"विचार" कहाँ से आता है?
सूर सूर तुलसी ससी उडुगन केसवदास।
अब के कवि खद्योत सम जहँ तहँ करैं प्रकास।।
हिन्दी कविता की परम्परा में यह उक्ति प्रसिद्ध है। सरल सा अर्थ यह कि सूरदास जी हिन्दी कविता के आकाश में सूर्य की तरह हैं, गोस्वामी तुलसीदास चन्द्रमा की तरह हैं, और शेष दूसरे सभी अब तक के कवि मानों आकाश में चमकते नक्षत्र और तारे आदि हैं, जबकि आज के समय के कवि जुगनुओं की तरह कविता की ज्योति यहाँ वहाँ फैलाते रहते हैं।
अध्यात्म के क्षेत्र में भी शायद यही कहा जा सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता मानों सूर्य है, रामायण, श्रीमद्भभागवत् मानों चन्द्रमा हैं और दूसरे ग्रन्थ मानों विविध नक्षत्र और तारे हैं, जबकि आज के समय के आध्यात्मिक विद्वान मानों जुगनूओं की तरह यहाँ वहाँ, सर्वत्र आध्यात्मिक प्रकाश फैलाते हैं।
ऐसे ही एक आधुनिक आध्यात्मिक मार्गदर्शक विचारक का उल्लेख करते हुए उस व्यक्ति ने यह जिज्ञासा मुझसे की और यह भी कहा कि उस आधुनिक आध्यात्मिक मार्गदर्शक विचारक ने इस बारे में क्या कहा।
समस्त आध्यात्मिक ज्ञान मूलतः इन रूपों में हो सकता है -
1 परंपरा से प्राप्त किया गया मान्यता रूपी कामचलाऊ ज्ञान जो सामाजिक आचरण और व्यवहार की मर्यादा के रूप में होता है और अलग अलग स्थानों, रीति रिवाजों, संस्कृतियों के अनुसार तय किया जाता है।
2 बौद्धिक और वैचारिक ज्ञान जो किसी न किसी प्रकार का कोई दार्शनिक सिद्धांत होता है और ऊहापोहपरक होता है, जिसमें एक विचार को छोड़कर दूसरे विचार को महत्व दिया जाता है। इस ऊहापोहपरक और अंतहीन क्रम को "चिन्तन-मनन" कहा जाता है। किन्तु फिर भी कभी कभी किसी अज्ञात कारण से जब यह "चिन्तन-मनन" सही दिशा में प्रवृत्त हो जाता है तो ध्यान इस प्रश्न और जिज्ञासा पर आ सकता है कि "नित्य" क्या है, और "अनित्य" क्या है? दूसरे शब्दों में तब जो अन्वेषण किया जाता है वह अस्तित्व के आभासी / परिवर्तनशील और उसके अपरिवर्तनशील आधारभूत स्वरूप के संबंध में होने लगता है।
चित्त, मन, संसार, और चेतना
Intellect, Mind, World and
The Consciousness
चित्त विचार है, विचार की बुद्धि से प्रेरित गतिविधि मन है और संसार, इस गतिविधि में अनुभव होनेवाली वस्तु है।
इस पूरे घटनाक्रम की आधारभूत अचल अपरिवर्तनशील पृष्ठभूमि है चेतना।
(यहाँ पर -चित्त, मन, संसार और चेतना इन चारों शब्दों का तात्पर्य उनके लिए प्रयुक्त और ऊपर दिए गए अंग्रेजी शब्दों के पर्याय की तरह है।)
3 जिस आध्यात्मिक ज्ञान में "नित्य" और "अनित्य" के स्वरूप के बारे में अन्वेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि चेतना सबमें विद्यमान और उन सबसे विलक्षण, अछूती, और सबसे अप्रभावित रहनेवाली वास्तविकता है, और चित्त, मन और संसार आभास की तरह प्रतीत भर होते हैं और इसलिए समस्त आभासी अस्तित्व का निरसन कर दिया जाता है तो यह वृत्तिमात्र के "निरोध" की दशा होती है, जिसका उल्लेख पातञ्जल योगसूत्र के समाधिपाद में दूसरे सूत्र
"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।"
में पाया जाता है।
जब यह अन्वेषण एकाग्रतापूर्वक किया जाता है तो इसे ही "निदिध्यासन" कहा जाता है।
