July 14, 2025

PHASE-RULE

 ब्रह्मा और  विश्वकर्मा

विश्वकर्मा ब्रह्मा के मानस-पुत्र हैं।

और यह कहा जा सकता है कि ब्रह्मा स्वयं भी भगवान् श्रीमहाविष्णु श्रीहरि के मानस-पुत्र हैं।

ब्रह्मा और विश्वकर्मा नित्य, नित्य-अनित्य, और सनातन भी हैं और सतत सृष्टिकर्ता भी हैं। ऐसे ही किसी समय पर ब्रह्मा के मन से कल्पित अतीत में, कल्पना के रूप में विश्वकर्मा का जन्म हुआ और विश्वकर्मा ने उन्हें प्रणाम करने के बाद प्रश्न किया :

पिताजी मेरे लिए क्या आज्ञा है जिसका मैं पालन करूँ!

तब ब्रह्मा ने उनसे कहा :

वत्स! तुम्हें पता ही है कि तुम मेरे ही अंशावतार हो और अब मेरे द्वारा स्थूल महाभूतों की सृष्टि करने के बाद तुम इनके असंख्य रूपाकारों में प्राण प्रतिष्ठपना करो ताकि उनमें से प्रत्येक में व्यष्टि चेतना जागृत हो।

तब विश्वकर्मा ने प्रश्न किया :

किन्तु पिताजी! प्राण भी सर्वत्र व्याप्त हैं और चेतना भी इसी तरह सर्वत्र व्याप्त है। अर्थात् चूँकि सब कुछ चेतना और प्राण में व्याप्त है और चेतना और प्राण सबमें इसी प्रकार से, तो व्यष्टि- प्राण और व्यष्टि-चेतना का संयोजन भिन्न भिन्न रूपाकारों में किन किन  भिन्न भिन्न प्रकारों में करना उचित होगा जिससे कि पूरे संसार का कल्याण हो न कि विनाश?

ब्रह्मा ने कहा :

तुम्हें द्यु-लोक और पितृ-लोक अर्थात् द्यु-पितरौ इन दोनों की सहायता से ऐसा करना होगा। द्यु लोक द्युति अर्थात् वैद्युत् और पितृ प्राण और रयि का अधिष्ठान सूर्यलोक है, जिसका अंश बृहस्पति है। रयि चन्द्र है और पृथ्वी-तत्व भूमि है। इन सब तत्वों का भिन्न भिन्न प्रकार से संयोजन करने पर जीव-सृष्टि प्रकट होगी और प्रत्येक रूपाकार में पृथक् पृथक् व्यष्टि-चेतना व्यक्त होगी। इन असंख्य जीवों का ज्ञान अज्ञान से आवरित हो जाने के कारण उनमें से प्रत्येक में अपने कर्मों के स्वतंत्र और पृथक् कर्ता, और अपने सुख दुःखों के स्वतंत्र भोक्ता होने का, अपने शरीर, मन, बुद्धि, प्राणों तथा अन्य सभी लौकिक वस्तुओं के स्वामी होने का एवं इसी प्रकार इस मिथ्या ज्ञान से उत्पन्न अभिमान के पृथक् और स्वतंत्र ज्ञाता होने की कल्पना का जन्म होगा। यह सब नियति से ही तय है और नियति में ही प्रसुप्त तथा अप्रकट रहता है और काल की गति के साथ व्यक्त और पुनः अव्यक्त होता रहता है। यही शं और प्रशम् है। शं का अर्थ है शमन शान्तभाव और प्रशम् का अर्थ है प्रशान्ति, जो सृष्टिक्रम के साथ साथ चलनेवाला गतिविधि होती है। प्रशस्ति, प्रश्यः, प्रथ्यते, प्रथमः इति प्रशान्तिः।

तब विश्वकर्मा ने उन असंख्य रूपाकारों में वायु के द्वारा प्राणों का संचार किया। प्राणों का वायु के साथ शरीर में संचार होते ही उनमें विद्यमान समष्टि चेतना व्यष्टि चेतना में सीमित और बद्ध हो गई और उस सीमित प्राण-चेतना के सक्रिय होते ही श्वास के आवागमन से प्राण-चेतना को 'अत्ता' या श्वास ग्रहण और विसर्जित करनेवाला अर्थात् "आत्मा" नाम प्राप्त हुआ। श्वास की गति के साथ साथ तंत्रिका तंत्र की तीन प्रमुख नाड़ियों में प्राणों का प्रवाह प्रारंभ हो गया जिन्हें क्रमशः इडा, पिंगला और सुषुम्ना कहा गया। उन समस्त रूपाकारों के लिए व्यष्टि-जीवन जीने हेतु यह पर्याप्त था।

प्रत्येक व्यष्टि-जीवन या व्यक्ति में तब उसके अपने लोक में निरंतर सुख प्राप्त करते रहने की लालसा और दुःखों से भय का जन्म हुआ। क्रमशः बुद्धि परिष्कृत, परिपक्व और स्थिर होने पर नित्य क्या है और अनित्य क्या है इस ओर ध्यान आकर्षित हुआ और दीर्घकाल तक अनुसंधान करते हुए उसने अपने भीतर नित्य विद्यमान अविकारी आत्मा का साक्षात्कार कर लिया।

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