने से यह नहीं स्पष्ट होता है कि उससे जिस वस्तु का उल्लेख किया जा रहा है वह क्या है। चेतना का अर्थ है वह क्षमता जिससे कोई वस्तु किसी दूसरी वस्तु को जान और अनुभव कर सकती है। इनमें से दोनों ही वस्तुओं में यह क्षमता हो तो उन दोनों को ही चेतन अर्थात् इस क्षमता से युक्त कहते हैं, जबकि उनमें से जब केवल एक में ही यह क्षमता हो और दूसरी वस्तु में यह क्षमता न हो तो उस दूसरी वस्तु को जड कहते हैं। एक और रोचक तथ्य यह भी है कि किसी के पास इसका भी कोई प्रमाण नहीं हो सकता कि अपनी तुलना में जिस वस्तु को जड कहा जा रहा है वह  ऐसी जानने या अनुभव करने की क्षमता से रहित है ही! किन्तु फिर भी जीवन से युक्त और जीवन से रहित किसी वस्तु की पहचान तो की ही जा सकती है। तात्पर्य यह है  कि किसी वस्तु में उसके अपने आपके अस्तित्व में होने का भान है या शायद न भी हो, किसी और को यह भान अवश्य है। और जिसे अपने आपके अस्तित्व का भान है वह स्वयं को इस वर्तमान में प्राप्त शरीर तक सीमित एक व्यक्ति-विशेष मानता है या उसे लगता है कि इस वर्तमान शरीर में वह कहीं अन्य स्थान से आया है, जहाँ पर वह एक अन्य शरीर के रूप में जी रहा था। और पिछले सौ - पचास या अधिक वर्षों तक से इसका वैज्ञानिक अध्ययन कर इसके अकाट्य प्रमाण भी मिल चुके हैं, इसलिए यह कहा जा सकता है कि ऐसा कोई व्यक्ति अब पितृलोक से निकलकर पुनः जन्म ले चुका है। और यह अनुमान भी किया जा सकता है कि संभवतः बिरले ही कभी कोई मृत्यु के बाद बहुत दीर्घ काल तक पितृलोक में रहता हो, इसलिए भी पितरों के श्राद्ध का महत्व बहुत थोड़े समय तक के लिए हो सकता है।

सर्वपितृ अमावस्या का महत्व क्या है, इसे इस दृष्टि से भी समझा जा सकता है। 

*** 


September 18, 2025

34 Years Ago

कितने जंगल हाउस!?

THE FIRST JUNGLE HOUSE.

12 फरवरी 1991 के दिन या उससे एक दिन पहले, मैं ओंकारेश्वर पहुँचा था। आश्रम की स्थापना और संचालन एक पूज्य स्वामी करते थे। भू-तल पर रहते थे और ऊपर प्रथम तल पर माता आनन्दमयी के मन्दिर का निर्माण हो रहा था। उस मन्दिर तक जाने की सीढ़ियाँ प्रथम तल को दो भागों में विभाजित करती थीं। पहला हिस्सा बाहर की ओर था, बाहर खुली छत और एक कमरा था, जिसमें दो द्वार थे। दोनों से बाहर आया जाया जा सकता था, और बाहर कहीं जाना होता तो यह ध्यान रखना होता था कि दोनों द्वार ठीक से बंद हों। किसी पर भी एक या दोनों द्वारों पर भी एक एक ताला लगाया जा सकता था। दो सीढ़ियाँ भू-तल से आती थीं और कमरे के दोनों तरफ से निकलकर प्रथम तल पर आती थीं। एक सीढ़ी भू-तल पर सामने की दिशा में थी और दूसरी पीछे की दिशा में। सब सीढ़ियाँ, चबूतरा आदि पत्थरों को मिट्टी से जोड़कर और उन पर सीमेंट चढ़ाकर बनाए गए थे। स्वामीजी का कमरा पीछे था और उसके भी दो द्वार थे। एक कमरा स्टोर रूम की तरह था और दूसरा उससे लगा हुआ, जो सामने था। बीच में खुली हुई जगह में मिट्टी का चूल्हा था जहाँ भोजन बनता था। मार्च में स्वामीजी वहाँ से इन्दौर चले गए थे। और मैं अकेला ही वहाँ रहने लगा था। सामने के कमरे के बाहर एक तखत पड़ा था, जिस पर मैं लगभग पूरे दिन बैठा या सोया रहता था। कुछ दूर पर नर्मदा नदी बहती थी, और वहाँ तक जाने के लिए पत्थरों के बीच से जाना पड़ता था। प्रायः ही दो या अधिक बार नदी तक जाया करता था।

वह स्थान जैसा था, वैसा ही कुछ यह स्थान भी है, और यहाँ भी वैसा ही खुला खुला आश्रम परिसर है। इसलिए अचानक उसका स्मरण हुआ। यह स्थान शायद अधिक सुन्दर और सुखद है। बाहर बहुत निर्माण कार्य चल रहा है। मेरे लिए करने के लिए बहुत सा काम हो सकता है। मेरा विचार है कि मैं इस पूरे परिसर को अपनी कल्पना के अनुसार बना सकूँ। साल भर पहले तक यह तक नहीं पता था कि कहाँ और कैसे रहना है, अब अनपेक्षित रूप से एकाएक बात बहुत बदल गई है। सोचा जाए तो बहुत सा काम करना है। अधोसंरचना तैयार है। संभवतः इस दीपावलि तक सब कुछ सुव्यवस्थित हो जाएगा। अभी तो बस प्रतीक्षा करते हुए समय बीत रहा है।

This Too Is Another Jungle House!

बीच में एक वर्ष 2023-24 में एक और जंगल हाउस में बीता था। वह भी बहुत सुन्दर था किन्तु फरवरी 2024 में उसे, स्कूल के उस निर्माणाधीन भवन को ढहा दिया जाना था, इसलिए वह स्थान छोड़ना पड़ा।

ऐसा ही एक जंगल हाउस राजघाट फोर्ट वाराणसी पर भी था जहाँ कृष्णमूर्ति फॉउन्डेशन के स्टडी-सेन्टर और रिट्रीट पर पहले डेढ़ हफ्ता फरवरी 2000 में और फिर एक हफ्ता नवंबर 2002 में बीता था।

यूँ भी होता है, कभी सोचा न था!

***



*** 

September 17, 2025

Mythology?

वराह-अवतार

पता नहीं यह प्रतीकात्मक है या सांकेतिक,

किन्तु पौराणिक मान्यता के अनुसार, अलग अलग दृष्टि से, यह कहा जाता है कि भगवान् विष्णु के दशावतार (दस), और चतुर्विंशावतार (चौबीस) होते हैं और उन चौबीस अवतारों में से एक वराह भी है।

यह अनुमान हो सकता है कि अंग्रेजी भाषा का

BOAR, 

शब्द संभवतः संस्कृत भाषा के वराह का अपभ्रंश हो।

और यह भी सत्य है कि आजकल यू के (U. K.) में अवैध आव्रजनों (Illegal Migrants) के डर से लोगों ने अपनी रक्षा के लिए डॉग्स पालना छोड़कर सूअर / शूकर पालना शुरू कर दिया है।

मैं नहीं जानता किन्तु जैसा कि पुराण (वराहपुराण) नाम से लगता है, जीव-विज्ञान की दृष्टि से, वराह और शूकर दोनों ही प्रजातियाँ एक ही प्रकार के जीव हैं।

वराहपुराण के अनुसार पृथ्वी महाजलप्रलय के समय  जब पाताल में डूब रही थी तब भगवान महाविष्णु ने वराह रूप में अवतरित होकर पृथ्वी को अपने शृङ्गदन्तों के द्वारा ऊपर उठा लिया था और उसे महाजलप्रलय  /  महाजलप्लावन से बचा लिया था। 

क्या यह केवल संयोग है कि यह पौराणिक मान्यता / (Mythology) एक व्यावहारिक सत्य की तरह आज प्रयुक्त हो रही है?

🐗 

***

September 16, 2025

11:00 12:00 01:00

मध्य-रात्रि 01:21

बहुत समय से निद्रा का 'समय' अस्तव्यस्त चल रहा है। इसलिए बस येन-केन-प्रकारेण नींद खुलते ही शरीर को उसकी स्थिति पर छोड़ देता हूँ। कभी कमरे में ही चलता फिरता हूँ या कुर्सी पर बैठकर आँखें बंद कर लेता हूँ। यह स्पष्ट रहता है कि सोना नहीं है और सोचना नहीं है। यह जानना भी रोचक है कि निद्रा उसके और शरीर के अपने नियमों के अनुसार आती और जाती है। इस बारे में मन कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। आवश्यक प्रतीत  होने पर किसी स्थिति में एक सीमा तक जागते रहने का प्रयास किया जा सकता है और सीमा का उल्लंघन करने पर उसका मूल्य भी चुकाना पड़ता है।

रात्रि 02:00 तक का समय यूँ ही कटता है। फिर कोई स्मृति सक्रिय हो उठती है तो उसमें लिप्त होने लगता हूँ। या, बस किसी तरह शांत रहने का प्रयास करता हूँ। पर फिर, प्रयास ही शांति में बाधा है, इस पर ध्यान जाता है। तो अशांत मन से संघर्ष नहीं करता। 02:00 से 03:00 तक का समय यूँ बीतता है।

03:00 बजे के बाद मन सुस्थिर होने लगता है।

कोई विषय, कोई विचार, कोई स्फूर्ति मन में उमंग बन जाती है और 

विषयाननुवर्तन्ते विषयी यत्र

तादात्म्यं तत्र प्रवर्तते।

तादात्म्यमेव वृत्तिः स्यात्

वृत्तिर्हि चित्तमित्यस्मिता।।

इस तरह मन को अवलम्बन प्राप्त होते ही 'समय' से सामञ्जस्य हो जाता है। तब न ऊब होती है, न थकान, न नींद आ रही होती है, न आलस्य। इसे ही सालंब ध्यान कह सकते हैं।

देशबन्धचित्तस्य धारणा।।१।।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।२।।

तदेवार्थमात्रनिर्भासा समाधिः।।३।।

(विभूतिपाद )

स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा।।

अब रात्रि के 01:53 हो रहे हैं।

मन और शरीर अपनी अपनी प्रकृति से गतिशील रहते हैं। और जब उनकी गतियों के बीच असामञ्जस्य होने लगता है तो संघर्ष, असंतोष, व्याकुलता, अवसाद और ग्लानि आदि की स्थिति बनने लगती है। और तब मन उस स्थिति से त्राण पाने के लिए अविवेकपूर्वक किसी भी विषय का आलंबन लेकर उस विषय से संलग्न और  लिप्त हो जाता है। 'समय' यद्यपि बीत जाता है, किन्तु हाथ कुछ लगता है तो वह बस निराशा और व्यर्थता ही होता है। हाँ, फिर 'समय' बीतने पर धीरे धीरे मन स्वस्थ भी हो जाता है। जैसे किसी बर्तन में रखा जल एक बार हिल जाने के बाद स्वयं ही धीरे धीरे शांत और सुस्थिर हो जाता है, और किसी प्रयास से उसे शांत नहीं किया जा सकता। प्रयास से तो वह और भी चंचल और अस्थिर हो जाया करता है।

मध्य-रात्रि 02-19

***

    

September 12, 2025

The River.

