विधवा और विधुर
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कोई उम्मीद बर नहीं आती,
कोई सूरत नजर नहीं आती!
इस शे'र में एक शब्द है "बर", जिसे मराठी में "बरऽ" कहा जाता है और गुजराती में "સારુ"। यह "बर" शब्द संस्कृत के "वर" का पर्याय है और "સારુ" संस्कृत के "चारु" का। वैसे उर्दू भाषा में, जैसा कि उपरोक्त उद्धृत शे'र में है, यह संस्कृत के "वर", "ज्वर" और "ज्वल" का अपभ्रंश है।
एक मराठी भजन याद आया -
"तो हा विट्ठल बरवा, तो हा माधव बरवा .."
तात्पर्य यह कि वह जो विट्ठल के नाम से प्रसिद्ध है, वही यह माधव के नाम से भी प्रसिद्ध है।
माधव शब्द में दो पद हैं - मा और धव।
मा का अर्थ है जिसे मापा जा सकता है, अंग्रेजी में कहें तो measurable. यह कहना अनुचित न होगा कि अनुभव की दृष्टि से, -
measurable और miserable पर्याय हैं। जो भी measurable है वह miserable होगा ही, और जो भी miserable होगा उसका कष्ट असीमित तो नहीं होगा, फिर वह कितना भी miser या miserly हो!
दूसरा पद है "धव"। धव का अर्थ है - पति या स्वामी। इसलिए माधव का अर्थ हुआ मायापति। माया अर्थात् ऐश्वर्य / लक्ष्मी, और मायापति का अर्थ हुआ ईश्वर।
विधवा का अर्थ हुआ वह स्त्री जिसके पति की मृत्यु हो चुकी है। स्त्री ही गृह और गृहस्थी की धुरी है। इसलिए जिस पुरुष की स्त्री की मृत्यु हो जाती है, उसे विधुर कहा जाता है।
बहुत संभव है कि अंग्रेजी भाषा के शब्द :
widow और widower
इन्हीं दोनों शब्दों के अपभ्रंश हों!
प्रसंगवश,
हालाँकि मैंने कभी विवाह नहीं किया किन्तु जिन्होंने भी किया और एक सुदीर्घ और सुखद वैवाहिक जीवन जिया और दुर्भाग्यवश जिनके जीवन साथी की मृत्यु हो गई, संतानें अपने अपने परिवार बसाकर उनमें रच बस गईं, ऐसे भी मेरे कुछ मित्र और सगे संबंधी हैं, जिनके बारे में लगता है कि वे एक नया जीवन साथी चुन लें तो उनका जीवन सुचारु और सुव्यवस्थित हो सकता है। उनमें से अधिकतर इतने अधिक निराश और दुःखी हो जाते हैं, depression में चले जाते हैं, कि इस दिशा में न तो सोच पाते हैं, न पारिवारिक और सामाजिक दबावों में संकोचवश आगे बढ़ पाते हैं। यहाँ तक कि इस बारे में बातचीत तक करने में उन्हें हिचकिचाहट होती है। यह तो समझा जा सकता है कि ऐसे जीवन में अकेलापन और भी अधिक बोझिल हो जाता है और तब वे तथाकथित आध्यात्मिक या धार्मिक संस्थाओं या क्रियाकलापों से जुड़कर अपने अकेलेपन और खालीपन को भरने की असफल प्रयत्न करने लगते हैं जबकि उन्हें आवश्यकता होती है सामाजिक और पारिवारिक सहारे की। वृद्धाश्रम में भी 'समय बिताने का प्रश्न' तो होता ही है। अपना कोई जब तक ऐसा न हो जिससे कि आत्मीयता हो, तब तक मनुष्य का अकेलापन और खालीपन दूर नहीं हो सकता। अपने बारे में कहूँ, तो मुझे बचपन से ही एकाकीपन से अत्यन्त लगाव रहा है। अपना अकेलापन और खालीपन हमेशा ही इतना अद्भुत् लगता रहा है कि किसी से मिलने तक की आवश्यकता अनुभव नहीं होती। यहाँ तक कि लोगों से संवाद संभव न हो पाने पर केवल समय बिताने के लिए किसी बातचीत करना भी असुविधाजनक और व्यर्थ का एक अनावश्यक उपद्रव ही लगता है। मनोरंजन के किसी भी साधन और सामग्री को मैं अपनी निजता और एकाकीपन में बाधा ही अनुभव करता हूँ। मैं मानता हूँ कि और लोगों से कुछ भिन्न, कुछ विचित्र, असामान्य भी हूँ मैं, किन्तु किसी के जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता, और न किसी से यह अपेक्षा करता हूँ कि वह मेरे जीवन में हस्तक्षेप करे। जिन किन्हीं भी जड चेतन प्राणियों से मेरा संपर्क होता है उनसे मुझे आत्मीयता तो अनुभव होती है, परिचय और परिचय की स्मृति भी बनती और मिटती रहती है, किन्तु संबंध किसी से हो, यह मेरे लिए संभव ही नहीं है। मेरी दृष्टि में, समस्त संबंध ही स्मृतिगत संबंध धारणाएँ मात्र होती हैं जिनका व्यावहारिक उपयोग अवश्य हो सकता है किन्तु उन्हें कभी भी छोड़ दिया जा सकता है और हर कोई ही परिस्थितियों के अनुसार या स्वेच्छा से भी ऐसा करता भी है। यह सब स्वाभाविक है। किसी किसी के लिए जीवन साथी से संबंध / आत्मीयता भी ऐसी ही एक तत्कालिक व्यावहारिक आवश्यकता है सकती है।
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