June 11, 2025

James Hadley Chaise.

यूँ ही बस याद आया!

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जब मैंने पहली बार यह पढ़ा कि श्री जे. कृष्णमूर्ति कभी कभी इस pulp fiction novelist / पीत-पत्रकार लेेखक या उपन्यासकार जेम्स हेडली चेज़ को पढ़ते हैं तो मुझे थोड़ी हैरानी जरूर हुई थी। 

फिर बहुत बाद में उनके ही द्वारा लिखी गई किसी रचना में यह पढ़ा कि कैैसे एक शिकारी पक्षी क्रूरता से उसके शिकार दूूसरे एक छोटे पक्षी के टुकड़े कर रहा था, तो मैं शायद इस रहस्य को समझ सका।

करीब दस वर्षों पहले एक तस्वीर वायरल हुई थी -

दस रुपए के नोट पर किसी ने लिखा था -

"सोनम बेवफ़ा है!"

वास्तव में उस समय यह कौतूहल और मनोरंजन का ही एक विषय था जिसे हल्के फुल्के ढंग से लिया गया था। ऐसी बहुत सी कथा-कहानियों को प्रायः इसी तरह और टाइम पास करने के लिए पढ़ा जाता है और कुछ समय बीतते ही भुला भी दिया जाता है, लेकिन जब ऐसा कुछ अपने स्वयं पर या अपने से जुड़े किसी पर बीतता है, तो वह बस स्तब्ध कर देता है।

वर्ष 2000 तक मैं जिस मकान में रहा करता था, उसके सामनेवाले रोड के उस तरफ का मकान बहुत सुन्दर था। दोपहर के समय वहाँ कोई नहीं होता था और उस समय गेट पर ताला लगा होता था। गर्मियों के मौसम की ऐसी ही एक दोपहर जब मैं बाहर से लौटा तो उस मकान में एक बाज दिखलाई दिया था, जिसने अपने पंजे में एक मासूूम, बेबस गौरैया को जकड़ रखा था। उसे देखते ही मुझे जे. कृष्णमूर्ति की लिखी वह रचना याद आ गई। मुझे देखते ही वह तुुरंंत ही वहाँ से उसे लिए हुए फुर्र हो गया।

बहुत देर तक इस घटना से मेरा मन स्तब्ध रहा।

यह इस पर भी निर्भर करता है कि हम किससे जुुड़े होते हैं, और किससे हमारी कितनी आत्मीयता होती है। हो सकता है हमारी आत्मीयता बाज से हो, या गौरैया से। और तब वह घटना भी हमारे लिए वैसी ही महत्वपूर्ण या महत्वहीन हो सकती है।

तब मुझे लगा कि श्री जे. कृष्णमूर्ति से तो अवश्य ही मेरी कुुछ आत्मीयता है।

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June 09, 2025

Friends.

P O E T R Y / कविता

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दोस्त मंजिल नहीं, बस पड़ाव होते हैं,

कभी फिसलन, कभी चढ़ाव होते हैं!

किसी भी मोड़ पर मुड़ जाते हैं,

घड़ी दो घड़ी के, लगाव होते हैं!

कभी सहारा, तो कभी चैन सुकून,

कभी तनाव या मनमुटाव होते हैं!

कभी लगाव और अलगाव कभी,

भरोसा, शक, या खिंचाव होते हैं!

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June 04, 2025

Extrovert / Introvert

शब्दावलि / Terminology

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Mind  is Attention  = ध्यान = चित्त

Identification = तादात्म्य  is either

अन्तर्मुुख /  बहिर्मुख / विषयाभिमुख / एकाग्र 

Extrovert  / Introvert / Focused / Distracted / Content, =

अन्तर्लीन / बहिर्लीन / एकाग्र / क्षिप्त / समाहित,

Meditation = Spiritual Practice.  = 

आध्यात्मिक साधना / अभ्यास 

With or Without Effort

अनायास / सायास,

Object / Subject,

विषय / विषयी,

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May 29, 2025

T. F. O. C. D.

Touch -Feet

Obsessive Compulsive Disorder.

I didn't know that I didn't know!

From the childhood, I was always told to touch the feet of elders like Parents the guests and the Guru who would come to my home. I also had never tried to see its significance any. However, sometimes I would obey this order or the suggestion given to me and sometimes I ignored too though unintentionall. I couldn't see that my such behavior might have annoyed my parents and those elders who felt offended by my this attitude and possibly might have thought about me that I was kind of an arrogant, disobedient and a impolite boy.

Sometimes I would touch their feet but I  never thought if it was just a custom  or there was some deeper significance in doing this. In this way for so many years, even before 2 days ago I never realized - "I didn't know  that  I didn't Know!"

I'm not unnecessarily complicating the matter but would like to explain that a couple of days ago a stranger insisted for touching my feet. I politely told him that I don't like this practice of touching feet of any true or so-called spiritual great or any such saintly, religious person. Still he didn't even budge a bit.

Then I told him -

See, I don't think I am such a respectable, such a great person who deserves to be given this honor.

He didn't care my words, and said -

You can't stop me from letting me touch your feet!

I was quite disgusted.

Aghast and in a quandary.

The next day I told someone who could help me, listen to me and let this matter be solved.

But so far, I have been trying to avoid him all the time.

But really I was terribly frightened.

I was also furiously angered.

I could see, deeply feel, how this practice is being kept, maintained, strengthened and glorified, by the so-called spiritual and / or religious people, and how it has become such a powerful tool in their hands to exploit emotionally the meek and the gullible people in this way and for so long.

But now I have no hesitatation any and I frankly tell to all those who want to keep in touch with me that I'm totally against this practice. If someone wants to see me, to keep in touch with me, he or she  can just say "hello!", maybe with folded hands, and I too will reciprocate in the same manner with saying "Namaste" or "PraNAma".

But so far, I couldn't have been able to reconcile with and understand this idea!

I can happily pay obeisance to an image of some God in a temple and prostrate at His feet too, but not before any human who I'm not sure of if he really deserves this treatment!

(The ignorance of ) - 

Not knowing of 

The Not knowing! 

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May 26, 2025

26-05-2025 / POETRY

व्यथा-कथा, कथा-व्यथा!

कुछ भी!! 

कथा कह कह कर थका वाचक, 

तथा कह कह कर कथावाचक!

पुनः पुनः मांग कर यथा याचक,

व्यथा सह सह कर तथा याचक!

दौड़ दौड़ कर थका यथा धावक,

हाँफता हुआ रुका यथा धावक! 

कथा कह कह कर यथा श्रावक, 

अग्नि सा जलता रहा यथा पावक!

तान भरता रहा यूँ यथा गायक,

अभिनय करता रहा यथा नायक!

सतत सुख देता रहा सुखदायक,

सतत दुःख देता रहा दुःखदायक!

जिसने जो चाहा, उसे वो मिल गया,

जो कभी भी बन पाया इस लायक! 

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May 22, 2025

THE VISA

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा।

हृदय राखि कोसलपुर राजा।।

प्रश्न उत्तम है। कार्य शुभ है, सफलता प्राप्त होगी। 

यह चौपाई गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस में उनकी एक रचना "रामशलाका प्रश्नावलि" के साथ पाई जाती है। प्रसंग हनुमानजी के द्वारा माता सीता की खोज करने के लिए लंका में प्रवेश करने के संबंध में है।

अंग्रेजी भाषा के ऐसे हजारों शब्द हैं जो मूलतः संस्कृत भाषा के किसी शब्द का अपभ्रंश हैं। हमें यह नहीं सिद्ध करना है कि विभिन्न भाषाएँ संस्कृत से ही निकली हैं या नहीं बल्कि यहाँ पर केवल संस्कृत और अंग्रेजी भाषा के बीच किसी संभावित साम्य के आधार पर कोई निष्कर्ष प्राप्त करना ही हमारा प्रमुख ध्येय है।

ऐसा ही एक शब्द है  VISA

यह शब्द संस्कृत की विश् - विशति धातु से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है प्रवेश करना। एक देश से दूसरे देश में अल्पकाल या कुछ काल के लिए प्रवास करने के लिए प्रायः दो दस्तावेज चाहिए होते हैं - एक होता है - पासपोर्ट -

जिसकी विवेचना और व्युत्पत्ति भी संस्कृत मूल शब्द से की जा सकती है, किन्तु यहाँ अनावश्यक प्रतीत होने से ऐसा नहीं किया जा रहा है, क्योंकि ऐसा करना विषय से भटकना है।

पासपोर्ट जो उस देश की सरकार से प्राप्त दिया जाता है, जहाँ का कोई नागरिक किसी कार्य के लिए विदेश जाना चाहता है। दूसरा उस दूसरे देश से प्राप्त करना होता है, जहाँ यह व्यक्ति किसी कार्य के लिए जाना चाहता है, इसे "वीसा" कहते हैं।

ऐसा ही एक शब्द हैं - funeral, जो अरबी के 'दफ़न' का अपभ्रंश है। "दफ़न" शब्द स्वयं ही संस्कृत भाषा के "दहन" का अपभ्रंश है। सनातन वैदिक ज्ञान की परंपरा के अनुसार जब तक पञ्चतत्वों से बने इस शरीर का विधिपूर्वक दहन नहीं कर दिया जाता है, तब तक इस शरीर को "अपना" समझनेवाले "जीव" की अंतिम और पूर्ण मुक्ति संभव नहीं होती है, क्योंकि पृथ्वी, वायु और जल तो जीव की मृत्यु होते ही अपने अपने महाभूतों में मिल जाते हैं, आकाश कहीं आता जाता नहीं, इसलिए उसकी मुक्ति होने का प्रश्न ही नहीं है, शेष बचा अग्नि, जो पञ्चप्राणों की शक्ति के रूप में जीव-चेतना के साथ बँधा होता है। सनातन धर्म, वैश्विक होने से यह सर्वत्र ही सदा से प्रचलित रहा है। जिन स्थानों पर जल की कमी या अत्यधिक शीत होने के कारण अग्नि प्रज्वलित करना कठिन होता है, जहाँ पर शव का दहन परिस्थितियों के कारण संभव नहीं हो पाता है, वहाँ दाह-संस्कार न कर उसे भूमि में समाधि (bury)  दे दी जाती है, और तब प्रकृति की अपनी प्रक्रिया के अनुसार समय के साथ अग्नि भी धीरे धीरे अग्नि महाभूत में मिल जाता है और जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। अंग्रेजी भाषा का शब्द bury भी मूलतः संस्कृत भाषा के पृ - पूर्ति / पूरयति का अपभ्रंश है। तात्पर्य यह है कि "funeral",  जो  "दफ़न" का, और "दफ़न", जो कि "दहन" का पर्याय है, तात्कालिक रूप से अंत्येष्टि का औपचारिक विधान है, ताकि प्राकृतिक प्रक्रिया के माध्यम से, या विधि-विधान से बाद में "अस्थियों" को किसी नदी या जल के किसी अन्य प्राकृतिक स्रोत में प्रवाहित कर दिया जा सके। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि तथाकथित "महाप्रलय" के समय महा-जलप्लावन के समय सभी कुछ स्वयं ही जल में विलीन हो जाता है।

मृत्यु, काम और मुमुक्षा

जिन दिनों भारत में सरकार द्वारा "आपात्काल" लगाया गया था, तत्कालीन साप्ताहिक पत्रिका "दिनमान" या "रविवार" में एक लेख प्रकाशित हुआ था जो उस समय के आनन्द-मार्ग नामक संगठन के संबंध में था। उस लेख को लिखने और प्रकाशित करने के पीछे किसके या कौन से प्रयोजन थे इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है, किन्तु उसमें जिस प्रकार से मनुष्य और प्राणिमात्र में भी विद्यमान "मृत्यु-कामना" / Death-wish  को आधार बनाया गया यह जानना रोचक है।

उपरोक्त रेखांकित तीन शब्द ईश्वरीय संकल्पना के प्रकृति में अभिव्यक्त प्रकार मात्र हैं। 

स अकामयत

ईश्वर के रूप में जो स्रष्टा है उसमें ही कामना उत्पन्न हुई - सृजै  कि (मैं) सृष्टि करूँ।

ऐतरेय उपनिषद् में इसका अद्भुत् विवरण है।

यह कामना ही "जीव" के रूप में अभिव्यक्त हुई और जब तक यह अपूर्ण रहती है, "जीव" उस कामना को पूर्ण करने का प्रयास करता ही रहता है। इसी कामना से बाध्य या प्रेरित होकर वह प्राकृतिक रीति से प्रजनन के लिए प्रवृत्त होता है और इसीलिए इस कार्य में संलग्न होने पर उसे क्षण भर के लिए मुक्ति की प्रतीति होती है। स्खलन (Sexual Discharge) के समय यही तो होता है। इसलिए प्रजनन की क्रिया में भी क्षणिक मुक्ति तो (प्रतीत) होती ही है और यही कुंठित और विकृत हो जाने पर समलैंगिकता का रूप भी ले सकती है। और यही विकृत, वीभत्स और कुत्सित होकर एक दुष्चक्र का रूप भी ले लेती है, किन्तु वह अवश्य ही अंतहीन दुर्भाग्य और चरम विनाश का ही रास्ता होता है। क्योंकि फिर यह आगे चलकर संतति में भी गुणसूत्रीय उत्परिवर्तन / (Genetic Mutation)  का कारण बन जाता है। अभी शायद इसे "अनुमान" कहा जा सकता है, किन्तु आज के समय के वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक शोधों की मर्यादा यहीं तक है। मनुष्य में यही मुक्ति-कामना, जो कि मृत्यु-भय और मृत्यु के आकर्षण की रोमांचकता के चरम तक पहुँच जाती है वस्तुतः तो मुमुक्षा के ही भिन्न भिन्न प्रकार मात्र होते हैं, यह सोचना गलत नहीं हो सकता।

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May 19, 2025

Transit of Planets.