नदी की आत्मकथा 

लौटती है नदी, लौटता है प्यार,

चल रही, चल रही, चल रही बयार!

जब चली थी पिघल, हो रही थी विकल,

ना पता थी राह, या कि क्या है मंजिल,

बस था उत्साह एक, एक ही थी उमंग,

पुलकित हृदय था, पुलकित था अंग अंग, 

सूर्य की रश्मि ने जब किया चुम्बन प्रथम, 

प्रेम का आह्लाद की अनुभूति तब हुई प्रथम,

एकला चालो की जब हृदय में स्फूर्ति उठी,

धरती ने बाँह गही, नभ ने दिया आशीष। 

सींचती रही धरा को, प्यास सूखे कंठ की,

तृप्त करती रही आतुर क्षुधा जन जन की, 

छंद बंध तोड़कर बह चली, वह बह चली!

फैल गई सिन्धु सी कभी विस्तार में, 

सुखकर काँटा हुई कभी जैसे थार में,

हार में या जीत में,  जीत में या हार में,

बह चली, बह चली, बह चली वह प्यार में!

घोर वन, दुर्गम अरण्य, भूलकर वह पाप पुण्य,

बँटती चली अथाह प्यार वह संसार को, 

और सागर से मिली, यूँ कि अपने प्यार को।

हो गई लावण्यमयी किन्तु पुनः फिर विकल, 

सूर्य की उत्तप्त राश्मि ने दिया संताप प्रबल,

हो उठी वाष्प तब, और उठी नभ की ओर,

मेघ बनकर फैल गई हर तरफ हर ओर! 

द्वार खड़े खड़े तरस गई आखिर आज बरस गई,

प्यासी बदरी सावन की, ऋतु आई मनभावन सी।

बस यही तो चलता रहा, नदिया यूँ बहती ही रही, 

जीवन के सारे ही सुख दुख तो यूँ सहती ही रही। 

उसकी खुशियाँ, उसके आँसू, उसका प्यार यही, 

उसका दामन, उसका आँचल, उसका संसार यही! 

***




September 11, 2025

Wild Nights!

रात के हमसफ़र

वह फरवरी 2023 की शाम रही होगी जब मैं उस जंगल हाउस में प्लास्टिक की डोरी से बनी हुई खाट पर खुले आकाश तले सो रहा था। वहाँ वह रॉक्सी भी थी जिससे अभी मेरी ठीक से पहचान नहीं हुई थी। थोड़ी दूर पर ही एक पलंग-पेटी थी जिस पर वह आदिवासी पति पत्नी युगल सोए होते थे। और अगर रात्रि में मुझे उठना होता था तो उस आदिवासी पुरुष को आवाज देकर जगाना होता था जो वहाँ एक कर्मचारी भी था, क्योंकि रॉक्सी से मुझे खतरा हो सकता था। वैसे रात में उसे खुला छोड़ दिया जाता था और वह उस पूरे क्षेत्र में बेख़ौफ घूमती रहा करती थी। हालाँकि हफ्ते भर में वह मुझे पहचानने लगी थी और कभी कभी तो मुझे सूँघने और चूमने चाटने की कोशिश भी करती थी। बाद में तो पूरे साल भर तक, जब तक मैं उस जंगल हाउस में रहा वह लगभग पूरे दिन भर और रात भर मेरे साथ रहती थी। वह एक बहुत ही खतरनाक नस्ल की कुतिया थी जिसे पालना कुछ देशों में तो प्रतिबंधित भी है। गर्मियाँ खत्म होते ही मैं जंगल हाउस की टीन शेड की छत के नीचे बने अपने कमरे में सोने लगा था और शाम से ही जंगली कीड़ों मकोड़ों का आक्रमण शुरू हो जाता था। बिजली कभी कभी दो दो दिनों तक बंद रहती थी, और मोबाइल की रोशनी से भी कीड़े बुरी तरह आकर्षित होते थे इसलिए शाम से सुबह तक कुछ खाना पीना भी जैसे मेरे लिए हराम होता था। कीड़ों से छुटकारा तो तभी होता था जब सर्दियाँ पड़ने लगती थीं। बस वे दो या तीन महीने ही, जब भीषण ठंड में मैं अपने पूरे कपड़े, ऊनी टोपी भी पहन लेता था और एक कंबल तथा चादर ओढ़कर उस खाट पर कुड़कुड़ाते हुए रात गुजारना होती थी। सुबह से शाम तक खुली धूप में घूमता रहता। अकसर हर दूसरे दिन ही दूध और अन्य जरूरी सामान लेने के लिए पास के गाँव तक जाना होता था। दो किलोमीटर दूर स्थित उस गाँव तक जाने के लिए मुझे तैयार देखते ही रॉक्सी भी मेरे पीछे पीछे आने की कोशिश करने लगती थी, लेकिन एक किलोमीटर चलने पर वह मुझे छोड़कर वापस लौट जाया करती थी। और उसका मालिक जो जंगल हाउस का चौकीदार था, और पास के ही दूसरे गाँव में रहता था, सुबह शाम रॉक्सी को वहाँ दिन भर के लिए बाँध दिया करता था ताकि वहाँ से आने जाने वाले लोगों को उससे खतरा न हो।

पुनः वर्ष 2024 की सर्दियों के प्रारंभ में जब मैं इस नये स्थान पर आया तो जंगल के कीड़ों का वही आतंक फिर यहाँ भी शुरू हो गया। 

ये कीड़े ही यहाँ रात के मेरे हमसफ़र थे। 2025 की इन गर्मियों तक उनसे बुरी तरह त्रस्त रहा। अभी इस समय भी एक दो कीड़े आसपास मंडरा रहे हैं जिन्हें पकड़कर बाहर फेंक देना है। रात होने और शाम ढलने से पहले ही भोजन कर लेता हूँ और कभी या तो छत पर टहलता हूँ या कभी नींद आने पर सो जाता हूँ। दो घंटे सोकर जब उठता हूँ तो भी फिर मोबाइल बंद ही रखता हूँ। कुर्सी पर बैठा रहता हूँ।

"क्या कर रहे हो?"

उस तथाकथित मित्र का फोन आता है तो कहता हूँ :

"खाना खा लिया है, लाइट बंद है इसलिए चुपचाप अंधेरे में कुर्सी पर बैठा हुआ हूँ।"

उसे समझ में नहीं आता। मुझे बरसों से यह आदत है। बिना किसी प्रकार के शारीरिक या मानसिक, बौद्धिक कार्य में संलग्न हुए चुपचाप टहलते रहना या बस सिर्फ बैठे रहना। पढ़ना, लिखना, किसी से बातचीत करना, जप आदि यह सब न करते हुए और कर्तृत्व की भावना तक से भी मुक्त रहते हुए। जैसा कि बचपन में अनायास होता था - सुबह नींद से उठने पर दरवाजे पर जाना, खड़े हो रहना आकाश को और अपने आसपास देखते रहना। तब मन में भाषा का अभाव था। और इसलिए सोच पाने की कोई संभावना भी नहीं थी। फिर धीरे धीरे कैसे भाषा और फिर विचार करने की बाध्यता उस शांत मनःस्थिति पर कब हावी हो गई यह तक पता न चला। सौभाग्य से बचपन से ही किसी से भी अपनापन कभी न बन पाया बल्कि सबसे कुछ दूर ओर अकेले ही रहना मुझे अधिक भाता रहा। जंगल हाउस में रहते हुए फिर वह बचपन लौट आया जब अकेलापन कभी कचोटता नहीं बल्कि सहलाता ही था। वह एकमात्र अनन्य साथी, जिसे अपने से अलग कर पाना वैसे भी संभव नहीं है।

याद अगर वो आए, ऐसे लगे तनहाई,

सूने शहर में जैसे, बजने लगे शहनाई,

आना हो, जाना हो, कैसा भी जमाना हो,

उतरे कभी न जो खुमार वो प्यार है!

वैसे ही यह अकेलापन जो एक ओर एकाकीपन भी है तो दूसरी ओर इसमें किसी प्रकार के अभाव का भी नितान्त अभाव है। सुख दुःख, चिन्ता या डर, आशा या निराशा, लोभ, आकर्षण-विकर्षण, आशंका या विरक्ति, आसक्ति, स्मृति और विस्मृति से भी रहित। शायद यही वह प्रेम है, जिसमें किसी दूसरे का भी अत्यन्त अभाव होता है। यह खुमारी जैसी कोई आने जाने वाली वस्तु नहीं है। न तो इसे पाया जा सकता है न खोया ही जा सकता है। इसका आविष्कार किया जाता है और किया जा सकता है। 

***




September 09, 2025

Filial / Affiliate,

संबंध नहीं, परिचय / पहचान

Google Translate

के सौजन्य से पता चला कि अंग्रेजी शब्द  Fillial  का अर्थ है -पुत्रवत् स्नेह!