यदि "नित्य" क्या है और "अनित्य" क्या है इस बारे में पर्याप्त अन्वेषण किया जाता है तो स्पष्ट हो जाता है कि समस्त आभासी / परिवर्तनशील और आधारभूत तथा अपरिवर्तनशील वास्तविकता का बोध "जिसे" होता है, वही सत्ता शुद्ध चिन्मात्र चेतना है जिसमें विषयमात्र का निरसन हो जाता है और इसलिए विषयमात्र के ही साथ उसके पूरक विषयी का भी विलय हो जाता है।
अनुभव और अनुभवकर्ता युगपत्, साथ साथ ही प्रकट और विलीन होते हैं। किन्तु स्मृति के द्वारा आरोपित किए जानेवाले सातत्य के फलस्वरूप ही, और उसी एकमात्र कारण से "अनुभव" के "अनित्य" किन्तु "अनुभवकर्ता" के "नित्य" होने का भ्रम पैदा होता है।
और इसीलिए समस्त अनुभवपरक ज्ञान भी एक तरह का "आध्यात्मिक" ज्ञान हो सकता है, जिसमें "अनुभव" के क्रम पर आधारित "अनुभवकर्ता" के रूप में भूल से, अपने आपको "नित्य" मान लिया जाता है।
इसी पृष्ठभूमि में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ४ के प्रथम कुछ श्लोक उल्लेखनीय हैं
श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।
स एव अयं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।३।।
अर्जुन उवाच -
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।
श्रीभगवानुवाच -
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।६।।
4 आधारभूत अधिष्ठान के रूप में यह अपरिवर्तनशील आत्मा ही यह शुद्ध चेतना है। और यद्यपि "व्यक्ति" के अनेक जन्म होते हैं और साक्षीमात्र की तरह से आत्मा के भी ऐसे ही असंख्य जन्म होते हैं ऐसा कह सकते हैं, किन्तु इन सभी जन्मों को साक्षी ही जानता है न कि "व्यक्ति"।
इस प्रकार का ज्ञान भी आध्यात्मिक ज्ञान ही है और सर्वाधिक प्रामाणिक और विश्वसनीय भी है।
किन्तु अब हम अपने उस प्रारंभिक प्रश्न पर लौटें -
"विचार कहाँ से आता है?"
श्रीमद्भगवद्गीता में इस जिज्ञासा का समाधान निम्न रूप में प्राप्त होता है -
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोपजायते।।
क्रोधात्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
पुरुष ही "व्यक्ति" है जिसके अनेक जन्म होते हैं जिनमें व्यतीत समय में वह असंख्य अनुभवों का भोग करता है। इस प्रकार से एक काल्पनिक "अनुभवकर्ता" क्षण क्षण ही अस्तित्व में आता और विलीन होता रहता है और उसे ही चित्त में अपनी आत्मा की पहचान की तरह सत्य मान लिया जाता है।
उस पुरुष में विद्यमान चेतना / प्रकृति ही वह मूल प्रकृति / स्वभाव है, जिसमें पुरुष का ध्यान किसी विषय की ओर आकर्षित होता है और वह उस विषय से लिप्त हो जाता है। इसे ही पुरुष और प्रकृति का संयोग कहते हैं। किन्तु उत्तम पुरुष कभी इस प्रकार से किसी विषय से संलिप्त नहीं होता और प्रकृति ही उसके सान्निध्य से गुणों और कर्मों से सब प्रकार से कार्यरत प्रतीत होती है।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।
इस प्रकार
"विचार कहीं से न तो आता है और न ही कहीं जाता है, किसी भी विषय से चित्त (पुरुष) का संसर्ग होते ही और पुरुष के द्वारा उस पर ध्यान दिए जाने पर ही वह व्यक्त रूप में अनुभव होता है।"
अपेक्षा है कि कुछ श्लोकों के अध्याय और स्थान पाठक स्वयं ही खोज लेंगे।
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