पृथ्वीधराचार्य

वर्ष 1970 में मैंने देवास के के पी कॉलेज में बी.एस-सी. प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया। बाद में मुझे यह पता चला कि यह वही "पृथ्वीधराचार्य" हैं जो कि इन्दौर से प्रकाशित होनेवाले "नई दुनिया" नामक अखबार में दैनिक भविष्य का कॉलम लिखते हैं। मुझे नहीं लगता था कि क्या एक ही साथ बारह राशियों के लोगों के भविष्य के बारे में जो कुछ लिखा जाता है, उसे कितना सच माना जाए। बस कौतूहलवश कभी कभी देख लेता था। 1973 तक वहाँ रहने के बाद मैं उज्जैन आ गया जहाँ बी एस-सी अंतिम वर्ष की परीक्षा दी। उसके बाद नौकरी की तलाश करने लगा जिसका कोई मतलब नहीं था। फिर भी ज्योतिष शास्त्र के बारे में मेरा कौतूहल बना रहा। बी एस-सी के अंतिम वर्ष में मुझे विक्रम विश्वविद्यालय के माधव विज्ञान महाविद्यालय पढ़ते हुए विश्वविद्यालय के जीवाजीराव पुस्तकालय से जुड़ने का सौभाग्य मिला जहाँ से मुझे दो पुस्तकें मिल सकती थीं। उन दिनों कोई विशेष रोक टोक नहीं थी, और मैं वहाँ से बहुत सी वे मनचाही पुस्तकें भी ले लिया करता था जिनका मेरे कॉलेज के मेरे पाठ्यक्रम से कोई संबंध नहीं होता था। पुस्तकालय में वाचनालय भी था जहाँ कुछ पत्र पत्रिकाएँ भी पढ़ी जा सकती थीं। ऐसी ही एक पत्रिका थी -

Astrological Magazine  या  A. M.,

जो बैंगलोर से प्रकाशित होती थी और जिसके संपादक और प्रकाशक थे -

Bangalore Venkata Ramana -

(B V Ramana) नामक व्यक्ति।

देवास जैसी छोटी जगह की तुलना में उज्जैन एक काफी बड़ा शहर है। एक सिरे पर मैं वहाँ इंजीनियरिंग कॉलेज के परिसर में रहता था, तो दूसरे सिरे पर है छत्री चौक या गोपाल मन्दिर। गोपाल मन्दिर के एक ओर पटनी बाजार से होकर महाकालेश्वर मन्दिर जाने का मार्ग है, तो दूसरी तरफ ढाबा रोड, कालिदास मॉन्टेसरी, कैलाश टाकीज़ आदि। उस रोड पर एक दुकान धार्मिक किताबों की भी थी जहाँ से मैंने स्वामी विवेकानन्द के पुस्तक "राजयोग" खरीदी थी। तब शायद उसका मूल्य ₹2/- था।

बाद में देवास गेट की दुकान से नारायणदत्त श्रीमाली की कुछ पुस्तकें "दशफल दर्पण", "भारतीय अंक शास्त्र" और "ज्योतिष योग" आदि खरीदी थीं।

इस सब अध्ययन के बाद यह प्रश्न मेरे मन में आया कि इ सबका सार क्या है, उसे कैसे सीखा और प्रयोग में लाया जाए?

A. M. से मुझे बहुत सहायता मिली और यह समझ में आया कि पहले तो विंशोत्तरी, अष्टोत्तरी और योगिनी इन तीन मुख्य दशाओं का निर्धारण करना चाहिए, बाद में जातक की जन्म पत्रिका में दिखलाई देनेवाले विभिन्न महत्वपूर्ण ज्योतिषीय योगों को देखना होगा और इसके बाद उन योगों के फलित होने के समय का निर्धारण, उन सभी ग्रहों की महादशा, अन्तर्दशा और प्रत्यन्तरदशा के अनुसार तय करना होगा। इसके अतिरिक्त प्रश्न कुंडली का अध्ययन भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। प्रश्न कुंडली के अध्ययन से भी बहुत कुछ सीखा और जाना जा सकता है। उन्हीं दिनों मालीपुरा स्थित पुस्तकों की एक दुकान से मैंने "वर्षफल दर्पण" नामक बहुत अच्छी किताब खरीदी थी, जिसमें "मुन्था" की अवधारणा का उल्लेख पहली बार मुझे दिखलाई पड़ा। बहुत बाद में मुझे पता चला कि यह अवधारणा अरबी / फारसी ज्योतिष-शास्त्र की देन है, क्योंकि चन्द्र के 12 महीनों के 12 राशियों के भ्रमण पर आधारित अरबी / फारसी कैलेन्डर में उस "अधिक मास" की गणना उस तरह से नहीं की जाती, जैसी कि वैदिक भारतीय पञ्चाङ्ग में की जाती है। और इसलिए "माह" संस्कृत "मास" का अपभ्रंश है, जो चन्द्रमा का ही द्योतक है। शायद इसी आधार पर "मुन्था" (अंग्रेजी - month) की परिकल्पना या अवधारणा प्रस्तुत की गई, और तदनुसार इस आधार पर "वर्षफल" को समायोजित किया गया। यह सब मेरा व्यक्तिगत विचार है, हो सकता है कि यह सही हो या न भी हो। यह सही है भी या नहीं, इस बारे में मेरा कोई दावा नहीं है।

व्यक्ति के जीवन के बारे में इन दो या तीन बिन्दुओं के आधार पर कोई अनुमान किया जा सकता है, विभिन्न घटनाओं के समय का भी, वहीं इससे पहले की पोस्ट में जैसा मैंने इंगित किया, विभिन्न ग्रहों के राशिचक्र में होने वाले भ्रमण के समय-अन्तराल के आधार पर, और उनके राशि परिवर्तन के आधार पर भी इन घटनाओं का महत्व तय किया जा सकता है। सूर्य, बुध और शुक्र तीव्रगामी ग्रह हैं जो कि पृथ्वी की कक्षा के भीतर रहते हुए लगभग एक माह के समय में एक से दूसरी राशि में चले जाते हैं, चन्द्रमा लगभग 27 दिनों में पूरे राशिचक्र का परिभ्रमण कर लेता है और नक्षत्रों में उसके अपने चलने में व्यतीत किए गए समय के अनुसार चान्द्र मास की तीस तिथियाँ, सौर मास की तुलना में वृद्धि या ह्रास को प्राप्त होती हैं। दूसरी ओर, पृथ्वी की कक्षा से बाहर के ग्रह जैसे मंगल, बृहस्पति और शनि जो पृथ्वी की कक्षा से बाहर रहकर राशिचक्र में भ्रमण करते हैं। स्पष्ट है कि जो ग्रह सूर्य से जितना कम या अधिक दूर होगा उसके द्वारा राशिचक्र में परिभ्रमण करने के लिए लगनेवाला समय उसी अनुपात में कम या अधिक होगा। बृहस्पति लगभग बारह वर्षों में और शनि तीस वर्षों में राशिचक्र का एक पूरा परिभ्रमण करते हैं। और हमारे सौर मण्डल से सर्वाधिक दूर के दो छायाग्रह राहु (तथा केतु) 18 वर्ष के समय में यह पूरा परिभ्रमण करते हैं। और इतना ही नहीं वे सदैव वक्री रहते हैं अर्थात् विलोम गति से चलते हैं जिसे अंग्रेजी में Retrograde  कहते हैं। और इसीलिए इन सभी ग्रहों के प्रभाव भी भिन्न भिन्न और विलक्षण तथा विचित्र होते हैं। वैश्विक प्रभाव एक अलग तरह के, स्थानों की और समुदायों तथा मनुष्य विशेष के अनुसार भी भिन्न भिन्न होते हैं। यहाँ तक कि किसी स्थान विशेष के मौसम के बारे में भी इस अध्ययन का उपयोग हो सकता है।

(Meteorite / Astrological Meteorology)

इसी आधार पर मैंने अपना अध्ययन किया और अनुभव किया कि ज्योतिष शास्त्र घटनाओं का पूर्वानुमान करने और भविष्य का आकलन करने के लिए एक अच्छा और उपयोगी साधन (instrument) अवश्य हो सकता है, किन्तु इसके लिए लगन से उचित और पर्याप्त श्रम किया जाना भी अपेक्षित है। धैर्यपूर्वक श्रम करने पर भविष्य के बारे में अवश्य बहुत कुछ सुनिश्चित कहा और जाना जा सकता है।

***



Someone There!

कोई कोई!

कविता / Poetry 

نظم

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कोई तिनका, कोई चारा,

कोई मछली, मछुआरा कोई,

कोई नदिया, कोई तट पर,

बैठा हुआ, देखे धारा!

कोई खेता नाव, कोई,

उस पार उतरनेवाला,

कोई अनाड़ी डूब जाता,

मझधार में बहनेवाला!

कोई भँवर, कोई लहर, 

कोई पानी, कोई नहर,

कोई नदिया, कोई तट पर,

बैठा हुआ देखे धारा!

शाम कोई, सुबह कोई, 

धूप कोई,  छाँव कोई, 

खेत या खलिहान कोई, 

बंजर कोई, मैदान कोई, 

कोई बेईमान, ईमान कोई, 

कोई दानिश, नादान कोई! 

कोई सुखी, आराम कोई, 

बेचैन कोई, चैन कोई!

रंग कोई, रिवाज कोई, 

कोई मौन आवाज कोई!

साज कोई अंदाज कोई,

कोई अंधेरा, रौशनी कोई!

इंतिहा कोई, आगाज कोई!

***

آغاز

انتہا,

دانش

نظم

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May 18, 2025

I just don't know!

कितना सत्य है ज्योतिषीय आकलन!

केवल उत्सुकतावश ज्योतिष-शास्त्र का अध्ययन करने के प्रति कभी मेरी रुचि जागृत हुई थी। यह वह समय था जब मैंने म. प्र. बोर्ड की ग्यारहवीं की परीक्षा दी थी और देवसर से भागकर देवास आ गया था। 1970 के अप्रैल माह का कोई दिन था वह।

नानाजी छोटी पाती के आनंदपुरा मोहल्ले में एक मन्दिर में रहते और वहीं पूजा पाठ और पुरोहिती से आजीविका चलाते थे। नानीजी बहुत पहले, शायद मेरे जन्म से भी पहले गुजर चुकी थीं। नानाजी के छोटे भाई और उनका परिवार भी वहीं रहता था। मंदिर तल-मंजिल पर स्थित था और सामने के बड़े फाटकनुमा द्वार से दाएँ बाएँ एक एक सीढ़ी ऊपरी मंजिल पर जाती थी। उन्हीं गर्मियों में वहाँ दोपहर भर "पृथ्वीधराचार्य" की ज्योतिष पर लिखी एक किताब पढ़ता रहता था। और तब से ही सैद्धान्तिक ज्योतिष के बारे में कुछ जानकारी मिली। वहीं हस्तरेखा पर लिखी एक किताब भी मिली और उसके भी पन्ने यूँ ही पलटता रहता था। कुछ बुनियादी सिद्धान्तों का पता वहीं से चलने लगा। उदाहरण के लिए, हमारी पृथ्वी भी वैसा ही एक ग्रह / आकाशीय पिण्ड है जैसे कि ज्योतिष शास्त्र में सूर्य, चन्द्र, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु (या बृहस्पति), और शनि हैं।

केवल दृश्य ज्योतिष में सापेक्ष दृष्टि से, दृष्टा नित्य चेतन और सभी दृश्य पदार्थ या पिण्ड जड कहे जाते हैं। जिस चेतना में चेतन और जड साथ-साथ व्यक्त और अव्यक्त होते हैं वह आधारभूत चेतना उन दोनों से विलक्षण है,  जिसे उसके अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं जान सकता है। क्योंकि वही एकमेव अद्वितीय सत्य है।

दृश्य ज्योतिष में यही सूर्य है और सभी अन्य छोटे-बड़े पिण्ड इसके ही अंश हैं।

वाल्मीकि रामायण में रघुकल में उत्पन्न हुए राजा त्रिशंकु की कथा है जो सशरीर स्वर्ग अर्थात् देवताओं के लोक में जाना चाहते थे। उनके गुरु और पुरोहित ऋषि विश्वामित्र ने उनकी इस इच्छा को वैदिक ज्ञान और यज्ञ के माध्यम से पूर्ण करने की चेष्टा की। इस प्रकार जब वे सशरीर ही स्वर्गारोहण कर रहे थे तो इन्द्र कुपित हो उठे क्योंकि यह विधि के विधान का उल्लंघन था। किन्तु उन देवताओं का यह सामर्थ्य नहीं था कि ऋषि विश्वामित्र के तपोबल और ज्ञान का सामना कर सकें और राजा त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग में प्रवेश करने से रोक सकें। तब वे ऋषि नारद के पास इस समस्या के समाधान के लिए पहुँचे। नारद ऋषि ने उन्हें इसका एक उपाय बतलाते हुए कहा कि देवलोक जिस तल पर स्थित है उससे तिर्यक् और कोणीय अन्तर पर राजा त्रिशंकु को अन्तरिक्ष में अधर में स्थान प्रदान किया जा सकता है। और तब से राजा त्रिशंकु अन्तरिक्ष में उस स्थिति में दिखाई देते हैं।

ध्रुव और सप्तर्षि की कथा भी हम जानते ही है। हमारे सामूहिक पापों के फलस्वरूप इस नाम का एक और भी ध्रुव (राठी) आजकल वायरल है यह भी हमें अच्छी तरह से पता है। यहाँ उसकी चर्चा करना समय का अव्यय ही होगा इसलिए वह फिर कभी। 