उम्र में मुझसे छोटे मेरे ऐसे तीन दिवंगत मित्र थे, जिनसे मैं कुछ इसी तरह की डोर से बँधा था। उनसे मित्रता का कारण अलग अलग था और जो मुझे, और शायद उन्हें भी बहुत स्पष्ट नहीं था।

उनमें से प्रथम थे, जिनका एकमात्र लक्ष्य था समाज में आध्यात्मिक गुरु की तरह से अपनी पहचान स्थापित करना।

दूसरे वे, जिनका एकमात्र तय लक्ष्य संभवतः यह था कि  उन्हें एक सफल, प्रतिष्ठित, जाने-माने और विश्वविख्यात व्यक्ति की तरह जाना जाए।

इन दोनों की अपनी भौतिक और सांसारिक आकांक्षाएँ भी थीं जो संभवतः पूर्ण हुईं होंगी, ऐसा भी लगता है।

पहले मित्र तो आजीवन अविवाहित रहे, दूसरे मित्र का विवाह हुआ किन्तु संतान नहीं थी।

तीसरे मित्र विवाहित थे और उनके दो पुत्र भी हैं। प्रकटतः तो वे अध्यात्म में रुचि होने से मुझसे जुड़े थे। 

तीनों ही किसी समय किसी प्रकार की सार्वजनिक सेवा (service) में थे। पहले मित्र ने अनुकूल अवसर और समय आने पर स्वेच्छा से सेवा से अवकाश ले लिया था और संन्यासी की तरह रहने लगे थे। 65 वर्ष की उम्र के आसपास, स्वास्थ्य ठीक न होने से उनका देहावसान हो गया। 

दूसरे और तीसरे मित्र का सेवा में रहते हुए आकस्मिक देहावसान हो गया।

कभी कभी यह सोचकर आश्चर्य होता है कि हर व्यक्ति के जीवन में कौन किसलिए आता है, कब तक रहता है और फिर कब संसार छोड़कर चला जाता है!

किन्तु अपने आपके जीवित रहने तक अपनी स्मृतियों में तो वह अवश्य ही रह जाता है! 

***


At N H 44,

रेवा तीरे!! 

--

जैसे कुछ पता ही नहीं चलता है,

कब उगता है दिन, कब ढलता है! 

सुबह से रात, रात से सुबह तक,

बादलों का समंदर बरसता है!

हवाएँ बहती, रुकती चलती हैं,

उम्मीद हृदय में मचलती है,

कभी तो बदलेगा ये मौसम भी,

जैसे हर चीज ही बदलती है!

दूर से आती है, दूर जाती है,

शोर करती है, गुनगुनाती है,

शिव की लाड़ली चंचल बेटी,

सबसे निर्लिप्त बहती जाती है!

यहाँ आया था उससे मिलने ही, 

उसका आशीष मुझपे रहता है,

हर घड़ी उसके स्वर, उसका रव,

मेरे कानों में पड़ता रहता है।

डूब जाता हूँ स्वरलहरियों में, 

और मैं भी लहर हो जाता हूँ,

अपना परिचय कि कौन हूँ मैं,

अनायास भूल जाता हूँ मैं,

और संसार भी खो जाता है,

उसकी पहचान भी खो जाती है,

फिर भी चलता है सुसंगत जीवन, 

न जाने कौन चलाता है इसे!

बस ये आदत ही हो गई है अब,

कोई अतीत या भविष्य नहीं,

बस ये वर्तमान रहा करता है, 

और जीवन इन्हीं तरंगों में, 

हर घड़ी मुग्ध बहा करता है!

(सत्-धारा सत्-चित्) 

***


  


 







September 07, 2025

Algorithm, Gestalt,

Conflict and The Idiosyncracy

दुःख अनंत और असीम है। कभी उसका अन्त नहीं होता। बस सतत और अनवरत रूपान्तरित होता रहता है। वही, जो अभी सुख प्रतीत हो रहा होता है, पलक झपकते दुःख प्रतीत होने लगता है, और दुःख दूर हो गया, ऐसा क्षणिक आभास और सुख के मिलने की आशा का नया, क्षणिक आभास उसका स्थान ले लेता है।

यह सब एक दुष्चक्र होता है, जो शायद अनंत और असीम है। यह सब मन की गतिविधि और मन में होता है जो स्वयं यह दुष्चक्र और अपने आपको इसमें फंसा हुआ अनुभव करता है। मन स्वयं ही 'अनुभव' होता है और मन ही 'अनुभव' को परिभाषित भी करने लग जाता है। मन स्वयं अपने आपको और वर्तमान के इस क्षण को इस प्रकार अतीत और भविष्य की कल्पना करते हुए समय की अवधारणा में विभाजित हो जाने के आभास से ग्रस्त हो जाता है।

यही मन है। यही 'मैं' है, जिससे पृथक्, स्वतंत्र दूसरा कोई या कुछ कहीं होता ही नहीं।

यह अवधारणा ही ग्रन्थि / Gestalt है, जो कि वैचारिक आग्रह के रूप में सूत्र / Algorythm में बदल जाती है।

विभाजित मन split mind ही व्यक्ति के रूप में क्षणिक अस्तित्व का आभास उत्पन्न करता है और अगले ही क्षण पुराना व्यक्ति विलीन होकर नये व्यक्ति को अस्तित्व प्रदान करता है। यह नया व्यक्ति उसके अपने क्षण में पुराने का एक और  संस्करण होता है जो सतत रूपांतरित होता हुआ मन के एक व्यक्ति विशेष होने का भ्रम होता है।

यह व्यक्ति अर्थात् यह भ्रम ही मन का जीवन है, जो सतत स्वयं को काल्पनिक निरंतरता प्रदान करता रहता है creating one's own an apparently continuous existence.

यह मन ही पुनः किसी इंद्रियगोचर बाह्य जगत की प्रतीति से मोहित हुआ उसमें अपने आपको 'मैं' की तरह उससे संबद्ध किन्तु उससे स्वतंत्र भी मान बैठता है।

यह सब आकस्मिक और अप्रत्याशित रूप से घटित होता है और तब मन-रूपी यह विखंडित व्यक्ति fragmented person की तरह से केवल द्विध्रुवीय असामञ्जस्य - bipolar personality disorder से ही नहीं, बल्कि बहु-व्यक्तित्व असामञ्जस्य - multiple personality disorder (mpd) से भी ग्रस्त हो जाता है।

इस सबका पूर्वाग्रह-रहित अवलोकन अर्थात् careful awareness अवश्य ही इस दुष्चक्र को विलीन कर सकता है।

इस पूर्वाग्रह-रहित अवलोकन का अभ्यास नहीं किया जा सकता। जीवन What Is के प्रति उत्कट प्रेम और पूर्वाग्रह-रहित अवलोकन होने पर यह अनायास ही फलित होता है और इस तरह से फलित होने पर यह अज्ञात से अज्ञात के आयाम में इस तरह से विकसित, पल्लवित और पुष्पित होता रहता है, जिसके बारे में न तो कोई अवधारणा, न सिद्धांत और न ही कोई निष्कर्ष प्राप्त हो सकता है।

***







September 01, 2025

THE SHADOW-LIFE.

छाया-पुरुष की अभिलाषा

--

इतना तो करना स्वामी,

जब प्राण तन से निकलें!

देह-मिट्टी मिट्टी से मिले, नीर से नीर मिले,

अगन से अगन मिले, पवन से समीर मिले,

महाप्राण में प्राण मिलें, चित्त चेतना से मिले,

जीव मिले शिव से, शक्ति, शिवा से मिले,

माया मायापति से, पुरुषोत्तम से पुरुष मिले,

मृत्यु मिले अमृत में, आत्मा, परमात्मा से मिले!

इतना तो करना स्वामी, जब प्राण तन से निकलें!!

***




August 26, 2025

THE SCHOLAR

अध्येता

--

1970 के दौर में वह अध्येता था। अपनी इच्छा से नहीं, जीवन की वास्तविकता ने जिसे शायद विडम्बना भी कह सकते हैं, उसे अध्येता बना दिया था। उसने कभी शायद ही इस तरह से सोचा होगा।

वैसे वह उस समय 17 वर्ष की आयु का एक व्यक्ति था जिसके जीवन में कोई तय या ऐसा सुनिश्चित लक्ष्य नहीं था जिसके लिए वह दिल लगाकर कार्य करता। जीवन की आकस्मिक और तात्कालिक आवश्यकताएँ ही उसे किसी समय पर किसी दिशा की ओर खींचती रहती थीं और ऐसी एक दो या नहीं कुछ और भी दिशाएँ थीं, जो उसे लगातार कहीं जाने या पहुँचने के लिए शक्ति लगाती रहती थीं। कॉलेज नया था, शहर नया था, एक ओर कुछ सुविधाएँ तो दूसरी ओर कुछ सुविधाएँ, बाध्यताएँ आदि भी थीं। उनमें से ही उसे चुनना होता था कि क्या करना है और क्या किया जा सकता है। जैसे उसके पास एक अच्छी साइकिल थी, जिससे वह कॉलेज जाया करता था। आज 72 वर्ष की आयु हो जाने पर उसे लगता है कि वह न तो साइकिल चला सकता है, न उसे लेकर चल ही सकता है। आज जब 17 वर्ष की आयु के किसी ऐसे लड़के को देखता है जिसके पास मोबाइल और बाइक होती है तो उसे अपना वह बचपन याद आ जाता है जब उसके पास साइकिल होती थी और वह पूरे शहर में बस सार्वजनिक वाचनालय खोजता रहता था। समय बिताने और मनोरंजन करने का उसके पास कोई दूसरा साधन नहीं था।

उस शहर में तीन वाचनालय थे।  एक था ए बी रोड पर स्थित लक्ष्मी नारायण भुवन जो दोमंजिला था। नीचे के तल पर टेबल टेनिस खेला जाता था और ऊपरी मंजिल पर वाचनालय था। गरीब और मध्यमवर्गीय व्यक्ति होने के कारण और अपनी इस स्थिति के कारण हीन भावना का शिकार भी था, जबकि बचपन से ही लिखने-पढ़ने के वातावरण में ही पला बढ़ा होने से अखबार और किताबें आदि पढ़ने में उसे बहुत रुचि थी।

