বিমল মিত্র
जब मैं कॉलेज में पढ़ता था तो विक्रम विश्वविद्यालय के जीवाजीराव पुस्तकालय से पढ़ने के लिए किताबें लाया करता था। यहाँ तक कि मेरे पिताजी भी शौक से उन्हें पढ़ा करते थे। ऐसी ही एक किताब थी विमल मित्र की पुस्तक "मन क्यों उदास है?"
आज अचानक मन व्याकुल हुआ तो मन में प्रश्न उठा :
मन क्यों व्याकुल है?
कुछ देर तक मोबाइल पर यूँ ही समय बिताता रहा। फिर अचानक याद आया कि आज सुबह से कुछ ऐसा होता रहा कि मन व्याकुल हो उठा। मेरे साथ तो नहीं, किन्तु कुछ दूसरों, अपरिचित लोगों के साथ, जिनकी खबरें मोबाइल पर देख और पढ़ रहा था। बाढ़, भूकम्प, हत्या, हिंसा की खबरें। धीरे धीरे मन बोझिल हो उठा। जब मन व्याकुल हो उठता है तो हम शायद ही कभी इस बात पर ध्यान देते हैं कि मन व्याकुल कब और क्यों हुआ! कभी कभी अवश्य ही कुछ कारण होते हैं और मन उदास हो जाता है, कभी तो क्षुब्ध, क्रुद्ध, उद्विग्न और कभी कभी तो बहुत विचलित भी। दफ्तर जाने की हड़बड़ी, समय पर दफ्तर न पहुँच पाने का डर, किसी का जरूरी फोन कॉल आ जाना और ऐसी ही अनेक स्थितियों का सामना करते हुए लगातार तनाव में होने पर क्या मन शान्त रह सकता है! फिर जब थोड़ा सा वक़्त मिलता है तब भी उन सब बातों की चिन्ता तो रह ही जाती है। मेरी स्थिति अवश्य ही बाकी लोगों से बहुत अलग है। जंगल हाउस में रहते हुए न तो किसी काम के जल्दी होने या करने का दबाव, न प्रतीक्षा, न दफ्तर जाने की चिंता, न किसी के आने जाने का सवाल। कभी कभी तो महीनों तक किसी के दर्शन नहीं होते। न कोई दोस्त न परिचित, बस अपने स्थान से पाँच मिनट की दूरी पर स्थित नर्मदा के पुराने पुल तक जाना और लौट आना। इस पुल पर ट्रैफिक भी कम रहता है, या कहें कि होता ही नहीं है। कभी कभी पुल पर दर्जन भर गाय बैल जरूर बैठे रहते हैं, जिनके बीच से रास्ता निकालना मुश्किल नहीं होता।
आज जब उस पुल पर पहुँचा तो देखा कि नर्मदा बाढ़ पर आई हुई है। किनारे पर चार दिन पहले जहाँ शंकरजी पत्थर के जिस चबूतरे पर विराजित थे, वह चबूतरा और शंकर जी भी नर्मदा नदी के जल में डूब चुके थे। पानी उनके सिर से एक फुट ऊपर चला गया था। वहीं दूसरे किनारे पर ऊँचाई पर विराजमान दूसरे शंकर जी आँखें बंद किए ध्यानमग्न थे। दूसरी तरफ नए पुल पर वाहन आ जा रहे थे।
रविवार के दिन यहाँ अकसर कुछ अतिरिक्त दुकानें खुल जाती हैं जो शाम होते होते बंद हो जाया करती हैं। कुछ चाय नाश्ता की दुकानें एक दो सब्जी और फल आदि की और बाकी नारियल, चने चिरौंजी, कुंकुम और नर्मदा जी के फोटो की। फल की दुकान से केले लिए, सब्जी कोई नहीं मिली और वापस आ गया। बाहर निर्माण कार्य चल रहा है। अब जब यह लिख रहा हूँ तो धूप खुलकर चमक रही है।
सुबह चार केले और दो लड्डू खाए थे। घंटे भर बाद चाय पी थी और फिर बाहर घूमता रहा।
लेकिन मन अब भी व्याकुल है।
अब याद आया, एक मित्र से फोन पर बात हो रही थी। दो दिन पहले ही वह मिलने आया था। उससे बातें करते हुए ही मन उचट गया था। फिर भी करीब 40 मिनट तक हम बातें करते रहे। एक बुद्धिजीवी मित्र। कुछ किताबें वे लिख रहे हैं। अध्यात्म में भी दखल है। बातचीत तो होती रही पर बात नहीं हुई।
सब कुछ भूलकर, यू-ट्यूब देखकर मन लगाने का प्रयास किया और उसमें भी कुछ ऐसा नहीं मिला जिसका कोई मतलब रहा है। फिर उसे बंद कर दिया। भोजन बनाना था, नहाना तो बारिश में हो चुका था। बस यूँ ही कट रही है आजकल जिन्दगी।
उदासी और व्याकुलता के बीच कभी कभी नींद तो कभी नर्मदा के दर्शन करते हुए मन एकाएक अत्यन्त शान्त तो कभी बहुत प्रसन्न, स्तब्ध हो जाता है। पल भर में सारी व्याकुलता हवा हो जाती है।
और यह प्रश्न भी!
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