May 03, 2025

May 19, 2025

तू चल, मैं आया!

पतञ्जलि कृत योगसूत्र समाधिपाद के अनुसार :

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

और,

अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।।१०।।

वृत्ति अर्थात् मनोदशा, जो उपरोक्त पाँच प्रकारों की या उनसे मिली-जुली कोई स्थिति होती है। जैसे संगीतबद्ध किसी गीत में स्थायी और अन्तरा होते हैं और किसी भी शास्त्रीय राग में एक श्रुति आधारभूत होती है, उसी तरह किसी भी मनोदशा में सब कुछ यद्यपि सतत ही बदलता रहता है, किन्तु उस सब परिवर्तन के बीच 'अपने होने' की भावना अप्रकट और अविच्छिन्न रूप से विद्यमान होती ही है। 'सब कुछ' मुझे या मेरे इर्द-गिर्द होता है, यह तो निर्विवाद और असंदिग्ध रूप से स्पष्ट होता है किन्तु जो कुछ भी होता है उसे किसी न किसी 'वृत्ति' के सहारे से ही 'जाना' जाता है। जैसे - मुझे डर लग रहा है, मुझे यह कार्य करना है या कि नहीं करना है, करना या नहीं करना चाहिए, मेरा 'मन' शान्त, उद्विग्न, प्रसन्न, चिन्तित, व्याकुल, भयभीत, आदि है, मुझे भूख, प्यास, गर्मी, शीत या घबराहट हो रही है, मैं जानता हूँ, नहीं जानता, मेरी बुद्धि काम कर रही है या नहीं कर रही, मैं समझ पा रहा हूँ या नहीं समझ पा रहा ... इन सभी अनुभवों में जिस वस्तु का उल्लेख "मैं" की तरह से किया जाता है वह यूँ तो असंदिग्ध रूप से निर्विवाद एक तथ्य होता है और प्रत्येक ही मनुष्य स्वयं को अनायास ही "मैं" के अर्थ में उस अनुभव का भोक्ता होते हुए भी ऐसे समस्त अनुभवों के बीच अपरिवर्तनशील "अनुभवकर्ता" के रूप में अपने आपको पहचानता भी है, और उसकी अभिव्यक्ति करना उसकी व्यावहारिक आवश्यकता भी हो सकती है, फिर भी इस विषय में सुनिश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकता। केवल स्मृति नामक वृत्ति के सहारे ही वह उस समय की कल्पना कर सकता है, जिसे वह 'अतीत' का नाम देता है और 'अनुमान' नामक वृत्ति के सहारे ही 'भविष्य' नामक किसी स्थिति की कल्पना कर सकता है। और जिसे वह 'वर्तमान' कहता है उसे यद्यपि वस्तुतः "जी रहा" होता है, किन्तु उसकी 'पहचान' कर पाना उसके लिए असंभव ही होता है। और ऐसी कोई भी 'पहचान' बनाने के लिए उसे "मैं" नामक कल्पना का आधार लेना आवश्यक हो जाता है। इस प्रकार, कल्पना, अनुमान, पहचान, स्मृति, अतीत और भविष्य केवल 'मन' की सतत बदलती स्थितियों के ही भिन्न भिन्न रूप होते हैं और जिसे "मैं" नामक वस्तु या व्यक्ति के रूप में स्वयं की तरह स्वीकार कर लिया जाता है, वैसे किसी वस्तु या व्यक्ति की सत्यता संदिग्ध ही है।

जो कुछ होता हुआ प्रतीत होता है, वह सब घटनाक्रम या "अनुभव" यद्यपि निरन्तर ही बनता और बदलता रहता है किन्तु इस सबके बीच "मैं" या "स्वयं" नामक कल्पित "भोक्ता", "अनुभवकर्ता", और उस या किसी भी दूसरे अनुभव को "जाननेवाला" न तो बनता है और न मिटता ही है, किन्तु उसका ही उल्लेख "अपने आप" की तरह करना औपचारिक रूप से आवश्यक होने पर भी तथ्य की तरह सत्य नहीं हो सकता है।

जैसा कि "मैं" के विषय में ऊपर कहा गया, ठीक वैसा ही तथाकथित "संसार" के बारे में भी अक्षरशः सत्य है।

इसलिए न तो "मेरा" और न ही "संसार" का ऐसा कोई अतीत या भविष्य हो सकता है जिसे परिभाषित किया जा सके, तो फिर उसका आकलन करना तो और भी दूर की बात है।

किन्तु जिस भौतिक संसार की पहचान अतीत में संचित स्मृति के अंतर्गत की जाती है, उसके भविष्य की सत्यता भी "भौतिक विज्ञान" के माध्यम से तात्कालिक तौर पर स्वीकार की जा सकती है। इसका सरल सा उदाहरण है सूरज का उगना और डूब जाना। यह शुद्धतः वैज्ञानिक अकाट्य और निर्विवाद सत्य है। इसी प्रकार से विभिन्न "ग्रहों" और आकाशीय पिण्डों के पुनरावृत्तिपरक गति के अवलोकन से और उससे घनिष्ठतः संबद्ध प्रकृति के कार्य से "संसार" की विभिन्न गतिविधियों और घटनाक्रमों के बीच किसी क्रम (pattern) के होने का अनुमान किया जा सकता है। यद्यपि ऋषियों के मतानुसार यह समस्त प्रकृति, मनुष्य और संसार भी एकमेव "चेतन" अस्तित्व है, किन्तु यह भी सत्य है कि यह अस्तित्व फिर भी किसी भी घटनाक्रम से अप्रभावित रहता है और वस्तुतः न तो किसी जगत्, संसार, मनुष्य या मनुष्य की तरह अपनी विभिन्न "चेतन" अभिव्यक्तियों को प्रभावित करता है न उनसे प्रभावित ही होता है।

समस्त भौतिक विज्ञान और ज्योतिष-शास्त्र के अंतर्गत की जानेवाली सभी व्याख्याएँ "विपर्यय" और "विकल्प" के ही उदाहरण मात्र हैं और उनकी सत्यता सदैव संदिग्ध ही है।

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