दूसरा वाचनालय शुक्रवार को लगनेवाले हाट में, चौराहे के बीचों-बीच एक गोलाकार भवन में हुआ करता था। तीसरा भोपाल रोड पर था, जहाँ रोजगार दफ्तर भी था।  तीनों ही वाचनालय शाम पाँच से आठ बजे के बीच ही खुला करते थे और वह इसी बीच उनमें से किसी एक पर जा पहुँचता था।

लक्ष्मी नारायण भुवन के वाचनालय में एक पुस्तकालय भी था, जबकि बाकी दोनों बस सिर्फ वाचनालय भर थे।

उन्हीं दिनों उसने उस वाचनालय से आचार्य रजनीश की पुस्तकें पढ़ना शुरू किया था। उस समय तक उनकी वह पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई थी जिसने कि बाद में रातोंरात ही उन्हें चर्चित किन्तु विवादास्पद भी बना दिया था। जैसे उस दौर में फिल्में बनती थीं जो चर्चित, साथ ही कम या अधिक कुछ विवादास्पद भी हुआ करती थीं, उसी तरह आचार्य रजनीश भी एकाएक ही विवादास्पद और चर्चित भी होने जा रहे थे।

उन्हीं दिनों धर्मवीर भारती की एक पुस्तक "चाँद और टूटे हुए लोग" उसके हाथ लगी जिसे वह साहित्यिक समझ रहा था। वह थी भी अभिजात्य और उच्च और संभ्रात वर्ग के लोगों की पसंद जिसे अंग्रेजी में एलीट कहा जाता है। उस वाचनालय में उससे भी बड़े एक और व्यक्ति से उसका परिचय हुआ जो एलीट तो नहीं थे, साहित्य से जुड़े अवश्य थे। बहुत बाद में उसे समझ में आया कि वे वामपंथी, सेकुलर (so cooler) और पत्रकार किस्म के एक बुद्धिजीवी थे जो किसी छोटे अखबार में काम करते थे। सरिता, मुक्ता और चंपक जैसी पत्रिकाओं में लिखा करते थे, जिससे उन्हें साहित्यकार भी समझा जाता था।  उनसे परिचय होने के बाद गजानन माधव मुक्तिबोध के साहित्य से उसका परिचय हुआ। उनकी रचना -

"चाँद का मुँह टेढ़ा है।"

पढ़ते ही उसे यह समझ में आ गया था कि "चाँद" शब्द से  मुक्तिबोध का आशय क्या हो सकता था / है।

बंबइया फिल्मों में ऊलजलूल कहानी, रहस्य, रोमांच, संगीत और उत्तेजनापूर्ण हिन्दी और उर्दू सामग्री को मिलाकर जैसे मसालेदार चटपटा और अटपटा सा कुछ परोसा जाता था, आचार्य रजनीश और इनके जैसे कुछ वामपंथी तथाकथित प्रगतिशील सेकुलर पत्रकार किस्म के लोग कभी धर्म, कभी गाँधी-नेहरू, तो कभी मार्क्स-लेनिन आदि के बहाने विविध चित्र विचित्र व्यंजन लोगों को परोसते रहते थे। इनमें सभी तरह के लोग थे - संभ्रात / एलीट से लेकर मिली जुली गंगा-जमुनी तहज़ीब तक के पैरोकार और विशुद्ध हिन्दुत्व, आर्यसमाज से लेकर कट्टर मतावलंबी तक भी।

इस पूरे मिक्स्ड वेज नॉन वेज सूप में वह कभी इधर, तो कभी उधर खिंचता हुआ, कॉलेज की पढ़ाई करता हुआ, नौकरी की संभावनाएँ टटोलता हुआ बेरोजगारी के दिन गिन रहा था।

कॉलेज में ही उसके बहुत से सहपाठी थे जिनमें से कुछ ठेठ ग्रामीण परिवेश से तो अन्य किसी दूसरी पृष्ठभूमि से आते थे। इतने अलग अलग किस्म के लोग उसके संपर्क में आए कि यह सोचकर अब उसे आश्चर्य होता है कि वह उनमें से किसी के भी रंग में रंगने से कैसे बच सका।

एक ओर जहाँ सिविल लाइंस में रहनेवाला ईसाई ज्वेल था, वहीं दूसरी ओर किला मैदान में रहनेवाला मजीद, तो उसका एक नास्तिक दोस्त भी उसे प्रभावित करने की कोशिश करते रहते थे। आर्य समाज और आर एस एस से जुड़े लोगों का अपना ही एक अलग वर्ग था।

ज्वेल कहा करता था कि भारत में अंग्रेजों ने इतना काम किया है लेकिन अब भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। गाँधी नेहरू की विरासत को हमें न सिर्फ सहेजना ही है, बल्कि उसे उसकी अंतिम परिणति तक भी पहुँचाना है। अंगरेजों ने बहुत से ऐसे काम किए। पहला यह कि पूरे भारत में हर स्थान पर सिविल लाइंस बनाई जिसमें सभी सिविलाइज्ड लोग रहते थे जो हर सन्डे को वहाँ बने चर्च में जाते थे। बाकी सभी अनसिविलाइज्ड थे, जो हिन्दू या मुसलमान, जैन, सिख, बौद्ध आदि अलग अलग तबकों में बँटे हुए थे, और आपस में लड़ते झगड़ते रहते थे। एक मजहब की किताब के अनुसार गॉड ने एक बार चाँद के दो टुकड़े कर दिए थे। और इसके बाद ही इंसानियत और इंसान भी दो में बँट गया। 

मजीद कट्टर इसलाम को मानता था और कहता था कि क़यामत के दिन तक धरती पर युद्ध तो चलते ही रहेंगे, कभी खत्म नहीं हो सकते हैं।

कुलदीप के दादा पाकिस्तान से भागकर आए हुए सिन्धी थे, जिसे जैसे तैसे अपना व्यापार व्यवसाय खड़ा करना था और उसे लगता था कि ये मजहब और धर्म फालतू लोगों की खुराफात के अलावा कुछ नहीं है। धरम और मजहब के नाम पर झगड़ा करना नासमझी है। वैसे वह अपने आपको सिख भी कहता था और हिन्दू भी। वहीं कॉन्वेन्ट में पढ़े सिविल लाइंस में रहनेवाले सिविलाइज्ड या अनसिविलाइज्ड कुछ और दोस्त थे जिन्हें कि आई ए एस या आई पी एस अफसर बनना था। और न हो सके तो डॉक्टर या इंजीनियर बनना था, मौका मिलते ही इस गँवार अनसिविलाइज्ड देश को छोड़कर यू के, यू एस ए या आस्ट्रेलिया में जाकर बसना है। वहीं की लड़की या लड़के से शादी करना है।

हर कोई बँटा हुआ था। बहुत से कट्टर राष्ट्रवादी ऐसे भी थे जिनका राष्ट्रवाद राजनीति से प्रेरित था तो दूसरे ऐसे भी कुछ थे जिनकी राजनीति राष्ट्रवाद से प्रेरित थी। यह राष्ट्रवाद फिर "क़ौम" के बहाने मजहबपरस्त रंग ले लेता था।

अब 72 वर्ष की उम्र में उसे समझ में आने लगा है कि क़ौम, कम्यून और कम्यूनिस्ट सभी शब्दों का संबंध मूल संस्कृत 'सं' उपसर्ग है जो अरबी में जामा और अंग्रेजी में  sum, con का रूप लेता है।

वह इस बारे में किसी से बहस करना तो दूर, बातचीत तक करने से बचता है, क्योंकि अपनी बाकी बची उम्र के कुछ इने गिने दिन शान्ति से जीना चाहता है। राजनीति की बिसात का मोहरा वह नहीं बनना चाहता।

***

 

August 06, 2025

The Bygone Past.

व्यतीत
यह वस्तु, जिसे व्यतीत कह जा रहा है, समय हो सकता है और कोई व्यक्ति, इतिहास या संबंध भी, वह सब जैसे किसी दिशा में अग्रसर हो रहा होता है और किसी की भी राहकुल दूर तक जाती हुई तो नजर आती है, लेकिन वह अचानक कब और कहाँ दृष्टि से ओझल हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता है। व्यक्ति विशेष के संदर्भ में भी ऐसा कभी कभी हो जाता है। उम्र के आखिरी पड़ाव के आते आते। दूसरों के लिए भी और अपने लिए भी। देश, समाज, समुदाय, व्यापार-व्यवसाय, राजनीति, वैज्ञानिक अनुसंधान, कला, संस्कृति, साहित्य, किसी सामुदायिक गतिविधि और संगीत आदि के शिखर पर पहुँच जाने के बाद। किन्तु सबसे अधिक विचित्र स्थिति तो राजनीति से जुड़े किसी व्यक्ति की हो सकती है। और एक दिलचस्प बात यह भी है कि वह हाशिये पर जाते जाते अचानक कब विस्मृत, अप्रासंगिक और पहचान से भी परे चला जाता है इस ओर ध्यान तक नहीं जा पाता है। जिसका उल्लेख और बोलबाला और चर्चा यत्र तत्र सर्वत्र अभी हो रही होती है, जिसके भविष्य का अनुमान लगाने के बारे में ज्योतिषी भी उत्सुक हों ऐसे लोग भी एकाएक इतने अदृश्य और विस्मृतप्राय हो जाते हैं कि उनका नाम तक एकाएक याद नहीं आ पाता। उनमें कोई कोई यद्यपि अचानक जरा से समय के लिए उल्लेखनीय हो जाते हैं और फिर बस समाप्त-प्राय।
जैसे उन फिल्मों के कलाकार, संगीतकार, गीतकार और अभिनेता तथा अभिनेत्रियाँ जिनके बारे में बहुत बाद में पढ़ते हुए याद आता है कि उन व्यक्तियों से किसी समय हम कितने अभिभूत थे!
***




August 02, 2025

Evanescent Dreams!