वाल्मीकि रामायण की इस कथा में यह तो स्पष्ट ही है कि पृथ्वी सहित सभी ग्रह एक ही तल (plane) में स्थित हैं - दूसरे शब्दों में -

पृथ्वी और पृथ्वी लोक एक समतल है। और यह भी,  कि अन्तरिक्ष की बड़ी बड़ी दूरियों की तुलना में इस समतल की मोटाई नगण्यप्राय है। और दुनिया गोल नहीं बल्कि चपटी है।

यहाँ इस विवाद के बारे में कुछ नहीं कहा जा रहा, यह बस याद आ गया।

इन ग्रहों का अन्तरिक्ष में विचरण जैसा पृथ्वी पर स्थित किसी दर्शक को दिखाई देता है उसमें उसे यही लगता है कि सूर्य प्रतिदिन सुबह उदित होता है और रात्रि होते ही अस्त हो जाता है। इसे दूसरे ढंग से यूँ भी कह सकते हैं कि जिस समय सूर्य उदित होता है उसे सुबह कहते हैं ओर जिस समय सूर्य अस्त होता है, उसे संध्या या शाम कहा जाता है -

यस्मिन् शम्यते / शाम्यते सूर्यो स शामः इत्यभिधीयते।।

इस प्रकार "काल" या समय की उत्पत्ति या उत्पत्ति होने की प्रतीति कल्पना है न कि कोई वास्तविकता है।

यस्मात् भूयते कालो न कस्मात् अकस्मात् वा।

स अक्षरो अव्ययोऽपि नित्यो यत्र चानुभूयते।।

शिव अथर्वशीर्ष में इसे इन शब्दों में कहा जाता है -

अक्षरात्सञ्जायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते।

इसलिए आभासी रूप से काल और स्थान दोनों ही सूर्य पर आश्रित जगत् है।

एक ही समतल में स्थित जो सात ग्रह सूर्य के चतुर्दिक् उसकी परिक्रमा करते दिखाई देते हैं, उनमें चन्द्र भी एक है जो राशिचक्र (Zodiac) में एक से दूसरी अगली राशि में प्रविष्ट होकर पूरे राशिचक्र में एक वृत्त में भ्रमण करता है। इन राशियों को बारह रूपों में चित्रित किया जाता है,  जिन्हें मेष, वृषभ आदि नाम दिए गए हैं। प्रत्येक राशि में सवा-दो नक्षत्र (constellations) होते हैं और प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं। इस प्रकार से कुल सत्ताईस नक्षत्रों के बारह राशियों में एक सौ आठ बिन्दु होते हैं। और सभी नौ ग्रह मूलतः तो इस प्रकार पूरे राशिचक्र में भ्रमण करते हुए एक सौ आठ पड़ावों पर अनवरत चलते रहते हैं। अब आप इस रहस्य से अवगत हो गए होंगे कि  जप-माला में एक सौ आठ मनके क्यों होते हैं।

अब सवाल यह रह जाता है कि यदि सूर्य और चन्द्र को भी ग्रह मान लिया जाए तो ऐसे दृश्य ग्रह तो सात ही हैं। संपूर्ण राशिचक्र जिस गोलाकार (sphere) पर चित्रित है, आभासी पृष्ठभूमि के रूप में चित्रित उस गोलाकार (sphere) पर ही स्वयं पूरा देवलोक या नक्षत्रलोक ही किसी अक्ष पर घूम रहा है। यह भौतिक अक्ष है। इसकी तुलना में दो आकाशीय बिन्दु ऐसे भी हैं जो एक अक्ष पर अनंत दूरी पर स्थित हैं। ओर इन्हें क्रमशः राहु और केतु की नाम दिया गया है। एक सूर्य तो प्रकाशमंडित हमारा सूर्य या भानु है जबकि दूसरा एक और सूर्य है जिसे स्वरों से मंडित स्वरभानु कहा जाता है। स्वरभानु ही वह असुर है जो समुद्र मंथन के समय छिपकर देवताओं की पंक्ति में बैठ गया था और सूर्य और चन्द्र ने मोहिनी का ध्यान जिसकी ओर आकर्षित किया था।

इसलिए यद्यपि मोहिनीरूप में विद्यमान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया था, किन्तु इससे पहले ही वह अमृत चख कर अमर हो चुका था। और अब भी वह ज्योतिषीय गणना के अनुसार सुनिश्चित समय पर सूर्य और चन्द्र को अपना ग्रास बनाने की असफल चेष्टा किया करता है। यह सब वैज्ञानिक तथ्य हैं।

1970 से मेरे ज्योतिष-शास्त्र के अपने अध्ययन में इसी निष्कर्ष पर मैं पहुँचा कि यह सब पूर्णतः विश्वसनीय और व्यावहारिक, वैज्ञानिक सत्य भी है।

इसे ही मैंने इस रूप में पुनः संसार की विविध घटनाओं से समायोजित (relate) करने पर पाया कि इस ज्ञान के आधार पर पूरे संसार के भावी का आकलन भी किया जा सकता है। इसे मेदिनी ज्योतिष भी कहते हैं जिसके आधार पर आजकल तमाम विद्वान संभावित भविष्य का पूर्वानुमान लगाते हैं।

उदाहरण के लिए राहु लगभग अठारह सौर वर्षों में सूर्य (या राशिचक्र) की एक परिक्रमा करता है। राहु की ऐसी तीन परिक्रमाओं में चौवन वर्ष व्यतीत होते हैं।

वर्ष 1971 के  चौवन वर्षों के बाद पुनः भारत पाक युद्ध हुआ और वही परिणाम होता हुआ दिखलाई दे रहा है जो कि उस समय हुआ था। अर्थात् पाकिस्तान के टुकड़े होना। इसी प्रकार शनि तथा गुरु के राशिचक्र में भ्रमण का समय क्रमशः तीस और बारह सौर वर्ष का होता है। ये सभी ग्रह पृथ्वी की कक्षा से बाहर भ्रमण करते हैं और इसी प्रकार मंगल भी है,  जबकि बुध और शुक्र पृथ्वी की कक्षा से भीतर भ्रमण करते हैं। और इनके साथ चन्द्र को भी रखा जा सकता है। इस पूरे घटनाक्रम की इस आधार पर कोई सुनिश्चित विवेचना की जा सकती है और भारत के इतिहास नामक रामायण और महाभारत जैसे प्रमुख ग्रन्थों में वर्णित उल्लेखों के परिप्रेक्ष्य में हमारे व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन का, राष्ट्रों और मानव सभ्यता के भविष्य का भी पूर्वानुमान किया जा सकता है।

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May 15, 2025

Though and However!

Forever! 

हर वक़्त की जरूरत!

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आजकल मौसम है बहुत खुशनुमा,

हालातो-मजहब नहीं, यूँ खूबसूरत!

हो सके अगर तो कोशिश कर देखिए!

सिर्फ बस खुद तक ही रहें महदूद, 

हाँ बहुत बड़ा देश है और दुनिया भी, 

जितना भी सोचो, उतना ही कम है, 

हर घड़ी बहुत सी नई नई फिक्रें हैं,

हर घड़ी नए रंजो-ग़मो-मातम हैं,

फिर भी कुदरत के नायाब तोहफ़े भी हैं,

क्या वो दिल के सुकूँ के लिए कम हैं!

आजकल मौसम है खुशनुमा लेकिन,

हालातो मंजर नहीं हैं यूँ खूबसूरत!

मजहबे हिज्ब है वह मजहबे मंजर 

कि जैसे कलेजे में घुसा हुआ खंजर,

हो सके अगर तो कोशिश कर देखिए 

कलेजे से ये खंजर निकाल फेंकिए!

आजकल मौसम है बदनुमा लेकिन,

हालातो-मंजर हैं बहुत बदसूरत!

हो सके तो खुद को बदल कर देखिए! 

***





May 10, 2025

बस दो पंक्तियाँ

कौन किसके हाथों में खेल रहा है, और कौन इसके नतीजे झेल रहा है, वे अलग अलग हैं भी या नहीं! 

***

 

Where-from Comes The Thought?

"विचार" कहाँ से आता है?

सूर सूर तुलसी ससी उडुगन केसवदास।

अब के कवि खद्योत सम जहँ तहँ करैं प्रकास।।

हिन्दी कविता की परम्परा में यह उक्ति प्रसिद्ध है। सरल सा अर्थ यह कि सूरदास जी हिन्दी कविता के आकाश में सूर्य की तरह हैं, गोस्वामी तुलसीदास चन्द्रमा की तरह हैं, और शेष दूसरे सभी अब तक के कवि मानों आकाश में चमकते नक्षत्र और तारे आदि हैं, जबकि आज के समय के कवि जुगनुओं की तरह कविता की ज्योति यहाँ वहाँ फैलाते रहते हैं।

अध्यात्म के क्षेत्र में भी शायद यही कहा जा सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता मानों सूर्य है, रामायण, श्रीमद्भभागवत्  मानों चन्द्रमा हैं और दूसरे ग्रन्थ मानों विविध नक्षत्र और तारे हैं, जबकि आज के समय के आध्यात्मिक विद्वान मानों जुगनूओं की तरह यहाँ वहाँ, सर्वत्र आध्यात्मिक प्रकाश फैलाते हैं।

ऐसे ही एक आधुनिक आध्यात्मिक मार्गदर्शक विचारक का उल्लेख करते हुए उस व्यक्ति ने यह जिज्ञासा मुझसे की और यह भी कहा कि उस आधुनिक आध्यात्मिक मार्गदर्शक विचारक ने इस बारे में क्या कहा।

समस्त आध्यात्मिक ज्ञान मूलतः इन रूपों में हो सकता है -

1 परंपरा से प्राप्त किया गया मान्यता रूपी कामचलाऊ ज्ञान जो सामाजिक आचरण और व्यवहार की मर्यादा के रूप में होता है और अलग अलग स्थानों, रीति रिवाजों, संस्कृतियों के अनुसार तय किया जाता है। 

2 बौद्धिक और वैचारिक ज्ञान जो किसी न किसी प्रकार का कोई दार्शनिक सिद्धांत होता है और ऊहापोहपरक होता है, जिसमें एक विचार को छोड़कर दूसरे विचार को महत्व दिया जाता है। इस ऊहापोहपरक और अंतहीन क्रम को "चिन्तन-मनन" कहा जाता है। किन्तु फिर भी कभी कभी किसी अज्ञात कारण से जब यह "चिन्तन-मनन" सही दिशा में प्रवृत्त हो जाता है तो ध्यान इस प्रश्न और जिज्ञासा पर आ सकता है कि "नित्य" क्या है, और "अनित्य" क्या है? दूसरे शब्दों में तब जो अन्वेषण किया जाता है वह अस्तित्व के आभासी / परिवर्तनशील और उसके अपरिवर्तनशील आधारभूत स्वरूप के संबंध में होने लगता है। 

चित्त, मन, संसार, और चेतना

Intellect, Mind, World and

The Consciousness

चित्त विचार है, विचार की बुद्धि से प्रेरित गतिविधि मन है और संसार, इस गतिविधि में अनुभव होनेवाली वस्तु है।

इस पूरे घटनाक्रम की आधारभूत अचल अपरिवर्तनशील पृष्ठभूमि है चेतना।

(यहाँ पर -चित्त, मन, संसार और चेतना इन चारों शब्दों का तात्पर्य उनके लिए प्रयुक्त और ऊपर दिए गए अंग्रेजी शब्दों के पर्याय की तरह है।)

3 जिस आध्यात्मिक ज्ञान में "नित्य" और "अनित्य" के स्वरूप के बारे में अन्वेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि चेतना सबमें विद्यमान और उन सबसे विलक्षण, अछूती, और सबसे अप्रभावित रहनेवाली वास्तविकता है, और चित्त, मन और संसार आभास की तरह प्रतीत भर होते हैं और इसलिए समस्त आभासी अस्तित्व का निरसन कर दिया जाता है तो यह वृत्तिमात्र के "निरोध" की दशा होती है, जिसका उल्लेख पातञ्जल योगसूत्र के समाधिपाद में दूसरे सूत्र 

"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।"

में पाया जाता है।

जब यह अन्वेषण एकाग्रतापूर्वक किया जाता है तो इसे ही "निदिध्यासन" कहा जाता है।

यदि "नित्य" क्या है और "अनित्य" क्या है इस बारे में पर्याप्त अन्वेषण किया जाता है तो स्पष्ट हो जाता है कि समस्त आभासी / परिवर्तनशील और आधारभूत तथा अपरिवर्तनशील वास्तविकता का बोध "जिसे" होता है, वही सत्ता शुद्ध चिन्मात्र चेतना है जिसमें विषयमात्र का निरसन हो जाता है और इसलिए विषयमात्र के ही साथ उसके पूरक विषयी का भी विलय हो जाता है।

अनुभव और अनुभवकर्ता युगपत्, साथ साथ ही प्रकट और विलीन होते हैं। किन्तु स्मृति के द्वारा आरोपित किए जानेवाले सातत्य के फलस्वरूप ही, और उसी एकमात्र कारण से "अनुभव" के "अनित्य" किन्तु "अनुभवकर्ता" के "नित्य" होने का भ्रम पैदा होता है।

और इसीलिए समस्त अनुभवपरक ज्ञान भी एक तरह का "आध्यात्मिक" ज्ञान हो सकता है, जिसमें "अनुभव" के क्रम पर आधारित "अनुभवकर्ता" के रूप में भूल से, अपने आपको "नित्य" मान लिया जाता है।

इसी पृष्ठभूमि में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ४ के प्रथम कुछ श्लोक उल्लेखनीय हैं

श्रीभगवानुवाच 

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। 

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एव अयं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। 

भक्तोऽसि सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।३।।

अर्जुन उवाच -

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।

श्रीभगवानुवाच -

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। 

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।६।।

4 आधारभूत अधिष्ठान के रूप में यह अपरिवर्तनशील आत्मा ही यह शुद्ध चेतना है। और यद्यपि "व्यक्ति" के अनेक जन्म होते हैं और साक्षीमात्र की तरह से आत्मा के भी ऐसे ही असंख्य जन्म होते हैं ऐसा कह सकते हैं, किन्तु इन सभी जन्मों को साक्षी ही जानता है न कि "व्यक्ति"।

इस प्रकार का ज्ञान भी आध्यात्मिक ज्ञान ही है और सर्वाधिक प्रामाणिक और विश्वसनीय भी है।

किन्तु अब हम अपने उस प्रारंभिक प्रश्न पर लौटें -

"विचार कहाँ से आता है?"

