July 31, 2025

Crystal-Gazing.

भविष्य दर्शन 

भारतीय सनातन वैदिक और पौराणिक धर्म में निर्दिष्ट सिद्धान्तों के आधार पर भविष्य दर्शन दो तरीकों से किया जा सकता है। अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष - परोक्षतः और अपरोक्षतः। जैसे शास्त्रों का अध्ययन करने से जो सैद्धान्तिक, बौद्धिक ज्ञान प्राप्त किया जाता है वह केवल विषय-परक होता है, विषय-विषयी तथा उनके बीच के संबंध की स्मृति-मात्र होता है और जिसका आदान-प्रदान भी किया जा सकता है, वैसे ही आध्यात्मिक ज्ञान या तो केवल स्मृति-मात्र हो सकता है या फिर सत्य का प्रत्यक्ष  दर्शन जिसमें विषय-विषयी और उनके तत्व के ग्रहण में जाननेवाला उनसे अपृथक् और अभिन्न होता है, अर्थात् जहाँ सारे काल्पनिक विभेद विलीन हो जाते हैं। कल्पना ही वृत्ति है और वृत्तिमात्र कल्पना है जो कि इन्द्रिय ज्ञान का स्मृति या अनुमान भर होती है और जिसकी सत्यता सदैव संदिग्ध ही होती है।

इन्द्रिय ज्ञान मन की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन्हीं तीनों दशाओं में हो सकता है, जबकि सत्य इन तीनों दशाओं में और उनसे परे भी होता है।

भविष्य को जानने के लिए पहले यह समझना आवश्यक है कि जाग्रत दशा में जिस प्रकार विभिन्न वैचारिक और भावनात्मक कल्पनाएँ और स्मृतियाँ मन में आती और जाती रहती हैं उसी तरह स्वप्नावस्था में भी उनका प्रवाह सतत होता रहता है। जाग्रत दशा में अर्थात् उस समय जब मन बुद्धि और इन्द्रियानुभवों से जुड़ा होता है और इस रूप में उनसे मन का तादात्म्य / involvement / identification बना रहता है और इस वास्तविकता के प्रति अनवधानता अर्थात् प्रमाद / In-attention  होता है तो स्मृतियाँ और कल्पनाएँ ही मन पर हावी होती हैं और उसी जानकारी में मन भटकता रहता है। वैसे तो प्रकृति स्वयं ही मन को जाग्रत से स्वप्न, स्वप्न से सुषुप्ति और सुषुप्ति से पुनः स्वप्न से होते हुए जाग्रत दशा में पुनः पुनः ले आती है किन्तु यह पूरी गतिविधि अचेतन रूप से और अनवधानता में ही हुआ करती है। अवधान क्या है और प्रमाद क्या है इसे जानना-समझना भी केवल मन की जाग्रत दशा में ही संभव होता है। क्योंकि यह सारी बातचीत और संवाद केवल वर्तमान में और जाग्रत दशा में "अभी" ही हो पाना संभव है, किसी स्वप्न, सुषुप्ति या किसी मूर्च्छित या समाधि जैसी अन्यमनस्कता की दशा में कदापि नहीं। वर्तमान अर्थात् "अभी" इस समय, यदि मन अतीत अर्थात् स्मृति, और भविष्य अर्थात् कल्पना से अभिभूत न हो तो यह सजग और सावधान / स-अवधान होता है। क्योंकि स्मृति और कल्पना ही मन को वर्तमान की नित्य वास्तविकता से विच्छिन्न कर देते हैं। "अभी" या वर्तमान, जिसे औपचारिक इन्द्रियानुभवों तथा बुद्धि के माध्यम से जाना जाता है केवल स्मृति या भावनात्मक विचार के रूप में ही मन का विषय होता है, और जिसमें अपने अस्तित्व का सहज स्वाभाविक "भान" जुड़ते ही मन में अपने अनुभवकर्ता होने का भ्रम उत्पन्न हो जाया करता है। यह अनुभवकर्ता भी पुनः वैचारिक जानकारी अर्थात् बौद्धिक निष्कर्ष या अनुमान ही होता है और इस दृष्टि से उसे पातञ्जल योगसूत्र में "प्रमाण" की संज्ञा दी जाती है -

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

(समाधिपाद)

प्रमाण भी वृत्ति है।

प्रकृतिप्रदत्त व्यवस्था और क्रम के अनुसार जाग्रत दशा में यद्यपि इस प्रकार से संसार (और अपने आपके) रूप में अनुभव (तथा अनुभवकर्ता भी) "प्रमाण" ही होते हैं, यह समस्त ज्ञान संदिग्ध, भ्रमपूर्ण और वास्तविक अर्थ में मिथ्या ही होता है। 

जैसा पहले कहा गया है, मन के अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना से अभिभूत न होने की दशा में मन अपनी सहज स्वाभाविक और नित्य वर्तमान "अभी" में अवस्थित होता है, जो कि दूसरी दृष्टि से मन की काल और स्थान से भी अस्पर्शित दशा है। प्रश्न केवल यह है कि मन अवधानयुक्त / Aware, प्रमाद से रहित, with Attention है, या प्रमाद / अनवधानता से लिप्त है। अवधानयुक्त Aware होना केवल तभी संभव है जब मन विचार और विचारकर्ता दोनों को एक ही वस्तु के दो प्रकारों की तरह जान लेता है, न कि स्वयं को विचार से भिन्न और पृथक् किसी काल्पनिक विचारकर्ता के रूप में स्थायी और नित्य विद्यमान सत्ता / सत्य की तरह स्मृति में संग्रहित किसी वस्तु की तरह आधारभूत वास्तविकता की तरह ग्रहण करता है।

जब मन इस प्रकार इस तरह इतना सद्योजात, नवजात शिशु की तरह अनुभव और अनुभवकर्ता की कल्पना से रहित हो तब वह अवश्य ही जाग्रत, सहज स्वाभाविक ही अवधानयुक्त भानमात्र होता है - जानकारी और कल्पना से रहित। यदि यह संभव हो तो ऐसे मन में अतीत अर्थात् स्मृतियों, और भविष्य अर्थात् कल्पनाओं का अनावश्यक प्रवाह होना बन्द हो जाता है और जाग्रत दशा में स्मृतियों के आने जाने पर उनकी अवास्तविकता के बारे में कोई संशय नहीं होता, वैसे ही अनागत भविष्य मे घटित होने का रही घटनाओं की प्रतीति होने पर उसकी सत्यता या असत्यता के बारे में लेशमात्र भी संशय नहीं होता। एक अर्थ में मन त्रिकालदर्शी की तरह उसके संवेदन में आने और जाने वाली घटनाओं को जानता तो है किन्तु न तो वह उनसे प्रभावित होता है न उन्हें प्रभावित किए जाने की कोई आवश्यकता या लालसा उसे होती है। तब वह अनायास ही सुदूर भविष्य में घटने जा रही स्थितियों का दर्शन कर लेता है। संभवतः कोई कोई उसे अभिव्यक्ति भी प्रदान कर सकता है, जिसकी सत्यता समय आने पर ही औपचारिक रूप से प्रमाणित भी प्रतीत होती है।

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