लाहौर से कपिलवस्तु
--
तस्य लोपः
उपदेशे हलि अन्त्यस्य लोपो स्यात्।।
भगवान शिव के ढक्का से उद्भूत अक्षरसमाम्नाय के १४ सूत्रों का श्रवण करने के पश्चात् महर्षि पाणिनी के द्वारा संस्कृत भाषा के व्याकरण की रचना की गई।
"हल्" प्रत्याहार "हयवरट्" उपदेश से "शषसर्" ... "हल्" उपदेश तक प्रयुक्त व्यञ्जनों की समष्टि है।
समझा जाता है कि उनका जन्म अविभाजित भारत के पञ्जाब में "लहातुर" नामक स्थान पर हुआ था, जिसे बाद में "लाहौर" कहा जाने लगा।
उसी पञ्च-आप अर्थात् पञ्जाब में जहाँ महर्षि अष्टावक्र के पिता ऋषि कहोळ / कहोड का जन्म हुआ था और उसे बाद में कहूटा कहा जाने लगा जो कि भारतवर्ष के विभाजन के बाद वर्तमान समय में पाकिस्तान में है, जहाँ पाकिस्तान का यूरेनियम संवर्धन प्लांट स्थित है।
महर्षि अष्टावक्र की माता का नाम सुजाता था। ऋषि कहोड को राजदरबार में वरुण (देव) के द्वारा नियुक्त किसी विद्वान से हार का सामना करना पड़ा था और इसके फलस्वरूप उन्हें वहाँ से बन्दी बनाकर समुद्र पार वरुण के देश में निर्वासित कर दिया गया था। अष्टावक्र के जन्म के बाद जब वह बारह वर्ष की आयु के थे, उन्हें इसका पता चला तो वे राजा के दरबार जा पहुँचे और राजा वरुण द्वारा नियुक्त उस विद्वान को शास्त्रार्थ में हरा कर पिता को वरुण के बन्दीगृह से मुक्त करवाया। वरुण वैसे भी पश्चिम दिशा के दिक्पाल और वसु हैं और उनके यज्ञ को पूर्ण करने के लिए उन्हें वैदिक कर्मकाण्ड में निष्णात पंडितों की आवश्यकता थी और इसीलिए उन्होंने ऐसे पंडितों को उनके देश में एकत्रित करने के उद्देश्य से यह जाल रचा था। कैसे ऋषि कहोड का जन्म बाद में कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के पुत्र के रूप में हुआ जिसे सिद्धार्थ का नाम प्राप्त हुआ था, और कैसे राजकुमार सिद्धार्थ ने घोर तप के द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया था, कैसे अष्टावक्र की माता जो कि सिद्धार्थ के इस जन्म के समय में वनदेवी के रूप में अवतरित हुई थी और कहोड का अनुसरण करती हुई उनकी सेवा में सतत संलग्न थी, और सिद्धार्थ को उस समय खीर प्रदान की थी जब वे निरञ्जना नदी से स्नान कर बाहर आए थे और अत्यन्त कृश और दुर्बल हो जाने के कारण थककर बोधिवृक्ष तले बैठ गए थे, इस बारे में विस्तार से मेरे इसी या स्वाध्याय ब्लॉग में मैं लिख चुका हूँ। यहाँ केवल संदर्भ के लिए इसका उल्लेख कर रहा हूँ। यहाँ पर मुख्य ध्येय है - महर्षि पाणिनी के जीवन के एक प्रसंग के बारे में लिखना।
यह तो प्रख्यात है कि पाणिनी की अष्टाध्यायी के सूत्र
डुकृञ्करणे
को आधार बनाकर आदि शंकराचार्य ने द्वादशपञ्जरिका और चर्पटपञ्जरिका आदि सतोत्रों की रचना की, किन्तु यह भी कहा जाता है कि स्वयं महर्षि पाणिनी ने भी इस सूत्र को एक दूसरी कथा में आधार की तरह प्रयुक्त किया था। उसकी कथा यह है -
महर्षि अपने गुरुकुल में छात्रवृन्द के मध्य अपने आसन पर वटवृक्ष के तले विराजमान थे। ज्ञानयज्ञ अर्थात् वहाँ उपस्थित एक वृद्ध ने महर्षि से निवेदन किया -
भगवन्!