श्रीमद्भगवद्गीता में इस जिज्ञासा का समाधान निम्न रूप में प्राप्त होता है -

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। 

सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोपजायते।। 

क्रोधात्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

पुरुष ही "व्यक्ति" है जिसके अनेक जन्म होते हैं जिनमें व्यतीत समय में वह असंख्य अनुभवों का भोग करता है। इस प्रकार से एक काल्पनिक "अनुभवकर्ता" क्षण क्षण ही अस्तित्व में आता और विलीन होता रहता है और उसे ही चित्त में अपनी आत्मा की पहचान की तरह सत्य मान लिया जाता है।  

उस पुरुष में विद्यमान चेतना / प्रकृति ही वह मूल प्रकृति / स्वभाव है, जिसमें पुरुष का ध्यान किसी विषय की ओर आकर्षित होता है और वह उस विषय से लिप्त हो जाता है। इसे ही पुरुष और प्रकृति का संयोग कहते हैं। किन्तु उत्तम पुरुष कभी इस प्रकार से किसी विषय से संलिप्त नहीं होता और प्रकृति ही उसके सान्निध्य से गुणों और कर्मों से सब प्रकार से कार्यरत प्रतीत होती है।

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। 

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।

इस प्रकार

"विचार कहीं से न तो आता है और न ही कहीं जाता है, किसी भी विषय से चित्त (पुरुष) का संसर्ग होते ही और पुरुष के द्वारा उस पर ध्यान दिए जाने पर ही वह व्यक्त रूप में अनुभव होता है।"

अपेक्षा है कि कुछ श्लोकों के अध्याय और स्थान पाठक स्वयं ही खोज लेंगे। 

 ***

 


May 09, 2025

Jungle-house Scrolls.

অরণ্যের দিবস রাত্রি 

इससे पहले इस ब्लॉग में मैंने सिर्फ एक ही  বাংলা  पोस्ट लिखा था।

यह हिन्दी पोस्ट भी केवल इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि "जंगल-हाउस" से मुझे  বাংলা के विश्व-प्रसिद्ध लेखक, फिल्म निर्माता, निर्देशक सत्यजित रे की फिल्म :

 অরণ্যের দিবস রাত্রি

की याद आई।

सत्यजित रे

की इस नाम की फिल्म देखने का सौभाग्य तो मुझे नहीं मिला किन्तु ऊपर दी गई लिंक पर मुझे इस बारे में

विख्यात अभिनेत्री सिमि ग्रेवाल

और सत्यजित रे की इस फिल्म के निर्माण के समय के बारे में रोचक जानकारी मिली।

मैं दोनों का ही प्रशंसक हूँ। 

बहुत पहले मैंने उनकी एक पुस्तक :

"फेलू दा और अन्य कहानियाँ"

भी पढ़ी थी।

इसी तरह  বাংলা  भाषा के अनेक लेखक जैसे कि :

बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, शरत्-चन्द्र चट्टोपाध्याय, विमल मित्र, समरेश बसु, सुनील गंगोपाध्याय (प्रेम नहीं स्नेह) आदि भी मेरे प्रिय लेखक रहे हैं।

निश्चित ही   বাংলা  भाषा, संगीत और फिल्मों में भी कला, साहित्य, गल्प और नाटक के अनेक तत्व हैं जो जीवन और विशेष रूप से सामाजिक जीवन के अनेक रंगों को कुशलता से चित्रित करते हैं। और भावनाओं की जो गहराई उनमें है वह भी उतनी ही आवेगपूर्ण है, किन्तु यह सब किसी मर्यादा में बद्ध होता है।

इस पोस्ट को लिखने से जरा पहले तक भी मुझे खयाल नहीं था कि एक बार फिर मेरा ध्यान বাংলা संस्कृति की ओर आकर्षित होगा।

भद्रलोक से पुनः जुड़ना चाहूँगा!

*** 


May 08, 2025

Death and Dare!

मृत्यु-बोध और मृत्यु-भय

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क वि ता 

कुछ लोग डर रहे हैं, 

कुछ लोग मर रहें हैं।

जो मरने से डर रहे हैं, 

वो डरने से मर रहे हैं!

जिन्हें मृत्यु-बोध नहीं, 

उन्हें मृत्यु-भय है, 

जिन्हें डर लगता है,

उन्हें मृत्यु-बोध नही!

और यह भी हैरत,

हर कोई नादान है, 

कोई भी अबोध नहीं! 

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May 06, 2025

History Repeated?!

केवटग्राम : 2016

--

क्या जीवन की घटनाएँ किसी तय चक्र में अपने आपको पुनः पुनः दुहराती हैं! शायद किसी हद तक व्यक्ति विशेष के संदर्भ में ऐसा होता होगा!

17 मार्च 2016 जब मैं  L/161, महाशक्तिनगर में रहा करता था। आज भी मेरे पुराने पोस्ट्स में वह पता देखा जा सकता है। वहीं 2009 में इस ब्लॉग से ब्लॉग लिखना शुरू किया था।

तय हुआ कि अब यह स्थान छोड़ना है। अपने एक मित्र से निवेदन किया कि मैं नर्मदा तट पर जाकर कहीं रहने का इच्छुक हूँ। और 19 मार्च 2016 के दिन उपरोक्त पते पर उन्होंने एक 407 वाहन भेज दिया। जगह थी उसमें कि मेरा लगभग पूरा सामान उस पर चढ़ा दिया गया। और उसी रात्रि लगभग साढे़ नौ बजे मैं केवटग्राम स्थित अपने नए आवास पर पहुँचा। इन्दौर से खंडवा मार्ग पर स्थित उस स्थान पर, जहाँ मैं 5 अगस्त 2016 तक रहा। 5 अगस्त 2016 की शाम मैं देवास पहुँचा। पूरे तीन वर्ष और 3 माह तक मैं वहीं रहा।

2019 के अंत से 2023 के आरंभ तक कहीं और! 

फिर कुछ समय बाद नर्मदा तट पर रहने की तीव्र इच्छा हुई तो यहाँ 5 अगस्त 2024 की सुबह पहुँचा। और याद आया यहाँ सब वैसा ही है जैसा केवटग्राम में था!

क्या यह संयोग है या जीवन स्वयं ही अपने आपको इस तरह समय समय पर दुहराता है और हमारा ध्यान शायद ही कभी इस सच्चाई पर जाता है! 

विशेष यह कि जैसी स्थितियाँ और वातावरण केवटग्राम में और आसपास था, बिल्कुल वैसी ही स्थितियाँ और वातावरण आजकल यहाँ इस जंगल हाउस में अनुभव हो रहा है। नर्मदा नदी के तट से एक दो मिनट की दूरी पर स्थित यह आवास, आसपास की शान्ति, निःस्तब्धता। सब कुछ वैसा ही। कोई सुनिश्चित दिनचर्या नहीं। जब जो मन हो कर सकते हैं। जब चाहो आराम करो, जब चाहे उठो या सो जाओ, नहाओ या मत नहाओ। किसी से शायद ही कभी मिलना होता है। नदी की ओर जानेवाले मार्ग पर स्थित दुकानों से सभी आवश्यक वस्तुएँ मिल जाती हैं। सुबह चार बजे नींद खुल जाती है। आज भी रोज की तरह जल्दी उठ गया।

मोबाइल पर यू-ट्यूब पर भारत और पाकिस्तान के बीच होनेवाले संभावित युद्ध के बारे में लोगों के अनुमान और भयों के बारे में सुनता रहा। 

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May 04, 2025

Jay Jagannatha!

ममता बनर्जी

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प्रथमदृष्ट्या मन में यही विचार आया कि -

भगवान् श्री हरि की असीम और अहैतुकी कृपा सुश्री ममता बनर्जी पर हुई है इसलिए उनके मन में जीवन के इस विकट समय में यह शुभ संकल्प जागृत हुआ। 

यह वीडियो देखते हुए -


श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक याद आया -

अपि चेत् सुदुराचारो भजतो मामनन्यभाक्।

साधुरेव स मन्तव्यो सम्यग्व्यवसितो हि सः।।

बस यही प्रार्थना है कि -

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। 

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्।।

जय जगन्नाथ!! 

।। ॐ हरि ॐ तत् सत्।। 

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May 03, 2025

May 19, 2025

तू चल, मैं आया!

पतञ्जलि कृत योगसूत्र समाधिपाद के अनुसार :

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

और,

अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।।१०।।

वृत्ति अर्थात् मनोदशा, जो उपरोक्त पाँच प्रकारों की या उनसे मिली-जुली कोई स्थिति होती है। जैसे संगीतबद्ध किसी गीत में स्थायी और अन्तरा होते हैं और किसी भी शास्त्रीय राग में एक श्रुति आधारभूत होती है, उसी तरह किसी भी मनोदशा में सब कुछ यद्यपि सतत ही बदलता रहता है, किन्तु उस सब परिवर्तन के बीच 'अपने होने' की भावना अप्रकट और अविच्छिन्न रूप से विद्यमान होती ही है। 'सब कुछ' मुझे या मेरे इर्द-गिर्द होता है, यह तो निर्विवाद और असंदिग्ध रूप से स्पष्ट होता है किन्तु जो कुछ भी होता है उसे किसी न किसी 'वृत्ति' के सहारे से ही 'जाना' जाता है। जैसे - मुझे डर लग रहा है, मुझे यह कार्य करना है या कि नहीं करना है, करना या नहीं करना चाहिए, मेरा 'मन' शान्त, उद्विग्न, प्रसन्न, चिन्तित, व्याकुल, भयभीत, आदि है, मुझे भूख, प्यास, गर्मी, शीत या घबराहट हो रही है, मैं जानता हूँ, नहीं जानता, मेरी बुद्धि काम कर रही है या नहीं कर रही, मैं समझ पा रहा हूँ या नहीं समझ पा रहा ... इन सभी अनुभवों में जिस वस्तु का उल्लेख "मैं" की तरह से किया जाता है वह यूँ तो असंदिग्ध रूप से निर्विवाद एक तथ्य होता है और प्रत्येक ही मनुष्य स्वयं को अनायास ही "मैं" के अर्थ में उस अनुभव का भोक्ता होते हुए भी ऐसे समस्त अनुभवों के बीच अपरिवर्तनशील "अनुभवकर्ता" के रूप में अपने आपको पहचानता भी है, और उसकी अभिव्यक्ति करना उसकी व्यावहारिक आवश्यकता भी हो सकती है, फिर भी इस विषय में सुनिश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकता। केवल स्मृति नामक वृत्ति के सहारे ही वह उस समय की कल्पना कर सकता है, जिसे वह 'अतीत' का नाम देता है और 'अनुमान' नामक वृत्ति के सहारे ही 'भविष्य' नामक किसी स्थिति की कल्पना कर सकता है। और जिसे वह 'वर्तमान' कहता है उसे यद्यपि वस्तुतः "जी रहा" होता है, किन्तु उसकी 'पहचान' कर पाना उसके लिए असंभव ही होता है। और ऐसी कोई भी 'पहचान' बनाने के लिए उसे "मैं" नामक कल्पना का आधार लेना आवश्यक हो जाता है। इस प्रकार, कल्पना, अनुमान, पहचान, स्मृति, अतीत और भविष्य केवल 'मन' की सतत बदलती स्थितियों के ही भिन्न भिन्न रूप होते हैं और जिसे "मैं" नामक वस्तु या व्यक्ति के रूप में स्वयं की तरह स्वीकार कर लिया जाता है, वैसे किसी वस्तु या व्यक्ति की सत्यता संदिग्ध ही है।

जो कुछ होता हुआ प्रतीत होता है, वह सब घटनाक्रम या "अनुभव" यद्यपि निरन्तर ही बनता और बदलता रहता है किन्तु इस सबके बीच "मैं" या "स्वयं" नामक कल्पित "भोक्ता", "अनुभवकर्ता", और उस या किसी भी दूसरे अनुभव को "जाननेवाला" न तो बनता है और न मिटता ही है, किन्तु उसका ही उल्लेख "अपने आप" की तरह करना औपचारिक रूप से आवश्यक होने पर भी तथ्य की तरह सत्य नहीं हो सकता है।

जैसा कि "मैं" के विषय में ऊपर कहा गया, ठीक वैसा ही तथाकथित "संसार" के बारे में भी अक्षरशः सत्य है।

इसलिए न तो "मेरा" और न ही "संसार" का ऐसा कोई अतीत या भविष्य हो सकता है जिसे परिभाषित किया जा सके, तो फिर उसका आकलन करना तो और भी दूर की बात है।

किन्तु जिस भौतिक संसार की पहचान अतीत में संचित स्मृति के अंतर्गत की जाती है, उसके भविष्य की सत्यता भी "भौतिक विज्ञान" के माध्यम से तात्कालिक तौर पर स्वीकार की जा सकती है। इसका सरल सा उदाहरण है सूरज का उगना और डूब जाना। यह शुद्धतः वैज्ञानिक अकाट्य और निर्विवाद सत्य है। इसी प्रकार से विभिन्न "ग्रहों" और आकाशीय पिण्डों के पुनरावृत्तिपरक गति के अवलोकन से और उससे घनिष्ठतः संबद्ध प्रकृति के कार्य से "संसार" की विभिन्न गतिविधियों और घटनाक्रमों के बीच किसी क्रम (pattern) के होने का अनुमान किया जा सकता है। यद्यपि ऋषियों के मतानुसार यह समस्त प्रकृति, मनुष्य और संसार भी एकमेव "चेतन" अस्तित्व है, किन्तु यह भी सत्य है कि यह अस्तित्व फिर भी किसी भी घटनाक्रम से अप्रभावित रहता है और वस्तुतः न तो किसी जगत्, संसार, मनुष्य या मनुष्य की तरह अपनी विभिन्न "चेतन" अभिव्यक्तियों को प्रभावित करता है न उनसे प्रभावित ही होता है।

समस्त भौतिक विज्ञान और ज्योतिष-शास्त्र के अंतर्गत की जानेवाली सभी व्याख्याएँ "विपर्यय" और "विकल्प" के ही उदाहरण मात्र हैं और उनकी सत्यता सदैव संदिग्ध ही है।

***


 

May 01, 2025

GUIDE!

