प्रबिसि नगर कीजै सब काजा।
हृदय राखि कोसलपुर राजा।।
प्रश्न उत्तम है। कार्य शुभ है, सफलता प्राप्त होगी।
यह चौपाई गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस में उनकी एक रचना "रामशलाका प्रश्नावलि" के साथ पाई जाती है। प्रसंग हनुमानजी के द्वारा माता सीता की खोज करने के लिए लंका में प्रवेश करने के संबंध में है।
अंग्रेजी भाषा के ऐसे हजारों शब्द हैं जो मूलतः संस्कृत भाषा के किसी शब्द का अपभ्रंश हैं। हमें यह नहीं सिद्ध करना है कि विभिन्न भाषाएँ संस्कृत से ही निकली हैं या नहीं बल्कि यहाँ पर केवल संस्कृत और अंग्रेजी भाषा के बीच किसी संभावित साम्य के आधार पर कोई निष्कर्ष प्राप्त करना ही हमारा प्रमुख ध्येय है।
ऐसा ही एक शब्द है VISA
यह शब्द संस्कृत की विश् - विशति धातु से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है प्रवेश करना। एक देश से दूसरे देश में अल्पकाल या कुछ काल के लिए प्रवास करने के लिए प्रायः दो दस्तावेज चाहिए होते हैं - एक होता है - पासपोर्ट -
जिसकी विवेचना और व्युत्पत्ति भी संस्कृत मूल शब्द से की जा सकती है, किन्तु यहाँ अनावश्यक प्रतीत होने से ऐसा नहीं किया जा रहा है, क्योंकि ऐसा करना विषय से भटकना है।
पासपोर्ट जो उस देश की सरकार से प्राप्त दिया जाता है, जहाँ का कोई नागरिक किसी कार्य के लिए विदेश जाना चाहता है। दूसरा उस दूसरे देश से प्राप्त करना होता है, जहाँ यह व्यक्ति किसी कार्य के लिए जाना चाहता है, इसे "वीसा" कहते हैं।
ऐसा ही एक शब्द हैं - funeral, जो अरबी के 'दफ़न' का अपभ्रंश है। "दफ़न" शब्द स्वयं ही संस्कृत भाषा के "दहन" का अपभ्रंश है। सनातन वैदिक ज्ञान की परंपरा के अनुसार जब तक पञ्चतत्वों से बने इस शरीर का विधिपूर्वक दहन नहीं कर दिया जाता है, तब तक इस शरीर को "अपना" समझनेवाले "जीव" की अंतिम और पूर्ण मुक्ति संभव नहीं होती है, क्योंकि पृथ्वी, वायु और जल तो जीव की मृत्यु होते ही अपने अपने महाभूतों में मिल जाते हैं, आकाश कहीं आता जाता नहीं, इसलिए उसकी मुक्ति होने का प्रश्न ही नहीं है, शेष बचा अग्नि, जो पञ्चप्राणों की शक्ति के रूप में जीव-चेतना के साथ बँधा होता है। सनातन धर्म, वैश्विक होने से यह सर्वत्र ही सदा से प्रचलित रहा है। जिन स्थानों पर जल की कमी या अत्यधिक शीत होने के कारण अग्नि प्रज्वलित करना कठिन होता है, जहाँ पर शव का दहन परिस्थितियों के कारण संभव नहीं हो पाता है, वहाँ दाह-संस्कार न कर उसे भूमि में समाधि (bury) दे दी जाती है, और तब प्रकृति की अपनी प्रक्रिया के अनुसार समय के साथ अग्नि भी धीरे धीरे अग्नि महाभूत में मिल जाता है और जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। अंग्रेजी भाषा का शब्द bury भी मूलतः संस्कृत भाषा के पृ - पूर्ति / पूरयति का अपभ्रंश है। तात्पर्य यह है कि "funeral", जो "दफ़न" का, और "दफ़न", जो कि "दहन" का पर्याय है, तात्कालिक रूप से अंत्येष्टि का औपचारिक विधान है, ताकि प्राकृतिक प्रक्रिया के माध्यम से, या विधि-विधान से बाद में "अस्थियों" को किसी नदी या जल के किसी अन्य प्राकृतिक स्रोत में प्रवाहित कर दिया जा सके। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि तथाकथित "महाप्रलय" के समय महा-जलप्लावन के समय सभी कुछ स्वयं ही जल में विलीन हो जाता है।
मृत्यु, काम और मुमुक्षा
जिन दिनों भारत में सरकार द्वारा "आपात्काल" लगाया गया था, तत्कालीन साप्ताहिक पत्रिका "दिनमान" या "रविवार" में एक लेख प्रकाशित हुआ था जो उस समय के आनन्द-मार्ग नामक संगठन के संबंध में था। उस लेख को लिखने और प्रकाशित करने के पीछे किसके या कौन से प्रयोजन थे इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है, किन्तु उसमें जिस प्रकार से मनुष्य और प्राणिमात्र में भी विद्यमान "मृत्यु-कामना" / Death-wish को आधार बनाया गया यह जानना रोचक है।
उपरोक्त रेखांकित तीन शब्द ईश्वरीय संकल्पना के प्रकृति में अभिव्यक्त प्रकार मात्र हैं।
स अकामयत
ईश्वर के रूप में जो स्रष्टा है उसमें ही कामना उत्पन्न हुई - सृजै कि (मैं) सृष्टि करूँ।
ऐतरेय उपनिषद् में इसका अद्भुत् विवरण है।
यह कामना ही "जीव" के रूप में अभिव्यक्त हुई और जब तक यह अपूर्ण रहती है, "जीव" उस कामना को पूर्ण करने का प्रयास करता ही रहता है। इसी कामना से बाध्य या प्रेरित होकर वह प्राकृतिक रीति से प्रजनन के लिए प्रवृत्त होता है और इसीलिए इस कार्य में संलग्न होने पर उसे क्षण भर के लिए मुक्ति की प्रतीति होती है। स्खलन (Sexual Discharge) के समय यही तो होता है। इसलिए प्रजनन की क्रिया में भी क्षणिक मुक्ति तो (प्रतीत) होती ही है और यही कुंठित और विकृत हो जाने पर समलैंगिकता का रूप भी ले सकती है। और यही विकृत, वीभत्स और कुत्सित होकर एक दुष्चक्र का रूप भी ले लेती है, किन्तु वह अवश्य ही अंतहीन दुर्भाग्य और चरम विनाश का ही रास्ता होता है। क्योंकि फिर यह आगे चलकर संतति में भी गुणसूत्रीय उत्परिवर्तन / (Genetic Mutation) का कारण बन जाता है। अभी शायद इसे "अनुमान" कहा जा सकता है, किन्तु आज के समय के वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक शोधों की मर्यादा यहीं तक है। मनुष्य में यही मुक्ति-कामना, जो कि मृत्यु-भय और मृत्यु के आकर्षण की रोमांचकता के चरम तक पहुँच जाती है वस्तुतः तो मुमुक्षा के ही भिन्न भिन्न प्रकार मात्र होते हैं, यह सोचना गलत नहीं हो सकता।
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