July 12, 2025

Romantic Escapades.

जीवन-साथी

सरसिज, मनसिज और सुख-बुद्धि

अकेलेपन के बारे मे पिछले पोस्ट में कुछ लिखा था, जिसे किसी ने पढ़ा और प्रश्न पूछा कि धर्म, नैतिकता और शील के परिप्रेक्ष्य में एक जीवन साथी की मृत्यु हो जाने पर विकल्प के रूप में किसी दूसरे के साथ विवाह कर या बिना विवाह किए रहना कितना उचित है, इससे समाज में क्या संदेश जाता है? 

धर्म अर्थात् आचरण, नैतिकता अर्थात् अभ्यास और शील अर्थात् अनुशासन। संभवतः इसके लिए उपयुक्त अंग्रेजी शब्द Character, Ethics, Morality  और Discipline हो सकते हैं। धर्म का अर्थ होगा - प्राकृत व्यवहार, - natural predisposition.

वास्तव में, अंग्रेजी भाषा के religion शब्द की उत्पत्ति relegate शब्द से हुई है। religion वह है जो किसी को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से बाहर ले जाता है और किसी भिन्न, सुनिश्चित प्रणाली के अनुसार पूर्वनिर्धारित आचरण या व्यवहार करने के लिए बाध्य कर देता है। और प्रणाली सामाजिक और समुदाय विशेष की रीति रिवाजों से तय होती है। भिन्न भिन्न संप्रदायों, समुदायों,  religions और traditions के अनुयायियों में भी  सभी प्रकार की प्रवृत्तियों वाले अनेक मनुष्य होते हैं और उनमें से कुछ कम तो कुछ अधिक शक्तिशाली होते हैं जो कि कम शक्तिशाली लोगों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं जिसका कारण होता है लोभ, भय,  ईर्ष्या और उससे उत्पन्न प्रतिद्वन्द्विता की भावना।  यह केवल एक संयोग ही नहीं है कि ऐसे सभी संप्रदायों के बीच आपस में और भीतर भी सदैव संघर्ष चलता रहता है। विवाह नामक व्यवस्था की अवधारणा और समाज पर इसे लागू करने का आधार वैसे तो यही होता है, ताकि समाज में परस्पर सामञ्जस्य बना रहे क्योंकि मनुष्यों का समाज परिवार की अवधारणा  पर आधारित होता है और पति पत्नी, माता पिता, भाई बहन, पिता पुत्र, पिता पुत्री, माता और पुत्र तथा माता और पुत्री के बीच स्नेह संबंध स्वाभाविक रूप से सौहार्दपूर्ण होने के लिए आवश्यक है कि उन्हें मर्यादा का पालन करना होगा। मनुष्य, मनुष्यों का परिवार और समाज इस दृष्टि से पशुओं से भिन्न होता है कि वह पशुओं की तरह यौन प्रवृत्तियों का उच्छृंखल और निर्द्वन्द्व, मर्यादारहित उपभोग नहीं कर सकता, और मनुष्य की सभ्यताओं के प्राचीन से प्राचीन रूपों में इसे इसीलिए धर्म के आवश्यक अंग की तरह स्वीकार किया जाता रहा है, जिसका पालन करने की अपेक्षा सभी से की जाती है, और इसका उल्लंघन करने पर अनेक तरह के उपहास, दंड और निंदा का भागी होना पड़ता है। और यह इस तरह हजारों वर्षों से मनुष्य के सामूहिक मन में संस्कार की तरह स्थापित हो चुका है। सनातन वैदिक परंपराओं में इस पर बहुत सूक्ष्मता से अनुसंधान किया गया है और इसलिए विवाह को एक पवित्र संबंध माना गया है। पति और पत्नी के बीच के यौन संबंध को उपभोग की तरह तो महत्वपूर्ण माना ही गया है, किन्तु यह सभी का एक दायित्व भी है कि कोई भी पुरुष हो या स्त्री, विवाहेतर यौन संबंध का उपभोग कदापि न करे। इतना ही नहीं, यहाँ तक कि पर पुरुष या पर नारी से व्यवहार करते समय मनुष्य को इस मर्यादा का स्मरण रखना चाहिए। चूँकि स्त्री पुरुष के बीच का काम व्यवहार न तो निंदा और न ही हँसी मजाक का विषय है, और न तो मानसिक कल्पना का, इसलिए सामान्यतः मनुष्य के लिए यह समझ पाना कठिन हो जाता है कि वह अपनी काम-भावना को किस प्रकार नियंत्रण में रखे जिससे कि समाज में परस्पर कलह उत्पन्न न हो और हर पुरुष तथा स्त्री शान्तिपूर्वक दाम्पत्य जीवन का उपभोग करता रहे, न कि लंपट की तरह पशुवत कामचिंतन करता रहकर कुंठाग्रस्त या वृत्तियों भरा जीवन व्यतीत करता रहे। यदि मनुष्य अपनी काम संवेदनशीलता के प्रति सजग है और इसे कुंठा या अभ्यस्तता नहीं बनने देता है तो लगभग आधा जीवन बीत जाने पर वह आत्मीयतापूर्ण प्रेम तथा वासना के बीच के अन्तर को जान लेता है और जीवन साथी की आकस्मिक मृत्यु हो जाने पर भी काम वासना से पीड़ित या त्रस्त नहीं रहता। तब उस आयु में अपने जीवन साथी को कामोपभोग की दृष्टि से नहीं देखता है और तब काम उसके लिए बाध्यता या समस्या नहीं बन पाता है। स्त्री हो या पुरुष तब अधिक आयु हो जाने और जीवन साथी से बिछुड़ जाने पर किसी और को जीवन साथी बनाकर अच्छे और आत्मीय मित्र की तरह साथ रह सकते हैं और इसमें समाज के किसी और व्यक्ति या लोगों के द्वारा हस्तक्षेप किया जाना धृष्टता ही होगा। आज के समय में समाज में विवाह और स्त्री-पुरुष के विवाह करने या न करने के बावजूद एक साथ रहने के बारे में भिन्न भिन्न दृष्टिकोण और मत हैं तो हमें प्रकृति की व्यवस्था पर ध्यान देना होगा जहाँ पशु पक्षी भी बिना किसी नैतिकता, धर्म, आदि के नियंत्रण में रहते हुए भी केवल उचित समय आने पर ही अपने जीवन साथी का चुनाव करते हैं और संतान को जन्म देकर एक दूसरे से दूर भी हो जाते हैं।