आज की बात!

गाईड, रहीम और ग़ालिब 

भोपाल के किसी मित्र ने व्हॉट्स ऐप पर हिन्दी फिल्म "गाईड" के -

"वहाँ कौन है तेरा, मुसाफिर जाएगा कहाँ ..."

इस गीत का वीडियो शेयर किया  -

और जैसा अकसर होता है, जब उसने 

"कहते हैं ज्ञानी,

दुनिया है फ़ानी,

पानी पे लिक्खी है,

कुछ तेरा न मेरा,"

इस टुकड़े में "फ़ानी" को "पानी" समझ लिया, तो 

मुझसे रहा नहीं गया, और मैंने उसका ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि "फ़ानी" का मतलब होता है "फ़ना" होनेवाला अर्थात् नश्वर या नाशवान - perishable.

Consumer goods are perishable items that can't be kept pure for much long, and are useful for a short time only.

फिर ग़ालिब के कुछ शे'र प्रमाण के लिए प्रस्तुत किए -

इशरते-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना,

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।

बस कि मुश्किल है हर काम का आसां होना, 

आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना।

की मेरे क़त्ल के बाद जफ़ा से तौबा। 

हाय उस ज़ूद पशेमाँ का पशेमाँ होना! 

इशरत  मतलब मुक्ति,

क़तरा मतलब टुकड़ा / बून्द,

दरिया मतलब समुद्र,

फ़ना मतलब विलीन,

आसां मतलब आसान, 

इंसा  मतलब इंसान,

आदमी मतलब मनुष्य, 

मयस्सर मतलब उपलब्ध,

जफ़ा मतलब क्रुद्ध या क्रोध, 

ज़ूद का मतलब - ज्यादा - extreme,

पशेमाँ का मतलब लज्जित, शर्मिन्दा होना, 

फिर उसने पाकिस्तान के वर्तमान हालात के बारे में एक मीम / शॉर्ट वीडियो पेश किया जिसमें यू एस के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प "water, water" कहते हुए पानी की बॉटल उठाकर पानी पी रहे होते हैं और खाली बॉटल को उछाल कर दूर फेंक देते हैं।

फिर मुझे रहीम का यह दोहा याद आया :

रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून। 

पानी गए न ऊबरे मोती मानुष चून।।

यहाँ पर पानी का मतलब आँखों की शर्म, शर्मो-हया, लज्जा, मोती की चमक, और पान के साथ खाया जाने वाला चूना हो सकता है, जिसमें पानी सूख जाने पर वह किसी काम का नहीं रह जाता। 

उसने कहा :

क्या 'चून' शब्द का एक अर्थ "आटा" नहीं होता?

मैंने कहा -

'चून' शब्द संस्कृत के 'चूर्ण' शब्द का अपभ्रंश है, और पर्याय से,  imperatively  आटा या चूना दोनों अर्थों में प्रयुक्त होने लगा। फिर यह संस्कृत के ही 'च्यवन' शब्द का भी अपभ्रंश हो सकता है। जैसे बरसात में छत से पानी टपकना या चूना।

फिर मैंने कहा -

अजीब बात है कि आप भोपाल के हो और मैं भोपाल से बाहर का, फिर भी आपको उर्दू पढ़ा रहा हूँ!

वे बोले -

भई, पाकिस्तान की आँखों का पानी तो उसी दिन मर चुका था जिस दिन कुछ मुसलमानों ने मुसलमानों को हिन्दुओं से अलग क़ौम घोषित कर कह दिया था कि ये दोनों क़ौमें साथ साथ नहीं रह सकती हैं, और इसलिए इस आधार पर अपने लिए भारत को विभाजित करने की और अपने लिए अलग मुल्क की माँग कर दी थी।

अब भारत ने पाकिस्तान का पानी क्या रोक दिया तो उपद्रव कर रहा है। एक दिन अवश्य ही पाकिस्तान के टुकड़े टुकड़े होंगे और सब टुकड़ों की मुक्ति / इशरत हिन्दुस्तान रूपी दरिया में फ़ना होने से ही होगी।

अखंड भारत हिन्दू राष्ट्र ही इस समस्या का एकमात्र और स्वाभाविक विकल्प है।

***

 






April 29, 2025

COWNPORE

कौनपुर?

वह अंगरेज़ सैनिक घोड़े पर सवार होकर जब पहली ही बार गोमती नदी के तट पर आया था तो किसी स्थानीय निवासी से उस जगह का नाम पूछा, तो उसे जवाब मिला "कर्णपुर"। पास ही खड़े दूसरे उसके स्थानीय मित्र ने कौतूहलमिश्रित आश्चर्य से उसे देखा और मित्र से बोला :

"कानपुर?!"

अंगरेज़ वैसे चालाक और चतुर भी था। उसने पेन्सिल से डायरी में नोट किया :

"COWNPORE".

"हाँ भाई, हम इस जगह को "कानैपुर" तो कहते हैं!"

यह सुनकर मित्र चुप हो गया किन्तु जब उसने अंगरेज़ की डायरी में लिखा "COWNPORE" शब्द पढ़ा तो उसका आश्चर्यमिश्रित कौतूहल और बढ़ गया। उसने सोचा - "इस विदेशी ने क्या लिखा?"

उसने उंगली के इशारे से डायरी पर लिखे शब्द को इंगित करते हुए उससे प्रश्नवाचक दृष्टि से, इशारे से ही पूछा कि उसने क्या लिखा है?

तब अंगरेज़ ने गोमती नदी के तट पर चर रही गायों की ओर इशारा कर कहा : कॉऊ!

भारतीय ने चकित होकर अपने मित्र से कहा : "कोऊ!?"

अंगरेज़ तो चला गया किन्तु वे दोनों मित्र आपस में बातें करने लगे। जो थोड़ा जानकार था, और संस्कृत के साथ थोड़ी बहुत अंग्रेजी भी वह जान समझ लेता था। उसने उसे समझाया : ये लोग नहीं जानते कि संस्कृत में नदी,  वाणी, और बुद्धि को भी "गौ" कहते हैं। हमारे सामने यह जो नदी बह रही है उसका नाम "गोमती" है। यह नाम दो शब्दों गो और मति से बना है। और "मति" शब्द द्विवचन में "मती" हो जाता है। मति अर्थात् बुद्धि। मित्र ने कहा : ये लोग गौ को कॉऊ बोलते हैं! और बकरी को "गोट" या "गौट"। उन्हें यह भी पता है कि गौ और बकरी भी हमारे लिए ईश्वर या देवता है। और यह उस समय से चला आ रहा है जब इंगलिस्तान से ऋषि शौनक यहाँ आए थे। वे यूरोप में जाने माने विद्वान थे और ज्ञान की खोज और प्रचार प्रसार में संलग्न थे। उनकी बहुत बड़ी पाठशाला थी जिसमें सैकड़ों छात्र लौकिक शिक्षा प्राप्त करते थे।

(तब से इनके द्वारा "भगवान" या "ईश्वर" के लिए  Gott या God शब्द इस्तेमाल किया जाने लगा।)  

ऋषि अङ्गिरा से उन्होंने विधिवत् दीक्षा प्राप्त कर लेने के बाद अपने देश को ऋषि अङ्गिरा के नाम से आँग्र कहना प्रारंभ किया और वही धीरे धीरे आँग्ल की तरह प्रचलित हो गया। यूरोप के ही समीपवर्ती एक देश का नाम "रोम" था जिसे ऋषि लोमश ने बसाया था। रोम का एक और प्राचीन नाम था - इतालिया, जो संस्कृत "इत् अल् ईया" का अपभ्रंश था। कहना न होगा कि यूरोप मूलतः आर्योप ही कहलाता था, और वहाँ भी ज्ञान की खोज और प्रचार प्रसार करनेवाले ऋषि तपस्वी और जिज्ञासु हुआ करते थे। एक ऋषि ने श्रीलिपि / शारदा लिपि / ब्राह्मी लिपि को कुछ रूपान्तरित कर कोई लिपि निर्मित की, और उस लिपि और उस ऋषि का नाम भी अपभ्रंश के रूप में कालान्तर में "सिरिल" की तरह प्रचलित हो गया। और ज्ञान और वेद की उस धारा को, जिसे वेदिकम् या वैदिकं भी कहा जाता था, कठोलिकों ने दुर्भाग्यवश वैटिकन का नाम दिया। ये कठोलिक वही थे जो काठकोपनिषद् या कठोपनिषद् की परंपरा के वैदिक ऋषि ही थे। "सिरिल" / Cyril ने जिस लिपि का आविष्कार किया था उसके और उसके ऋषि (ज्ञान की खोज, अध्ययन, और प्रचार प्रसार करनेवाला) होने के आधार पर उसे और उसकी भाषा को "रूसी"/ "ऋषिकीय" / Русский  नाम प्राप्त हुआ। इन सभी ने बाद में अपनी नई परंपरा और रीति रिवाज स्थापित किए जिनमें "सन्तों" को  Saint  कहा जाने लगा। यहूदियों द्वारा दण्डित और बहिष्कृत किए गए एक व्यक्ति की कहानी को आधार बनाया और उसे "ईशपुत्र" कहकर उसकी बड़ाई की गई। और ईसाई बाइबिल तथा मत की "रचना" की गई। और तब से ही इन तीनों परंपराओं में तथाकथित एकेश्वरवाद, एक ही ईश्वर है इस मत के आग्रह तथा मूर्तिपूजा को पाप कहे जाने के बारे में सहमति है, और इसलिए इन परंपराओं ने राजनैतिक सत्ता संघर्ष का रूप ले लिया है।

इसी ब्लॉग में या मेरे "स्वाध्याय" ब्लॉग में "हातिमताई" नाम के कल्पित चरित्र के आधार पर "कापालिकों" की परंपरा का वर्णन भी किया गया है।

इस पोस्ट को लिखने का प्रयोजन यही है कि "सनातन" / "धर्म" जो पूरी पृथ्वी पर व्याप्त सबका नैसर्गिक और स्वाभाविक ईश्वरीय विधान होने पर उस तरह से सर्वत्र ही सदा से प्रचलित था और जो सदा ही रहनेवाला लौकिक, पारमार्थिक सत्य है, किस प्रकार से विभिन्न और विपरीत परंपराओं (religions) के रूप में बदल गया और इस ऐतिहासिक दुर्घटना के परिणाम आज के समय में संपूर्ण मानवता को झेलने पड़ रहे हैं।

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April 25, 2025

A K and A I

Question  प्रश्न 116

What Is Thinking?

"सोचना"  क्या है?

संचित ज्ञान और कृत्रिम ज्ञान

Acquired Knowledge  and:

Artificial Intelligence.