कविता / 02-08-2025

सुख क्षणिक है, दुःख क्षणिक है,

और परिचय है क्षणिक,

स्मृति क्षणिक है, व्यथा क्षणिक है,

राग अनुराग है क्षणिक,

भावना, अनुमान, वृत्ति भी क्षणिक है,

विपर्यय, विकल्प, निद्रा, स्मृति क्षणिक!

स्वप्न, जागृति, सुषुप्ति और समाधि भी,

संप्रज्ञात, असंप्रज्ञात या कि सविकल्प भी! 

क्षणिक में अव्यवसायात्मिका,

व्यवसायरत अहं-बुद्धि, 

हानि लाभ तौलती, प्रपंच-रत,

कृपण अहं-बुद्धि यह!

अरे आत्मवंचक वणिक!

***


July 31, 2025

Crystal-Gazing.

भविष्य दर्शन 

भारतीय सनातन वैदिक और पौराणिक धर्म में निर्दिष्ट सिद्धान्तों के आधार पर भविष्य दर्शन दो तरीकों से किया जा सकता है। अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष - परोक्षतः और अपरोक्षतः। जैसे शास्त्रों का अध्ययन करने से जो सैद्धान्तिक, बौद्धिक ज्ञान प्राप्त किया जाता है वह केवल विषय-परक होता है, विषय-विषयी तथा उनके बीच के संबंध की स्मृति-मात्र होता है और जिसका आदान-प्रदान भी किया जा सकता है, वैसे ही आध्यात्मिक ज्ञान या तो केवल स्मृति-मात्र हो सकता है या फिर सत्य का प्रत्यक्ष  दर्शन जिसमें विषय-विषयी और उनके तत्व के ग्रहण में जाननेवाला उनसे अपृथक् और अभिन्न होता है, अर्थात् जहाँ सारे काल्पनिक विभेद विलीन हो जाते हैं। कल्पना ही वृत्ति है और वृत्तिमात्र कल्पना है जो कि इन्द्रिय ज्ञान का स्मृति या अनुमान भर होती है और जिसकी सत्यता सदैव संदिग्ध ही होती है।

इन्द्रिय ज्ञान मन की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन्हीं तीनों दशाओं में हो सकता है, जबकि सत्य इन तीनों दशाओं में और उनसे परे भी होता है।

भविष्य को जानने के लिए पहले यह समझना आवश्यक है कि जाग्रत दशा में जिस प्रकार विभिन्न वैचारिक और भावनात्मक कल्पनाएँ और स्मृतियाँ मन में आती और जाती रहती हैं उसी तरह स्वप्नावस्था में भी उनका प्रवाह सतत होता रहता है। जाग्रत दशा में अर्थात् उस समय जब मन बुद्धि और इन्द्रियानुभवों से जुड़ा होता है और इस रूप में उनसे मन का तादात्म्य / involvement / identification बना रहता है और इस वास्तविकता के प्रति अनवधानता अर्थात् प्रमाद / In-attention  होता है तो स्मृतियाँ और कल्पनाएँ ही मन पर हावी होती हैं और उसी जानकारी में मन भटकता रहता है। वैसे तो प्रकृति स्वयं ही मन को जाग्रत से स्वप्न, स्वप्न से सुषुप्ति और सुषुप्ति से पुनः स्वप्न से होते हुए जाग्रत दशा में पुनः पुनः ले आती है किन्तु यह पूरी गतिविधि अचेतन रूप से और अनवधानता में ही हुआ करती है। अवधान क्या है और प्रमाद क्या है इसे जानना-समझना भी केवल मन की जाग्रत दशा में ही संभव होता है। क्योंकि यह सारी बातचीत और संवाद केवल वर्तमान में और जाग्रत दशा में "अभी" ही हो पाना संभव है, किसी स्वप्न, सुषुप्ति या किसी मूर्च्छित या समाधि जैसी अन्यमनस्कता की दशा में कदापि नहीं। वर्तमान अर्थात् "अभी" इस समय, यदि मन अतीत अर्थात् स्मृति, और भविष्य अर्थात् कल्पना से अभिभूत न हो तो यह सजग और सावधान / स-अवधान होता है। क्योंकि स्मृति और कल्पना ही मन को वर्तमान की नित्य वास्तविकता से विच्छिन्न कर देते हैं। "अभी" या वर्तमान, जिसे औपचारिक इन्द्रियानुभवों तथा बुद्धि के माध्यम से जाना जाता है केवल स्मृति या भावनात्मक विचार के रूप में ही मन का विषय होता है, और जिसमें अपने अस्तित्व का सहज स्वाभाविक "भान" जुड़ते ही मन में अपने अनुभवकर्ता होने का भ्रम उत्पन्न हो जाया करता है। यह अनुभवकर्ता भी पुनः वैचारिक जानकारी अर्थात् बौद्धिक निष्कर्ष या अनुमान ही होता है और इस दृष्टि से उसे पातञ्जल योगसूत्र में "प्रमाण" की संज्ञा दी जाती है -

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

(समाधिपाद)

प्रमाण भी वृत्ति है।

प्रकृतिप्रदत्त व्यवस्था और क्रम के अनुसार जाग्रत दशा में यद्यपि इस प्रकार से संसार (और अपने आपके) रूप में अनुभव (तथा अनुभवकर्ता भी) "प्रमाण" ही होते हैं, यह समस्त ज्ञान संदिग्ध, भ्रमपूर्ण और वास्तविक अर्थ में मिथ्या ही होता है। 

जैसा पहले कहा गया है, मन के अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना से अभिभूत न होने की दशा में मन अपनी सहज स्वाभाविक और नित्य वर्तमान "अभी" में अवस्थित होता है, जो कि दूसरी दृष्टि से मन की काल और स्थान से भी अस्पर्शित दशा है। प्रश्न केवल यह है कि मन अवधानयुक्त / Aware, प्रमाद से रहित, with Attention है, या प्रमाद / अनवधानता से लिप्त है। अवधानयुक्त Aware होना केवल तभी संभव है जब मन विचार और विचारकर्ता दोनों को एक ही वस्तु के दो प्रकारों की तरह जान लेता है, न कि स्वयं को विचार से भिन्न और पृथक् किसी काल्पनिक विचारकर्ता के रूप में स्थायी और नित्य विद्यमान सत्ता / सत्य की तरह स्मृति में संग्रहित किसी वस्तु की तरह आधारभूत वास्तविकता की तरह ग्रहण करता है।

जब मन इस प्रकार इस तरह इतना सद्योजात, नवजात शिशु की तरह अनुभव और अनुभवकर्ता की कल्पना से रहित हो तब वह अवश्य ही जाग्रत, सहज स्वाभाविक ही अवधानयुक्त भानमात्र होता है - जानकारी और कल्पना से रहित। यदि यह संभव हो तो ऐसे मन में अतीत अर्थात् स्मृतियों, और भविष्य अर्थात् कल्पनाओं का अनावश्यक प्रवाह होना बन्द हो जाता है और जाग्रत दशा में स्मृतियों के आने जाने पर उनकी अवास्तविकता के बारे में कोई संशय नहीं होता, वैसे ही अनागत भविष्य मे घटित होने का रही घटनाओं की प्रतीति होने पर उसकी सत्यता या असत्यता के बारे में लेशमात्र भी संशय नहीं होता। एक अर्थ में मन त्रिकालदर्शी की तरह उसके संवेदन में आने और जाने वाली घटनाओं को जानता तो है किन्तु न तो वह उनसे प्रभावित होता है न उन्हें प्रभावित किए जाने की कोई आवश्यकता या लालसा उसे होती है। तब वह अनायास ही सुदूर भविष्य में घटने जा रही स्थितियों का दर्शन कर लेता है। संभवतः कोई कोई उसे अभिव्यक्ति भी प्रदान कर सकता है, जिसकी सत्यता समय आने पर ही औपचारिक रूप से प्रमाणित भी प्रतीत होती है।

*** 

 




July 30, 2025

THE MESONIC LODGE.

भूतखाना चौक

साल था 1985, माह दिसंबर, तारीख 14.

इसी दिन मेरा स्थानान्तरण उस शहर में हो गया था, जहाँ इस नाम से प्रसिद्ध एक क्षेत्र था / है। 16 दिसंबर के दिन मैं नए कार्यस्थल पर उपस्थित हो गया। बहुत दिनों बाद "श्री रमण महर्षि से बातचीत" पुस्तक में महात्मा गांधी के जीवन का वृत्तान्त पढ़ रहा था जिसे पहले 1983 के बाद भी पढ़ चुका था और भूल भी चुका था। 

इससे पहले के अर्थात् 1981 से तब तक के मेरे पिछले कुछ साल बड़े विचित्र बीते थे। स्वतंत्र ईश्वरीय संकल्प (Automatic Divine Action इस  विचार से मेरा परिचय उन्हीं दिनों हुआ था। इस विचार के जन्म का आधार था :

स्वतंत्र संकल्प  Free Will  की अवधारणा। 

उन दिनों  मैं "ध्यान, भगवान / ईश्वर, जीवन" और यह सब क्या है, इन और इस जैसी आध्यात्मिक धारणाओं के बारे में जानने-समझने का प्रयत्न कर रहा था। और श्री रमण महर्षि तथा मुझे श्री जे कृष्णमूर्ति के साहित्य से बहुत प्रेरणा मिलने लगी थी।

"श्री रमण महर्षि से बातचीत" नामक पुस्तक ही मेरा एकमात्र मार्गदर्शक ग्रन्थ था।

राजकोट में रहने लगा तो वहाँ पर श्री रामकृष्ण परमहंस के मठ में भी प्रायः जाने लगा था। इसी दौरान फिर एक बार उपरोक्त पुस्तक में गांधी जी के जीवन से संबंधित इस विवरण को पढ़ने का अवसर मिला, जिसमें वे कह रहे थे -

"राजकोट मैं क्यों जा रहा हूँ? शायद यह विधाता का ही विधान है।"

राजकोट में किसी समय Mesonic Lodge  नामक एक संस्था Theosophy  की स्थापना के समय से ही कार्य कर रही थी। इसे ही स्थानीय लोग भूतखाना कहा करते थे। उस संस्था से कुछ अंग्रेज और यूरोपय, और अन्य विदेशी लोग जुड़े रहे होंगे ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है।