तो विवाहित अथवा अविवाहित रहना और किसी साथी के साथ रहना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि अपनी काम भावना को दमन, कुंठाओं, कुत्साओं और विकृतियों से कैसे मुक्त रखा जा सकता है। वासनाग्रस्त बने रहना न तो स्वस्थता है और न ही यह स्वाभाविक है। स्वस्थ मन ही परिवार और समाज के स्वस्थ बने रहने के लिए आधार और सहायक हो सकता है।

चेतना जल की तरह सर्वत्र व्याप्त जीवन का ही नाम है।जैसे जल में कमलपुष्प खिलते हैं और इसलिए कमल को सरसिज कहा जाता है, वैसे ही चेतना में मन प्रकट और अप्रकट होता है। काम को मनसिज कहा जाता है, जो मन में ही जन्म लेता है और मन में ही विलीन भी हो जाता है। काम कठिन समस्या न बन जाए इसके लिए आवश्यक है कि इसका आत्मीयता में रूपान्तरण कैसे  हो सकता है इस पर ध्यान दिया जाए। इस दृष्टि से पशु भी मनुष्य की तुलना की अपेक्षा कहीं अधिक समझदार होता है। शायद मनुष्य पशुओं से कुछ सीख सकता है। पशु सुखबुद्धि की कल्पनाओं में नहीं जीते। और विचार नामक शाब्दिक बौद्धिकता से तो वे नितान्त ही अनभिज्ञ होते ही हैं।  

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