"सोचना" भाषा पर आधारित कार्य होता है।

मनुष्य के मस्तिष्क में सोचना "होता" है, जबकि मनुष्य से भिन्न प्रकार के किसी जीव का मस्तिष्क में "सोचना" होता है या नहीं, इस पर ध्यान दें तो समझा जा सकता है कि सोचना यद्यपि भाषा पर निर्भर एक कार्य या प्रक्रिया ही है किन्तु किसी न किसी "संचित ज्ञान" की संरचना और उस विशेष प्रणाली पर ही आश्रित हुआ करता है, जिसे कि "स्मृति" कहा जाता है।

उदाहरण के लिए किसी अत्यन्त सरल साधारण "घटना" की "स्मृति"। जैसे पेड़ से फल का टूटकर गिरना। वैसे तो पेड़ की शाखाएँ या पत्तियाँ आदि भी टूटकर गिरती रहती हैं, लेकिन पत्तियाँ हवा के जोर से इधर उधर बिखर भी सकती हैं, और उसे "गिरना" नहीं कहा जा सकता। वैसे ही किसी पक्षी का हवा में उड़ना भी ऐसी किसी घटना का एक उदाहरण हो सकता है। किसी "घटना" के होने का मुख्य तत्व है "कालक्रम" और उसके साथ बदलती हुई स्थितियाँ। स्थितियों के बदलते क्रम से "कालक्रम" का अनुमान किया जाता है या "कालक्रम" की गति और प्रकार के अनुसार किसी कार्य या प्रक्रिया के होने और बदलने का अनुमान किया जाना संभव होता है, यह तय नहीं है। वैसे दोनों सहवर्ती होते हैं यह तो स्पष्ट ही है। तो, मनुष्येतर प्राणी किसी भी छोटी से छोटी एक "घटना" या अपेक्षाकृत बड़ी अनेक "घटनाओं" के अनुभव को क्रमबद्घ कर किसी "घटना" की "स्मृति" और ऐसी ही अनेक स्मृतियों के क्रम की पहचान स्थापित कर उस आधार पर एक भाषा निर्मित कर सके / सकते होंगे यह कहा जा सकता है। और शायद आदिम मनुष्य भी ऐसी ही "भाषा" का प्रयोग करता रहा होगा। इसी प्रकार से भिन्न भिन्न "संकेतों" को "घटना-विशेष" की तरह से परिभाषित कर उनके सार्थक तात्पर्य को संयोजित किए जाने से कोई "भाषा" बनती होगी जिसे प्रारंभ में सभी प्राणी अनायास सीख और विकसित कर लेते हैं और फिर उसे विस्तार देकर / समृद्ध कर उस "भाषा" में "सोचने" का कार्य करने लगते हैं। क्या मानव निर्मित कंप्यूटर इसका ही प्रत्यक्ष उदाहरण नहीं है! क्या इसे भी गणना करने और सोचने के लिए किसी "भाषा" का ही सहारा नहीं लेना होता है? सिद्धान्ततः, क्या इस प्रकार की असंख्य "भाषाएँ" नहीं विकसित की जा सकती हैं? क्या इस प्रकार से "सोचना" वस्तुतः "संचित ज्ञान" पर आश्रित कार्य ही नहीं होता? इसलिए जब कोई (मनुष्य) "सोचता" है, अर्थात् जब उसके मस्तिष्क में कोई कार्य घटित होता है, तो क्या यह कार्य भी "संचित ज्ञान" पर आश्रित एक कार्य नहीं होता? क्या इस तरह के किसी कार्य का होना एक स्वचालित या प्राकृतिक प्रक्रिया ही नहीं होता? और क्या ऐसी किसी वस्तु के अस्तित्व का कोई प्रमाण हो सकता है जो इस प्रक्रिया को "घटित" करता हो? क्या किसी कंप्यूटर या सोचनेवाली मशीन, जैसे किसी रोबोट में भी ऐसा कोई "संचालनकर्ता" या monitor  होता है? तो क्या यह अनुमान किया जाना संभव है कि किसी भी प्राणी या मनुष्य में भी ऐसा कोई "संचालनकर्ता" होता होगा? और यदि ऐसा "कोई" होता भी हो तो क्या "जैव-प्रणाली" में ही वह एक उप उत्पाद (by-product) के रूप में घटित एक कल्पना ही नहीं होता होगा? 

इस "सोचने" से यह निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है कि किसी भी जीव या मनुष्य में "सोचना" यद्यपि एक नितान्त स्वसंचालित प्राकृतिक कार्य ही होता है, किन्तु  जिसके एक "उप उत्पाद" / by-product के रूप में "स्वयं" को उस कार्य का करनेवाला मान लिया जाता है। क्या इस पूरी घटना को श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय तीन के निम्नलिखित श्लोक 

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। 

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।

के परिप्रेक्ष्य में देखने पर यही स्पष्ट नहीं हो जाता है, कि किसी भी कार्य का होना एक प्राकृतिक कार्य है जो कि प्रकृति के गुणों के माध्यम से -

through the attributes of nature

ही घटित होता है और उसे संचालित करनेवाला प्रकृति से पृथक् और भिन्न किसी और स्वतंत्र संचालनकर्ता के अस्तित्व की कल्पना एक असंगत और मिथ्या विचार ही है, न कि वास्तविकता।

प्रकृति के तीन गुणों - 

क्रमशः सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण हैं। और उनका ही अध्ययन भौतिक विज्ञान Physics  के अन्तर्गत  क्रमशः  potential, kinetic and inertia  या  light, energy and matter  इन तीन आधारभूत तत्वों के  रूप में और उस आधार पर किया जाता है। 

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April 23, 2025

The Real Yogi?

पञ्चवटी

पञ्चवटी की छाया में है,

सुन्दर पर्णकुटीर बना। 

जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर,

धीर वीर निर्भीक-मना।

जाग रहा यह कौन धनुर्धर,

जबकि भुवन भर सोता है।

भोगी कुसुमायुध योगी सा,

बना दृष्टिगत होता है।।

(मैथिलीशरण गुप्त : पञ्चवटी)

April 22, 2025

Who is Your God?

कौन है आपका ईश्वर?

ऋषि शौनक ने अपने लिए यह उपनाम शायद इसलिए चुना क्योंकि इसकी प्रेरणा उन्हें अपने पारमार्थिक सत्य की खोज में संलग्न रहते हुए जिस श्लोक से प्राप्त हुई, वह एक नीतिवाक्य :

विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे हस्तिनि गवि। 

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।

इस प्रकार से था। शायद इस वाक्य का उल्लेख बाद में श्रीमद्भगवद्गीता में महर्षि वेदव्यास ने किया होगा। चूँकि वैदिक ज्ञान सनातन शाश्वत् और नित्य है इसलिए ऋषि किसी वैदिक वचन या उक्ति के अपने द्वारा रचित किए जाने के भ्रम से ग्रस्त नहीं होते।

मुण्डकोपनिषद् के प्रारंभिक छः सात मंत्रों में उल्लेख है कि वही ऋषि शौनक महाशाल, जो किसी विश्वविख्यात विश्वविद्यालय का संचालन करते थे, अपने विश्वविद्यालय में समस्त लौकिक और भौतिक ज्ञान अपने शिष्यों को दिया करते थे। विधिवत् ऋषि अङ्गिरा / अङ्गिरस् के पास समिधा हाथों में लिए दीक्षा प्राप्त करने की कामना और अभिलाषा से पहुँचे और उनसे प्रश्न किया :

भगवन् वह (विद्या) क्या है जिसकी शिक्षा प्राप्त करने से, जिसे जान लेने से समस्त ज्ञान प्राप्त कर लिया जाता है?

तब महर्षि अङ्गिरा ने उनसे कहा :

समस्त विद्याएँ दो ही प्रकार की होती हैं अपरा और परा। अपरा विद्या वह है जिसे सीख लेने पर समस्त लौकिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है जैसे वेद, पुराण, ज्योतिष, व्याकरण, इतिहास आदि। दूसरी ओर, परा विद्या वह है जिसे ब्रह्मविद्या कहते हैं। 'परा' शब्द का अर्थ बौद्धिक या जिसे स्मृति में संचित किया जा सकता है वह जानकारी नहीं, बल्कि वह उपाय है जिसके माध्यम से पारमार्थिक सत्य का बोध प्राप्त किया जा सकता है।

जब ऋषि शौनक महाशाल पश्चिम से पूर्व की दिशा में लौटे और इस प्रकार ऋषि अङ्गिरा से उन्होंने विधिवत् उनसे दीक्षा ग्रहण करने की प्रार्थना की तब ऋषि अङ्गिरा ने उनसे प्रश्न किया  :

"वत्स! तुम्हारा गोत्र क्या है?"

तब ऋषि शौनक ने कहा :

"भगवन् मेरा प्रचलित लौकिक नाम महाशाल है, क्योंकि यह मेरी कुल परंपरा से मुझे प्राप्त हुआ है। और मेरे कुल की परंपरा में ऋषि श्वान प्रथम थे, जिन्हें उनका यह नाम  वात्सल्य और प्रेम से उनके द्वारा पाले गए श्वान के एक शावक के उनके साथ रहने से मिला था, और इसलिए मुझे भी पर्याय से यह नाम प्राप्त हो गया।

यही मेरा गोत्र है।"

तब ऋषि अङ्गिरा ने उन्हें कहा :

"वत्स! मनुष्य लोक में जन्म लेनेवाले समस्त मनुष्यों के दो ही गोत्र होते हैं - वे हैं ब्रह्मा की चार मानसिक संतानों और सात ऋषियों की संतानों से होनेवाले समस्त वैदिक गोत्र, तथा इनसे भिन्न क्षत्रिय कुल-विशेष में उत्पन्न अन्य सभी। इन्हें ही द्विज कहा जाता है।

क्षत्रिय कुल विशेष में उत्पन्न वाजश्रवा, उशनस् आदि ऋषि, भृगु की परंपरा में होने से भार्गव कहे जाते हैं और ये काठकीय परम्परा अर्थात् कठोपनिषद् की शिक्षाओं का अनुशीलन करते हैं। और शौनक भी इसी परम्परा में हैं। इनसे भिन्न दूसरे अर्थात् वैदिक परम्परा के छान्दोग्य उपनिषद् की परम्परा के हैं इसलिए यजुर्वेद के अनुसार यजन करनेवाले। 

अंग्रेजी शब्द "God", तथा ग्रीक और जर्मन भाषाओं में प्रयुक्त "Gott" का उद्भव भी मूलतः संस्कृत "गोत्र" से ही हुआ है। कालान्तर में इसे "ईश्वर" की तरह और उस अर्थ में भी ग्रहण किया जाने लगा।

इससे बहुत बाद में यह प्रश्न  उत्पन्न हुआ -

ईश्वर है या नहीं?, या 

ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं? 

और इस प्रकार 'ईश्वर' के अस्तित्व को माननेवाले और न माननेवाले, इस प्रकार के दो मत बाद प्रचलित हो गए। इन दोनों मतों के माननेवालों को क्रमशः आस्तिक और नास्तिक कहा जाने लगा। 

आस्तिक अर्थात् ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करनेवालों में पुनः यह प्रश्न पूछा गया :

'ईश्वर' एक है या अनेक?

इस प्रश्न के उत्तर में आस्तिकों में पुनः दो प्रकार के मत, और उनके मतावलम्बी दो वर्गों में बँट गए।

इस प्रकार आस्तिक एकेश्वरवाद और वैदिक एकेश्वरवाद  को भ्रमवश भिन्न भिन्न मान लिया गया, जबकि वस्तुतः वे दोनों एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं।

वैदिक एकेश्वरवाद में उसी एवमेव अद्वितीय पारमार्थिक सत्ता को आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधिभौतिक इन तीन रूपों में ग्रहण किया जाने पर वैदिक देवताओं के अस्तित्व की मान्यता स्थापित हुई, जिसका प्रयोजन और अर्थ है उस एकमेव अद्वितीय परमेश्वर की उपासना इन तीनों ही स्तरों पर की जा सकना।

चूँकि यज्ञ के माध्यम से ही उन देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है जिससे संतुष्ट होने पर वे मनुष्यों को उनके इष्टभोगों की प्राप्ति करने में सहायक होते हैं और जो भी उन्हें, उन देवताओं को प्रसन्न किए बिना उनकी सहायता से प्राप्त हुए उन इष्टभोगों का अनधिकृत रूप से उपभोग करता है, वह ईश्वरीय विधान का उल्लंघन करता है, पाप का भागी होता है और नियत समय तक नरक में रहने के लिए बाध्य होता है। वेदसम्मत ईश्वरीय विधान का पालन करना सभी का स्वाभाविक परम आवश्यक कर्तव्य है।

इस प्रकार :

ईश्वर क्या है? 

इस मौलिक प्रश्न की उपेक्षा कर 

ईश्वर है या नहीं?

ईश्वर एक है अनेक? 

जैसे कृत्रिम प्रश्नों को अधिक और अनावश्यक महत्व दिया गया जिससे मनुष्यमात्र का न केवल बहुत अहित ही हुआ बल्कि मनुष्यों के बीच परस्पर मतभेद, ईर्ष्या द्वेष और वैमनस्य भी पैदा हुआ। मताग्रह विशेष के प्रति कट्टरता और दूसरे मतावलम्बियों के प्रति असहिष्णुता का ही परिणाम है आज के संसार की अराजकता और अशान्ति, हिंसात्मक उपद्रव और बढ़ता असन्तोष। 

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April 19, 2025

The Alternative.

विकल्पवाद 

सोचना / न-सोचना

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जब मैं बैंक में कार्य किया करता था, तब मेरे एक सहकर्मी थे, जिनसे मेरा जुड़ाव हो गया था। 'जुड़ाव' इसलिए, कि बाकी सारे लोगों से मेरा बस औपचारिक परिचय भर था। जबकि उनसे किसी हद तक सगे छोटे भाई जैसी आत्मीयता थी। वे उम्र में मुझसे पाँच वर्ष छोटे थे किन्तु 'अधिकार' में वे मुझसे बराबर ही थे। इसलिए कभी कभी अपनी हद से बाहर जाकर भी मुझे कुछ ऐसा कह देते थे, जो मुझे अच्छा तो नहीं लगता था पर जिसे मैं हँसकर टाल दिया करता था। 

ऐसे ही एक दिन अचानक बोल पड़े :

"विनय! तुम सोचते क्यों नहीं!"

और फिर उन्हें अहसास हुआ मानों कि उन्होंने मुझ पर ऐसा कुछ अद्भुत् प्रहार किया है, जिसका कोई जवाब ही मेरे पास नहीं हो! जवाब, मैंने दिया भी नहीं।

उनका आशय यह था कि मुझमें सोचने की शक्ति का ही अभाव है। या शायद यह भी कि मैं अत्यन्त मूर्ख व्यक्ति हूँ।

उनकी इस बात का तत्काल कोई जवाब मुझे सूझा भी नहीं, तो वे विजयी भाव से मुस्कुरा रहे थे। 

उस दिन चूँकि शनिवार था, बैंक का कार्य आधे समय तक ही हुआ और मैं और वह, हम दोनों साथ साथ बैंक से बाहर निकले।

पैदल घर तक लौटने में हमें करीब दस से पन्द्रह मिनट लगते थे।

"तुम क्या सोचते हो?"