कृपया इस सूत्र पर प्रकाश डालें ताकि हमारे ज्ञानचक्षु खुल सकें। महर्षि ने कुछ दूर पर स्थित एक वृक्ष की ओर संकेत किया और बोले -
उस वृक्ष पर अनेक पक्षी उसके फलों का भक्षण करने के लिए आते हैं उस फल का भक्षण करने पर उसके बीज भी उनके पेट में चले जाते हैं। उस वृक्ष का संस्कृत नाम तो डुडु है, जो उकारान्त पुंल्लिंग पद है और उसके रूप प्रथम विभक्ति में एकवचन, द्विवचन और बहुवचन में -
डुडु डुडू डुडवः
इस प्रकार से होंगे।
तो जब विभिन्न पक्षी उस वृक्ष के फलों का भक्षण करते हैं और पेट में पच जाने के बाद में बीज जब उन पक्षियों के मल के साथ निकल जाते हैं। लेकिन उनका आवरण कठोर होता है इसलिए वे सड़-गल नष्ट हो जाते हैं और उनका अंकुरण नहीं है पाता। किन्तु उन पक्षियों में केवल एक पक्षी ऐसा भी होता है जिसके पेट में जाने के बाद इन बीजों पर का कठोर आवरण उसके पेट में ही गल जाता है और तब वे बीज उसके मल के साथ जब बाहर निकल जाते हैं तो आसानी से अंकुरित हो जाते हैं। इस प्रकार वह पक्षी और यह वृक्ष दोनों का अस्तित्व सदैव बना रहता है। उस पक्षी का प्रसिद्ध नाम "डुडु" शायद इसीलिए है। वृक्ष और पक्षी दोनों को इसी नाम से जाना जाता है।
जैसा कि स्पष्ट है, "डु" और "कृ" / "कृञ्" क्रियापद हैं जो कृत्य या कर्म की प्रक्रिया के द्योतक हैं।
(यह समझना कठिन नहीं है कि अंग्रेजी भाषा में
Do और Create
इन्हीं दोनों क्रियापदों verb-roots के सजात / सज्ञात / cognate हैं। क्योंकि उनके उच्चारण और अर्थ -
Pronunciation and phonetic sense
से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।)
अब ज्ञान और अज्ञान के बारे में -
धारणा ही अज्ञान है और धारणा रहने तक अज्ञान और अज्ञान रहने तक धारणा व्यक्त से अव्यक्त और अव्यक्त से व्यक्त रूप ग्रहण करते रहते हैं।
अज्ञान और धारणा, ठीक इस "डुडु" वृक्ष और पक्षी की तरह अन्योन्याश्रित हैं। इसलिए इसे ही पतञ्जलि महर्षि ने "वृत्ति" कहा है। वृत्ति का निरोध, एकाग्रता और संयम तो हो सकता है किन्तु मन का अस्तित्व रहने तक किया नहीं जा सकता। क्योंकि मन ही वृत्ति है और वृत्ति ही मन है और अहं-वृत्ति ही समस्त वृत्तियों का मूल है और सभी वृत्तियाँ अहं-वृत्ति का ही प्रकार हैं।
धारणा के रहने तक अज्ञान का और अज्ञान के रहने तक धारणा का आभासी अस्तित्व बना रहता है। यह दुष्चक्र तभी विलीन होता है जब विचार को विचारकर्ता,और विचारकर्ता को विचार की तरह, एक ही वस्तु की तरह देख लिया जाता है।
"देखना" (Awareness) कर्म नहीं स्वभाव है।
इतना कहकर महर्षि मौन हो गए।
***
No comments:
Post a Comment