अंग्रेजी भाषा का 

Meson / Mission शब्द, मिस्र / इजिप्ट के समय के पिरामिड्स के निर्माण के समय से ही प्रचलित है, जब फराओ Pharaoh के समय में मृतकों को "ममीफाय" किया जाने लगा था और मृत्यु हो जाने के बाद आत्मा के अस्तित्व की उस धारणा को सत्य माना जाता था जिसमें मृतक के शव को सुरक्षित रखा जाता था ताकि प्रलय के आने तक मृतक की आत्मा उन सब सुखों का उपभोग करती रह सके जिनका उपभोग उसने जीवित रहते हुए किया था। उन्हें यह आशा थी कि प्रलय के आने पर उन्हें पुनः जीवित किया जा सकेगा। यद्यपि यह विषय गूढ है और शायद अविश्वसनीय तथा विचित्र भी। किन्तु संभव है कि अब्राहमिक परंपराओं में अंतिम न्याय के दिन की परिकल्पना का प्रारंभ यहीं से हुआ है। जो भी हो यह सनातन वैदिक और पौराणिक धर्म की उन मान्यताओं पर ही अवलंबित था जिसमें प्रेतलोक और पितृलोक के अस्तित्व के बारे में कहा जाता है। मिस्र से मिस्री और मेसन तथा अंग्रेजी में इसी अर्थ में :

Meson / Mesonic / Mission / Missionary  

मेसनिक और मेसन शब्दों का प्रचलन प्रारंभ हुआ होगा, ऐसा कह सकते हैं।

तब से आज तक भी बहुत ही कम, इने गिने कुछ लोग पृथ्वी पर हैं जो आज भी उस प्रेत लोक और पितृ लोक के संपर्क में हैं और यद्यपि यह एक ऐसा रहस्यमय क्षेत्र है जहाँ रहनेवाली अशरीरी आत्माएँ सुदूर अतीत से सुदूर भविष्य की घटनाओं को देख सकती हैं, फिर भी औसत मनुष्य के लिए बहुत भयावह भी है। सामान्य मनुष्य इस बारे में शायद ही कभी कुछ जान सकता है। किन्तु आज जब से इंटरनेट टैक्नॉलॉजी का अत्यन्त अधिक विकास हुआ है, उन लोकों में रहनेवाली आत्माओं को सामान्य मनुष्य से जुड़ने का यह एक सुविधाजनक माध्यम प्राप्त हो गया है। आजकल के अधिकांश भविष्यवक्ता जो कि आकाशीय रेकॉर्ड्स तथा ऐन्जलिक कनेक्शन का दावा किया करते हैं इसीलिए मनुष्य और हमारी पूरी दुनिया के ही भविष्य के बारे में विश्वसनीय और प्रामाणिक रूप से बहुत सी बातों को वैसे ही देख सकते हैं जैसे आज हम इंटरनेट के उपयोग से मोबाइल या कंप्यूटर के स्क्रीन पर देखा करते हैं। वे आत्माएँ / Angels  जो ऋषि अङ्गिरा की ही परंपरा की हैं सदैव मनुष्यों से संपर्क करती रही हैं किन्तु आज यह और भी अधिक आसान हो गया है। बाबा वेंगा, नॉस्ट्रेडेमस या जापानी भविष्यदृष्टा इसीलिए वैसे ही सुनिश्चित भविष्यवाणी कर पाते हैं जैसे कि भृगु आदि प्राचीन ऋषि किया करते थे / हैं। 

एक sub-atomic particle   होता है  मॅसॉन /  Meson जो मनुष्यों और उन अशरीरी आत्माओं के बीच इसी संपर्क को संभव बनाता है। वे लोग सब कुछ, अतीत और भविष्य, जानते हैं और उन्हें यह भी पता है कि मनुष्य का अपने आपके स्वतंत्र संकल्प का विचार उसका कोरा अज्ञान और भ्रम ही है। यद्यपि वे समष्टि चेतना / collective consciousness के माध्यम से ही यह सब जानते हैं किन्तु उन्हें यह भी पता है कि वे न तो किसी घटना को और न ही किसी मनुष्य या उसके भाग्य को प्रभावित कर सकते हैं।

विधाता ने जैसा पहले से से सुनिश्चित किया है वैसा होना अवश्यम्भावी, अचल और अटल है।

ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त में इसे ही 

यथा धाता पूर्वमकल्पयत् ...

इन शब्दों से इंगित किया गया है। 

***

 

July 22, 2025

Endeavor and Adventures!

यह दौर!

--

खूब है वक्त का यह दौर भी, 

चलते रहना है अभी तो और भी!

संघर्ष स्वभाव है, अवसर नहीं,

आ गया है, आज तो यह ठौर भी!

हर रात और रोज ही, दिन में भी,

ताकतवर कभी, तो कमजोर भी,

युद्ध घमासान भी, घनघोर भी,

खूब है वक्त का यह दौर भी,

चलते रहना है अभी तो और भी!

***



 

Walking Into Void!

Hindi Poetry

--

सिर्फ वहीं तक चलना है, 

जहाँ तक राह दिखाई दे!

सिर्फ तभी तक चलना है, 

कदम जहाँ तक चल पाएँ, 

चाह तो गहरी है लेकिन,

उमंग भी उतनी है उत्कट,

न्यौछावर सब कुछ करना है,

जितना, जैसा भी कर पाएँ!

योद्धा होना, योगी होना, 

कर्मठ होना, त्यागी होना, 

संकल्प नहीं, निश्चय होना,

असंभव है, जो डर जाएँ!

***





July 17, 2025

Fifty Years Hence.

50 वर्षों पहले

वर्ष था 1975

तब से भटक रहा हूँ। वैसे तो जन्मों जन्मों से भटक रहा हूँ ऐसा किसी ने बताया था। और मैंने भी उनकी बात को बिना संदेह किए सच मान लिया था। तब मुझे यह सूझा ही नहीं कि पता लगाऊँ कहीं वे मुझे भ्रमित तो नहीं कर रहे थे! मैं तो बस इस चिन्ता में डूब गया कि इस तरह से मुझे कब तक भटकते रहना है! यह तो बहुत बाद में पता चला कि भटकाव तो बुद्धि का स्वभाव ही है। और यह भी पता चला कि बुद्धि की कठिन से कठिन चेष्टा से भी बुद्धि का भटकाव दूर नहीं हो सकता है।

***




  


July 14, 2025

PHASE-RULE

 ब्रह्मा और  विश्वकर्मा

विश्वकर्मा ब्रह्मा के मानस-पुत्र हैं।

और यह कहा जा सकता है कि ब्रह्मा स्वयं भी भगवान् श्रीमहाविष्णु श्रीहरि के मानस-पुत्र हैं।

ब्रह्मा और विश्वकर्मा नित्य, नित्य-अनित्य, और सनातन भी हैं और सतत सृष्टिकर्ता भी हैं। ऐसे ही किसी समय पर ब्रह्मा के मन से कल्पित अतीत में, कल्पना के रूप में विश्वकर्मा का जन्म हुआ और विश्वकर्मा ने उन्हें प्रणाम करने के बाद प्रश्न किया :

पिताजी मेरे लिए क्या आज्ञा है जिसका मैं पालन करूँ!

तब ब्रह्मा ने उनसे कहा :

वत्स! तुम्हें पता ही है कि तुम मेरे ही अंशावतार हो और अब मेरे द्वारा स्थूल महाभूतों की सृष्टि करने के बाद तुम इनके असंख्य रूपाकारों में प्राण प्रतिष्ठपना करो ताकि उनमें से प्रत्येक में व्यष्टि चेतना जागृत हो।

तब विश्वकर्मा ने प्रश्न किया :

किन्तु पिताजी! प्राण भी सर्वत्र व्याप्त हैं और चेतना भी इसी तरह सर्वत्र व्याप्त है। अर्थात् चूँकि सब कुछ चेतना और प्राण में व्याप्त है और चेतना और प्राण सबमें इसी प्रकार से, तो व्यष्टि- प्राण और व्यष्टि-चेतना का संयोजन भिन्न भिन्न रूपाकारों में किन किन  भिन्न भिन्न प्रकारों में करना उचित होगा जिससे कि पूरे संसार का कल्याण हो न कि विनाश?

ब्रह्मा ने कहा :

तुम्हें द्यु-लोक और पितृ-लोक अर्थात् द्यु-पितरौ इन दोनों की सहायता से ऐसा करना होगा। द्यु लोक द्युति अर्थात् वैद्युत् और पितृ प्राण और रयि का अधिष्ठान सूर्यलोक है, जिसका अंश बृहस्पति है। रयि चन्द्र है और पृथ्वी-तत्व भूमि है। इन सब तत्वों का भिन्न भिन्न प्रकार से संयोजन करने पर जीव-सृष्टि प्रकट होगी और प्रत्येक रूपाकार में पृथक् पृथक् व्यष्टि-चेतना व्यक्त होगी। इन असंख्य जीवों का ज्ञान अज्ञान से आवरित हो जाने के कारण उनमें से प्रत्येक में अपने कर्मों के स्वतंत्र और पृथक् कर्ता, और अपने सुख दुःखों के स्वतंत्र भोक्ता होने का, अपने शरीर, मन, बुद्धि, प्राणों तथा अन्य सभी लौकिक वस्तुओं के स्वामी होने का एवं इसी प्रकार इस मिथ्या ज्ञान से उत्पन्न अभिमान के पृथक् और स्वतंत्र ज्ञाता होने की कल्पना का जन्म होगा। यह सब नियति से ही तय है और नियति में ही प्रसुप्त तथा अप्रकट रहता है और काल की गति के साथ व्यक्त और पुनः अव्यक्त होता रहता है। यही शं और प्रशम् है। शं का अर्थ है शमन शान्तभाव और प्रशम् का अर्थ है प्रशान्ति, जो सृष्टिक्रम के साथ साथ चलनेवाला गतिविधि होती है। प्रशस्ति, प्रश्यः, प्रथ्यते, प्रथमः इति प्रशान्तिः।