मैंने उनसे पूछा।

उन्हें आभास हो चुका था कि मेरा यह प्रश्न दोपहर में उनके द्वारा पूछे गए सवाल के प्रत्युत्तर में पूछा गया था।

"मेरा काम तो सोच विचार किए बिना चल ही नहीं सकता है!"

उन्होंने सपाट उत्तर दिया।

"क्या तुम सोचते हो!?"

मैंने एक प्रश्न और दाग दिया।

वे सतर्क हो गए। प्रकटतः बोले -

"मतलब?"

"तुम सोचते हो, या तुम्हारा मस्तिष्क?"

"मैं और मेरा मस्तिष्क एक ही चीज है!"

"यह तुम सोच रहे हो, या मस्तिष्क? क्या कभी कभी ऐसा भी नहीं हुआ करता, जब न चाहते हुए भी कुछ वैसा सोचने के लिए मजबूर हो जाते हो, या बहुत जरूरी होने पर भी तुम्हारे लिए कुछ सोच पाना तक संभव नहीं हो पाता है?"

"मतलब?"

"मतलब यह कि दर-असल न तो तुम कुछ सोचते हो, और न कुछ सोच ही सकते हो। यह सिर्फ तुम्हारा कोरा भ्रम ही है कि तुम सोचते हो!"

"और अपने बारे में क्या कहोगे?"

"वह तो तुम पूछ ही चुके हो!"

"क्या?"

"विनय! तुम सोचते क्यों नहीं?"

वे कुछ नहीं बोले। बस हैरत से मुझे देखते रहे। कुछ देर चुप रहकर बोले -

"हाँ तुम ठीक ही कह रहे हो! सचमुच कोई भी दर-असल कुछ नहीं सोचता, और न ही सोच सकता है। हर किसी के मस्तिष्क में केवल, बस विचार या खयाल ही आया जाया करते हैं और उसे -

"मैं सोचता हूँ / मैं नहीं सोचता / मुझे नहीं सोचना है / मुझे सोचना चाहिए / मैं सोच रहा हूँ / मैं सोच रहा था ..."

यह गलतफहमी हो जाया करती है।"

उसके बाद कुछ नहीं है।

बाद में बहुत समय तक हम एक ही बैंक में कार्य करते रहे। हालाँकि हमारे कार्यस्थल अब अलग अलग और बहुत दूर दूर हो गए थे। फिर उसने शादी कर ली। उसकी पत्नी भी इसी बैंक में कार्य करती थी।

तब से अब तक हमारी कभी मुलाकात ही न हुई। शायद उसने, और मैंने भी मिलने की कोई कोशिश भी कभी नहीं की।

शायद यही वह वजह थी जिसके कारण हमारे बीच एक ऐसा "जुड़ाव" था जो कि कभी किसी दूसरे से न हो सका। 

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Urge or Grace?

What Precedes What?

कृपा या भक्ति?

अध्यात्म के जिज्ञासुओं के लिए यह जानना आवश्यक है कि जब तक संसार अनित्य, अशाश्वत, और अस्थिर है, इसलिए वस्तुतः केवल दुःखरूप ही है ऐसा प्रतीत नहीं होता, तब तक इससे छूटने / मुक्त होने की कामना अर्थात् मुमुक्षा या मोक्ष होने की कल्पना भी मन में कैसे आ सकती है!

क्योंकि तब तक शरीर और शरीर के माध्यम से प्राप्त हो सकनेवाले विविध सुखद और दुःखद दोनों ही प्रकार के भोगों को प्राप्त करने की आशा एवं आशंका भी मन में सतत पैदा होते रहेंगे। यद्यपि किसी न किसी समय शरीर के नष्ट हो जाने पर अपनी मृत्यु हो जाने की संभावना से  भी सभी पूरी तरह से अवगत होते हैं फिर भी शायद ही कोई इस पर गंभीरता से ध्यान दे सकता है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि मृत्यु आने के समय और उस घटना पर किसी का नियंत्रण भी नहीं होता। अनुमान भी हो, तो भी निश्चय नहीं होता। डॉक्टर भी केवल अनुमान ही लगाते हैं और कभी कभी वह अनुमान सत्य भी सिद्ध हो जाते हैं। इसका यह मतलब यह कि यद्यपि मृत्यु कब आएगी हम इसका आकलन तो नहीं कर सकते किन्तु इस बारे में कोई संभावित पूर्वानुमान शायद कर सकते हैं। उदाहरण के लिए वृद्धावस्था आने या किसी असाध्य रोग से ग्रस्त हो जाने जैसी परिस्थितियाँ आने पर। या, किसी आकस्मिक दुर्घटना में ऐसा हो जाने पर। यद्यपि यह भी देखा जाता है कि जितनी अधिक सुरक्षा की जरूरत प्रायः किसी को अनुभव होती है, वह उतना ही अधिक असुरक्षित भी होता है!

अधिकांश लोग मृत्यु की इस अनिश्चितता के ही कारण किसी न किसी देवता, ईश्वर (जिसे वे अपनी आस्था के अनुसार कोई नाम भी दे दिया करते हैं) आध्यात्मिक या धार्मिक "शक्ति" पर विश्वास भी करने लगते हैं। कभी तो उनका यह विश्वास बहुत दृढ, और कभी कभी डगमगाने भी लगता है। ऐसी स्थिति में तो वे शायद इतने परिपक्व तक नहीं होते हैं कि संसार और उसकी वस्तुओं, शरीर, अनुभवों और संबंधों की क्षणभंगुरता के बारे में सोच भी सकें। मृत्यु के बाद 'अपने' बारे में उनका विश्वास उनकी आस्था के ही अनुरूप होता है और वे इसके लिए उसी आस्था के अनुरूप उनके धार्मिक और पारंपरिक कार्यों का अनुष्ठान करते हैं। प्रायः तो इस प्रश्न से हर किसी की ही बुद्धि इतनी स्तब्ध और कुंठित हो जाती है कि वह इस बारे में कुछ सोच तक नहीं पाता।  दूसरी ओर, कुछ लोग जो 'नित्य-अनित्य' पर ध्यान देकर सावधानी से इस पर सोच विचार कर सकते हैं उन्हें शीघ्र ही संसार और उसकी समस्त ही वस्तुओं, भोगों, इन्द्रियो, इन्द्रियानुभवों, संबंधों और धन संपत्ति आदि यहाँ तक कि मान्यताओं  आस्थाओं, विश्वासों, 'स्मृति' और स्मृति पर आधारित  सभी संबंधों की अनित्यता का आभास होने लगता है।यह बोध स्पष्ट हो जाता है। तब संभवतः उनमें

"यह सब (संसार) क्या है? इस सबसे अंततः ऐसा क्या पाया जा सकता है जिससे कि मृत्यु का सदा के लिए समाप्त हो जाए,"

इस प्रकार की एक गहरी जिज्ञासा पैदा हो सकती है। मृत्यु का भय समाप्त होना एक बात है और मृत्यु के बाद क्या शेष रह जाता होगा, इसे जान या समझ पाना इससे बिलकुल ही भिन्न दूसरी बात। मृत्यु के भय के कारण किसी ईश्वर को बाध्यतावश स्वीकार कर लेना और ऐसी किसी एक दिव्य सत्ता के अस्तित्व पर दृढ और अविचल आस्था होना बिलकुल भिन्न दूसरी बात है। यह भी स्पष्ट ही है कि ऐसी कोई भी आस्था भी अन्ततः 'स्मृति' पर ही आश्रित होती है और अकाट्य सत्य की तरह, यह कभी भी नहीं जाना जा सकता है कि मृत्यु होने पर 'स्मृति' का क्या होता है!

किन्तु उस दिव्य सत्ता के अस्तित्व पर दृढ और अविचल विश्वास होने पर  और क्या उसकी 'कृपा' होने पर उसके प्रति 'भक्ति' पैदा हो सकती है या उसकी 'भक्ति' करने से उसकी कृपा होती है?,

यह प्रश्न तो उठेगा ही।

ऐसी 'भक्ति' के बारे में शास्त्र कहते हैं कि उसकी 'कृपा' के बिना उसकी 'भक्ति' हो पाना भी संभव नहीं है! और 'भक्ति' के अभाव में उसकी 'कृपा' कैसे होगी, यह भी वही जाने!

तो यह एक विचित्र स्थिति है।

क्या इसका कोई सुनिश्चित उत्तर है?

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April 17, 2025

The Conjugal Love.

In The SanAtana-Dharma Perspective.

सनातन-धर्म के परिप्रेक्ष्य में दाम्पत्य-प्रेम

सनातन वैदिक धर्म की परम्परा में विवाह का उद्देश्य है वंश और वर्ण परम्परा की शुद्धता बनाए रखना। तात्पर्य है कि सुयोग्य संतान की प्राप्ति के द्वारा कुल का संवर्धन करना तो इसका प्रमुख उद्देश्य है जबकि वैवाहिक-सुख का महत्व गौण है।

वैवाहिक जीवन का प्रारंभ ब्रह्मचर्य आश्रम में 25 वर्षों तक विद्याध्ययन करते हुए बल, बुद्धि तथा आजीविका के लिए उचित व्यावसायिक दक्षता प्राप्त करने के बाद ही होना चाहिए। यह 25 वर्षों का समय केवल ब्राह्मण वर्ण के लिए निर्धारित किया गया है और अन्य वर्णों के लिए स्वैच्छिक होता है। यदि अन्य वर्ण का कोई व्यक्ति  इसके पूर्व ही गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहे तो यह उसकी स्वतंत्रता है। वैसे यह नियम कठोर नहीं है फिर भी एक सामान्य निर्देश के रूप में अलग अलग व्यक्तियों पर उनकी रुचि, परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार इसे स्वीकार किया जा सकता है। 

जैसा पहले कहा जा चुका है, गृहस्थ आश्रम का प्रमुख उद्देश्य तो अच्छी और सुयोग्य संतति की उत्पत्ति करने के माध्यम से कुल, वंश और समुदाय का संवर्धन करना ही है और गौण उद्देश्य यह भी है कि एक सुखी वैवाहिक जीवन का उपभोग भी संभव हो। और समाजिक जीवन में भी यह महत्वपूर्ण तो है ही क्योंकि गृहस्थ आश्रम और सामाजिक जीवन की परस्पर निर्भरता है।

एक महत्वपूर्ण प्रश्न वैवाहिक जीवन में काम-भावना के साथ साथ प्रेम के स्थान और व्यवहार का भी है ही। वह' मर्यादा क्या और कितनी है जिससे कि काम-संबंध और व्यवहार तथा प्रेम के बीच स्वस्थ संतुलन संभव हो। वैसे तो आदर्श सनातन धर्म की परम्परा में सामान्य मनुष्य के लिए एकनिष्ठता पर बल दिया जाता है जिसका अर्थ है कि किसी भी पुरुष के साथ एक ही स्त्री का विवाह हो। यही नियम स्त्री के लिए भी है कि स्त्री का एक ही पति हो। चूँकि विवाह की व्यवस्था प्रमुख रूप से अपने कुल, वंश और समाज के संवर्धन के उद्देश्य से स्थापित की गई है और यौन-सुख उससे जुड़ा हुआ गौण महत्व का तत्व है इसलिए विवाहेतर यौन-संबंध निन्दित और निषिद्ध भी है। इसी प्रकार वैवाहिक और विवाहेतर प्रेम के संबंध में भी मर्यादा सुनिश्चित की जाती है। वैवाहिक प्रेम में यौन-सुख -विचार के रूप में मानसिक चिन्तन का विषय नहीं होना चाहिए, जबकि विवाहेतर पारस्परिक संबंधों में तो  यौन-सुख पूर्णतः निषिद्ध और अकल्पनीय समझा जाना चाहिए। वस्तुतः यौन क्रियाकलाप का विषय न तो हँसी मजाक, और न निन्दा भय या घृणा के साथ देखा जाना चाहिए। हमारे समय की सबसे बड़ी विडम्बना यही तो है! बलात्कार के समाचारों पर जितना ही अधिक ध्यान दिया जाता है उतना ही परस्पर वाद-विवाद बढ़ने लगता है। किशोर आयु वर्ग के बालक बालिकाओं के मन में यौन व्यवहार के बारे में उत्सुकता होना स्वाभाविक ही है और यदि उन्हें धीरे धीरे इस प्राकृतिक प्रवृत्ति के महत्व और इससे सामञ्जस्य कैसे करें, इस संबंध में कल्पना और स्मृति के माध्यम से काम-भावना को अवांछित रीति से उद्दीप्त करने के खतरों से कैसे बचें, समय रहते इस बारे में उन्हें सतर्क और सावधान रहने के महत्व को स्पष्ट किया जाए, तो इस बारे में स्वस्थ दृष्टिकोण विकसित हो सकता है। यह जानना जरूरी है कि काम-व्यवहार और परस्पर प्रेम दोनों एक दूसरे से बिलकुल भिन्न दो प्रकार की क्रमशः शारीरिक और मानसिक गतिविधियाँ हैं और उन्हें भूल से भी एक दूसरे से मिला दिया जाना अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण और अनिष्टप्रद है। 

याद आता है श्री जे कृष्णमूर्ति के  Second Penguin Krishnamurti Reader  के आखिरी दो पृष्ठ, जहाँ उन्होंने  engender  शब्द का प्रयोग किया है।मानसिक काम-चिन्तन किसी भी रूप में क्यों न हो, ऐसा दुष्चक्र बन जाता है जिससे निकलना असंभव ही होता है। 