तब विश्वकर्मा ने उन असंख्य रूपाकारों में वायु के द्वारा प्राणों का संचार किया। प्राणों का वायु के साथ शरीर में संचार होते ही उनमें विद्यमान समष्टि चेतना व्यष्टि चेतना में सीमित और बद्ध हो गई और उस सीमित प्राण-चेतना के सक्रिय होते ही श्वास के आवागमन से प्राण-चेतना को 'अत्ता' या श्वास ग्रहण और विसर्जित करनेवाला अर्थात् "आत्मा" नाम प्राप्त हुआ। श्वास की गति के साथ साथ तंत्रिका तंत्र की तीन प्रमुख नाड़ियों में प्राणों का प्रवाह प्रारंभ हो गया जिन्हें क्रमशः इडा, पिंगला और सुषुम्ना कहा गया। उन समस्त रूपाकारों के लिए व्यष्टि-जीवन जीने हेतु यह पर्याप्त था।

प्रत्येक व्यष्टि-जीवन या व्यक्ति में तब उसके अपने लोक में निरंतर सुख प्राप्त करते रहने की लालसा और दुःखों से भय का जन्म हुआ। क्रमशः बुद्धि परिष्कृत, परिपक्व और स्थिर होने पर नित्य क्या है और अनित्य क्या है इस ओर ध्यान आकर्षित हुआ और दीर्घकाल तक अनुसंधान करते हुए उसने अपने भीतर नित्य विद्यमान अविकारी आत्मा का साक्षात्कार कर लिया।

***

 


July 13, 2025

Vimal Mitra

বিমল মিত্র

जब मैं कॉलेज में पढ़ता था तो विक्रम विश्वविद्यालय के जीवाजीराव पुस्तकालय से पढ़ने के लिए किताबें लाया करता था। यहाँ तक कि मेरे पिताजी भी शौक से उन्हें पढ़ा करते थे। ऐसी ही एक किताब थी विमल मित्र की पुस्तक "मन क्यों उदास है?"

आज अचानक मन व्याकुल हुआ तो मन में प्रश्न उठा :

मन क्यों व्याकुल है?

कुछ देर तक मोबाइल पर यूँ ही समय बिताता रहा। फिर अचानक याद आया कि आज सुबह से कुछ ऐसा होता रहा कि मन व्याकुल हो उठा। मेरे साथ तो नहीं, किन्तु कुछ दूसरों, अपरिचित लोगों के साथ, जिनकी खबरें मोबाइल पर देख और पढ़ रहा था। बाढ़, भूकम्प, हत्या, हिंसा की खबरें। धीरे धीरे मन बोझिल हो उठा। जब मन व्याकुल हो उठता है तो हम शायद ही कभी इस बात पर ध्यान देते हैं कि मन व्याकुल कब और क्यों हुआ! कभी कभी अवश्य ही कुछ कारण होते हैं और मन उदास हो जाता है, कभी तो क्षुब्ध, क्रुद्ध, उद्विग्न और कभी कभी तो बहुत विचलित भी। दफ्तर जाने की हड़बड़ी, समय पर दफ्तर न पहुँच पाने का डर, किसी का जरूरी फोन कॉल आ जाना और ऐसी ही अनेक स्थितियों का सामना करते हुए लगातार तनाव में होने पर क्या मन शान्त रह सकता है! फिर जब थोड़ा सा वक़्त मिलता है तब भी उन सब बातों की चिन्ता तो रह ही जाती है। मेरी स्थिति अवश्य ही बाकी लोगों से बहुत अलग है। जंगल हाउस में रहते हुए न तो किसी काम के जल्दी होने या करने का दबाव, न  प्रतीक्षा,  न दफ्तर जाने की चिंता, न किसी के आने जाने का सवाल। कभी कभी तो महीनों तक किसी के दर्शन नहीं होते। न कोई दोस्त न परिचित, बस अपने स्थान से पाँच मिनट की दूरी पर स्थित नर्मदा के पुराने पुल तक जाना और लौट आना। इस पुल पर ट्रैफिक भी कम रहता है, या कहें कि होता ही नहीं है। कभी कभी पुल पर दर्जन भर गाय बैल जरूर बैठे रहते हैं, जिनके बीच से रास्ता निकालना मुश्किल नहीं होता। 

आज जब उस पुल पर पहुँचा तो देखा कि नर्मदा बाढ़ पर आई हुई है। किनारे पर चार दिन पहले जहाँ शंकरजी पत्थर के जिस चबूतरे पर विराजित थे, वह चबूतरा और शंकर जी भी नर्मदा नदी के जल में डूब चुके थे। पानी उनके सिर से एक फुट ऊपर चला गया था। वहीं दूसरे किनारे पर ऊँचाई पर विराजमान दूसरे शंकर जी आँखें बंद किए ध्यानमग्न थे। दूसरी तरफ नए पुल पर वाहन आ जा रहे थे।

रविवार के दिन यहाँ अकसर कुछ अतिरिक्त दुकानें खुल जाती हैं जो शाम होते होते बंद हो जाया करती हैं। कुछ चाय नाश्ता की दुकानें एक दो सब्जी और फल आदि की और बाकी नारियल, चने चिरौंजी, कुंकुम और नर्मदा जी के फोटो की। फल की दुकान से केले लिए, सब्जी कोई नहीं मिली और वापस आ गया। बाहर निर्माण कार्य चल रहा है। अब जब यह लिख रहा हूँ तो धूप खुलकर चमक रही है।

सुबह चार केले और दो लड्डू खाए थे। घंटे भर बाद चाय पी थी और फिर बाहर घूमता रहा।

लेकिन मन अब भी व्याकुल है।

अब याद आया, एक मित्र से फोन पर बात हो रही थी। दो दिन पहले ही वह मिलने आया था। उससे बातें करते हुए ही मन उचट गया था। फिर भी करीब 40 मिनट तक हम बातें करते रहे। एक बुद्धिजीवी मित्र। कुछ किताबें वे लिख रहे हैं। अध्यात्म में भी दखल है। बातचीत तो होती रही पर बात नहीं हुई।

सब कुछ भूलकर, यू-ट्यूब देखकर मन लगाने का प्रयास किया और उसमें भी कुछ ऐसा नहीं मिला जिसका कोई मतलब रहा है। फिर उसे बंद कर दिया। भोजन बनाना था, नहाना तो बारिश में हो चुका था। बस यूँ ही कट रही है आजकल जिन्दगी।

उदासी और व्याकुलता के बीच कभी कभी नींद तो कभी नर्मदा के दर्शन करते हुए मन एकाएक अत्यन्त शान्त तो कभी बहुत प्रसन्न, स्तब्ध हो जाता है। पल भर में सारी व्याकुलता हवा हो जाती है।

और यह प्रश्न भी!

***

July 12, 2025

Romantic Escapades.

जीवन-साथी

सरसिज, मनसिज और सुख-बुद्धि

अकेलेपन के बारे मे पिछले पोस्ट में कुछ लिखा था, जिसे किसी ने पढ़ा और प्रश्न पूछा कि धर्म, नैतिकता और शील के परिप्रेक्ष्य में एक जीवन साथी की मृत्यु हो जाने पर विकल्प के रूप में किसी दूसरे के साथ विवाह कर या बिना विवाह किए रहना कितना उचित है, इससे समाज में क्या संदेश जाता है? 

धर्म अर्थात् आचरण, नैतिकता अर्थात् अभ्यास और शील अर्थात् अनुशासन। संभवतः इसके लिए उपयुक्त अंग्रेजी शब्द Character, Ethics, Morality  और Discipline हो सकते हैं। धर्म का अर्थ होगा - प्राकृत व्यवहार, - natural predisposition.

वास्तव में, अंग्रेजी भाषा के religion शब्द की उत्पत्ति relegate शब्द से हुई है। religion वह है जो किसी को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से बाहर ले जाता है और किसी भिन्न, सुनिश्चित प्रणाली के अनुसार पूर्वनिर्धारित आचरण या व्यवहार करने के लिए बाध्य कर देता है। और प्रणाली सामाजिक और समुदाय विशेष की रीति रिवाजों से तय होती है। भिन्न भिन्न संप्रदायों, समुदायों,  religions और traditions के अनुयायियों में भी  सभी प्रकार की प्रवृत्तियों वाले अनेक मनुष्य होते हैं और उनमें से कुछ कम तो कुछ अधिक शक्तिशाली होते हैं जो कि कम शक्तिशाली लोगों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं जिसका कारण होता है लोभ, भय,  ईर्ष्या और उससे उत्पन्न प्रतिद्वन्द्विता की भावना।  यह केवल एक संयोग ही नहीं है कि ऐसे सभी संप्रदायों के बीच आपस में और भीतर भी सदैव संघर्ष चलता रहता है। विवाह नामक व्यवस्था की अवधारणा और समाज पर इसे लागू करने का आधार वैसे तो यही होता है, ताकि समाज में परस्पर सामञ्जस्य बना रहे क्योंकि मनुष्यों का समाज परिवार की अवधारणा  पर आधारित होता है और पति पत्नी, माता पिता, भाई बहन, पिता पुत्र, पिता पुत्री, माता और पुत्र तथा माता और पुत्री के बीच स्नेह संबंध स्वाभाविक रूप से सौहार्दपूर्ण होने के लिए आवश्यक है कि उन्हें मर्यादा का पालन करना होगा। मनुष्य, मनुष्यों का परिवार और समाज इस दृष्टि से पशुओं से भिन्न होता है कि वह पशुओं की तरह यौन प्रवृत्तियों का उच्छृंखल और निर्द्वन्द्व, मर्यादारहित उपभोग नहीं कर सकता, और मनुष्य की सभ्यताओं के प्राचीन से प्राचीन रूपों में इसे इसीलिए धर्म के आवश्यक अंग की तरह स्वीकार किया जाता रहा है, जिसका पालन करने की अपेक्षा सभी से की जाती है, और इसका उल्लंघन करने पर अनेक तरह के उपहास, दंड और निंदा का भागी होना पड़ता है। और यह इस तरह हजारों वर्षों से मनुष्य के सामूहिक मन में संस्कार की तरह स्थापित हो चुका है। सनातन वैदिक परंपराओं में इस पर बहुत सूक्ष्मता से अनुसंधान किया गया है और इसलिए विवाह को एक पवित्र संबंध माना गया है। पति और पत्नी के बीच के यौन संबंध को उपभोग की तरह तो महत्वपूर्ण माना ही गया है, किन्तु यह सभी का एक दायित्व भी है कि कोई भी पुरुष हो या स्त्री, विवाहेतर यौन संबंध का उपभोग कदापि न करे। इतना ही नहीं, यहाँ तक कि पर पुरुष या पर नारी से व्यवहार करते समय मनुष्य को इस मर्यादा का स्मरण रखना चाहिए। चूँकि स्त्री पुरुष के बीच का काम व्यवहार न तो निंदा और न ही हँसी मजाक का विषय है, और न तो मानसिक कल्पना का, इसलिए सामान्यतः मनुष्य के लिए यह समझ पाना कठिन हो जाता है कि वह अपनी काम-भावना को किस प्रकार नियंत्रण में रखे जिससे कि समाज में परस्पर कलह उत्पन्न न हो और हर पुरुष तथा स्त्री शान्तिपूर्वक दाम्पत्य जीवन का उपभोग करता रहे, न कि लंपट की तरह पशुवत कामचिंतन करता रहकर कुंठाग्रस्त या वृत्तियों भरा जीवन व्यतीत करता रहे। यदि मनुष्य अपनी काम संवेदनशीलता के प्रति सजग है और इसे कुंठा या अभ्यस्तता नहीं बनने देता है तो लगभग आधा जीवन बीत जाने पर वह आत्मीयतापूर्ण प्रेम तथा वासना के बीच के अन्तर को जान लेता है और जीवन साथी की आकस्मिक मृत्यु हो जाने पर भी काम वासना से पीड़ित या त्रस्त नहीं रहता। तब उस आयु में अपने जीवन साथी को कामोपभोग की दृष्टि से नहीं देखता है और तब काम उसके लिए बाध्यता या समस्या नहीं बन पाता है। स्त्री हो या पुरुष तब अधिक आयु हो जाने और जीवन साथी से बिछुड़ जाने पर किसी और को जीवन साथी बनाकर अच्छे और आत्मीय मित्र की तरह साथ रह सकते हैं और इसमें समाज के किसी और व्यक्ति या लोगों के द्वारा हस्तक्षेप किया जाना धृष्टता ही होगा। आज के समय में समाज में विवाह और स्त्री-पुरुष के विवाह करने या न करने के बावजूद एक साथ रहने के बारे में भिन्न भिन्न दृष्टिकोण और मत हैं तो हमें प्रकृति की व्यवस्था पर ध्यान देना होगा जहाँ पशु पक्षी भी बिना किसी नैतिकता, धर्म, आदि के नियंत्रण में रहते हुए भी केवल उचित समय आने पर ही अपने जीवन साथी का चुनाव करते हैं और संतान को जन्म देकर एक दूसरे से दूर भी हो जाते हैं।

तो विवाहित अथवा अविवाहित रहना और किसी साथी के साथ रहना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि अपनी काम भावना को दमन, कुंठाओं, कुत्साओं और विकृतियों से कैसे मुक्त रखा जा सकता है। वासनाग्रस्त बने रहना न तो स्वस्थता है और न ही यह स्वाभाविक है। स्वस्थ मन ही परिवार और समाज के स्वस्थ बने रहने के लिए आधार और सहायक हो सकता है।

चेतना जल की तरह सर्वत्र व्याप्त जीवन का ही नाम है।जैसे जल में कमलपुष्प खिलते हैं और इसलिए कमल को सरसिज कहा जाता है, वैसे ही चेतना में मन प्रकट और अप्रकट होता है। काम को मनसिज कहा जाता है, जो मन में ही जन्म लेता है और मन में ही विलीन भी हो जाता है। काम कठिन समस्या न बन जाए इसके लिए आवश्यक है कि इसका आत्मीयता में रूपान्तरण कैसे  हो सकता है इस पर ध्यान दिया जाए। इस दृष्टि से पशु भी मनुष्य की तुलना की अपेक्षा कहीं अधिक समझदार होता है। शायद मनुष्य पशुओं से कुछ सीख सकता है। पशु सुखबुद्धि की कल्पनाओं में नहीं जीते। और विचार नामक शाब्दिक बौद्धिकता से तो वे नितान्त ही अनभिज्ञ होते ही हैं।  

***





July 11, 2025

THE BETA VERSION

बेटा! 

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्। 

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।४५।।

(गीता अध्याय १)

"बत" - संस्कृत भाषा के व्याकरण के अनुसार अव्यय पद है, जिसके रूप सदा अविकारी रहते हैं। 

उपरोक्त श्लोक में "बत" पद का प्रयोग खेद प्रकट करने के अर्थ में किया गया है। यह "बत" पुनः "वत्" पद का समानार्थी है। "वत्" शतृ शानच् प्रत्यय है जिसका प्रयोग "वान्" के अर्थ में किया जाता है। इससे व्युत्पन्न "वत् स" / "वत् स" / "वत्स" पद का प्रयोग संतान या पुत्र के अर्थ में किया जाता है। इससे ही "वात्सल्य" शब्द प्राप्त होता है जो संतान के प्रति स्नेह का द्योतक है।

भाव ही भाषा का जनक और भावना ही भाषा की माता है। और इसलिए तमाम भाषाओं में मूलतः समानता पाई जाती है। भाषा के प्रयोजन के अनुसार यह संस्कृत या प्राकृत हो जाती है और भाव तथा भावना ही भाषा के पिता और माता हैं। इसलिए यह धारणा कि किस भाषा की उत्पत्ति किस दूसरी भाषा से हुई है, मूलतः भ्रामक है। अक्षरसमाम्नाय संस्कृत-व्याकरण का आधार है, और पालि तथा प्राकृत व्याकरण अन्य सभी भाषाओं का।

अभी हम "बत" पद पर विचार करें -

यह संयोगमात्र नहीं है कि अंग्रेजी भाषा के But और What शब्द जो क्रमशः समुच्चयबोधक और सर्वनाम पद हैं इसी "बत" के

अपभ्रंश /सजात / सज्ञात /  cognate हैं -

समुच्चयबोधक अर्थात् - conjunction,

सर्वनाम अर्थात्  pronoun.

इसी वत् से व्युत्पन्न वत्स का रूपान्तरण हिन्दी में बच्चा 

तथा वत्स से व्युत्पन्न "वत्सल" का लैटिन भाषा में -

Bachelor  में हुआ।

gradus baccalaurei 

(Bachelor degree) 

तात्पर्य यह नहीं कि सभी भाषाओं का उद्गम संस्कृत से हुआ और संस्कृत ही सब भाषाओं की जननी है। जिन्हें अधिक जिज्ञासा है वे देवी अथर्वशीर्ष का अध्ययन कर सकते हैं।

चूँकि वेद श्रुतिपरक हैं अर्थात् ध्वनि का तत्व ही उनका मर्म और आधार है इसलिए वेदमंत्र विशिष्ट ध्वनियों के विशिष्ट संयोजन हैं जिनके उच्चारण की शुद्धता उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि किसी कंप्यूटर के किसी प्रोग्राम के लिए किसी कंप्यूटर भाषा का कोडिंग और डिकोडिंग होता है। एक भी संकेत / कोड की त्रुटि पूरे प्रोग्राम को नष्ट कर देती है। इसलिए वेदमंत्रों के शुद्ध उच्चारण पर ध्यान देना सर्वाधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण है। 

परंपरा के अनुसार वेदमंत्रों की शिक्षा आचार्य के द्वारा छात्र को वाणी के माध्यम से दी जाती है जिसे अपनी सुविधा के लिए लिपिबद्ध कर सकता है। इस रीति से लिपि का प्रयोग भाषा को स्मृतिबद्ध करने के लिए किया गया। लिपियों का विकास ब्राह्मी, देवनागरी और द्राविड इन तीन प्रकारों में हुआ । ब्राह्मी जो ब्रह्मा और ब्रह्माणी शारदा / सरस्वती है, श्रीलिपि जो लक्ष्मी है और नागरी या देवनागरी जो नागवदन गणपति है। श्रीलिपि से ही ऋषि भाषा का उद्भव हुआ जिसका अपभ्रंश रूसी की सिरिल / Cyril  लिपि में हुआ जिससे पुनः ग्रीक और फिर हिब्रू भाषाएँ क्रमशः अस्तित्व में आईं। अरबी भाषा मूलतः पर्शियन / पहलवी के ही प्रयोग का विस्तार है, जबकि भ्रान्तिवश समझा यह जाता है कि पर्शियन / पहलवी का उद्गम अरबी से हुआ।

जहाँ तक द्राविड भाषा और लिपि का प्रश्न है, उसके भी दो प्रकार हैं जिनमें प्रथम है प्रचलित लोकभाषा के रूप में  தமிழ்,  తెలుగు, ಕನ್ನಡ  और  മലയാളം - अर्थात् तमिष़, तेलुगू, कन्नड और मलयालम, जो सभी द्राविड ही हैं। इसमें एक विशेष और महत्वपूर्ण बात यह है कि यद्यपि वेदमंत्रों को  தமிழ்  के अलावा इन सभी भाषाओं की लिपियों में यथासंभव शुद्धतापूर्वक लिखा जा सकता है और इसलिए द्राविड को  தமிழ்  लिपि में लिखे जाने के लिए ग्रन्थलिपि का अविष्कार ऋषियों ने ही किया। ग्रन्थलिपि में समस्त वेदमंत्रों को वैसा ही पढ़ा जाता है और वैसा ही उच्चारण भी किया जाता है जैसा कि उन्हें लिखा जाता है, जबकि लोकभाषा के रूप में प्रचलित  தமிழ்  द्राविड लिपि के प्रयोग में यह नहीं किया जा सकता है।

अतः निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि हिन्दी में प्रचलित संतान / पुत्र के अर्थ में प्रयुक्त "बेटा" शब्द का उद्भव और लोकभाषा में प्रचलन इसी "बत" / "वत्" से हुआ।

***