गीता में इसे "मिथ्याचारः स उच्यते" के माध्यम से कहा गया है। समय रहते ही इस दुविधा से मुक्ति हो जाए तो ही अच्छा है। प्रायः तो होता यही है कि मनुष्य निरन्तर कल्पनाओं में तो काम-चिन्तन करता रहता है, अपराध-बोध से ग्रस्त रहने लगता है, दुराचार या अप्राकृतिक यौन संबंध में संलग्न होने लगता है और कभी कभी तो अबोध बच्चों के माध्यम से भी paedeofile बनकर भी अपनी उत्तेजनाओं को शान्त करने की चेष्टा करने लगता है। स्वयं तो विक्षिप्त, मूढ और अपराध की प्रवृत्ति का गुलाम हो जाता है, और समाज में दूसरों को भी इस जाल में फँसाने लगता है। समाज के लिए तो यह अत्यन्त ही चिन्ताजनक है। तमाम सूचना-साधन-तंत्र प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से हर किशोर, अवयस्क और वयस्कों के मन में भी यह विष फैला रहे हैं। मनोरंजन के बहाने कुत्सित और वीभत्स जानकारियाँ हर किसी के ही लिए आसानी से उपलब्ध हैं। यहाँ तक कि वयोवृद्ध भी इस सबमें रस लेते रहते हैं। पढ़े लिखे, अनपढ़, सुशिक्षित और प्रसिद्धि के किसी भी क्षेत्र में बहुत ऊँचाई पर पहुँचे हुए लोग, टी वी और फिल्मों से जुड़े, आसानी से बहुत पैसा कमाने की लालसा से व्याकुल लोग, प्रसिद्धि पाने के लिए कुछ भी करने और किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार लोग। समाज इतना सड़ चुका है और पाखंड इतना स्वाभाविक हो चुका है जैसे हमारे शरीर में बहता हुआ खून। और, तथाकथित धर्मगुरु भी इसका अपवाद नहीं हैं। जो इने-गिने इस पूरे दुष्चक्र को समझ पाते हैं वे समय रहते ही इस पूरे प्रचार तंत्र से दूर हो जाते हैं।

बिरला ही कोई इससे बाहर निकल पाता है।

और चूँकि मैं भी भुक्तभोगी हूँ, तो स्वयं के दूध का धुला होने का दावा कैसे कर सकता हूँ!

और फिर दाग लगने से कोई बच भी कैसे सकता है!

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April 14, 2025

The System-Analyst.

The Anatomy, The Physiology and The Metabolism of an Organism / Organic System.

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यह पोस्ट इस ब्लॉग में लिखने का एक उद्देश्य यह भी है कि इसके पेज-व्यूज़ 199000 प्लस हो चुके हैं। जल्दी ही 200000 हो सकें।

अंग्रेजी या हिन्दी में ब्लॉगपोस्ट लिखने के अपने अपने फायदे और खामियाँ भी होती हैं, इसलिए दोनों का एक साथ प्रयोग करने से  optimization  का लाभ भी हो सकता है।

कोई व्यवस्था नॉमिनल, पर्सनल या मैटीरियल इन तीनों में से किसी एक प्रकार की हो सकती है। जैसे बही खाते लिखने के लिए खाते / account को इन तीनों में बाँट देने से मुद्रा / पैसे के एक से दूसरे में होनेवाले प्रवाह को सुनियोजित किया जा सकता है, वैसे ही व्यक्तिगत और सामूहिक संपत्ति (मुद्रा) के हस्तान्तरण को भी इस प्रकार से सुनियोजित किया जा सकता है।

किसी भी शुद्धतः भौतिक या यांत्रिक प्रणाली / व्यवस्था / System को संचालित करनेवाला उससे भिन्न ही कोई और ही होता है। दूसरी ओर, किसी जैव-प्रणाली / जैव- इकाई / organism के भीतर निहित सीमित जीवन ही उस जैव-इकाई को स्वयं ही किसी हद तक स्वतंत्र रूप से संचालित करता है, ऐसा प्रतीत होता है। जैसे अनेक छोटे-बड़े यंत्रों को सुनियोजित रीति से परस्पर संबद्ध कर एक यांत्रिक प्रणाली बनाई जाती है जिसे बनानेवाला उस प्रणाली से अलग होते हुए भी उसका संचालन करता है। किसी भी जैव-प्रणाली में उसको नियंत्रित और संचालित करनेवाला नियामक वस्तुतः उसके भीतर या बाहर होता है  कौन और कहाँ होता है इस बारे में शायद विज्ञान भी अभी ठीक ठीक कुछ नहीं कह सकता। और अगर कहें कि विज्ञान के नियम ही यह कार्य करते हैं तो यह भी तय है कि वैज्ञानिक प्रकृति के कार्यों का अवलोकन करने के  माध्यम से उन नियमों के बीच कोई सुसंगति खोजता है और उसे शाब्दिक रूप प्रदान करता है उसे 'नियम' कहा जाता है। ये नियम सार्वत्रिक और वैश्विक / universal and ubiquitous होते हैं, न कि किसी जैव-प्रणाली के अन्तर्गत सीमित, नियंत्रित और संचालित होते हैं।

इस प्रकार, ये नियम ही जैव-प्रणाली की दृष्टि से उसमें निहित और व्याप्त चेतना / consciousness होते हैं, जबकि ऐसी सभी जैव-प्रणालियों को उनमें स्थित भिन्न भिन्न प्रवृत्तियों के माध्यम से प्रेरित करनेवाला भी कोई नियम अवश्य और अपरिहार्यतः है जो उन सबमें भीतर और बाहर भी अस्तित्व में है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि

समष्टि और वैश्विक चेतना अर्थात्- Universal and collective consciousness.

ही वह एकमात्र नियम है जो चेतन / conscious  भी है, किन्तु यह नहीं कहा जा सकता है कि उसकी चेतनता / चेतना / consciousness  किसी एक जैव-प्रणाली या कुछ जैव-प्रणालियों तक ही सीमित है। वह चेतनता / चेतना अबाध और सर्वत्र व्याप्त है। चूँकि किसी एक या कुछ जैव-प्रणालियों के बनने और मिटने से उस चेतनता / चेतना की स्थिति और कार्य-क्षमता प्रभावित नहीं होती इसलिए उसे ईश्वर-चेतना या ईश्वरीय चेतना कहना गलत नहीं होगा। इस प्रकार हम ऐसे "ईश्वर" के अस्तित्व की कल्पना और अनुमान कर सकते हैं जो संपूर्ण अस्तित्व का संचालन तथा नियंत्रण भी करता है जो विभिन्न जड चेतन वस्तुओं को निर्वैयक्तिक या वैयक्तिक स्वरूप देता है और उसके ही द्वारा तय किए गए मानदण्डों के आधार पर किसी तय समय तक के लिए जीवन भी देता है। वह समय बीत जाने पर बाद में उसमें स्थित प्राण और चेतना विलीन हो जाते हैं, यद्यपि वे द्रव्य, जिनसे भौतिक शरीर और भौतिक संसार बनता है केवल रूपान्तरित भर होते हैं, नष्ट तो वे भी नहीं होते हैं। ऐसी ही किसी दूसरी, और  अन्य जैव-प्रणाली के बनने पर पुनः उसमें भी प्राण और चेतना का आविर्भाव होता है, लेकिन यह नहीं पता है कि क्या यह किसी जैव-प्रणाली के पुनर्जन्म हो सकता है या नहीं।

ऐसी ही असंख्य जैव-प्रणालियों के सामूहिक जीवन पर, और उनके बीच की आपसी क्रिया-प्रतिक्रिया पर ध्यान दें तो यह संपूर्ण संसार भी इसी तरह से, अपने-आपमें एक विराट और अत्यन्त जटिल किन्तु सुगठित / compact, connected, synchronized इकाई प्रतीत होगा, जिसका नियन्ता / ईश्वर भी सर्वत्र व्याप्त नियामक और एकमात्र समष्टिगत, सामूहिक और वैयक्तिक नियम भी स्वयं वही होगा।

श्री रमण महर्षि कृत 

உள்ளது நாற்பது  ग्रन्थ के रचयिता वासिष्ठ गणपति ने इसके संस्कृत काव्यानुवाद 

सद्दर्शनम् 

में इसी सत्य को इस प्रकार से श्लोकबद्ध किया है --

सर्वैर्निदानं जगतोऽहमश्च

वाच्यः प्रभुः कश्चिदपारशक्तिः।

चित्रेऽत्र लोक्यं च विलोकिता च

पटः प्रकाशोऽभवत्स एकः।। 

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April 10, 2025

The Primal Language.

द्राविडार्पितम् संस्कृतञ्च

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उन लोगों के आगमन के बाद ही उसे यह पता चला कि वाणी का प्रयोग कैसे किया जा सकता है।

वे वाणी को ईश्वरीय उपहार मानते थे और इसका प्रयोग कैसे किया जाए यह जानने का सौभाग्य इने गिने और केवल उन मानवों को ही प्राप्त होता था जो कि श्री गुरु से विधिवत् इसकी शिक्षा लेते थे। फिर भी कुछ शब्दों को उच्चारण में प्रयोग करना सभी के लिए स्वीकार्य था। जैसे कि अम्मा और अप्पा जिनका प्रयोग क्रमशः माता और पिता को संबोधित करने के लिए किया जाता था। इसी प्रकार गुरु शब्द भी पिता के अर्थ में प्रयुक्त किया जा सकता था। श्री शब्द भी सम्मान सूचक होता था।  रोचक तथ्य यह भी था कि भाषा केतझ लिखित स्वरूप का आविष्कार उसके वाचिक स्वरूप से बहुत बाद में हुआ। 

அப்பா,  அம்மா, அன்பு, அம்பு, தண்ணீர, திரு, 

जिनके लिए हिन्दी में क्रमशः अप्पा, अम्मा, प्रेम, तीर, जल और श्री / श्रीमान् शब्दों का प्रयोग किया जाता है। इन सभी शब्दों का प्रयोग इसलिए अत्यन्त आदरपूर्वक किया जाता था। 

திருக்குறள் 

तिरुक्कुऱऴ

ऐसा ही एक शब्द था जो श्री और गुरु के साथ  ள்  प्रत्यय / suffix को संयुक्त करने से बना था।

केवल कुछ ही मेधावी द्विज वर्ण के बालक गुरुकुल में वाचिक शिक्षा प्राप्त कर सकते थे और वे भी इस शिक्षा को उच्चारण की तकनीक में निष्णात होने पर ही प्राप्त कर सकते थे। वाणी को वैसा ही आदर दिया जाता था जैसा कि माता, पिता और गुरु को, अर्थात् अपने स्वयं से अधिक आयु के किसी व्यक्ति को दिया जाता था।

इन शब्दों को इसलिए भी विशेष आदर दिया जाता था क्योंकि उनका उद्भव ईश्वरीय दिव्य स्रोत से हुआ है ऐसा उन्हें अपरोक्षतः ज्ञात हो जाता था। तात्पर्य यह कि सभी ऐसे शब्द मनुष्य की वाणी से नहीं बल्कि उस अपौरुषेय अविकारी सत्ता से व्यक्त होनेवाले शब्द या नित्य वाणी की प्रकट अभिव्यक्ति थे।

गुरुकुल की शिक्षा वैसे तो सभी विद्यार्थियों और छात्रों को दी जाती थी किन्तु इसमें वाचिक भाषा का प्रयोग न के बराबर होता था। सभी विद्याएँ केवल अनुकरण की कला का अलग अलग प्रकार होती थीं और सभी छात्र इसी उपाय से सभी कलाओं को सीख लेते थे। इसी तरह से विभिन्न वस्तुओं का निर्माण करने की शिक्षा दी और ग्रहण की जाती थी। यहाँ तक कि विशेष प्रकार के छात्रों को भी केवल वेदपाठ को शुद्ध उच्चारण सहित करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। वेदपाठी छात्र उन शब्दों और वर्णों की, उनके क्रम, और उतार-चढ़ाव की उनके शुद्ध रूप में आवृत्ति तो कर सकता था किन्तु वह इसके प्रयोजन से तब तक अनभिज्ञ ही रहता था जब तक कि यज्ञ आदि के अनुष्ठान करते समय इनके माध्यम से जिन देवताओं का आवाहन किया जाता है, उनका आगमन नहीं हो जाता था। तब उसे वाणी और देवता के बीच का संबंध स्पष्ट हो जाता था। इसके पश्चात् उसे यह ज्ञात हो जाता था कि एकमेव परमेश्वर का ही आह्वान भिन्न भिन्न देवताओं के रूप में किया जाता है। इस प्रकार वाणी के स्वरूप को जान लेने पर मनुष्य की वैखरी नामक भाषा से उसका परिचय होता है।

मंत्रों के शुद्ध और स्पष्ट उच्चारण से उसका तंत्रिका तंत्र (neural network) भी सामञ्जस्यपूर्ण हो जाता है।

यह सब कुछ केवल अनुकरण मात्र से सीख लिया जाता है। इसके लिए किसी वाचिक, वैचारिक और लिपिबद्ध भाषा का प्रयोग करना तो दूर, परस्पर व्यवहार करना तक संभव नहीं होता है।

आज के युग में भी शिक्षा का यही सिद्धान्त सर्वत्र काम में आता है किन्तु "भाषा" में किसी सिद्धान्त को व्यक्त करने और उसे किसी सैद्धान्तिक रूप देने के क्रम में वह मूल सिद्धान्त हमें पूरी तरह से विस्मृत हो चुका है।

उसने इसी प्रणाली से बहुत सा ज्ञान प्राप्त किया जिसे वह प्रयोग तो कर सकती थी और आवश्यकता होने पर  करती भी थी किन्तु उस ज्ञान को लिपिबद्ध कैसे किया जा सकता है, उसे यह ज्ञात नहीं था। 

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